-अरुण माहेश्वरी
कांग्रेस दल की बागडोर अंतत: पूरी तरह से राहुल गांधी के पास आ जा रही है । प्रारब्ध की तरह जो तय था वह अब सामने है । चंद दिनों में ही राहुल गांधी कांग्रेस दल के नये अध्यक्ष होने वाले हैं ।
मोदी और प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों के अनेक लोग इसे वंशवाद का एक उदाहरण कहने के हक़दार हैं, लेकिन हमारी राय में पूरे विषय को इतनी सरलता से नहीं देखा जाना चाहिए । सच यह है कि कल तक मोदी अपने तीन साल के शासन के मद में कांग्रेस-विहीन भारत का सपना देख रहे थे । कांग्रेस को दीमक और पता नहीं क्या-क्या कह रहे थे । और आज वे ही कांग्रेस के अंदर की इस पहले से ही लगभग सुनिश्चित घटना के सामने आने पर इतनी तीव्र प्रतिक्रियाएं क्यों कर रहे है ?
इसी प्रकार यह भी सच है कि पूरी भाजपा को मोदी-शाह की जुगल जोड़ी ने जिस प्रकार से अपनी जकड़बंदी में ले रखा है, वे जब आज कांग्रेस के अंदर जनतंत्र न होने की बात कहते है तो उस पर किसी को भी सिवाय हँसी के और कुछ नहीं आती है।
कांग्रेस अगर उतनी ही क्षयिष्णु होती कि मोदी-शाह गिरोह की फूँक से उड़ जाती तो कहना न होगा, कांग्रेस में क्या घट रहा है, क्या नहीं घट रहा है, मोदी को उसकी चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं पड़ती ।दुनिया की तमाम राजनीतिक पार्टियों के अंदुरूनी जनतंत्र के धोखे को आज सब जानते हैं । यहाँ तक कि इस मामले में सबसे विकसित अमेरिकी पार्टियों में भी पार्टी पर क़ब्ज़ा ज़माने की अलग-अलग गुटों की पैंतरेबाजियों से भी सभी वाक़िफ़ हैं। इसीलिये तथाकथित अन्तर्दलीय जनतंत्र का कोई राजनीतिक सार भी होता है, इसे मानने का कोई कारण नहीं रह गया है । यह वैसे ही है जैसे दिन में दस पोशाक बदलने वाले मोदी के खुद को चायवाला कहने का सिवाय जनता को बरगलाने के कोई राजनीतिक अर्थ नहीं है । जैसे कॉरपोरेट डेमोक्रेसी है ।
दरअसल ऐसे किसी भी विषय को जब आप ठोस राजनीतिक संदर्भ में पेश करते हैं, तभी उसका असली राजनीतिक तात्पर्य समझ में आता है ।
आज का राजनीतिक परिदृश्य क्या है जिसके संदर्भ में हमें इस विषय को देखना चाहिए ? मोदी सरकार के अब तक के कामों का लुब्बे लुबाब क्या है ? अगर इसे बिंदुवार गिनाये तो कहा जा सकता है —1. सत्तर साल में पहली बार रोज़गारों में कमी ; 2. विश्व भूख सूचकांक में पिछले एक साल में भारत तीन पायदान नीचे, पिछले तीन सालों में पैंतालीस पायदान नीचे ;3. जीडीपी में वृद्धि की दर तेजी से गिरी ;4. औद्योगिक विकास दर में भारी गिरावट; 5. कृषि उत्पादन में वृद्धि की दर में गिरावट ; 6. शिशु मृत्यु दर में तेजी से वृद्धि ।
और कहना न होगा ये सब नोटबंदी और जीएसटी की तरह के विवेकहीन क़दमों और खाद्य सुरक्षा कानून की अवहेलना की उपज है ।
मजे की बात यह है कि भारत की बढ़ती हुई दुर्दशा के बराबर अनुपात में मोदी के जश्न और उत्सवों में भारी वृद्धि होती गई है । नदियों के प्रदूषण में वृद्धि के साथ ही नमामि गंगे, नमामि नर्मदा की तरह के नमामि कार्यक्रमों की धूम मची हुई है। नोटबंदी और जीएसटी के अलावा लगभग साढ़े तीन साल मोदी ने विदेश यात्राओं और भाषणबाजियों में वृथा गँवाएँ हैं । झूठ का आलम यह है कि हाल के उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों में भाजपा के मतों में दस से बारह प्रतिशत की भारी गिरावट के बाद भी खुद मोदी गुजरात में घूम-घूम कर इसे अपनी भारी जीत बता रहे हैं ।
कहने का तात्पर्य यह है कि नरेन्द्र मोदी आज भारत में शासकीय राजनीति से जुड़ी तमाम बुराइयों के एक प्रतीक बनते जा रहे हैं । चूँकि आज भाजपा मोदी पार्टी हो गयी है, इसलिये वह जीए या मरे, मोदी के अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं है । अन्यथा सच यह है कि आज किसी भी कार्यक्रम में मोदी की उपस्थिति ही आम लोगों में एक प्रकार की वितृष्णा के भाव को पैदा करती है ।
आज यह सुनिश्चित है कि मोदी गुजरात में बुरी तरह से हारने वाले हैं और इसके साथ ही यह भी उतना ही तय है कि 2019 में इस जोड़ी के शासन का अंत हो जायेगा ।
कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर राहुल की ताजपोशी को इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है । चंद दिनों पहले प्रणब मुखर्जी की पुस्तक ‘द कोयलिशन ईयर्स 1996-2012’ के विमोचन समारोह में सीताराम येचुरी ने कहा था कि आजादी के बाद भारत में लगातार 30 साल तक एक पार्टी का शासन इसलिये बना रहा क्योंकि भारत स्वयं में एक विशाल गठजोड़ (coalition) है । कांग्रेस में वही प्रतिबिंबित हुआ था - सबसे बड़ा गठजोड़ । “हमारी तरह के एक इतने विविधतापूर्ण समाज और राजनीतिक व्यवस्था में आप राजनीतिक लिहाज से किसी अखंड राजनीतिक ढाँचे से नहीं चल सकते ।”
कांग्रेस दल के बारे में इस सबसे महत्वपूर्ण कथन को गहराई से समझने की जरूरत है । कांग्रेस दल अपनी तमाम बुराइयों और कमियों के बीच भी एक ऐसे वैचारिक परिप्रेक्ष्य को पेश करता है जिससे भारतीय समाज की सारी विविधता प्रतिबिंबित होती है। इसमें सर्वग्रासी समग्रता का वह आतंककारी सनक भरा रूप नहीं दिखाई देता जिसमें अन्यों के लिये कोई स्थान न हो । आज भी इसके मूल में स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों के व्यापकतम मंच का तत्व मौजूद है जो वंशवाद के लाख इल्ज़ामों के बावजूद जनतांत्रिक सोच के व्यक्ति के लिये आश्वस्तकारी दिखाई देता है ।
इसीलिये, आज मोदी जब वंशवाद वनाम विकासवाद की बात कहते हैं, उनका ‘विकासवाद’ कहीं ज्यादा आततायी और जनतंत्र-विरोधी नज़र आता है । मोदी के विकासवाद का चरम जन-विरोधी रूप लोगों ने उस समय देखा है जब वे पूरे देश को बैंकों के सामने लाइनों में खड़ा करके खिलखिला रहे थे ।
यह सही है कि मोदी के कामों के इस विभत्स रूप ने फिर एक बार कांग्रेस और उसमें भी राहुल गांधी के महत्व को काफी बढ़ा दिया है । मोदी शासन के इन चंद सालों के अनुभव के बाद सभी जनतांत्रिक ताकतों के लिये यह जरूरी है कि वे यह सुनिश्चित करे कि आगे की नई सरकार भारत के आम लोगों के जीवन में वास्तविक सुधार के कामों के ईमानदारी से कर सके ताकि मोदी-आरएसएस जैसे फासिस्टों को सत्ता से हमेशा के लिये दूर रखा जा सके । उसी के बीच से जनवादी आंदोलनों के विकास का भी कोई रास्ता निकलेगा ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें