(प्रभात पटनायक के लेख की प्रतिक्रिया में)
—अरुण माहेश्वरी
आज (20 दिसंबर 2017) के 'टेलिग्राफ' में प्रभात पटनायक का एक लेख छपा है — Marx and Naoroji (The clue to the puzzle of the “drain of wealth) । कहानीनुमा इस लेख में बताया गया है कि जिस मार्क्स ने अपने सबसे प्रमुख काम 'पूंजी' में कहीं उपनिवेशों की लूट से जमा की गई पूंजी का विशेष जिक्र नहीं किया है, और न ही 'न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून' की अपनी भारत-विषयक टिप्पणियों में धन की निकासी की कोई चर्चा की है, उन्होंने ही 19 फरवरी 1881 में रूस के नरोदनिक अर्थशास्त्री एन. एफ. डेनियलसन को लिखा कि “हर साल अंग्रेज भारतीयों से लगानों, रेलों के लाभांश, — जिन रेलों से भारतीयों को कोई लाभ नहीं पहुंचता, — सैनिक तथा असैनिक कर्मचारियों की पेंशनों, अफगानिस्तान की लड़ाई तथा अन्य लड़ाइयों के लिये खर्चों इत्यादि के रूप में भारी रकम वसूल करते हैं । इन रकमों के बदले भारतीयों को कुछ भी नहीं मिलता । ये रकमें उन रकमों से अलग है, जिनसे अंग्रेज भारत के अंदर हर साल अपनी जेबें भरते हैं । इस संबंध में पहले प्रकार की रकमों के मूल्य का ही — अर्थात केवल उस सामान के मूल्य का, जो भारतीयों को हर साल इंगलैंड में भेंट-स्वरूप भेजना पड़ता है, — उल्लेख कर देना काफी होगा । कुल मिला कर यह धन खेती-बारी और उद्योगों में काम करने वाले 6 करोड़ भारतीयों की कुल आय से अधिक है ! यह तो खून निचोड़ने वाली बात है ।”
पटनायक ने मार्क्स के इस कथन को, उनके तब तक के नजरिये की पृष्ठभूमि में 'चौंकाने वाला' (striking) कहा है और लेख का अंत इस बात पर किया है कि इसके मूल में दादा भाई नौरोजी से हुआ उनका संपर्क था जो संभवत: मार्क्स और नौरोजी, दोनों के साझा मित्र एच. एम. हिंडमैन के घर पर उनकी मुलाकात में हुआ होगा। और इस प्रकार, पटनायक ने अंग्रेजों के द्वारा भारत की लूट के बारे में मार्क्स की (अज्ञानतावश) उदासीनता के खत्म होने का इस लेख में राज खोला है !
मार्क्स उपनिवेशों की लूट के प्रति कितने सजग थे, कितने नहीं, इसके सारे तथ्यों को देकर हम अपनी इस टिप्पणी को बोझिल नहीं बनाना चाहेंगे । सोवियत काल में ही मास्को के विदेशी भाषा प्रकाशन गृह ने “उपनिवेशों के बारे में” शीर्षक से इस बारे में उनके विचारों का एक लगभग साढ़े पांच सौ पृष्ठों का संकलन तैयार किया था, जिसमें भारत-विषयक उनके सभी लेख भी शामिल हैं । इसमें शुरू में ही, 1853 से ही भारत के बारे में 'सर चार्ल्स वुड के ईस्ट इण्डियन सुधार' पर वे जिन विस्तृत तथ्यों के साथ कंपनी राज के शोषण का चित्र खींचते हैं, वह गौर करने लायक है । इसका प्रारंभ वे चार्ल्स वुड पर व्यंग्य के साथ करते हैं — “ 3 जून को सर चार्ल्स वुड ने भारत के शासन-संचालन का बिल पेश करने की अनुमति मांगी । अपने भाषण के शुरू में “विषय की व्यापक गंभीरता” और “15 करोड़ प्राणियों के भाग्य” की दुहाई देते हुए चार्ल्स वुड ने अपने लंबे-चौड़े भाषण के लिए माफी मांगी । भारतीय प्रजा के हर तीन करोड़ प्राणियों के पीछे चार्ल्स वुड एक एक घंटे बोलते रहे । इससे ज्यादा कुरबानी वह क्या करते ?”
'न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून' में प्रकाशित तथ्यों से भरपूर अपनी इस टिप्पणी का अंत वे इस बात से करते हैं — “1 करोड़ 98 लाख पौंड में से केवल 1 लाख 66 हजार 300 पौंड सड़कों, नहरों, पुलों तथा सार्वजनिक आवश्यकता के अन्य कार्यों पर खर्च किये गये।”
इसके अलावा मार्क्स कभी भी यह बताने से नहीं चूके थे कि “हिंदुस्तान पर जो मुसीबत अंग्रेजों ने ढायी है, वह उन सब मुसीबतों से बुनियादी तौर पर भिन्न और अधिक तीव्र है, जो हिंदुस्तान ने पहले उठायी थी ।”
ये सब बातें सन् 1853 की हैं, जबसे 'न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून' में मार्क्स की टिप्पणियां प्रकाशित हो रही थी । और डेनियलसन को लिखा हुआ पत्र उन टिप्पणियों के लगभग तीस साल बाद, 1881 का है । पटनायक 1853 के लगभग तीस साल बाद के पत्र में मार्क्स में भारत से धन की निकासी के तथ्य के बारे में हुए 'इलहाम' से चौंकते हैं और इस रहस्य के पीछे वे उन दादाभाई नौरोजी से उनके संपर्क की कहानी सुनाते हैं, जिन्होंने 1867 में धन की निकासी की बात कही थी !
सवाल उठता है कि प्रभात को ऐसा क्यों लगता है कि जो मार्क्स भारत विषयक औपनिवेशिक लूट के तथ्यों पर तीस साल पहले से ही लिखते रहे थे, उनमें अचानक 'धन की निकासी' की आत्मोपलब्धि नौरोजी के माध्यम से ही हुई ? खुद प्रभात के लेख से पता चलता है कि उनकी इस समझ के मूल में बीच के इन तीस सालों में मार्क्स का लेखन, खास तौर पर “राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना में अवदान” और “पूंजी” के तीनों खंड हैं जिनमें मार्क्स ने कहीं उपनिवेशों की लूट के विषय को यथेष्ट रूप में शामिल नहीं किया है । यद्यपि 'पूंजी' के प्रथम खंड के अंतिम आठवें भाग 'तथाकथित आदिम संचय' के अंतिम अध्याय-33 में 'उपनिवेशीकरण का आधुनिक सिद्धांत' में मार्क्स ने इस विषय को भी शामिल किया है, लेकिन शायद प्रभात इससे संतुष्ट नहीं है, इसीलिये उन्होंने मार्क्स की मृत्यु के सिर्फ दो साल पहले के, 1881 के पत्र और उसके पीछे काम कर रहे दादाभाई कनेक्शन का इतने महत्व के साथ यहां उल्लेख किया है ।
दरअसल, गहराई से देखने पर पता चलता है कि यहां समस्या मार्क्स के साथ जितनी नहीं है, उससे बहुत ज्यादा मार्क्स के इस दौर के प्रमुख लेखन के बारे में प्रभात पटनायक की समझ के साथ है । हमारा उनसे मूल सवाल है कि वे मार्क्स की 'पूंजी' को क्या समझते हैं ? क्या मार्क्स इसमें अपने काल का राजनीतिक-सामाजिक इतिहास लिख रहे थे ? या वे कुछ ऐसा काम कर रहे थे जिसके मसौदे की एक प्रारंभिक रूपरेखा को देख कर 9 अप्रैल 1858 के अपने एक पत्र में एंगेल्स ने उन्हें लिखा था — “तुम्हारी प्रथमार्द्ध की किश्त के सार (abstract) को पढ़ने में मुझे अच्छी खासी कसरत करनी पड़ी ; यह सचमुच बहुत गूढ़ सार है ।” (It is a very abstract abstract indeed) (MECW, vol.40, p.304)
मार्क्स की 'पूंजी' मूलत: एक द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दर्शनशास्त्रीय कृति है । इसे यदि कोई अपने समय की एक समग्र समाजशास्त्रीय, या ऐतिहासिक कृति की तरह पढ़ेगा तो वह इसमें ऐसी एक नहीं, अनेक तथ्यात्मक कमियों को ढूंढ लेगा । यह एक प्रकार से 'पूंजी' की अपने प्रकार की 'प्राणीसत्ता' का अध्ययन है । दर्शनशास्त्र में हमेशा विवेचन को मनुष्यों के आत्म के पक्ष पर, उसकी प्राणीसत्ता (being), चेतना (consciousness) पर केंद्रित किया जाता रहा है और भाववादी दर्शनशास्त्री उसे ही जीवन की भौतिक सत्ता पर लागू करके सर्वकालिक निष्कर्ष निकालते रहे हैं । दर्शनशास्त्री मूलत: अपनी प्राणीसत्ता के बारे में अनेक मूलभूत सवालों के उत्तर को पाने की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के बीच से मनुष्यों के आत्म-संसार और आत्म-विस्तार को अपना विषय बनाते हैं और फिर उसे ही समाज, इतिहास और संपूर्ण ब्रह्मांड पर घटित करते हैं । उनके विपरीत एक द्वंद्वात्मक भौतिकवादी मार्क्स ने मनुष्य के आत्म को नहीं, उसके भौतिक-आर्थिक संसार को, उसकी मूलभूत इकाई, पण्य के विशाल जगत को केंद्र में रख कर पूंजी और उसके आत्म-विस्तार को अपने विवेचन का विषय बनाया है । वे मानते हैं कि यदि पूंजी का आत्म-विस्तार नहीं है तो वह कुछ नहीं, शुद्ध अस्थि है । और इसी आत्म-विस्तार की प्रक्रिया के बीच से वे पूरे पूंजीवादी समाज के ताने-बाने की रचना के प्रक्रम को देखते हैं । वर्ग-संघर्ष का पहलू भी इसके सामाजिक-ऐतिहासिक स्वरूप के साथ सामने आता है, जो उसके आत्म-विस्तार के बीच से बनने वाले सामाजिक संबंधों में निहित होता है, उन द्वंद्वों का द्योतक जिनसे मनुष्य अपने आत्म-विस्तार के उपक्रम में नाना मूलभूत प्रश्नों के रूप में सम्मुखीन होता है । इसे ही एंगेल्स ने सामाजिक विकास के नियमों की पहचान कहा है ।
इसीलिये जब मार्क्स 'पूंजी' में उसके अपने तात्विक विकास के पक्षों का विवेचन करते हैं, तब पूंजी के आदिम संचय से लेकर उसके औपनिवेशिक लूट की तरह के विषय महत्वपूर्ण होने पर भी महज अनुषंगी विषय ही होते हैं । मार्क्स 'पूंजी' के प्रथम खंड के अंतिम 8वें भाग में 'तथाकथित आदिम संचय' शीर्षक के अधीन इसे तब अपने विचार का विषय बनाते हैं जब वे पूंजी के आत्म विस्तार को पूंजीवादी संचय के नियम के तहत विवेचित कर चुके होते हैं । इस 'तथाकथित आदिम संचय' के भाग में ही बिल्कुल अंत में वे उपनिवेशिक विषय पर भी दस पेज खर्च करते हैं ।
जाहिर है कि मार्क्स ने 'पूंजी' को लिखने की जो पूरी परिकल्पना तैयार की थी उसमें धन की निकासी के बारे में विस्तार के साथ तथ्यों को लाने का कोई विशेष कारण नहीं था, और इसीलिये उन तथ्यों को मार्क्स ने नहीं रखा था, न कि इसलिये नहीं रखा कि किसी भी कारण से दादाभाई नौरोजी से मुलाकात के पहले तक वे इन तथ्यों को नहीं जान पाए थे ! इस प्रकार का निष्कर्ष मार्क्स की 'पूंजी' के बारे में प्रभात पटनायक की उथली समझ को ही जाहिर करता है न कि मार्क्स की भारत की औपनिवेशिक लूट के बारे में जानकारी की कमी को ।
मित्रों की सुविधा के लिये हम यहां प्रभात पटनायक के लेख का लिंक साझा कर रहे हैं :
https://www.telegraphindia.com/opinion/marx-and-naoroji-194710
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें