शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

‘‘यह अंधेरा ही आज के टीवी की तस्वीर है’’



http://www.ndtv.com/video/player/prime-time/prime-time-that-we-can-hear-what-we-say/404451

क्या जुल्मतों के दौर में भी गीत गाये जायेंगे ?
हां, जुल्मतों के दौर के ही गीत गाये जायेंगे!

बर्तोल्त ब्रेश्त की ये अमर पंक्तियां जैसे आज हमारे सामने मूर्त हो गई थी जब आज सुबह की शांति में हमने इंटरनेट के जरिये रवीश कुमार के कल (19 फरवरी) के प्राइम टाईम के एपिसोड को देखा। देखा नही - बल्कि उसके कतरे-कतरे को पूरी तल्लीनता से पीया ; ठहर-ठहर कर, लगातार सोचते हुए उस संयत-संतुलित आवाज की ध्वनि के नाद को अपनी धड़कनों पर जीया।

भारत में अमिताभ बच्चन की आवाज को एक जादूई प्रभाव पैदा करने वाली आवाज कहते हैं। लेकिन सच की आवाज का जादू क्या होता है, आज इसे रवीश की आवाज से जाना।

जी पी देशपांडे का एक प्रसिद्ध नाटक है - आंधार यात्रा। यह रवीश कुमार की अंधेरे की यात्रा है, जगमग रोशनी के अंधेरे के खिलाफ घुप अंधेरे की रोशनी की यात्रा। एक काले स्क्रीन पर उभरते कुछ शब्द और आदमी को अंदर तक हिला देने वाली एक पटकथा के वाचन की यात्रा। यह अंधेरा हमारे वर्तमान समय का अंधेरा है - खास कर टीवी के जगत का अंधेरा है। एक ऐसा अंधेरा जिसमें एंकरों के रूप में टीवी की दुनिया के सारे भूत, पिशाच, डायन, डाकिनों के साथ ही उल्लू और घुग्गु नाचा करते है - हॉ, हुआ करते-करते। जैसे सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया... और सबका सरदार - अर्नब गोस्वामी ! यह काला स्क्रीन ही टीवी जगत की सच्ची तस्वीर है।

रवीश कुमार के इस कार्यक्रम को मैं कोरी क्लासिक ऊंचाई का कार्यक्रम नहीं कहना चाहता। ‘क्लासिकल’ के साथ ढेर सारे भ्रमों और झूठों का बोझ जुड़ गया है। यह लगातार एक ही चीज को रटे जाने, दोहराये जाने का पर्याय बन गया है। प्राचीन काल से दोहराये जा रहे पाठों, रागों और धुनों का दोहराव - बस मामूली हेर-फेर के साथ। लेकिन रचनाशीलता इस दोहराव की पथरीली जमीन में पड़ने वाली दरारों से पैदा होती है। वह यथास्थिति के खिलाफ आदमी की संघर्षशीलता से पैदा होती है। रवीश की यह प्रस्तुति मनुष्य की इसी श्रेष्ठ रचनाशीलता का उदाहरण है।

हमें आज भी याद है सन् 1975 के आंतरिक आपातकाल की। निष्ठुर सेंसर अधिकारियों ने अखबार के पन्नों पर से रवीन्द्रनाथ तक को उड़ा दिया था। तब कई अखबार कई दिनों तक बिना किसी अक्षर या तस्वीर की सजावट वाले रिक्त स्थानों के साथ प्रकाशित हुए थे। उन दिनों हम माकपा के हिंदी साप्ताहिक ‘स्वाधीनता’ से जुड़े हुए थे। आपातकाल की घोषणा के ठीक बाद प्रकाशित हुए ‘स्वाधीनता’ के अंक के पहले पृष्ठ से लेकर अंदर के कई पृष्ठों पर खाली जगह छोड़ दी गई थी। ‘स्वाधीनता’ का वह अंक आज भी हमें उसके शब्दों-तस्वीरों से लदे हुए अंकों से कहीं ज्यादा प्रेरणादायी, और प्रिय भी लगता है।

कहना न होगा, सन् ‘75 के आंतरिक आपातकाल के दिनों में अखबारों के इसी रिक्त स्थान ने कल के रवीश कुमार के कार्यक्रम में अंधेरे का रूप ले लिया था। इसे हमारी स्मिृतियों से कभी कोई पोंछ नहीं सकेगा।

यह अंधेरा दौलतमंदों, ब्लैकमेलरों, बिकाऊ और अपराधी एंकरों की जकड़ में कसमसाते हमारे टेलिविजन के आभासी जगत में पसरे हुए अंधेरे की तस्वीर है।

अपने प्रत्येक मित्र से हमारा यह आंतरिक आग्रह है कि यदि आप आज भी एक बेहतरीन, स्वस्थ, संवेदनशील, न्यायपूर्ण और मानवीय समाज के निर्माण के प्रति अपनी आस्था को बनाये हुए हैं तो रवीश कुमार के इस कार्यक्रम के वीडियो को जरूर शेयर करें। इसे देश के कोने-कोने तक गूंजाएं, ताकि हमारे मन-मस्तिष्क, हमारी सोचने की ताकत पर छाये हुए टेलिविजन के जगत के अंधेरे को छांटा जा सके, इसके जघन्य एंकरों के सच को सब लोग जान सके, उन्हें धिक्कार सके, उनका परित्याग कर सके।

रवीश कुमार को इस शानदार स्क्रिप्ट और उसकी उतनी ही अर्थपूर्ण प्रस्तुति के लिये अशेष धन्यवाद। उनके इस कार्यक्रम को टीवी कार्यक्रमों के एक सर्वश्रेष्ठ कार्यक्रम के तौर पर हमेशा याद रखा जायेगा।  


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