आज 18 अक्तूबर 2017 के दिन जब 2015 की अपनी फेसबुक डायरी की यह भूमिका लिखने बैठा हूँ, 'टेलिग्राफ' अखबार में एक खबर प्रकाशित हुई है — Sex Worker’s identity out' (सेक्स वर्कर पहचानी गई) । लंदन की इस खबर में फेसबुक की इस बात के लिये निंदा की गई है कि उसकी 'People you know' (जिन्हें आप जानते हैं) सुविधा के कारण जो लोग अपनी पहचान को छिपा कर रखना चाहते हैं, वह भी जग-जाहिर हो जा रही है । खास तौर पर वैश्याओं और पौर्न स्टार्स को इससे भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है ।
इस खबर में कैलिफोर्निया की एक सेक्स वर्कर की कहानी है जो अपने काम और बाकी जिंदगी के बीच की पहचान को छिपा कर चलती थी । उसने पाया कि उसके ग्राहकों को फेसबुक की वजह से उसका असली नाम और वह कहां नौकरी करती है, उसके बारे में पता चल गया । और इसी प्रकार, दूसरे लोग भी जान गये कि वह सेक्स वर्कर भी है । इससे उसके लिये जो सबसे बड़ा खतरा पैदा हो गया है कि उसके ग्राहक अब नाहक ही उससे ब्लैकमेलिंग कर सकते हैं । उसने एक तकनीकी वेबसाइट 'गिजमोडो' से कहा कि “किसी भी सेक्स वर्कर के लिये इससे बड़ा दुःस्वप्न कुछ नहीं है कि उसकी असली पहचान का लोगों को पता चल जाए ; और तमाम लोगों को जोड़ने का दावा करने वाला फेसबुक मुख्य रूप से यही काम कर रहा है । हम जितना भी अपने को क्यों न छिपायें, कितने भी अलग-अलग फोन नंबर का प्रयोग क्यों न करें, उन्हें क्या हक है कि वे सब उजागर कर दें ?“
उसने इस बात पर भी संदेह जाहिर किया कि फेसबुक “उसके फोन के दूसरे ऐप्स अथवा उसकी मौजूदगी के स्थान के जरिये भी उसके बारे में जानकारी बटोर रहा है । उसके और उसके ग्राहक के फोन को एक जगह पाकर भी वह यह पता लगा लेता है कि अमुक समय में मेरे साथ कौन था ।“
इसी साल के जून महीने में मार्क जुकरबर्ग ने यह ऐलान किया था कि फेसबुक ने अपनी लोकप्रियता के एक नये शिखर को छू लिया है — सारी दुनिया में फेसबुक का प्रयोग करने वालों की संख्या 2 अरब तक पहुंच चुकी है ।
जिस सामाजिक नेटवर्क का निर्माण सन् 2004 में एक हार्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच आपसी संपर्क के लिये किया गया था, वह इतनी तेज गति से सारी दुनिया के लोगों के बीच फैल जायेगा, इसकी आज तक कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती है । और इससे भी बड़ी बात यह है कि हर बीतते दिन के साथ इसका इस्तेमाल करने वाले लोगों में इसपर निर्भरशीलता भी बढ़ती जा रही है । सन् 2012 में जब इसका इस्तेमाल करने वालों की संख्या 1 अरब पर पहुंची थी, तब फेसबुक द्वारा जारी किये गये तथ्यों के अनुसार ही, उनमें से 55 प्रतिशत लोग हर रोज उसका प्रयोग करते थे । अब जब उनकी संख्या 2 अरब पर पहुंच गई है, उनमें से 65 प्रतिशत लोग इसका हर रोज इस्तेमाल कर रहे हैं । हर साल इसका प्रयोग करने वालों की संख्या में 18 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है ।
इंटरनेट व्यापार के इस क्षेत्र में फेसबुक को टक्कर देने वाली दूसरी कंपनी है गूगल जिसके अभी मूल नाम Alphabet के पास यू ट्यूब आदि की तरह के जो उत्पाद है उनका प्रयोग करने वालों की कुल संख्या डेढ़ अरब हैं। फेसबुक के ही व्हाट्स ऐप, मैसेंजर, इंस्टाग्राम का प्रयोग करने वालों की संख्या क्रमशः 1.2 अरब, 1.2 अरब और 70 करोड़ है । ऐसा ही चीन का एक नेटवर्क ऐप है — We Chat । इसका उपयोग 88.9 करोड़ लोग करते हैं । इसीलिये तुलनात्मक रूप से आज की दुनिया में फेसबुक कारपोरेट जगत की सबसे बड़ी कंपनी मानी जाती है, बाजार में जिसकी कीमत अभी 445 अरब डालर कूती गई है ।
जुकरबर्ग ने जब फेसबुक की लोकप्रियता के ग्राफ के बारे में दुनिया को बताया, उसके साथ ही उसने फेसबुक के घोषित उद्देश्य में एक संशोधन की भी घोषणा की थी । पहले फेसबुक का उद्देश्य था — 'दुनिया को और ज्यादा खुला और संपर्कित (connected) बनाना' । उसी समय इस बात पर सवाल उठा था कि संपर्क में रहना स्वयं में किसी का लक्ष्य कैसे हो सकता है ? संपर्क के पीछे कोई न कोई कारण होता है । साधन को ही साध्य मानना तो एक प्रकार की अनैतिकता है । और आज, अमेरिकी चुनावों के बाद, यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि फेसबुक ट्रंप की जीत में सहायक बना, इससे अमेरिका को क्या मिला ? सिर्फ एक बुराई ही तो । इसीलिये संपर्क बनाने का साधन बनना मात्र किसी का कोई सही उद्देश्य नहीं हो सकता है ।
इस प्रकार की तमाम आलोचनाओं के चलते जुकरबर्ग ने अब फेसबुक के उद्देश्य को बदल कर इसे “आम लोगों को समुदाय बनाने की शक्ति प्रदान करना और दुनिया को एक-दूसरे के करीब लाना “ कर दिया है ।
हमारे सामने सवाल है कि जुकरबर्ग फेसबुक के घोषित उद्देश्यों में कुछ भी क्यों न जोड़े-घटाए, इससे उसके वास्तविक प्रयोग में क्या फर्क पड़ता है ? जैसा कि हमने शुरू में फेसबुक की वजह से एक सेक्स वर्कर की दुश्चिंता के संदर्भ में देखा, क्या फेसबुक के घोषित उद्देश्य में बदलाव करके उसकी इस दुश्चिंता को कभी दूर किया जा सकता है ? अथवा, ट्रंप की जीत के लिये इसका जिस प्रकार संगठित रूप से दुरूपयोग किया गया, भविष्य में ऐसा नहीं होगा, इसकी इस नई घोषणा से क्या कोई गारंटी मिलती है ?
यहीं से दिमाग में एक सवाल यह भी कौंधने लगता है कि आखिरकार यह फेसबुक बला क्या है ? हम इसका नियमित इस्तेमाल करते है, अपनी दिलचस्पी के विभिन्न विषयों पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिये, अपने लिखे को अपने चुनिंदा मित्रों तक पहुंचाने के लिये । इस मायने में हमने इसे अपने लिये बेहद उपयोगी पाया है। जब हमारी 2014 की फेसबुक डायरी प्रकाशित हुई थी, उसमें हमने उसके समर्पण के पृष्ठ पर लिखा था — “फेसबुक के अपने सभी सक्रिय मित्रों के लिए — इसने लेखनी पर परिस्थितियों के कई दबाव कम किए है / तोड़ी है संपादकों की तानाशाही / संगठनों की गोपनीय गिरोहबंदी / गैर-जरूरी अनुशासनों की फांस / इसने अभिव्यक्ति को नए पर दिए हैं / मुक्त आकाश में विचरण के पर “ ।
जाहिर है, यह हमारी एक नितांत निजी अनुभूति थी, एक लेखक के नाते हमारी अपनी प्राणी सत्ता से जुड़ी लेखनी के स्वातंत्र्य के भाव की अभिव्यक्ति । लेकिन किसी की निजी अनुभूति ही तो उसके किसी सार्वलौकिक सत्य में रूपांतरित होने का कारण नहीं बन सकती है ! इससे जुड़े अलग-अलग लोगों के अनुभव बिल्कुल अलग-अलग, बल्कि परस्पर-विरोधी हो सकते हैं और होते हैं — यह बात ऊपर कैलिफोर्निया की सेक्स वर्कर के अनुभव से ही साफ जाहिर होती है । जिसे हम अपनी मुक्ति के एक औजार के रूप में देख रहे है, वही उस सेक्स वर्कर के लिये जी का जंजाल बन गया है, उसका जीना ही मुश्किल बना दे रहा है ।
फेसबुक के प्रभाव के बारे में हाल में 'American journal of Epidemiology' में एक निरीक्षणमूलक अध्ययन प्रकाशित हुआ — 'Association of Facebook use with compromised well-being : A longitudinal study' ( जीवन में नाखुशी और फेसबुक : एक निरीक्षणमूलक अध्ययन) । इसमें शोधकर्ताओं की यह साफ राय थी कि लोग फेसबुक का जितना अधिक प्रयोग करते हैं, उतना ही ज्यादा जीवन में नाखुश रहते हैं । इसके विपरीत, वास्तविक जीवंत संपर्कों का आदमी को खुश रखने पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ता है ।
इसीलिये फिर यह एक मूल सवाल उठता है कि आखिर तत्वतः फेसबुक को हम किस प्रकार देखें, ताकि हम इसकी सीमाओं और संभावनाओँ के बारे में एक ज्यादा संगत और यथार्थ अवधारणा कायम कर सके ?
फेसबुक का एक सबसे बड़ा पहलू यह है कि यह हमारे प्रयोग की चीज होने के साथ ही अंततोगत्वा यह किसी के लिये उसके व्यापार और मुनाफे की चीज भी है । यह बाजार का एक ऐसा उत्पाद है जिसके हम एक प्रकार से ग्राहक है भी और नहीं भी है । ग्राहक के नाते हम इसका उपभोग करते हैं, लेकिन फेसबुक कंपनी को हम इसके उपयोग के लिये सीधे किसी प्रकार का कोई भुगतान नहीं करते हैं । और जब तक किसी चीज के उपभोग के लिये आपको कोई भुगतान नहीं करना पड़ता है, आपके जीवन में उसका स्थान पण्य की तरह का नहीं हो पाता है । फेसबुक के राजस्व का स्रोत इस उत्पाद का सीधा प्रयोगकर्ता नहीं है, बल्कि वे विज्ञापनदाता है जो फेसबुक में विज्ञापन दे कर अपने उत्पादों के लिये इसके जरिये ग्राहकों को खोजते हैं । ठीक वैसे ही जैसे वे अखबारों में विज्ञापन दिया करते हैं, फेसबुक के प्रयोगकर्ताओं की इतनी बड़ी संख्या देख कर फेसबुक पर भी विज्ञापन देते हैं । इस अर्थ में देखा जाए तो हम प्रयोगकर्ता भी फेसबुक नामक उत्पाद के ही एक घटक है । हम नहीं तो शायद इस फेसबुक का अस्तित्व भी नहीं रहेगा । इसे एक प्रकार का विशेष, हमारे समय और ध्यान को आकर्षित करके उसे ही अन्यों को बेचने का माध्यम कहा जा सकता हैं । लोगों का ध्यान खींच कर उन्हें कोई चीज बेचने की तरह का विज्ञापन का माध्यम ।
फेसबुक के इतिहास को देखने से पता चलता है कि जुकरबर्ग ने इसे हार्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच आपस में संपर्क में रहने के एक नेटवर्क के तौर पर शुरू में तैयार किया था । इसके बारे में और भी कई कहानियां कही जाती है, उनके विस्तार में जाने के बजाय, यहां इतना कहना ही काफी होगा कि बाद में इसका विस्तार इंगलैंड के आक्सब्रिज विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में यह कह कर हुआ कि इसके जरिये इन अलग-अलग विश्वविद्यालयों के छात्र एक दूसरे की गतिविधियों से, उनके बीच चर्चा के विषयों से परिचित हो पाते हैं । फेसबुक के निर्माण इसी मुकाम पर उसमें एक युगांतकारी मोड़ आया जब उसमें ऑनलाइन भुगतान की वैश्विक कंपनी 'पे पॉल' के पॉल थियेल की 5 लाख डालर की पूंजी का प्रवेश हुआ । सिलिकन वैली के इस बादशाह थियेल का कहना है कि उसने फेसबुक में अनोखे ढंग से अपने गुरू, अमेरिका स्थित फ्रेंच दार्शनिक रेने जिरां की एक स्थापना को मूर्त होते देखा था कि जब आदमी की खाने-पीने की मूलभूत जरूरतें पूरी हो जाती है, उसके बाद ही वह अपने चारों ओर देखना शुरू कर देता है और दूसरों के व्यवहार को देख कर वह उनकी एक प्रकार से नकल करने लगता है । “मनुष्य ऐसा प्राणी है जिसे खुद पता नहीं होता कि उसकी अपनी कामनाएं क्या है । अपनी कामनाओं को तय करने के लिये ही वह अन्यों की ओर देखता है, उनसे अपनी तुलना करता है और फिर उनकी नकल करता है ।“ ईसाई धर्म का अनुयायी होने के नाते जिरां मानव प्रकृति को उसके पतन से जोड़ता है जिसके अपने कोई निजी मान-मूल्य नहीं होते । वे कोरे नकलची होते हैं ।
थियेल ने इसे ही फेसबुक में मूर्त होता देख कर मनुष्य की नैसर्गिकता से जुड़ा होने के कारण इसके तीव्र विकास और भारी व्यापारिक संभावनाओं के स्रोत के रूप में देखा और इसमें अपना पाच लाख डालर निवेश किया । सचमुच यहीं से फेसबुक के नेटवर्क के विस्तार ने ऐसी उड़ान भरी और इतनी तेजी से उसका फैलाव हुआ जिसकी कल्पना थियेल ने भी नहीं की थी । इसके बाद ही थियेल ने लिखा कि “यह सामाजिक माध्यम ऊपर से जैसा और जितना दिखाई देता है, उससे भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण साबित हुआ है क्योंकि यह मनुष्य मात्र की नैसर्गिक प्राणी सत्ता से जुड़ा हुई चीज है ।“
मानव-प्रकृति को कोरी नकलची वृत्ति के रूप में देखना कहां तक सही है, हम नहीं जानते । हमें तो यह महज एक बुरा विचार लगता है और चूंकि यह सच है कि आदमी की कुप्रवृत्तियां आम तौर पर व्यापारिक लाभ का सबसे बड़ा स्रोत हुआ करती है, इसलिये थियेल की तरह के घुटे हुए मुनाफाखोर को जिरां की बातें सबसे ज्यादा प्रभावित और प्रेरित कर सकती है । इसकी एक बड़ी वजह शायद यह भी है कि अगर मनुष्य को मूलतः बुरा मान लिया जाए तो उसके जीवन में घटने वाले हर अघटन के लिये किसी अन्य को नहीं, उसे ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाए तो जीवन में हर अपराधी को आसानी से अभयदान दिया जा सकता है । खास तौर पर व्यापार के जगत के लिये नीति-नैतिकता की तरह की बातों को एक सिरे से खारिज किया जा सकता है ।
बहरहाल, ऊपर में दिये गये सेक्स वर्कर के जीवन की तरह के उदाहरणों से लेकर नस्लवादी नफरत के विष से बुझे ट्रंप की तरह के व्यक्ति को विजेता बनाने में फेसबुक की भूमिका के बाद किसी के भी निजता के अधिकार में अनाधिकार प्रवेश करने से लेकर झूठी खबरों और किसी के भी बारे में घिनौने प्रचार में फेसबुक के अनैतिक प्रयोग को देखते हुए सारी दुनिया में एक तबका फेसबुक अच्छी बातों का नहीं, अन्यों के बारे में बुरी बातों के प्रचार के एक वाहन के रूप में देखने लगा है । और, जाहिर है कि आदमी के जीवन के एक अच्छे खासे हिस्से को घेर कर रखने वाले इस प्रकार के किसी औजार के बारे में लोगों में किसी भी वजह से यदि यह धारणा पैदा होने लग जाए कि वह जीवन में सिवाय अमंगल के और किसी चीज का हेतु नहीं बन सकता है, तो सामान्य लोग इससे विरत होने लगेंगे और फेसबुक के आका ब्रह्मांड की तरह इसके जिस अविराम, अनंत विस्तार की कल्पना में खोये हुए हैं, सपनों के उस बैलून में पिन चुभने में देर नहीं लगेगी ।
जुकरबर्ग हो या इस प्रकार के इंटरनेट कारोबार में लगे गूगल, उनके यू ट्यूब आदि की तरह के दूसरे सभी ऐप्स उत्पादों के कारोबारी हो, वे अपने कारोबार के इस पहलू को समझते हैं, इसमें कोई शक नहीं हैं । वे जानते हैं कि किसी भी वजह से इनके प्रयोगकर्ता यदि इनसे मूंह मोड़ लेते हैं तो उनके पूरे कारोबार को कोरी अस्थि में बदलने में देर नहीं लगेगी । इसीलिये इन उत्पादों की समाज में साख का बने रहना इनके लिये भी समान चिंता का विषय है, और इसीलिये जब जुकरबर्ग फेसबुक के अपने घोषित उद्देश्य में बदलाव के बारे में कह रहे थे तो प्रकारांतर से जो अपनी इसी चिंता को जाहिर कर रहे थे ।
मसलन्, फेसबुक के कर्ता-धर्ता इस बात को लेकर बहुत सतर्क रहते हैं कि इस पर किसी प्रकार की कामुक तस्वीरें और पौर्न की तरह की चीजें न जाने पाए । इसकी खबर मिलते ही वे उसे ब्लाक कर देने के लिये तत्पर हो जाते हैं । इसकी बुनियादी वजह है कि वैसी सामग्रियों के रहते कोई भी भला आदमी इस माध्यम पर अपनी उपस्थिति को नहीं देखना चाहेगा और न ही कोई विज्ञापनदाता ऐसी चीजों के समकक्ष अपने उत्पादों को रखना चाहेगा । वैसी दशा में फेसबुक या इस प्रकार के साइट शहर के वैसे लाल बत्ती के इलाकों की तरह बन जायेंगे जिनसे गुजरने से भी एक सामाजिक व्यक्ति को परहेज होगा ।
कमोबेस यही दशा फेसबुक पर चलने वाली फर्जी खबरों और झूठे प्रचार को लेकर भी है । ट्रंप के चुनाव के वक्त जिस प्रकार रूसियों ने अपने ट्रौल उद्योग और फर्जी खबरों को फैलाने वाले असंख्य भोंपुओं के भारी नेटवर्क के प्रयोग से इसका दुरुपयोग किया था, उससे इस सामाजिक मीडिया की साख को काफी धक्का लगा था और देखा गया कि न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट या हफिंगटन पोस्ट की तरह के जिन प्रतिष्ठित मुख्यधारा के माध्यमों को एक समय में इस सामाजिक मीडिया ने पीछे धकेल दिया था, ट्रंप के जीतने के ठीक बाद ही अमेरिकी जनता में ठग लिये जाने का एक इतना गहरा अहसास पैदा हुआ कि तत्काल मुख्यधारा के मीडिया की साख में अचानक तेजी से वृद्धि हो गई । और, इसी समय जुकरबर्ग को सामने आकर न सिर्फ अपने घोषित उद्देश्यों में परिवर्तन की बात करनी पड़ी, बल्कि फेसबुक को फर्जी खबरों और झूठे प्रचारों से बचाने के लिये भी अपने को वचनबद्ध भी करना पड़ा । वह यह जानता है कि यदि लोगों की यही धारणा बन जाए कि फेसबुक का मायने है झूठी खबरों के जंजाल में फंसना तो लोग इसकी ओर से मुंह फेरने में देरी नहीं लगायेंगे ।
इसी संदर्भ में हमारे जेहन में फेसबुक का और भी एक महत्वपूर्ण पहलू उभर कर सामने आता है । वह है इसके प्रयोगकर्ताओं का पहलू । आम तौर पर फेसबुक की शक्ति इसके वे प्रयोगकर्ता ही होते हैं जो इसमे नियमित लिखते हैं, इसे पढ़ने और जानने लायक सामग्री प्रदान करते हैं । जैसे अखबारों में कोई सामग्री और खबरें न हो तो उन्हें कौन उलटेगा । यही तर्क फेसबुक पर भी तो लागू होता है । खुद जुकरबर्ग कहता है कि हम प्रत्येक व्यक्ति को एक जुबान देने, उसे अपने को अभिव्यक्त करने का अधिकार देने के पक्षधर है । मूल बात यह है कि फेसबुक का यही उद्देश्य वास्तव में उसकी धमनियों में बहने वाले खून और आक्सीजन की तरह है । और, इसमें भी सबसे बड़ी बात यह है कि फेसबुक को सारी दुनिया के अरबों लोगों द्वारा लिखी गई यह सामग्री पूरी तरह से मुफ्त में उपलब्ध होती है । इसके लिये उसे किसी को एक पैसे का भी भुगतान नहीं देना पड़ता है । 'हींग लगी न फिटकरी माल चोखा हो गया' का फार्मूला इस पर पूरी तरह से लागू होता है ।
सन् 2014 में 'न्यूयार्क टाइम्स' ने एक अनुमान पेश किया था कि अकेले फेसबुक की साइट पर प्रति दिन मनुष्य अपने 39757 सामूहिक वर्ष व्यय करते हैं, अर्थात लगभग डेढ़ करोड़ वर्ष के बराबर मुफ्त श्रम । यह हिसाब तब का है जब फेसबुक के प्रयोगकर्ताओं की संख्या 1 अरब 23 करोड़ हुआ करती थी । इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि आज 2 अरब प्रयोगकर्ता और उनकी संलग्नता का अनुपात 55 प्रतिशत से बढ़ कर 65 प्रतिशत हो जाने पर फेसबुक को अपने लिये मिलने वाले इस प्रकार के बेगार श्रम की मात्रा कहां तक पहुंच गई होगी !
अर्थजगत के नियमों को जानने वाला हर व्यक्ति यह जानता है कि इसमें कभी कुछ भी स्थाई नहीं रहता है । इसीलिये यदि किसी चीज का अकल्पनीय गति से विस्तार होता है तो उतनी ही अकल्पनीय गति से उसके पतन के बीज भी उसमें कहीं न कहीं निहित होते हैं । यह नियम फेसबुक की तरह के उत्पाद पर लागू न हो, ऐसा नहीं हो सकता है । इनमें से कुछ चीजों को हम साफ देख भी पा रहे हैं, जिनकी ओर हमने यहां संकेत किया है । खुद फेसबुक वाले भी जब कामुक चीजों के प्रति, झूठी खबरों के प्रसार के बारे में अपनी सतर्कता की बात कहते हैं तो उनसे जाहिर होता है कि वे भी इनके लिये चिंतित हैं क्योंकि इनसे फेसबुक मात्र के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो सकता है । लेकिन अमेरिका में ट्रंप और भारत में मोदी की जीत में जिस प्रकार ट्रौल उद्योग ने इसकी विश्वसनियता को सुनियोजित ढंग से प्रश्नों के दायरे में ला दिया, वैसे और भी अनेक प्रकार के तूफानों का इनको बार-बार सामना करना पड़ेगा । उदाहरण के तौर पर, ये झूठी खबरों को तो रोक सकते हैं, उन पर ध्यान भी रखने का संकेत दे रहे हैं, लेकिन एक सी खबर से पूरे फेसबुक को भर देने, दूसरों की बात को नकल करके दोहराते चले जाने से रोकने का खयाल अभी भी इनके जेहन के बाहर है । यह भी खुद में फेसबुक की विश्वसनियता को कम करने में उसी प्रकार की भूमिका निभा सकता है जैसे आज हमारे यहां मोदी-शाह ने सारे टीवी चैनलों को खरीद कर उन सबकों एक ही बात को रटते जाने के लिये मजबूर कर रखा है जिसके कारण आम दर्शकों में उनके प्रति एक वितृष्णा पैदा दिखाई देती है । क्रमशः ये सभी टीवी चैनल जनमत को प्रभावित करने की अपनी क्षमता को गंवा कर वास्तव में दर्शकों को, और उसी अनुपात में अपने कारोबार की ताकत को भी गंवा रहे हैं । हम फेसबुक के सामने भी ऐसे सभी खतरों को, उस पर मोदी-शाह जैसे लोगों के संगठित हमलों के कुल प्रभाव के खतरों को साफ देख पा रहे हैं ।
इसके अलावा इस पर खतरे का दूसरा सबसे बड़ा पहलू है, इसके जरिये की जाने वाली खुफियागिरी का पहलू । ऊपर उल्लेखित कैलिफोर्निया की सेक्स वर्कर तो उसी से परेशान हुई है । डर इस बात का है कि फेसबुक के आका जैसे इसकी साख के दूसरे पहलुओं के प्रति सतर्कता बरतना चाहते हैं, क्या वे इसके खुफियागिरी वाले पहलू के प्रति भी वही रवैया अपनायेंगे । इस बात पर कभी यकीन नहीं होता है, क्योंकि यह एक ऐसा पहलू हैं जो फेसबुक के खुद के बिजनेस मॉडल का एक हिस्सा है । अपने विज्ञापनदाताओं को चुनिंदा रूप से उन लोगों तक पहुंचाना, जो विज्ञापनदाता के उत्पाद में दिलचस्पी रख सकते हैं — यह फेसबुक का सबसे प्रमुख काम है । खुफियागिरी पर आधारित इस कारोबार के आगे और कितने भयानक रूप सामने आ सकते हैं, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है । आज फेसबुक और गूगल के पास किसी भी व्यक्ति की मानसिकता, उसकी रूचि और उसकी गतिविधियों के बारे में जितनी सूचनाएं होती है, उतनी तो दुनिया की किसी सरकार के पास भी नहीं होती है । गूगल के बारे में यह खबर भी है कि उसने अमेरिका के खुफिया तंत्र से अपने तार जोड़ लिये है और सीआईए, एफबीआई की तरह की संस्थाओं के साथ उसके बाकायदा व्यापारिक संपर्क कायम हो चुके हैं । इसीलिये, हमारा मानना है कि फेसबुक की तरह के माध्यमों से लोगों के कभी भी पूरी तरह से विरत हो जाने के ऐसे तमाम कारण मौजूद है, और रहेंगे जो इस पूरे बिजनेस मॉडल को ध्वस्त कर देने के कारण बन सकते हैं । अर्थात इनके व्यवसायिक स्वरूप में ही इनके ध्वंस के कारण मौजूद है ।
बहरहाल, आज 2015 की अपनी फेसबुक डायरी की टीपों के आधार पर निर्मित इस पुस्तक की भूमिका लिखते वक्त फेसबुक मात्र के बारे में इन सारी बातों की ओर हमारा ध्यान जाना अकारण नहीं है । पिछले कई सालों से हमने जिस प्रकार से इस माध्यम का अपनी बातों को कहने के लिये खुल कर प्रयोग किया है, उसने एक लेखक के नाते निश्चित तौर पर हमें गहरा संतोष प्रदान किया है । लेकिन इसके प्रयोग के दौरान ही अक्सर हमें जब ट्रौल नामधारी कुछ पूरी तरह से असंस्कृत, कुरुचिपूर्ण और असभ्य लोगों से संवाद करना पड़ा है, तब ऐसे लोगों की छाया के अहसास से ही मन काफी खिन्न भी हुआ है । फेसबुक ने उन्हें ब्लाक करने की एक सुविधा दी है और हमने उसका भरपूर प्रयोग भी किया है । लेकिन फिर भी कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे हम इन शैतानों के साथ एक प्रकार के गुरिल्ला युद्ध में उलझा दिये गये हैं । ये कहीं से भी अवतरित हो कर, और कुछ नहीं मिले, तो 'हिंदू-मुस्लिम' का जहर फैलाने लगते हैं । भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य होने के नाते, हमें बार-बार यह लगता रहा है कि इस प्रकार की सांप्रदायिकता के विष को फैलाने वालों को फेसबुक कोई मंच न दे, इसके लिये कानूनी तौर पर उन्हें बाध्य करना चाहिए । हम जानते हैं कि मोदी शासन के रहते उन्हें इस प्रकार का कोई निर्देश दिया जाना संभव नहीं है, लेकिन इस शासन के अंत के बाद आने वाली किसी भी सरकार को इसके बारे में फेसबुक को बाध्यतामूलक निर्देश जरूर देने चाहिए, ऐसा हमारा मानना है ।
वैसे, मन में ग्लानि तो तब भी होती है कि जो मित्र आपके नियमित संवाद में होते हैं, वे भी कई मर्तबा होश खो कर फेसबुक की तरह के सार्वजनिक मंच को अपनी कुंठाओं की बेबाक और अनियंत्रित भाषा में अभिव्यक्ति का माध्यम बना लेते हैं । इस प्रकार की नितांत गैर-जरूरी समस्याओं का सामना होने के कारण हम जो इसे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के एक बेहतरीन माध्यम की तरह प्रयोग करते हैं, जिन्हें अपनी लेखकीय प्राणी सत्ता सबसे अधिक प्रिय होती है और इसे नगद-कौड़ी के हिसाब से न तौलना ही श्रेयस्कर मानते हैं, उनमें भी एक प्रकार की निराशा और व्यर्थता का बोध पैदा होता है । कह सकते हैं कि यह भी हमारे निजीपन में दूसरे के एक प्रकार के अनाधिकार प्रवेश की तरह ही होता है जो सिर्फ हमारा पाठक नहीं होता, हमारे साथ निरंतर, एक प्रकार के प्रत्यक्ष संपर्क में भी रहता है । यहीं पर कोरे संपर्क के साधन के रूप में फेसबुक के उद्देश्य की निस्सारता और भी प्रकट हो जाती है ।
बहरहाल, सिद्धार्थ मुखर्जी की 'द एम्परर आफ ऑल मैलेडीज' और ' द जीन', इन दो मोटी-मोटी किताबों के बीच की एक पतली सी किताब है — 'द ला'ज आफ मेडिसीन' (2015) । इसमें वे लिखते हैं — “मैंने यह कभी उम्मीद नहीं की थी कि चिकित्सा का क्षेत्र एक ऐसा नियमहीन, अनिश्चय का क्षेत्र होगा । मुझे आश्चर्यजनक लगता है कि कहीं अंगों, बीमारियों, और रासायनिक क्रियाओं का, फ्रेनुलम, ओटिटिस, ग्लाइकोलिसिस आदि, नामकरण चिकित्सकों द्वारा ईजाद किया गया कोई ऐसा शास्त्र तो नहीं है जिनसे ज्ञान के इस अधिकांशतः अब तक अबूझ क्षेत्र की चुनौती से वे अपनी रक्षा करते हैं । तथ्यों की प्रचुरता समस्या के गहरे और जरूरी पक्ष को धुंधला कर देती है, ज्ञान (निश्चत, तयशुदा, सटीक, ठोस) और प्रत्यक्ष बुद्धिमत्ता (अनिश्चय, तरल, अपूर्ण, अमूर्त) के बीच के मेल को अस्पष्ट कर देती है ।“(पृष्ठ : 6) और “ चिकित्सा के कानून वास्तव में अनिश्चय, गल्तियों और अपूर्णता के कानून होते हैं । ये ज्ञान के उन सभी अनुशासनों पर समान रूप से लागू होते हैं जिनमें इस प्रकार की ताकतों की भूमिका होती है ।“(पृष्ठ -7)
वे ही “ द एम्परर आफ आल मैलोडीज“ में कैंसर में कीमोथिरैपी, जहर से जहर को मारने के सिद्धांत की चर्चा करते हुए यह भी कहते हैं कि दवाओँ का सेवन अक्सर उन्हें लाभ और नुकसान के तराजू पर तौल कर किया जाता है । अगर लाभ का पलड़ा भारी दिखाई देता है तो उसे अपनाया जाता है, अन्यथा छोड़ दिया जाता है ।
इसीलिये, इस पूरे फेसबुक प्रकरण से इसके बारे में कोई अंतिम राय देने के बजाय इसके चयन के पीछे खुद के लाभ-नुकसान का विवेक ही हम अपने लिये महत्वपूर्ण मानते हैं ।
अपनी इस खास पुस्तक के संदर्भ में हम यही कहेंगे कि 2014 के तूफानी वर्ष की फेसबुक डायरी, जिस साल मोदी की तरह का एक अस्वाभाविक व्यक्तित्व हमारे देश की राजनीति के शिखर पर बैठ गया, ने हमारी दृष्टि के आईने से उस काल के बहुआयामी इतिहास की जो रचना की, उसे देख कर खुद हमें आज भी रोमांच होता है । राजनीति के क्षेत्र में उसमें हमारे तमाम अनुमानों और विश्लेषणों के विपरीत मोदी सत्ता पर आगये थे, लेकिन फिर भी हमारा वह समूचा निरीक्षण, वे टिप्पणियां, वे विश्लेषण, हमें किसी भी दृष्टि से आज भी कमतर महत्व के नहीं प्रतीत होते हैं । इसके विपरीत, उस पूरी कहानी का एक दूसरा प्रति-आख्यान क्या हो सकता था, उसके जो ठोस रूप उस निरीक्षण के बीच से निकल कर आए, वे हमारे अनुसार आगे के लिये भी हमेशा अपनी सार्थकता को बनाये रखेंगे ।
2015 के इस वर्ष को हमने यहां 'वर्चस्व का साल' कहा है । मोदी के सत्ता में आने का अर्थ ही यह नहीं हो जाता कि वे जिस दक्षिणपंथी पश्चगामी दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते हैं, भारत के भविष्य की दिशा अब वही तय करेगी । उल्टे, हमने देखा कि इस 2015 में ही संघ-मोदी के विचारधारात्मक अभियान के खिलाफ एक जबर्दस्त प्रतिरोध की मुहिम भी शुरू हुई थी । कलबुर्गी, पानसारे और दाभोलकर की हत्याओं के खिलाफ लेखकों के द्वारा पुरस्कार वापसी का ऐतिहासिक अभियान 2015 के दौरान ही देखा गया था ।
उम्मीद है कि 2014 की डायरी की तरह ही इसे भी सुधी पाठक समाज का समर्थन और सहयोग मिलेगा । इसके प्रकाशन में अनामिका प्रकाशन के मित्र पंकज शर्मा के उत्साह के लिये हम उनके हमेशा आभारी रहेंगे । सरला के सहयोग को हर बार गिनाता हूं, यहां भी गिना रहा हूं, क्योंकि वह हमेशा सबसे जरूरी लगने लगता है ।
18 अक्तूबर 2017 अरुण माहेश्वरी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें