-अरुण माहेश्वरी
आज (11 दिसंबर 2017) के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट से सीपीएम के सर्वोच्च नेतृत्व में चल रही खींच-तान का जो स्वरूप सामने आता है, वह सचमुच डरावना है । पोलिट ब्यूरो में प्रकाश और येचुरी गुट अपने-अपने वोट के साथ डटे हुए हैं । प्रकाश के पक्ष में 9 सदस्य है और सीताराम के पक्ष में 7 सदस्य और दोनों के पास अपने-अपने राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन के दस्तावेज़ हैं । जनवरी महीने में कोलकाता में केंद्रीय कमेटी की बैठक होगी जिसमें अब तक के क़यास के अनुसार एक नहीं, दो दस्तावेज़ पेश किये जायेंगे और अंतिम निर्णय तर्क या सहमति के जरिये नहीं, मतदान के जरिये किया जायेगा ।
सचमुच, पार्टी में गुटबाज़ी कितनी बदतरीन चीज होती है, देखना हो तो सीपीएम की अभी की दशा को देखा जा सकता है । सीताराम गुट के नेताओं ने साफ कहा बताते हैं कि प्रकाश के लोगों के पास कोई तर्क नहीं है, सिर्फ ज़िद है । प्रकाश करात गुट उस समय तक पार्टी को अपनी कांग्रेस-संबंधी ‘सैद्धांतिकता’ की फाँस से अटकाए रखेगा जब तक वह यह सुनिश्चित नहीं कर लेगा कि आगामी पार्टी कांग्रेस में सीताराम येचुरी को महासचिव पद से हटा दिया जायेगा । वह जानता है कि अगर यह नहीं होता है तो इस ‘सैद्धांतिक’ लड़ाई की उनकी हवाई कसरत का कोई अर्थ ही नहीं रहेगा । यह कसरत भारतीय राजनीति में पार्टी की भूमिका निभाने के लिये नहीं की जा रही है, पार्टी पर सिर्फ अपने गुट का पूर्ण वर्चस्व कायम करने के लिये की जा रही है ।
इसे कहते हैं गुटबंदी का असली ‘जनतांत्रिक केंद्रीयतावादी’ खेल, जिसमें जनतंत्र का नाम हो लेकिन किसी अन्य विचार के लिये कोई जगह नहीं हो, सिवाय बहुमत के अधीन रहने के ! जबकि तत्त्वत: यह एक ऐसा ढाँचा होना चाहिए जिसमें बहुलता को अनिवार्य मान कर चला जाना चाहिए । लेकिन यह पार्टी में गुटबाज़ी से जुड़ी राजनीति के दबाव से पैदा होने वाली विसंगति है । किसी भी संरचना के तत्व और प्रत्यक्ष के बीच की यही असंगति उसे विकृत कर देती है । वह ढाँचा कोई काम का नहीं रह जाता है ।
सीपीएम का जनवादी केंद्रीयतावाद पर टिका अभी का ढाँचा पूरी तरह से विकृत और आज की राजनीतिक ज़रूरतों के लिहाज से किसी काम का नहीं रह गया है । ज़रूरत इस बात की है कि अभी जो चल रहा है, इस पूरे प्रसंग को ठोस राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में रखते हुए गंभीर मनन का विषय बनाया जाए । राजनीति के लक्ष्यों को साधने को प्राथमिकता दी जाए । गुटबंदी के हितों को साधने वाले सांगठनिक पक्षों और तत्वों से निर्ममता से मुक्त हुआ जाए ।
आज वामपंथी राजनीति में रुचि रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को यह सवाल करना ही चाहिए कि आखिर किस गरज से सीपीएम में एक गुट द्वारा इस बात पर ज़ोर दिया जा रहा है कि पहले कांग्रेस के साथ संबंध के विषय को तय करो, फिर आगे की सोचो ! कोई न कोई तो कारण जरूर है इसके पीछे ! आज विचार का सबसे प्रमुख विषय वामपंथ को जनता के बीच ले जाने का, उसके लिये जनता की राजनीतिक स्वीकृति पाने का है । जब हम जानते हैं कि इसके लिये कोई पहले से तयशुदा रास्ता नहीं है तो फिर कांग्रेस के साथ संबंधों के विषय को आज ही अंतिम रूप से तय कर लेने पर बल क्यों दिया जा रहा है ?
भारत में वामपंथ की अवनति के मूल में कांग्रेस के साथ उसके संबंध का कारण नहीं रहा है । पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा हारा कांग्रेस से संबंधों के कारण नहीं । इस अवनति के पीछे वाम के अपने अंदुरूनी कारण रहे हैं, और हमारी दृष्टि में एक प्रमुख कारण इसी प्रकार की झूठी सैद्धांतिक लड़ाई भी रहा है जो अतीत में बड़ी राजनीतिक चुनौती ग्रहण करने में वाम के लिये बाधक बना है । इसे हम 1996 में ज्योति बसु को प्रधानमंत्री के विषय से लेकर 2008 में यूपीए से समर्थन वापस लेने के निर्णय के पीछे काम करते साफ देख सकते हैं । आज भी इसी के चक्कर में सीपीएम का पोलिट ब्यूरो अन्य सभी विषयों को गौण करते हुए कांग्रेस से संबंध के विषय में सर गड़ाये हुए है ।
हाल में दिल्ली में मज़दूरों और किसानों के बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए जिनमें वामपंथी जन-संगठनों ने ज़ोर-शोर से काम किया । लेकिन वाम की इस गोलबंदी की ताकत को यदि महत्वाकांक्षी व्यवहारिक राजनीति से नहीं जोड़ा जाता है तो ये प्रदर्शन एनजीओज के आयोजनों की तरह की एक जंबूरी भर बन कर रह जायेंगे । आज के हालात में इस ताकत को फासीवादी मोदी को हराने की लड़ाई में झोंक कर उसे सफल बना कर ही इसका राजनीतिक पहलू उजागर किया जा सकता है। मजे की बात यह है कि सीपीएम के दोनों गुट मोदी को हराने के बारे में अपने को एकमत बताते हैं । फिर भी जब कोई इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये सभी शक्तियों को एकजुट करने के बजाय अपनी राग अपनी ढपली बजाते हुए मोदी-विरोधी व्यापक गोलबंदी से अपने को अलग रखने की दलील देता है तो वह इस सारे उद्यम को राजनीतिक लिहाज से निरर्थक बना कर वाम को सिर्फ हँसी का पात्र बना कर छोड़ देने की भूमिका ही अदा करता दिखाई देगा।
बगल का देश नेपाल है । कल तक वहाँ राजशाही के खिलाफ लड़ाई में कम्युनिस्टों और नेपाली कांग्रेस की साझा सरकार थी, आज सिर्फ कम्युनिस्टों की सरकार बन गई है । अगर राजशाही के विरुद्ध संयुक्त राजनीतिक संघर्ष से किसी भी सिद्धांतवादिता के चक्कर में वहां के कम्युनिस्टों ने अपने को अलग रखा होता तो आज की उनकी यह स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति भी विकसित नहीं हो सकती थी ।
इसीलिये किसी भी तर्क पर अभी के प्रमुख मोदी-विरोधी व्यापक संघर्ष के राजनीतिक फ़्रेम से वाम को बाहर रखने से अधिक वाम के लिये हानिकारक कदम दूसरा कुछ नहीं होगा ।
दरअसल, राजनीति कोई ब्रह्म-साधना तो है नहीं । इसका हमेशा एक व्यवहारिक पक्ष होता है जिसमें हर राजनीतिक पार्टी को अपने को हर रोज साबित करना पड़ता है । सुदूर भविष्य की साधना भर से राजनीति का काम नहीं चलता है । समाज की यथार्थ स्थिति राजनीतिक पार्टियों के काम करने की उपलब्ध परिस्थिति की एक सेटिंग होती है । इसे अस्वीकार करके या लाँघ करके कोई भी अपने को साबित नहीं कर सकता है । इसीलिये मार्क्स ने कम्युनिस्ट राजनीति को कभी शुद्ध नास्तिकतावाद नहीं माना था । जब समाज में धर्म एक बड़ी सचाई है तो उसे ज़ोर-ज़बर्दस्ती अस्वीकार करके आप अपने को उपलब्ध सामाजिक सेटिंग से अलग ही कर सकते हैं, उसमें अपनी कोई भूमिका अदा नहीं कर सकते । खास तौर पर हमारे जैसे समाज में, आज जब आस्था के विषय को ही राजनीति का विषय बना दिया गया है, तब तो यह पहलू और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि अपनी राजनीति की वैकल्पिक सेटिंग में कोई भी इस सचाई को प्रथम दृष्टया ही मान कर चले ।
इसका दूसरा उदाहरण जातिवाद को भी लिया जा सकता है । जातिवादी समीकरण व्यवहारिक राजनीति का एक अनिवार्य अंग बन गया है । वामपंथी भी जब लाल सलाम और जय भीम की बात करते हैं तो प्रकारांतर से इसे ही स्वीकृति देते हैं । ऐसे में यदि आपको फ़ासिस्ट भाजपा-विरोधी राजनीति की कोई विकल्प सेटिंग तैयार करनी है जो व्यवहारिक राजनीति में कारगर साबित हो सके तो आपको जातिवादी समीकरणों को भी अपने पक्ष में करना ही होगा ।
इस संदर्भ में अभी के गुजरात के चुनाव को ही देखा जा सकता है । राहुल गांधी व्यवहारिक राजनीति की इन ज़रूरतों को सही ढंग से पकड़ पा रहे हैं, तभी वे सफल होते दिखाई देते हैं । तभी वे 'विकास पागल हो गया है' की तरह के ऐसे नारे को प्रभावशाली रूप में उठा पा रहे है जिसकी गहराई से व्याख्या करने पर उसे नव-उदारवाद के विरोध की राजनीति का नारा बताया जा सकता है। पूँजीवादी रोजगार-विहीन विकास से पैदा हुए असंतोष को धर्म और जाति के समीकरणों की सेटिंग के साथ वे अपनी राजनीति के पक्ष में भुना पा रहे हैं । यह काम थोथे उग्रवादी नारों से नहीं किया जा सकता है ।
इसीलिये जो वामपंथ-वामपंथ की ज्यादा रट लगाते हैं, वे वास्तव में आज की पूरी सामाजिक-राजनीतिक सेटिंग से व्यवहारिक राजनीति के धरातल पर वामपंथ को अलग रखने का काम करते हैं और प्रकारांतर से वाम-विरोधियों की ही सेवा करते हैं । यह वामपंथ को भारतीय राजनीति के वर्तमान पूरे खाँचे से अलग रखने, उसे अप्रासंगिक बनाने का उपक्रम है ।
सैद्धांतिक संघर्षों की आड़ में गुटबाज़ी किसी भी संगठन में कोई अनहोनी बात नहीं है । सीपीएम में अभी वही चल रहा है । और इसीलिये किसी भी वाम-हितैषी के लिये यह बहुत दुखद है ।
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