रविवार, 28 फ़रवरी 2016

‘हमें न्यायालय में पूरी आस्था है !’


कन्हैया को बंदी बने पंद्रह दिन बीत गये हैं।

उसे जब गिरफ्तार करके दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत में पेश किया गया और कुछ गुंडा वकीलों ने उस पर और पत्रकारों पर हमला किया तब सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करके पटियाला हाउस अदालत की सुनवाई को रुकवा दिया था। सुप्रीम कोर्ट के इस हस्तक्षेप से ऐसा लगा था कि जैसे वह कन्हैया, एक नागरिक के प्रति हो रहे प्रकट अन्याय के प्रति अपनी संवेदनशीलता का परिचय दे रहा है।

लेकिन दो दिन बाद, जब पूर्व एडवोकेट जैनरल सोली सोरबजी ने सुप्रीम कोर्ट में कन्हैया की जमानत की अर्जी पेश की तब सुप्रीम कोर्ट की पूर्व की संवेदनशीलता पर न्याय प्रक्रिया की परंपरा और शील का प्रश्न भारी साबित हुआ। कन्हैया की अर्जी को अस्वीकारते हुए निर्देश दिया गया कि वह इस प्रकार, अब तक के स्वीकृत कायदों का उल्लंघन करते हुए सीधे अपने हाथ में इस मामले को नहीं ले सकता। इससे एक गलत संदेश जायेगा कि नीचे की अदालतें नागरिक को न्यायिक सुरक्षा प्रदान करने में असमर्थ है। इसीलिये कन्हैया को दिल्ली हाईकोर्ट में अर्जी देने के लिये कहा गया।

इसप्रकार, न्याय से ज्यादा महत्वपूर्ण होगई न्याय की प्रक्रिया। शास्त्र की आत्मा ज्ञान से निकल कर कर्मकांड में प्रविष्ट हो गई !

बहरहाल, दिल्ली हाईकोर्ट में कन्हैया की अर्जी लगाई गई। इसीबीच, दिल्ली पुलिस का जो कमिश्नर खुले आम कह रहा था कि वह कन्हैया की जमानत का विरोध नहीं करेगा, अचानक उसने अपने चरित्र के अनुसार रंग बदल लिया। जेएनयू के और दो छात्रों ने आत्म-समर्पण किया और उनके साथ बैठा कर पूछ-ताछ करने के नाम पर कन्हैया को फिर जेल से उठा कर एक दिन के लिये पुलिस थाने में रखा गया। जहां तक जेल हिरासत का सवाल है, कहते हैं कि देशद्रोह का अभियुक्त होने के नाते उसे उसी सेल में रखा गया है जिसमें फांसी के पहले अफजल गुरू को रखा गया था।

अर्थात, कन्हैया न सिर्फ हिरासत में है, बल्कि वह बाकायदा सजा की तमाम यातनाओं को भी भोग रहा है। सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप और कानून की प्रक्रिया के प्रति निष्ठा कन्हैया को इस अन्याय और यातना से बचाने के मामले में अब तक कुछ नहीं कर पाए हैं।

कल, सोमवार को, हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई होगी। इसके परिणाम के बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कहना मुश्किल ही लगता है। कौन जाने, सरकार और पुलिस उसे देश का नम्बर एक दुश्मन बताने के लिये कौन सी नई कहानी तैयार कर लें ! उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा की ऐसी-ऐसी धाराएं जड़ दें कि उसे जमानत देना अदालत के बूते के बाहर की बात हो जाए। देश की बाकी जनता को आज्ञाकारी पशु बने रहने का संदेश देने के लिये एक साधारण नागरिक के खिलाफ राज्य की पूरी शक्ति को यदि झोंक दिया गया तो कोई क्या कर सकता है !
सचमुच, आज चिड़ियों और एक बहेलिये की कहानी याद आती है। चिडि़यों ने यह सीख लिया था कि बहेलिया आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, लेकिन हम फंसेंगे नहीं। इसके बावजूद, जब बहेलिये ने जाल बिछाया तो इसी सीख को रटते-रटते सारी चिड़ियाएं उस जाल में फंसती चली गई।

हमारे नागरिक समाज में भी लोग ‘हमें न्यायालय में पूर्ण आस्था है’ रटते-रटते ही न्यायिक प्रक्रिया की जटिलताओं के जाल में फंस कर नाना प्रकार की सजाएं भुगतते रहते हैं। जैसे आज कन्हैया भुगत रहा है। यही हमारी नियति है ।

हम भी यही कहेंगे - हमें न्यायालय में पूरी आस्था है।

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