रविवार, 5 अप्रैल 2020

कोरोना और सभ्यता का संकट वार्ता श्रृंखला -2


—अरुण माहेश्वरी


(2)

 ‘कोरोना और सभ्यता का संकट’ विषय पर अपनी वार्ता की पहली किस्त में हमने सामान्य रूप में मानव समाज के सामने पैदा हुए अस्तित्व के संकट के चंद विचारधारात्मक आयामों पर चर्चा की थी । इससे भविष्य का कौन सा नया रास्ता निकल सकता है, उसकी संभावनाओं की भी बात की थी । इस वैश्विक अस्तित्वीय संकट का अंत भी किसी न्यायपूर्ण वैश्विक परिवर्तन के रूप में ही तर्कसंगत लगता है । डब्लूएचओ की ओर से भी इस मामले में जिस प्रकार से सारी दुनिया के देशों के बीच एक समन्वय, सहयोग और परस्पर के प्रति सहानुभूतिपूर्ण समझ कायम करने पर जिस प्रकार लगातार बल दिया जा रहा है, वह भी कुछ उसी दिशा का संकेत है । कहना न होगा, इस संभावित परिवर्तन का यदि कोई नामकरण किया जाए तो इसे एक नए प्रकार के साम्यवाद का उदय कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा । समाजवाद और साम्यवाद यदि इतिहास के विकास का एक अनिवार्य अंग है तब भी यह तय है कि वह पुराने सोवियत ढर्रे के समाजवाद की वापसी नहीं हो सकती है । कोरोना की इस भयावह त्रासद परिस्थिति में भी हम किसी भी आपदा के समाज पर एक बार सबको समान स्तर पर उतार देने वाले प्रभाव के साधारण तर्क से भी कुछ इसप्रकार के आशावादी निष्कर्ष तक पहुंच सकते हैं ।

बहरहाल, जैसा कि हमने पिछली किस्त के अंत में ही यह वादा किया था कि अगली किस्त में हम ज्यादा ठोस रूप में इस संकट के आर्थिक परिणामों के बारे में वैश्विक संदर्भ में चर्चा करेंगे, आइयें ! हम इस विषय के खतरों पर अधिक साफ ढंग से बात का प्रारंभ करते हैं ।

सचमुच, यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि अभी हमारे यहां एक ऐसे दल की सरकार है जो सामान्य तौर पर किसी भी सामाजिक-आर्थिक विषय में वैज्ञानिक अध्ययनों और तथ्यों पर विश्वास नहीं करता है । आज जरूर सरकार की ओर से लॉक डाउन की घोषणा करके, सोशल डिस्टेंसिंग, साफ सफाई और डाक्टरों की बातों को तरजीह दी जा रही है, लेकिन हमारी व्यापक जनता को इन विषयों पर तैयार करने में काफी समय लग गया है । लॉक डाउन की घोषणा के एक दिन पहले तक शासक दल के कुछ लोग ही गाय का पेशाब पिलाने के सामूहिक आयोजन कर रहे थे । 22 मार्च के जनता कर्फ्यू के अंत में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित तमाम शहरों के लोग कुछ इस तरह से घंटे और थालियां बजा रहे थे जैसे महामानव मोदी ने इस देश से कोरोना को मार भगाया है । पढ़े लिखे लोग तक अंग्रेजी में शंख ध्वनि के महात्म्य के बारे में प्रवचन दे रहे थे । और सदी का महानायक कहलाने वाले अमिताभ बच्चन सदी के महामूर्ख की तरह दुनिया को पर्यावरण पर ध्वनि के प्रकंपन के प्रभाव के सिद्धांत को समझा रहे थे । बाबा रामदेव तब भी सांसों के व्यायाम की रामवाण दवा के साथ ही एक घुटे हुए प्रवंचक की तरह कोरोना की अपनी फार्मेसी की दवा का प्रचार कर रहे थे । आज भी अनेक लोग इस झूठ के प्रचार में लगे हुए हैं कि भारत के लोगों की खान-पान की आदतों के कारण ही यहां इसका फैलाव नहीं होगा, तो कुछ हमारे देश की पांच ऋतुओं की विशेषताओं को गिनाते हुए भी लोगों को आश्वस्त कर रहे हैं ।

तब तक लगता है जैसे सरकार सहित कोई भी यहां दुनिया के अनुभवों से सीखते हुए तूफानी गति से दरवाजे पर आ खड़ी हुई इस महामारी से निपटने के उपायों में अपना सब कुछ झोंक देने की  मानसिकता का परिचय देने के लिये तैयार नहीं था । इस विषय पर प्रधानमंत्री के पहले टेलिविजन भाषण में सोशल डिस्टेंसिंग का एक जरूरी संदेश तो दिया गया था, लेकिन सरकार इस रोग के रोकथाम के लिये खुद क्या कर रही है, उसकी कैसी तैयारी है, इसका लेश मात्र भी संकेत नहीं दिया । भारत में इसके परीक्षण और उपचार की कोशिशों, प्रतिषेधक और दवाओं की तलाश की भी कोई चर्चा नहीं की । वे सिर्फ दुनिया की असहाय दशा का जिक्र करते हुए अपनी खुद की निष्क्रियता को छिपाते रहे । कुल मिला कर उनका रुख कुछ ऐसा ही था कि जब दुनिया के दूसरे देश इसका कोई उपचार खोज लेंगे, तब वह हमें भी मिल पाएगा ;  अर्थात् हमारे देश को इस मामले में अन्य सबका आश्रित बताने में उन्हें जरा भी संकोच नहीं हो रहा था !

बहरहाल, हम यही कह सकते है कि यह सब हमारा दुर्भाग्य ही है । यहां ऐसे तमाम जाहिल भक्तों की फौज मौजूद है जो प्रधानमंत्री के ‘जनता कर्फ्यू’ के आह्वान को ही एक ईश्वरीय पैगाम मान कर ‘धन्य-धन्य’ के नारे दे रहे थे । किसी को यह नहीं दिखाई दे रहा था कि इन प्रधानमंत्री को ही एक दिन पहले तक पार्लियामेंट का सदन चलाने में जरा भी हिचक नहीं हुई थी,  क्योंकि उसे दिखा कर उन्हें मध्य प्रदेश में शक्ति परीक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट से आदेश लेना था । इसके बाद जो तथ्य सामने आए हैं,  उनसे पता चला कि इस संसद के कई सदस्य पिछले दिनों ऐसे लोगों से मिल चुके थे जिन्हें बाद में कोरोना पोजिटिव पाया गया और संसद के अधिवेशन में उपस्थित रहने के बाद उन्होंने अपने को क्वारंटाइन किया ।

जो भी हो,  इन सब बातों के परे, यहां हमें कोरोना के पूरे वैश्विक और भारतीय परिदृश्य के बारे में, बिना किसी आवेग के, किंचित स्थिरता के साथ कुछ बाते रखनी है ।

आज के दिन तक सारी दुनिया में तकरीबन साढ़े आठ लाख लोग इस वायरस से संक्रमित हो चुके हैं, जिनमें 40 हजार ने अपनी जान भी गंवा दी है । दुनिया की अकेली महाशक्ति अमेरिका इस विषय में भी सबसे आगे हैं जहां दो लाख लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं । एक अनुमान के अनुसार अगर जल्द इसके रोकथाम का कोई रास्ता नहीं निकलता है तो अकेले अमेरिका में इसके अंत तक मरने वालों की संख्या 22 लाख लोगों तक पहुंच सकती है ।

दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका ‘इकोनोमिस्ट’ के पिछले 21 मार्च के अंक में इस विषय के आर्थिक-सामाजिक आयामों पर कुछ लेख प्रकाशित हुए थे । इनमें एक लेख इसकी वैश्विक परिस्थिति के बारे में था और एक लेख भारत की स्थिति के बारे में भी था। कवर पर पृथ्वी नक्षत्र की तस्वीर पर ‘क्लोज्ड’ की तख्ती टंगी थी और लिखा था — वैश्विक महामारी को रोकने की कीमत : कोविद-19 ने इसे बंद कर दिया । (Closed by covid-19 : Paying to stop the pandemic) ।

इस लेख में कहा गया था कि “पृथ्वी नक्षत्र बंद हो रहा है । कोविद-19 से निपटने के लिए एक के बाद एक देश अपने नागरिकों से यह मांग कर रहे हैं कि वे समाज से कट जाए । इससे होने वाली आर्थिक दुर्दशा से बदहवास सरकारें कंपनियों और उपभोक्ताओं की सहायता और उनके कर्ज की गारंटी के लिए खरबों डालर अपने खजाने से दे रही हैं । पर यह सब भी कितना कारगर होगा, कोई नहीं जानता !

“ अवस्था और भी खराब है । नई खोजों से पता चल रहा है कि इस महामारी को रोकने के लिए बार-बार सट-डाउन करने होंगे । यह रणनीति अर्थव्यवस्था को गंभीर — शायद असहनीय — नुकसान पहुंचाएगी ।”

अब तक इस महामारी के बारे में मिली पहली सूचना को सिर्फ बारह हफ्ते बीते हैं, दुनिया इसकी भारी कीमत अदा करने लगी थी । जब इसकी सिनाख्त हुई, तब तक इससे सिर्फ अढ़ाई लाख लोग संक्रमित हुए थे, जिनकी संख्या इन दस दिनों में साढ़े आठ लाख तक पहुंच गई है । हर दिन हजारों की संख्या में नए लोग इससे संक्रमित हो रहे हैं । जितने लोग अभी वास्तव में इससे ग्रसित दिखाई दे रहे है, उनसे कई गुना ज्यादा लोग हैं, जिनका रोग सामने नहीं आया है । इस अदृश्य प्रेत के आतंक में सारी दुनिया में लोगों पर ऐसी-ऐसी पाबंदियां लगाई जा रही है, जिनकी चंद हफ्तों पहले तक कोई कल्पना नहीं कर सकता था । ‘इकोनोमिस्ट’ ने लिखा था कि न्यूयार्क के टाइम्स स्क्वायर पर जैसे भूत मंडरा रहे हैं, लंदन में सन्नाटा पसर गया है, फ्रांस, इटली, स्पेन के सदा चहकते रहने वाले कैफे और बार बंद पड़े हैं । हवाई अड्डों तक पर सन्नाटा दिखता है, स्टैडियम खाली हैं ।

‘इकोनोमिस्ट’ के अनुसार पहले यह अनुमान था कि चीन की अर्थ-व्यवस्था में पिछले साल से 3 प्रतिशत की गिरावट आएगी, वह अब 13.5 प्रतिशत तक की गिरावट हो सकती है । खुदरा बिक्री में कमी का अनुमान 4 प्रतिशत के बजाय 20.5 प्रतिशत हो गया है । अचल संपत्तियों में निवेश में अनुमान से छः गुना ज्यादा, 24 प्रतिशत तक की कमी आ चुकी है । इसने सारी दुनिया में आर्थिक विकास के सारे अनुमानों को गड़बड़ा दिया है । आगे साफ तौर पर जीवन की सबसे निर्दयी मंदी को खड़ा देख कर सभी सरकारों ने 2007-09 की भी तुलना में कई गुना ज्यादा आर्थिक राहत देने के पैकेज तैयार करने शुरू कर दिये हैं ।

यह है वह पृष्ठभूमि जिसमें दुनिया को इस महामारी से निपटने के रास्ते निकालने हैं । ‘इकोनोमिस्ट’ बताता है कि लंदन के इम्पीरियल कालेज में कुछ लोगों ने मिल कर इससे लड़ने के लिये दुनिया के नीति नियामकों के सामने जो एक खाका पेश किया है, वह निराशाजनक है । उनका कहना है कि इसके प्रति पहला रवैया तो इसके शमन (mitigation) का हो सकता है,  इसके उर्ध्वमुखी विकास को समतल बनाने (flattening the curve) का है । दूसरा इसे व्यापक कदमों के जरिये दबाने (suppression) का है, जिनमें हर किसी को घर में बंद करके रख देना होगा, सिवाय उनके जो घर में रह कर काम नहीं कर सकते हैं । सारे संस्थानों को बंद कर देना होगा । शमन से महामारी घटेगी, दमन से उस पर रोक लगेगी । उन्होंने यह पाया है कि इसे यदि इसी प्रकार छोड़ दिया जाता है तो इससे अकेले अमेरिका में 22 लाख लोगों की मृत्यु हो जाएगी, ब्रिटेन में 5 लाख की । उनका यह निष्कर्ष है कि तीन महीनों तक इसके शमन, जिसमें इससे संक्रमित तमाम लोगों को दो हफ्तों के लिए सबसे अलग-थलग रखना, क्वारंटीन करना शामिल है, से सिर्फ इनमें से आधे लोगों को बचाया जा सकेगा । इससे भी इंटेंसिव केयर की जो मांग पैदा होगी, वह एक ब्रिटेन में वहां उपलब्ध सुविधाओं से तकरीबन आठ गुना ज्यादा होगी । इसकी वजह से भी मरने वालों की संख्या में काफी वृद्धि होगी । इसी अनुमान से बाकी यूरोप में, मसलन् जर्मनी की तरह के अधिक सुविधाओं वाले देश में भी, स्वास्थ्य सेवाएं कम पड़ेगी । इसीलिये सरकारें महामारी को दबाने के ज्यादा कड़े कदम अपना रही है । ऐसे कदमों का सुफल चीन में देखने को मिल चुका है । आज इटली, स्पेन और अमेरिका में भी चीन से ज्यादा लोगों की मौतें हो चुकी है । इसी समूह का कहना था कि यदि इस वायरस को यूं ही छोड़ दिया जाता है तो यह ब्रिटेन और अमेरिका की आबादी के 80 प्रतिशत लोगों को संक्रमित कर देगा ।

इसमें और भी खतरनाक बात यह कही गई है कि चूंकि यह वायरस दुनिया के कोने-कोने में फैल चुका है, इसीलिये इसे दबा देने पर भी इसके अवशेष इधर-उधर बचे रहेंगे । इसके कारण पाबंदियां हटने के चंद हफ्तों बाद भी यह महामारी फिर से लौट कर आएगी । और हर बार, इसको दबाने के लिए सभी देशों को काफी समय लॉक डाउन में लगाना पड़ेगा । इस प्रकार लॉक डाउन का उठना और फिर से लागू होना तब तक जारी रखना होगा जब तक पूरी आबादी में ही इसकी प्रतिरोधक शक्ति न पैदा हो जाए या इसका कोई प्रतिषेधक तैयार न हो जाए ।

‘इकोनोमिस्ट’ ने ही इम्पीरियल कालेज के शोधकर्ताओं की इस रिपोर्ट को सचाई का एक  खाका भर कहा था जो निश्चित तौर पर ठोस जानकारियों के आधार पर ही तैयार किया गया है । उसने चीन पर नजर रखने की बात पर भी बल दिया था कि वहां कैसे जिंदगी कैसे सामान्य होती है । आज अच्छी बात यह है कि महामारियों के विस्तार की तत्काल पहचान करने की पद्धतियां विकसित हो चुकी है । इसमें नई दवाएं भी मददगार हो सकती है, मसलन्, जापान का एक एंटी-वायरल कंपाउंड है जिसे चीन ने प्रभावशाली पाया है ।

लेकिन यह भी एक आशा ही है, और आशा नीति नहीं होती है । कटु सत्य यह है कि शमन से बहुत सारी जिंदगियों का अंत होगा, और दमन का आर्थिक भार असहनीय होगा । कुछ बार के बाद सरकारों के पास अपना और आम लोगों का काम चलाने जितनी क्षमता भी नहीं बचेगी । साधारण लोग तो इसके दबाव को बर्दाश्त ही नहीं कर पाएंगे । पर, इन दोनों उपायों को ही आजमा कर देखने की जरूरत होगी । चीन, दक्षिण कोरिया और इटली ने इनका परीक्षण शुरू कर दिया है । कौन संक्रमित है, इसे आप जितना साफ तौर पर जान पायेंगे, उतना ही अधिक आप मनमानी पाबंदियों को टाल पायेंगे । प्रतिषेधकों के प्रयोग में भी इससे आगे सुविधा होगी ।

क्वारंटाइन के लिये तकनीकी उपकरणों की सहायता भी ली जा रही है । चीन ने यह काम शुरू कर दिया है । लोगों के मेडिकल रेकर्ड को हासिल करने की कानूनी व्यवस्थाएं भी की जा रही है ।

‘इकोनोमिस्ट’ की इस टिप्पणी के अंत में कहा गया है कि सबसे जरूरी यह है कि सरकारें चिकित्सा सेवाओं में ज्यादा से ज्यादा निवेश करें । भले इसके तत्काल लाभ न मिले, फिर भी करें । इससे हर समय रोग के शमन और दमन, दोनों में सुविधा होगी ।

इन सबके बावजूद लोगों को कोई भ्रम नहीं पालना चाहिए । इन तमाम कदमों के बावजूद यह वैश्विक महामारी भारी कीमत ले सकती है । आज सरकारें हर कीमत पर इसके दमन में लगी हुई है । लेकिन यदि इस रोग पर जल्द विजय नहीं पाई जाती है तो वे शमन का रास्ता पकड़ेगी, भले ही उससे काफी ज्यादा मौतें होगी । इसीलिये आज कोई भी सरकार उस ओर बढ़ने पर नहीं सोच रही है । पर बहुत जल्द ही उनके सामने दूसरा कोई उपाय नहीं रह जाएगा ।

बहरहाल, आज अपनी चर्चा को यहीं पर समाप्त करते हुए अगली किस्त में हम इसके खास भारतीय परिदृश्य पर चर्चा करेंगे ।

02.04.2020
https://youtu.be/6xWxM1WVhlo

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