गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा (12)


(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी


जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(12)


फ्रायड की वापसी

सन् 1951 से लकान ने पैरिस में साप्ताहिक बैठकों का एक सिलसिला शुरू किया जिसमें वे फ्रायड पर केंद्रित वक्तव्य रखा करते थे । यह सिलसिला उन्होंने शुरू में तो सिर्फ एक साल के लिये किया था, लेकिन बाद में तकरीबन तीन साल से भी ज्यादा काल तक वे फ्रायड के मनोविश्लेषण की बुनियादी बातों की ही जैसे पुनर्व्याख्या में लगे रहे ।


लकान 1955 में वियेना गये थे जहां वियेना न्यूरोसाइकियाट्रिक क्लिनिक में 7 नवंबर के दिन उन्होंने एक बहुत विस्तृत आलेख का पाठ किया, जिसका शीर्षक था — ‘द फ्रायडियन थिंग‘ । फ्रायडीय चीज । अपने इस लेख में शुरू में तो उन्होंने उस समय की युद्धोत्तर पृष्ठभूमि का संकेत देते हुए कहा था कि अब फिर से एक बार जब वियेना के ऑपेरा की आवाज सुनाई देने लगी है, जिसने यहां के पूरे समाज में एक समरसता पैदा करने की भूमिका अदा की थी, ऐसे समय में यहां आकर यही कहूंगा कि इस शहर को ज्ञान की कॉपरनिकस क्रांति से कभी कोई जुदा नहीं कर पायेगा । यह फ्रायड के आविष्कार की सनातन भूमि है जिस आविष्कार के बाद मानव प्राणी का असंदिग्ध केंद्र वहां नहीं रहा है जहां अब तक की मानवीय परंपरा ने उसे रखा था ।

लकान ने वियेना में ही फ्रायड के बारे में उठाए गए सवालों पर शिकायती लहजे में कहा था कि जिस देवदूत की बातों को उनका देश कभी अनसुना नहीं करता था, उस पर भी संभवतः उनकी मृत्यु के बाद यहां कुछ ग्रहण लगा था । पर मैं बाहरी व्यक्ति हूं, इसीलिये अलग-अलग काल में जो तमाम ताकतें सक्रिय रही है उनकी चर्चा करते वक्त किंचित संयम बरतना ही उपयुक्त होगा ।

अपने इस वक्तव्य में उन्होंने फ्रायड से जुड़े उस प्रसंग को ऐसी जगह पर रखा था जिसे वे Symbolic scandal, चित्त संबंधी अनैतिकता की जगह कहते हैं । लकान ने फ्रायड की वापसी की चर्चा करते हुए वियेना में उनके उस घर पर, जहां फ्रायड ने मुख्य रूप से काम किया था, एक फलक लगाने के आयोजन का जिक्र किया और कहा कि यह काम इस शहर के उनके सह-नागरिकों ने किया था, न कि उस इंटरनेशनल एशोसियेशन ने जिसके सदस्य आज फ्रायड के नाम का ही खाते हैं ।


लकान ने इस तथ्य को खुद में एक लक्षण बताया था । फ्रायड को उनकी जमीन ने नहीं त्यागा, लेकिन मनोविश्लेषण के क्षेत्र का जिम्मा उठाये हुए, मनोविश्लेषण-आंदोलन ने त्याग दिया, जिसे उन्होंने आगे के लिये इस क्षेत्र का दायित्व सौंप था । आंदोलनों और संगठनों की इन विडंबनाओं और उनसे मनोविश्लेषण के कामों पर पड़ने वाले बुरे असर के बारे में लकान ने अपने खुद के जीवन के अनुभवों के आधार पर कई जगह लिखा है ।   
बहरहाल, लकान कहते हैं कि “फ्रायड की आवाज प्रथम विश्वयुद्ध के पहले ही वियेना के बाहर पहुंच गई थी, लेकिन तब वह युद्ध के शोर में दब गई । बाद में बड़ी मुश्किल से जब फिर उसकी गूंज सुनी जाने लगी, द्वितीय विश्वयुद्ध आ गया । ‘उस नफरत के जहर और संघर्ष के कोलाहल, युद्ध की डरी हुई सांसों के बीच उनकी आवाज हम तक आई थी ।...तब दहशत की लहरें हमारे संसार की दीवारों से टकरा रही थी, इस पूरे महादेश में गूंज रही थी, जहां यह कहना तो गलत होगा कि इतिहास का कोई अर्थ नहीं रह गया था, क्योंकि यहीं पर इतिहास को उसकी सीमा का पता चला था ।...बल्कि यहां बहुत साफ रूप में इतिहास के अस्वीकार के उद्यमों को एक शैली प्रदान की गई, संयुक्त राज्य अमेरिका की सांस्कृतिक अनैतिहासिक शैली ।”

कुछ अप्रवासी मनोविश्लेषकों ने तब महज फ्रायड से अपने मतभेद जाहिर करके अपने लिये स्वीकृति हासिल करने के लिये उनका जिक्र किया था । लेकिन उनके इसी, फ्रायड से इंकार के  काम ने ही, लकान के अनुसार, जैसे इतिहास को उसके अंतर से जिंदा कर दिया और उनके पेशे ने एक प्रकार से आधुनिक मनुष्य और प्राचीन मिथकों के बीच जैसे एक पुल की पुनर्रचना कर दी । मतभेद जाहिर करके लाभ उठाने के चक्कर में पड़े उन लोगों का यह साधारण लोभ उनके लिये लाभदायी नहीं रहा । यहां लकान एक बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि “किसी से भी महज मतभेद जाहिर करने तक अपनी भूमिका को सीमित करना किसी मरीचिका के पीछे भागने की तरह होता है । यह मरीचिका आपकी इस भूमिका में ही निहित होती है, मतभेद पर टिकी मरीचिका । यह उस प्रतिक्रियावादी सिद्धांत की ओर वापसी है जो जानकार और अनजान के बीच के विरोध से भोगने वाले और इलाज करने वाले के द्वैत को छिपाता है । वे कैसे इस विरोध को सत्य मानने से इंकार कर सकते थे, जबकि वह वास्तव में है, और इसी के आधार पर, वे पदाधिकारी अपने सामाजिक संदर्भ से पतित हो कर आत्माओं के प्रबंधकों में तब्दील होने से कैसे बच सकते थे ? किसी को भी सबसे अधिक भ्रष्ट करने वाली सुख-सुविधाएँ बौद्धिक सुख-सुविधाएँ होती हैं, ठीक वैसे ही जैसे सबसे जघन्य भ्रष्टाचार सर्वश्रेष्ठ का भ्रष्टाचार होता है ।”



लकान यहां मतभेद मात्र जाहिर करने का विरोध कर रहे थे, लेकिन किसी भिन्न पथ पर चलने का नहीं । वे तो किसी भी प्रतिनिधिमूलक संगठन में उसकी अधिकारी मान्यताओं से मतभेद को जरूरी मानते थे । उनका कहना था कि जब तयशुदा मान्यताओं को न मान पाने वाले को किसी बाहरी आवेदनकर्ता की तरह देखा जाता है, तभी पता चल जाता है कि अपने को अन्तरराष्ट्रीय कहने वाले एसोशियेशन का उद्देश्य इस पेशे के अनुभव की सामूहिक प्रकृति के सिद्धांत की रक्षा के बजाय कुछ और ही है । मेरी नजर में यदि मैं कोई नई खोज करता हूं तो मैं उससे मुनाफा कमाना पसंद नहीं करता । (देखें, Ecrits, Page – 239)

रोम में भी, 1953 की कांग्रेस में उन्होंने मनोविश्लेषकों के फ्रांसीसी समूह के बीच दरार के विषय को रखते हुए कहा था कि यह उस व्यक्ति के लिये बाधक होगा जो अन्य लोगों के साथ मिल कर रोम में चर्चित विश्लेषण से एक भिन्न अवधारणा को रख रहा है ।
बहरहाल, वियेना में रखे गये अपने वक्तव्य में लकान बताते हैं कि फ्रायड के पाठों पर वे पिछले चार सालों से पैरिस में हर बुधवार के दिन नवंबर से जुलाई महीने तक दो घंटे का सेमिनार करते रहे हैं । यद्यपि उनके वक्तव्य पूरे फ्रायड को दृष्टिगत रखते हुए ही होते थे, फिर भी लकान का मानना था कि वे एक चौथाई फ्रायड को ही रख पाए थे । इन सेमिनारों ने खुद उन्हें और सेमिनार में शामिल अन्य लोगों को अचरज से भर दिया था, जैसा किसी भी सच्ची खोज से होता है । उनकी कितनी अवधारणाएँ अब तक अविचारित पड़ी हैं और रोगियों के बारे में उनके कितने नोट्स अभी सामने ही नहीं आए हैं ! “उनके कामों से पता चलता है कि उन्होंने हमारे लिये काम का एक कितना बड़ा क्षेत्र खोल दिया था ।” लकान ने बताया कि खुद फ्रायड अपनी केस स्टडीज की सीमाओं में कभी बंधे नहीं रहते थे ।


लकान ने कहा था कि फ्रायड की वापसी का अर्थ है फ्रायड के अर्थ की ओर, उनके लक्ष्य की ओर वापसी । यह हर व्यक्ति का विषय है । “फ्रायड की खोज सत्य पर सवाल करती है और ऐसा कोई नहीं है जो सत्य के बारे में, सत्य की शक्ति के बारे में सोचता नहीं है ।

अवचेतन के प्रसंग में वे इसे नित्शे की जीवन को झूठ मानने वाली घटिया बात से अलगाते हुए कहते हैं कि यह अपने-अपने विश्वास का भी मामला नहीं है । यह आदमी के अहम् की रक्षा का उपाय भर नहीं है, यह मनुष्य की रक्षा का उपाय है — वस्तु को अलग करके उसका व्यक्ति के खिलाफ प्रयोग किया जाता है । वह सत्य क्या है जिसके बिना चेहरे और नकाब के बीच फर्क नहीं किया जा सकता है, और उसे हटा देने से खुद इस गोरखधंधे के अलावा कोई दूसरा प्रेत नहीं दिखाई देता है ? दूसरे शब्दों में अगर दोनों ही, वास्तविक चेहरा और नकाब, समान रूप से यथार्थ हैं तो उनमें भेद कैसे किया जाएगा ?
इसमें लकान एक मार्के की बात कहते हैं कि “सत्य को यदि एक बार आत्मसात कर लिया जाता है तो उसे अलग से पहचानना सरल नहीं होता है । ऐसा नहीं है कि कुछ स्थापित सत्य नहीं होते हैं, लेकिन वे उन्हें घेरे हुए यथार्थ से इस कदर घुल-मिल जाते हैं कि उसे अलग से पहचानने का लंबे काल तक कोई ऐसा साधन नहीं मिला था, जो उसे किसी दूसरी दुनिया से आए आत्मा के संकेत और उनके प्रति श्रद्धांजलि के भाव से अलगा सके । यह वह कहानी नहीं है जिसे इस तथ्य के प्रति आदमी की एक प्रकार की अंधता कह दिया जाए कि सत्य उसके लिये कभी भी उस खूबसूरत लड़की की तरह नहीं होता जिसके हाथ में ऊपर उठे हुए प्रकाश से अनपेक्षित रूप में उसकी नग्नता प्रकाशित हो जाती है ।” इसीलिये फ्रायड के हवाले से वे कहते हैं कि मनोविश्लेषक को आगे क्या होने वाला है, उसके प्रति किंचित बेवकूफ ही बने रहना चाहिए ।

लकान ने यहीं पर कहा था कि पागलपन का अध्ययन सत्य का संधान है । फ्रायड के मुंह से सत्य ऐसा होता है जैसे बैल को उसके सींग से पकड़ा गया हो । “तुम्हारे लिये मैं उस औरत की गुत्थी की तरह हूं जो जैसे ही उपस्थित होती है, दूर खिसक जाती है । तुम पुरुष अपने गुणों के आडंबर से मुझे छिपाने की इतनी भारी कोशिश करते रहते हो । फिर भी मैं मानता हूं कि तुम्हारी उलझन बिल्कुल सही है, क्योंकि जब भी तुम मुझे अपने तरीके से चलाने की कोशिश करते हो, मेरे बाने में उतर कर तुम अपने कपड़ों से ज्यादा कुछ नहीं बन पाते हो, जो तुम्हारे जैसे ही, एक मरीचिका की तरह होते हैं । तुममें प्रवेश करके मैं कहां जा रहा हूं ? और उसके पहले कहां था ? क्या मैं तुम्हें शायद कभी भी बताऊंगा ? लेकिन ताकि तुम जान पाओ कि मैं कहां हूं, मैं तुम्हें सिखाऊँगा कि किस संकेत से तुम मुझे पहचान सकते हो । ऐ पुरुष, सुनो, मैं तुम्हें गोपनीय बात बता रहा हूं । मैं, सत्य, बोल रहा हूँ ।”
इस प्रकार चीज खुद बोलती है । लकान ने लिखा कि “फ्रायड ने यह घोषणा की थी कि किसी को भी शिक्षित करना, शासित करना और उसका मनोविश्लेषण करना, ये तीनों काम एक साथ असंभव है । क्यों, क्योंकि इन तीनों कामों को करते वक्त सामने वाला (Subject) उस हाशिये में खिसक जाता है जिसे फ्रायड ने सत्य के लिये आरक्षित रखा था ।” (देखें, Jacques Lacan, Ecrits, page- 401-436)

हमारे अभिनवगुप्त कहते हैं कि “सत्य विश्व का जीवन है और वह केवल प्रकाश स्वरूप है ।” और “नील पीत सुख यह सब प्रकाशस्वरूप शिव ही है । इस प्रकाश स्वरूप परमाद्वैत के विषय में कौन सा उपाय उपेय संबंध हो सकता है क्योंकि वह केवल प्रकाश ही है ।”


बहरहाल, लकान ने फ्रायड के बारे में कहा था कि वे उन मामलों की ही चर्चा करते हैं जिन्हें वे आसानी से प्रमाणित नहीं कर पाते हैं । और, लकान के अनुसार, इसीलिये वे इतने मूल्यवान होते हैं । किसी भी विषय का आसानी से विश्लेषण न कर पाना ही उसे मूल्यवान बना देता है । फ्रायड ने एक समय के बाद अपने परिचित, निकट के लोगों का विश्लेषण करना बंद कर दिया था । दरअसल, फ्रायड के विश्लेषण बहुत बेबाक होते थे और उन्हें वे भविष्यसूचक नहीं मानते थे । वे जब किसी ऐसी प्रवृत्ति को खोलते जो विषय की मूल प्रवृत्ति से अलग होती है, तभी उनकी खोज की ताजगी हमें ऐसे संकेतक के प्रयोग को देखने से रोकती है जो उस प्रवृत्ति में ही अन्तरनिहित होता है । लेकिन जब फ्रायड किसी आदमी की नियति पर कोई राय देते तो उसमें हमें ईडीपस की कहानी में थेब्स के उस अंधे संत टायरीसियस की दुविधा देखने को मिलती थी, जिसने ईडीपस को बताया था कि उसने अपने पिता की हत्या करके अपनी मां से शादी की है । यह किसी अघटन को व्यक्त करने की तरह होता था । फ्रायड अपने सोच के इस विस्फोटक चरित्र से पूरी तरह वाकिफ थे । अपने सहकर्मी कार्ल जुंग से, जो 1913 में ही फ्रायड से अलग हो गये थे और आदमी पर माइथोलोजी के प्रभाव के अध्ययन में निमज्जित हो गये थे, फ्रायड ने न्यूयार्क की यात्रा (1909) के दौरान कहा था कि ये अमेरिकी नहीं जानते कि हम उनके लिये प्लेग ले कर जा रहे हैं ।

मनोविश्लेषण की दुनिया में फ्रायड और जुंग के रिश्तों के बारे बहुत चर्चा रही है । फ्रायड जुंग से 1906 में मिले थे और दोनों में बहुत ही गाढ़ी दोस्ती हो गई थी । एक समय में फ्रायड जुंग को अपना बेटा भी कहने लगे थे । लेकिन कहते हैं कि जब फ्रायड ने जुंग की ‘ईडीपस ग्रंथी’ की खोज कर ली, तब उन्हें उससे अपना नाता तोड़ने में एक क्षण नहीं लगा । जुंग का रूझान सामूहिक अवचेतन की अभिव्यक्तियों के विषय, धर्म, रहस्यवाद और परातात्विक विषयों की ओर हो गया था ।


जो भी हो, लकान की फ्रायड के बारे में यह साफ राय थी कि यदि उन्होंने मनोचिकित्सा का मार्ग न खोला होता तो इस क्षेत्र के किसी भी विश्लेषक का आज कोई स्थान नहीं होता, कोई अपने को विश्लेषक नहीं कह सकता । यहां तक कि फ्रायड ने भी अपने को विश्लेषक नहीं कहा था । कोई भी नौसिखिया आदमी किसी को कोई नुस्खा बता देने से विश्लेषक नहीं कहला सकता है । फ्रायड ने भी जब आदमी की वासना तक सीमित मनोविज्ञान को निकाल कर उसके लक्ष्य की सापेक्षता में रखा, तभी उसने एक विज्ञान का रूप लिया था । अन्य किसी भी क्रांति की तरह फ्रायडीय क्रांति भी अपने संदर्भों से ही अपना अर्थ ग्रहण करती है, उस समय तक मनोविज्ञान का जो रूप था, उसके संदर्भ से । वैसे ही फ्रायड के बाद मनोविश्लेषण फ्रायड के कामों से ही संदर्भित होता है।


इस बारे में लकान ने नए-नए शब्दों को गढ़ने की अपनी प्रवृत्ति के अनुसार एक शब्द गढ़ा था — ‘s’hystorize’ । एक शब्द जो एक साथ चार भावों को व्यक्त करता था — Authority (अधिकार), hysteria (प्रमाद), Tore (अलगाव) और History (इतिहास) । लकान अपने मनोविश्लेषक मित्रों से पूछते हैं कि भले आप इस पेशे में अपने बाप-दादा के कारण ही आए हो, पर यह वंश परंपरा आपको क्या पहचान देगी — एक रबड़ स्टांप की पहचान । मेरा जन्म इसका प्रमाण-पत्र है । लकान इसे ठुकराते हुए कहते हैं कि मैं कवि नहीं, कविता हूं ; कविता जिसे लिखा जा रहा है, भले मैं किसी आदमी की शक्ल में क्यों न रहूं । यह प्रमाण-पत्र क्या आपको खुद को hystorize करने के लिये प्रेरित कर सकता है ? ऐसा विश्लेषक अपने पूर्व के विश्लेषकों को मार कर सामने आता है, जिसे आप एक सकारात्मक स्थानांतरण कह सकते हैं ।

इसी पूरे संदर्भ में लकान कहते हैं कि मनोविश्लेषण का पेशा सपनों के अचेत कार्य, सत्य की मरीचिका के खेल से अपने को जोड़ता है, जिससे सिर्फ झूठ की अपेक्षा की जा सकती है । इसे ही विनम्र भाषा में हम ‘प्रतिरोध’ कहते हैं । इस विश्लेषण के अंत में जो हासिल होता है, उसके लिये संतोष के अलावा दूसरा कोई शब्द नहीं है ।   

बहरहाल, यदि हम गहराई से गौर करे तो पायेंगे कि फ्रायड की 1895 की ‘सपनों की व्याख्या’ (The interpretation of Dreams), दैनंदिन जीवन के मनोवैज्ञानिक उपचार, चुटकुलों और अवचेतन के बीच संबंध आदि की तमाम बातें अपनी मूल प्रकृति में भाषा के जगत की बातें थी, शब्दों और लक्षणों के विन्यास के बीच संबंध से जुड़ी बातें । 1895 में ही फ्रायड ने रोगी से ‘बातचीत में शामिल होने के बारे में’ चर्चा में कहा था कि रोगी को एक खास क्षण में अचानक दर्द उठ जाता है । इसके कोई शारीरिक कारण नहीं नजर आते हैं । इस दर्द से पता चलता है कि कुछ ऐसा है जो उसके अंदर कुलबुला रहा है, अनकहा पड़ा है । इसी से शारीरिक बोध और भाषाई स्वरूप के बीच के संबंध का संकेत मिलता है । और, इसी से मनोविश्लेषक को एक संदेश मिल जाता है, रोग के कारण के संकेत मिल जाते हैं ।     


रोग के लक्षण और बातें


इस प्रकार फ्रायड के अध्ययनों से हम जान पाए कि कैसे कोई लक्षण और आदमी की क्रिया के पीछे वस्तुतः शरीर में फंसे हुए शब्द हो सकते हैं । लकान का प्रसिद्ध 85 पृष्ठों का लेख जिसे उन्होंने 26-27 सितंबर 1953 के दिन रोम में इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलोजी की कांग्रेस में पेश किया था, वह इसी विषय पर था — “मनोविश्लेषण में बात और भाषा की भूमिका और उनका परिसर” (The Function and Field of Speech and Language in Psychoanalysis)
इस लेख के प्राक्कथन के प्रारंभ में उन्होंने 1952 में मनोविश्लेषण संस्थान के उद्देश्य में लिखी गई इस बात को रखा था कि
“विशेष रूप से हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भ्रूणशास्त्र, शरीर रचना विज्ञान, शरीर क्रिया विज्ञान, मनोविज्ञान, समाजविज्ञान और चिकित्साशास्त्र में विभाजन का प्रकृति में कोई अस्तित्व नहीं है और ये सब एक विधा — स्नायुजीव विज्ञान ( Neurobiology) के अंतर्गत हैं । पर्यवेक्षणों के जरिये हम उसमें मनुष्य के उन लक्षणों को जोड़ते हैं जो हमारे विचार के विषय होते हैं ।”



इसी में लकान कहते हैं कि किसी भी तकनीक को तब तक न समझा जा सकता है और न उसका सफलता से रचनात्मक प्रयोग किया जा सकता है, जब तक वह जिस बात पर आधारित है उसे सही ढंग से नहीं समझा जाता है । मनोविश्लेषण की सारी अवधारणाएँ भाषा के क्षेत्र में जाकर ही अपना पूरा अर्थ ग्रहण करती है और बातों, कथन की भूमिका के संबंध में क्रमबद्ध होती है ।

मनोविश्लेषक के पास उसका प्रमुख औजार होता है — रोगी की बातें । घटना को शब्दों का रूप दे कर लक्षणों को दूर करना । फ्रायड का प्रसिद्ध अन्ना ओ का मामला इसीलिये महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि इसमें अन्ना ओ के लक्षणों को उसके साथ हुई घटनाओं की स्मृतियों को शब्दों में ढाल कर ही दूर किया गया था । मनोविश्लेषक रोगी की बातों पर प्रतिक्रिया दे अथवा न दे, ध्यान जरूर देता है । लेकिन यदि वह यह नहीं जानता कि रोगी का कथन क्या काम करता है तब वह उन बातों के प्रति अतिरिक्त आग्रही हो जायेगा और यदि रोगी की बातों के खोखलेपन को ही वह अपने विश्लेषण में सुनने लगता है तो यह खोखलापन खुद विश्लेषक के अंदर उतरने लगेगा, वह उसे अपने अंदर महसूस करने लगेगा और इस खोखलेपन को भरने के लिये कथन के बाहर के किसी यथार्थ की दिशा में मुड़ जायेगा । आदमी जो नहीं कह रहा है, उसके व्यवहार के विश्लेषण से विश्लेषक उसे ही खोजता है । लकान कहते हैं कि यही वजह है कि रोगी से बात के वक्त उन बातों को अर्थ प्रदान करने वाला एक ‘अन्य‘ भी वहां मौजूद होता है । इस प्रकार इन बातों में शरीर होता है, भाषा होती है और तीसरा सत्य भी होता है । यहीं से आदमी के चित्त और कल्पना में यथार्थ की भूमिका की जगह बनती है । एक दबे हुए आदमी की आक्रामकता निराशा में मृत्यु की कामना करती है, जबकि जानवर निराश हो कर खूंखार हो जाता है । इस प्रकार आक्रामकता का ठोस स्वरूप हमेशा हमारी कल्पना के आक्रामक पहलू से भिन्न होता है ।
जो भी आदमी के व्यवहार को किन्हीं यांत्रिक फार्मूलों से समझने पर विश्वास करते हैं उनसे लकान का सवाल था कि उनके लिये आदमी की अपनी स्मृतियों का कोई स्वतंत्र महत्व है या नहीं ? पुरानी बातों को दोहराते वक्त भी आदमी एक प्रकार से भाषा में बोल रहा होता है । यहां तक कि सम्मोहन की दशा में भी, जब आदमी अपनी सचेत अनुभूतियों से कट जाता है, उसकी अभिव्यक्ति भाषाई अभिव्यक्ति ही होती है, अर्थात् भाषा के साथ जुड़ी हुई सारी चीजें उसके साथ मौजूद रहती है । (Ecrits, page – 256)


फ्रायड के यहां एक पदबंध आता है — ‘मृत्यु कामना’ (Death Instinct) । कामना तो जीवन में आदमी की क्रियाओं को संचालित करती है और मृत्यु जीवन को खत्म करती है । यह दोनों जीवन के सत्य हैं । पर किसी विक्षिप्त आदमी में यह जीवन और मृत्यु का चक्र मानो तेजी से बार- बार घटित होने लगता है । इसे उसके दैनंदिन व्यवहार में देखा जाने लगता है । तब वह सिर्फ जैविक अर्थात् एक शारीरिक मामला नहीं रह जाता है । (Ecrits, page – 317)

बहुत से विश्लेषक इस प्रकार के दो परस्पर-विरोधी पदों को एक साथ जोड़ कर रखने पर ठिठक जाते हैं । जैसे अचेतन विचार (Unconscious thought) । लकान इसे उनकी द्वंद्वात्मक अज्ञता कहते हैं । यह अज्ञता किसी भी सिद्ध कथन से शब्दार्थ विज्ञान के सामने खड़ी होने वाली क्लासिकल समस्या से घबड़ा जाया करती है । यहीं पर लकान ने ही अभिनवगुप्त के ‘ध्वन्यालोक’ से एक उदाहरण लिया है । वे अभिनवगुप्त का हमेशा हिंदू सौन्दर्यशास्त्री कहके जिक्र किया करते थे और सूक्ष्मता से जांच करने पर साफ पता चलता है कि शब्द के ध्वन्यात्मक पहलू के चित्तमूलक प्रभाव पर भारत में जो काम हुआ था, फ्रायड और लकान उससे काफी परिचित थे और उसके महत्व को समझते थे ।


लकान ने इस संदर्भ में अभिनवगुप्त का जो उदाहरण लिया वह ‘गंगायां घोषः’ (a hamlet on the Ganges) वाक्य का था । अभिनवगुप्त ने इसके बारे में लिखा था कि “घोष पद का अर्थ अभीरपल्ली (झोपड़ी) है ।...प्रत्यक्षतः हम देखते हैं कि जलप्रवाह में झोपड़ी रुक नहीं सकती है । वह बह जायेगी । इस प्रत्यक्ष बाधित अन्वयानुपपत्ति (दोनों के बीच असंगति) के कारण यहां मुख्यार्थ का बाध होता है ।” इस पर अभिनव का कहना था कि “इस मुख्यार्थ के बाध के कारण ही यहां पर लक्षणाशक्ति की प्रवृत्ति होती है । (मुख्यार्थबाधादिसहकार्यपेक्षार्थप्रतिभासनशक्तिर्लक्षणाशक्ति) इससे यह भी निश्चित हो गया कि मुख्यार्थ बाध का कारण अन्वयानुपपत्ति ही है ।”

इस पर आपत्ति करने वालों को जवाब देते हुए अभिनवगुप्त ने इसे तात्पर्यानुपपत्ति से जोड़ा । दो पदों की असंगतिपूर्ण संयुक्ति के पीछे के तात्पर्य से । अभिनव इसकी चर्चा वहां करते हैं जहां वे ‘सिंहो वटु’  की चर्चा करते हुए बताते हैं कि इसमें काव्यत्व नहीं है, और कहते हैं कि लक्षणा तभी मुमकिन है जब 1. मुख्यार्थ का बाध हो, 2. मुख्यार्थ का संयोग हो और 3. प्रयोजन भी हो ।

बहुत सूक्ष्मता से गौर करने की बात है कि यहां शब्द की लक्षणा शक्ति कैसे प्रकारांतर से फ्रायड के मनोरोग के लक्षणों के समानार्थी प्रतीत हो रही है — जिसमें मन में कुछ अटका होना, कुछ खास कहना और विशेष उद्देश्य से कहना निश्चित तौर पर शामिल होता है । आचरण के पीछे का तात्पर्य खुलने पर अर्थ की बाधा खत्म हो जाती है ।


लकान जहां ‘मनोविश्लेषण की तकनीक में व्याख्या और रोगी के संकेत की गूंजों’ (The Resonances of Interpretation and the Time of the Subject in Psychoanalytic Technique) के बारे में चर्चा करते हैं, उसमें भी वे भारत के ध्वनि सिद्धांत की बात करते हैं । वे कहते हैं कि यह “हिंदू परंपरा हमें ध्वनि के बारे में सिखाती है, कथन के उस गुण को परिभाषित करती है जिससे जो कहा नहीं गया, उसे संप्रेषित किया जाता है ।” (Ecrits, page 294-295)

यहां लकान ने अभिनवगुप्त से ही एक और उदाहरण लिया है जिसका उन्होंने ‘ध्वन्यालोक’ में वहां जिक्र किया था जहां वे ‘प्रतीयमान विवेचन’ पर बात कर रहे थे । यह बताने के लिये कि प्रतीयमान अर्थ वाच्यार्थ से कैसे भिन्न होता है, वे एक गाथा का उल्लेख करते हैं, जिसका अर्थ है — “हे धार्मिक ! आप विश्वासपूर्वक भ्रमण करें, वह कुत्ता जो आपको परेशान किया करता था उसको आज इस गोदावरी नदी के तट के कुंज में रहने वाले सिंह ने मार दिया ।”

इस पर अभिनवगुप्त कहते हैं कि “इस गाथा का वाच्यार्थ तो विधिरूप है । भ्रमण करने के लिए विधान रूप है, किंतु इसका प्रतीयमानार्थ निषेध रूप है । वह इस प्रकार है कि अब तक तो यहां कुत्ता ही रहता था इसलिये आप यहां आ जाते थे, अब यहां मांसभक्षी सिंह आ गया है । अब यहां आने में आपको अपने प्राणों का खतरा है । अतएव इधर कभी मत आइयेगा ।” (ध्वन्यालोकः, पृष्ठ – 44)



प्रतीयमान अर्थ के तात्पर्य को और व्याख्यायित करते हुए अभिनवगुप्त कहते हैं — “यह प्रतीयमान अर्थ वाच्यार्थ के आश्रित होता है तथा वस्तु, अलंकार तथा रसादि के भेद से अनेक प्रकार का होता है ।” यहीं पर अभिनवगुप्त ‘ध्वनि’ की जो परिभाषा और व्याख्या पेश करते हैं, वह हमारी इस पूरी लकान और मनोविश्लेषण संबंधी चर्चा में अभिनवगुप्त के बार-बार प्रवेश की संगति को प्रमाणित करने के लिये काफी है ।

वे इसमें प्रतीयमान अर्थ के तौर पर मनुष्य के स्वप्न में आने वाले सहृदयों के हृदय में विद्यमान रति आदि स्थायी भाव की वासना के रसस्वरूप का जिक्र करते हैं । “उसी प्रतीयमान अर्थ को काव्यव्यापारैकगोचर रस ध्वनि कहते हैं । वह भी ध्वनि है । वह सभी ध्वनियों में मुख्य होने के कारण काव्य की आत्मा होती है ।” (वही, पृष्ठ 45)

फ्रायड कहते थे, हर सपने की एक शाब्दिक संरचना होती है । एक चित्रात्मक पहेली । बच्चों के दिमाग में बनने वाले चित्र । हमारे ‘ध्वनिवादी’ के शब्दों में अविवेक्षित (अनभिप्रेत) व्यंजना । फ्रायड कहते है कि वे वयस्कों के सपनों में भी ध्वन्यात्मक और प्रतीकात्मक सांकेतिक तत्त्वों, व्यंजनाओं का पुनरूत्पादन करते है । जैसे मिस्र में पाई जाने वाली चित्रलिपि (Hieroglyphs) और आज चीन में प्रयुक्त होने वाले संकेताक्षर ।

लकान के कहना था कि फ्रायड ने यह नियम की तरह तय किया था कि एक सपने में हमेशा एक वासना की अभिप्रेत की खोज करनी चाहिए । लेकिन इससे उनका क्या तात्पर्य था, इसे जानना होगा । फ्रायड यदि इसे सपने का कारण मान लेते हैं, जो उनकी थिसिस के विपरीत लगता है, तो सामने वाले व्यक्ति में, जिसे वे अपने सिद्धांत को समझा रहे थे, उन्हें ही काटने की वासना को वे क्यों खुद के लिये किसी कारण के रूप नहीं स्वीकारते हैं, जब उनका नियम ही अन्य से आया हुआ माना जाता है ?

संक्षेप में, कहीं भी यह इतना साफ नहीं दिखाई देता है कि आदमी की वासना अन्य की वासना से अर्थ ग्रहण करती है, इसलिये नहीं कि अन्य के पास उसकी वासना की कोई अलग वस्तु होती है, बल्कि उसका पहला लक्ष्य होता है कि अन्य उसे स्वीकारे । लकान सबके अनुभवों के आधार पर कहते हैं कि जिस क्षण विश्लेषण उपचार के पथ पर बढ़ता है, जिसका पता इस बात से चलता है कि रोगी किस हद तक बातचीत में शामिल हो रहा है, उसी क्षण से रोगी के प्रत्येक सपने को एक उकसावे के रूप, उसके आंतरिक प्रतिरोध और भटकाने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए, और जैसे-जैसे विश्लेषण आगे बढ़ता है, उसके सपने विश्लेषण के दौरान संवाद के रूप में बदलने लगते हैं ।



फ्रायड ने ‘दैनंदिन जीवन में मनोचिकित्सा’ का जो एक नया क्षेत्र खोला था, उसमें उनका साफ कथन था कि “आदमी का हर उटपटांग नजर आने वाला कदम एक सफल, बल्कि ‘सुविन्यस्त’ विमर्श होता है और जिसे दबा कर रखा जाता है, जुबान की फिसलनों से वही कथन का रूप लेता है और इन शब्दों से सच को समझ लेना बुद्धिमान के लिये काफी होता है ।”

जो भी व्यक्ति आनन्दवर्धन के ‘ध्वन्यालोक’ से परिचित है, वे इस बिंदु को और भी अच्छी तरह से समझ सकते हैं जिसमें विवक्षित अर्थात् अपने अभिप्रेत में साफ और अविवक्षित अर्थात् अनभिप्रेत वाच्य पर व्यंजक दृष्टि के बारे में काफी विस्तार से विवेचना की गई है ।

लकान ने लिखा था कि कोई भी लक्षण विक्षिप्ततामूलक हो या न हो, उसे यदि आपको मनोविश्लेषण का विषय बनाना है तो इसके लिये फ्रायड शब्द के दोहरे अर्थ के कारण कम से कम उसके विवक्षित और अविवक्षित अर्थ के बीच फर्क करने पर बल देते थे । हम सामने वाले के साथ मुक्त संपर्क के पाठ में पीछे की सांकेतिक धारा के उदीयमान स्वरूपों पर गौर करें, ताकि उसके ढांचे के प्रमुख बिंदुओं का उन जगहों पर पकड़ सके जहां उसके लक्षण के शाब्दिक रूप सामने आते हैं, तब हमारे सामने यह साफ हो जाता है कि अब लक्षणों का समाधान भाषा के विश्लेषण के जरिये पूरी तरह से किया जा सकता है, क्योंकि तब खुद लक्षण का विन्यास भाषा की तरह होता है ; लक्षण एक भाषा है जिससे किसी न किसी बात का स्फोट होगा ही । (देखें, Ecrits, page – 268=269)
(क्रमश:)




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