मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

विचारशून्यता की खाई में कार्यकर्ता


अरुण माहेश्वरी


आरएसएस की हमेशा से एक मूलभूत अवधारणा है कि भारत में हिंदू ही राष्ट्र है, और हिंदू भी सिर्फ वे हैं जो आरएसएस के साथ हैं। आरएसएस के सिद्धांतकार और प्रमुख सरसंघचालक गोलवलकर कहा करते थे कि हिंदुस्थान में राष्ट्र का अर्थ ही हिंदू है। गैर-हिंदुओं के लिये यहां कोई स्थान नहीं है। इस मामले में वे पूरी तरह से हिटलर के इस फार्मूले को मान कर चलते थे कि ‘‘मूलगामी विभेद वाली संस्कृतियों के बीच कभी मेल हो ही नहीं सकता।’’ उनकी साफ राय थी कि गैर-हिंदू इस देश में रह सकते हैं लेकिन सीमित समय तक और बिना किसी नागरिक अधिकार के। उनके शब्दों में -‘‘विदेशी तत्वों के लिये सिर्फ दो रास्ते खुले हैं, या तो वे राष्ट्रीय जाति के साथ मिल जाएं और उसकी संस्कृति अपना लें या जब तक राष्ट्रीय जाति अनुमति दे तब तक उनकी दया पर रहें और जब राष्ट्रीय जाति कहे कि देश छोड़ दो तो छोड़ कर चले जाएं। यही अल्पसंच्यकों के बारे में आजमाया हुआ विचार है। यही एकमात्र तर्कसंगत और सही समाधान है।’’ (एम.एस.गोलवलकर, वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 47.48)

यह है राष्ट्र और राष्ट्रवाद के बारे में आरएसएस की मूलभूत, हिटलर के विचारों से प्रेरित विचारधारा। कहा जा सकता है - आरएसएस का सत्व। बाद के इतिहास में हिटलर का जो जघन्य रूप दुनिया ने देखा और खुद उसकी जो दुर्गति हुई, इसीके चलते आरएसएस और उसका संघ परिवार अपने विचारों के इस ‘शुद्ध’ रूप पर नाना प्रकार के मुलम्मे चढ़ाते रहने के लिये मजबूर होता रहा है। लेकिन यह सच है कि इन्हें जब भी थोड़ी सी अनुकूल परिस्थितियां दिखाई देती है, ये अपने इस मूल रूप की झलक देने से बाज नहीं आते हैं। भारत में सांप्रदायिक दंगों के इतिहास से लेकर, बाबरी मस्जिद को ढहाने और 2002 के गुजरात दंगों, मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस के विस्फोटों की तरह की आधुनिक भारत की सबसे शर्मनाक घटनाओं में संघपरिवार के लोगों की भूमिका कोई छिपी हुई बात नहीं है।

बहरहाल, 2013 में जबसे मोदी जी की सरकार बनी है, संघ परिवार के लोग इस अनुकूल वातावरण में फिर एक बार अपने मूल, दिगंबर रूप में सामने आने के लिये मचलने लगे है। उनकी इधर की तमाम गतिविधियों से, लेखकों-कलाकारों की हत्याओं से लेकर उन्हें अपमानित करने और बीफ की तरह के मुद्दों को उछाल कर मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने,  हर विरोध करने वाले को पाकिस्तान चले जाने की धमकी देने से लेकर उनके नेता, मंत्री तक रोजाना ऐसी-ऐसी बाते कहते हैं जिनकी एक स्वतंत्र, जनतांत्रिक और धर्म-निरपेक्ष देश में आसानी से कल्पना भी नहीं की जा सकती है। अब फिर एक बार ऐसी स्थिति बन गई है जब आरएसएस के विचार महज कोई विचार, आदमी के अंतर की चीज भर नहीं, बल्कि एक ठोस सचाई बन रहे हैं। सत्ताधारियों द्वारा क्रमश: संघ परिवारियों के अलावा बाकी पूरे देश को देशद्रोही, राष्ट्र-विरोधी करार दिया जा रहा है !

हम जानते हैं कि जब भी कोई विचार इस प्रकार से अति क्षुद्र अर्थों में ठोस रूप लेने लगता है, तब वह बेहद सिकुड़ कर अपने साथ विचारशून्यता की गहरी खाई भी पैदा करता है - एक ऐसी खाई जिसमें आदमी के अंतर की बाकी सारी चीजें गुम हो जाया करती है। उस क्षुद्र व्यवहार के अलावा जो कुछ बचा रहता है वह है - विचारशून्यता की एक गहरी, अंधेरी खाई - उस घनघोर अंधेरेपन का आतंक और संभवत: कुछ दुराग्रही लोगों के लिये ऐसी अंधेरी खाई का आकर्षण भी! ऐसी स्थिति से जुड़े आदमी के लिये वास्तव में यह एक ऐसी भंवर में फंसने की तरह है, जो उससे उसके विचारवान मनुष्वत्व के बोध को छीन कर, उसे खींच कर उसके अपने चरम पतन के तल तक ले जाती है।

इस बात को आरएसएस और संघ परिवार की विचारधारा के संदर्भ के बजाय दूसरे संदर्भों में भी अच्छी तरह से समझा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर, कार्ल मार्क्स ने मानव इतिहास के विश्लेषण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला था कि वर्ग-संघर्ष इतिहास की एक प्रमुख चालिका शक्ति है। इसीलिये, इतिहास की इस गति में सचेत भूमिका अदा करने के लिये कम्युनिस्ट पार्टियां वर्ग संघर्ष को तेज करने के उद्देश्य से उत्पीडि़त जनों को संगठित करने और उनकी अधिकार चेतना को बढ़ाने के कामों पर बल देती है। लेकिन दुनिया के कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में यह सचाई बार-बार दिखाई दी है कि अक्सर वर्ग संघर्ष के इस विचार पर अमल करते हुए ‘वर्ग शत्रु’ के सफाये के नाम पर उग्रवादी समूह हत्याओं और लूट-खसोट की राजनीति का रास्ता पकड़ लेते हैं। पार्टी के अंदर के विरोधियों के सफाये तक के लिये इसका प्रयोग किया जाने लगता है। इसे ही कहते हैं इतिहास के अंतर को चालित करने वाले एक विचार को क्षुद्र प्रकार की ठोस कार्रवाई में सिमटा देना। यह विचार पर अमल के नाम पर विचारशून्यता की गहरी अंधेरी खाई को पैदा करने के समान है। और जाहिर है कि इसकी भंवर में फंसा हुआ आदमी अपने विचारवान मनुष्यत्व को गंवा कर सबसे पतित, यहां तक कि हत्यारे, षड़यंत्रकारी का रूप ले सकता है।

इस बात को साहित्य के एक और उदाहरण से भी समझा जा सकता है। नोबेलजयी गैब्रियल गार्सिया मार्केस के जिस उपन्यास ‘वन हंड्रेड ईयर्स आफ सालिच्यूड’ को नोबेल पुरस्कार दिया गया, मार्केस ने करोड़ों डालर के प्रस्तावों को भी ठुकरा कर भी उस उपन्यास पर कभी कोई फिल्म नहीं बनने दी। मार्केस का कहना था कि मैं अपने पात्रों को, खास तौर पर उसकी दादी उर्सुला को, जिसे उपन्यास की नायिका भी कहा जा सकता है, किसी सोफिया लॉरेन या अन्य नायिका की सूरत प्रदान नहीं कर सकता। उर्सुला इस उपन्यास में न जाने कितने-कितने सालों तक जी रही होती है और एक ऐसा चरित्र है जिसके साथ स्पेन के सुदूर गांवों से लेकर लातिन अमेरिका के गांवों तक के लोग अपने अनुभवों को जोड़ लेते हैं। ऐसे में, जैसे ही उसे कोई एक ठोस रूप दिया जायेगा, उसका यह सार्विक आकर्षण हमेशा के लिये खत्म हो जायेगा।

कहना न होगा, आज मोदी शासन में, एक के बाद एक, लगातार अल्पसंख्यकों, दलितों, छात्रों, बुद्धिजीविायों को हमले का निशाना बना कर और सभी भाजपा-विरोधियों को बार-बार राष्ट्र-विरोधी करार कर संघियों के लिये पतन की ऐसी ही एक भंवरनुमा खाई तैयार की जा रही है। इसमें फंसे हुए संघ परिवार के तमाम लोग अभी चरम नफरत के साथ सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों पर भी जिस गंदी जुबान में, भद्दी-भद्दी गालियों के साथ बातें कर रहे हैं, वह इसी सचाई को जाहिर करता है। परिस्थति ने राजनीतिक कार्यकर्ताओं के एक तबके की सूरत को गालियां उगलने वाले उन्मादित लोगों की सूरत में बदलना शुरू कर दिया है।

पता नहीं ये लोग कैसे फिर मनुष्य के अंतर के साथ, उन्माद की दशा से निकल कर अपने होशों-हवास में लौटेंगे!


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