गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा - 6


(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी

जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(6)

मानव प्राणी की मूल प्रकृति और लकान

इस धरती के अन्य प्राणी अपने पर्यावरण के अनुरूप उससे ताल-मेल बैठाते हुए कैसे जीए, इसे वे जानते हैं । लेकिन अकेला मानव प्राणी है जो इस बात को नहीं जानता क्योंकि वह नैसर्गिक तौर पर ही सिर्फ अपने प्रकृत परिवेश के दायरे में नहीं जीता है । लकान कहते थे कि हमारे प्राणी जगत में मानव प्राणी एक मात्र है जो अनिवार्य तौर पर समय पूर्व (premature) पैदा होता है, वह अन्याश्रित होता है । प्रकृति के साथ उसके संबंध नवजात शिशु के प्रारंभिक महीनों में ही जैसे किन्हीं स्फोट (dehiscence) के साथ बदलता जाता है । उसका पूरा निर्माण उसके परिवेश के दृश्यों-छवियों से हुआ करता है, जो पल-पल कुछ-कुछ बदलता भी रहता है । यह शुद्ध रूप में प्राकृतिक अर्थात् भौतिक नहीं होता है । (देखें — Jacques Lacan, Ecrits, The Mirror Stage as Formation of the  I Function, Page – 78, )


हम हमेशा वास्तुकला, चित्रकला, फिल्म, फैशन की बदलती हुई शैलियों में अपने जीवन को नाना रूपों में बनते-बिगड़ते हुए देखते हैं । इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि हमारा पर्यावरण प्रकृति की तरह ही कहीं न कहीं इन तमाम दृश्य कलाओं से भी निर्मित होता है और हमारे मानस को निर्मित करने में इनकी एक बड़ी भूमिका होती है । हम अपने को हमेशा एक जटिल सांस्कृतिक परिवेश से घिरा पाते हैं जो हमें जन्म के साथ अपने बुजुर्गों से, माता-पिता से मिलता है । किसी भी प्राणी मात्र से जुड़ी सेक्स की सार्विक (universal) प्रक्रिया के बीच से x y क्रोमोजोम्स के मेल से गर्भ में पैदा होने और धरती पर आने के बाद बहुत जल्द हम जैसे ही अपने मन से स्वतंत्र रूप में कोई काम करते हैं, तभी हम अपने जीवन में एक प्रकार के परिवर्तन को अपनाते हैं, अर्थात् लकान के शब्दों में, ‘परिस्थिति का लाभ उठाते हैं‘ । काल के उसी क्षण और भूगोल के उसी स्थान में हम अपनी उस जाति-सत्ता की सार्विकता को छोड़ कर, जो हमें अन्य प्राणियों से जोड़ती थी, अपने अहम् (ego) को प्राप्त करते हैं । आदमी का अहम् एक प्रकृत परिवेश में उसका अपना हस्ताक्षर होता है । (वही, पृष्ठ — 75-81)


इसके साथ ही क्रमशः हम यह भी देखते हैं कि आदमी मनुष्यों के भी किसी एक परिवार के अंग मात्र नहीं है, बल्कि विभिन्न भाषाओं, जातियों, नस्लों, धर्मों, सामाजिक वर्गों, राजनीतिक निष्ठाओँ, पारिवारिक परंपराओं और पंथों में बटे हुए हैं । यहीं से उसके अंदर एक प्रमुख समस्या, एक कशमकश पैदा हो जाती है कि वह कैसे इन अलग-अलग पहचानमूलक सांस्कृतिक समूहों में खुद को शामिल करें, इन समूहों के नये सदस्य कैसे बनें ? कला और संस्कृति का बहुविध संसार ही मुख्य रूप से उसके सामने यह समस्या पेश करता है । वही मनुष्य के ज्ञान, उसकी कामनाओं और क्रियाओं के मूल में काम कर रहा होता है । और कहना न होगा, लकान के विश्लेषणों से हमें जीवन और कला के, मनुष्यों और उनके अपने खुद के दृश्यमूलक रचावों के बीच संबंधों के मूलभूत सवालों पर सोचने का रास्ता मिलता है । इसी से लकान के सेमिनारों के प्रति लेखकों, कलाकारों के अतिरिक्त आकर्षण के पहलू को भी समझा जा सकता है ।

लकान के प्रति हमारी तमाम जिज्ञासाओं की कुंजी इस बात में है कि हम जो भी सवाल करते हैं, जो जानना चाहते हैं, वे किससे करते हैं और हम किससे उनके जवाब की उम्मीद कर रहे होते हैं । लकान कहते हैं कि हमारे सवाल हमेशा उन अन्य से पूछे जाते हैं जिनके बारे में हम समझते हैं कि वे उनके जवाब जानते हैं । मसलन् माता, पिता, शिक्षक, चिकित्सक, पुजारी, मित्र, प्रेमी, यहां तक कि हमारे दुश्मन भी ।

हमारे यहां अभिनवगुप्त इस 'अन्य' को ही गुरू भी कहते हैं । हमारे प्रश्नों का प्रथम लक्ष्य । हमारे ये सवाल हमारे उन परिजनों, सामान्य 'अन्यों' से होते हैं जो उस परिवेश का निर्माण करते हैं जिसमें हम जन्म लेते हैं, शिक्षा पाते हैं, जिसमें हम अपनी इच्छा-अनिच्छा से शामिल होते हैं और कई प्रकार के खास शब्दों और मुहावरों में जिन्हें हम अपने को परेशान करने वाले सवालों के जवाबों से देखने की कोशिश करते हैं । 'तुम हम से क्या चाहते हो ? तुम मुझे किस प्रकार के इंसान के रूप में देखना चाहते हो ?' — उन सबसे मन ही मन में इस प्रकार के सवालों के जरिये हम अपने लिये उनके जगत से स्वीकृति पाने की कोशिश करते हैं, और इस प्रकार हम अपने स्तर पर भी हमेशा इन सवालों के तनावों को झेलते रहते हैं ।

फ्रायड का प्रवेश



लकान को आदमी के अपने इन अस्तित्वीय सवालों का पहला स्पष्टीकरण फ्रायड से मिला था — रोगी की मनोगत तकलीफों को दूर करने की उनकी कोशिशों से, जिन तकलीफों के रहस्यमय शारीरिक प्रभावों का तत्कालीन चिकित्सा विज्ञान के पास कोई जवाब या निदान नहीं हुआ करता था ।

फ्रायड ने अपने रोगियों की कहानियों से जाना कि उनकी तकलीफें झूठी नहीं, वास्तविक हैं । उनके सवाल आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं । 'मैं आदमी हूं या औरत ?' — एक प्रमादग्रस्त व्यक्ति (Hysterical) जानना चाहता है जो पुरुष या औरत की मान्य भूमिका अदा करने से इंकार करता है । 'मैं जिंदा हूं या मर चुका हूं ?' — जुनूनी आदमी (Neurotic) यह सवाल करता है । वो सामाजिक तौर पर अपने खास, मन के तयशुदा रास्ते पर चलने पर अड़ा रहता है, उसे छोड़ना नहीं चाहता ।

इन दोनों के ही मुख्य सवालों में एक मूलभूत व्यग्रता होती है — अधिकार-प्राप्त प्रतिनिधियों मसलन् मां-बाप, शिक्षक, बौस, सुपरवाइजर्स, आफिसर, संपादक, आलोचक, मंत्री, रबी, इमाम, शमन, गुरू, पादरी की उनसे की जाने वाली मांगों में निहित उन सबकी अपनी रहस्यमय इच्छाओं, कामनाओं को जानने की व्यग्रता ।

हर व्यक्ति इस बात को लेकर परेशान रहता है कि अन्य उससे क्या चाहता है । जैसे वह किसी कथाकार या चित्रकार किसी का चरित्र या पात्र हो और वह चरित्र उत्सुकता के साथ इस उधेड़बुन में रहता है कि आखिर वह लेखक या कलाकार उससे क्या चाहता है ? जो उन्मादी चरित्र होता है वह अपने से की जाने वाली तमाम उम्मीदों का प्रतिवाद और प्रतिरोध करता है । यह प्रतिरोध अवांगर्द कलाकारों जैसा होता है जो अपने वक्त के कला के मानक नियमों को मानने से हमेशा इंकार करते रहे हैं । इसके विपरीत, जुनूनी आदमी — अथवा संस्कृति की पारंपरिक और अकादमिक दुनिया का आदमी — अन्य की कल्पित कामनाओं में हमेशा इस बात को ढूंढता रहता है कि उसमें सामान्य अनुशासन का पालन किया गया है या नहीं ? उसका बल इस बात पर ही ज्यादा से ज्यादा होता है कि इन मान्य नियमों का शत्-प्रतिशत पालन किया जाना चाहिए । वह एक प्रकार से बिल्कुल अंधा हो कर चली आ रही परंपराओं को पकड़ा रहता है ।


आज मनोचिकित्सा के क्रम में ऐसे रोगियों को मनोविश्लेषक यही सुझाव देते हैं कि न सिर्फ प्रतिरोध करते जाने की जरूरत है और न पूरी तरह से परंपरा और नियमों का पालन करने की, अर्थात न लकीर का फकीर हो कर ही चलने की जरूरत है । इसका साधारण सा कारण यह है कि जिस 'अन्य' के बारे में आप सोचते हैं कि वह जीवन के मूलभूत सवालों का जवाब जानता है, ऐसी सर्वज्ञानी-आत्मा का कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं है, जिसकी मान्यताओं को आदमी को अपनी खुद की इच्छाओं के ऊपर तरजीह देना जरूरी हो ।  विश्लेषक के सलाह-परामर्श के सेशन की एक लंबी और कठिन प्रक्रिया के जरिये वह आदमी अपने को अन्य की कामनाओं की कल्पनाओं के पाश से मुक्त करता है और अपनी कामना के अनुसार स्वतंत्र हो कर जीने का रास्ता अपनाता है । हमारे तंत्रशास्त्र में इसे ही स्व छंद को पाना कहते हैं । यह गुरू से भी मुक्ति की प्रक्रिया है, जिसके सर पर लदे रहने तक आदमी की आंतरिक कसमसाहट का कोई अंत नहीं होता है, उसका व्यक्तित्व दमित ही रहता है । आदमी की स्वतंत्रता की अंतहीन इच्छा और क्रियात्मकता ही उसकी आत्म-मुक्ति का एक सनातन संघर्ष है । स्वतंत्रता ही आदमी के जीवन संघर्ष का पारमार्थिक संदर्भ, अभिनवगुप्त की भाषा में, मोक्ष है ।

स्वतन्त्रमातिरिक्तस्तु तुच्छोऽतुच्छोऽपि कश्र्चन ।
न मोक्षो ना तन्नास्य पृथंग्नापि गृह्यते ।।
(स्वतन्त्र आत्मा के अतिरिक्त मोक्ष नामक कोई भी तुच्छ या अतुच्छ पदार्थ नहीं है । इसीलिए इस (मोक्ष) का अलग से नाम भी नहीं लिया जाता (लक्षण आदि की चर्चा तो दूर की बात है ।)


यह सच है कि किसी भी मनुष्य के शरीर में उसकी अपनी कामनाओं की स्वतंत्रता के धारण की शक्ति की सीमा होती है । लेकिन यह सीमा व्यक्ति की हो सकती है । प्रचलित सामाजिक शील और नियमों की नहीं । उनमें स्वतंत्रता के व्यापकतम स्वरूप को समाहित किया जा सकता है । हर बड़ा कलाकार इस सत्य को अच्छी तरह से जानता है । और इसे जान कर ही वह अपने साथ इसी शक्ति को जोड़ कर उड़ान भरा करता है । ऐसे कलाकार अपने को समग्र सामाजिक प्रक्रियाओं और परिघटनाओं के अंग के रूप में देखते हैं और इसीलिये शाश्वत मूल्यों की कृतियों की रचना कर पाते हैं ।

आदमी की मूलभूत नैसर्गिक वृत्तियों, ‘परिस्थिति से लाभ उठाने’ की संकीर्ण सीमाओं के बजाय स्वातंत्र्य की संस्कृति के लचीले दायरे में उसे रखने के लिये ही लकान ने मानवीय अनुभूति की तीन ग्रंथियों (तीन खातों) की तुलना की, जिन्हें सामने रख कर ही हम लकान की मूलभूत स्थापनाओं को समझ सकते हैं । ये है ठोस यथार्थ (Reality), प्रतीकमूलक (Symbolic) और काल्पनिक (Imaginary) अनुभूतियां । RSI । सत्, चित्त, आनंद — सच्चिदानंद । हमारी आंखें जब इनके अबूझ से चिन्हों को, लक्षणों को धीरे-धीरे दृष्ट रूप में पहचानती है और दिमागी स्तर पर इनका विखंडन करती है, हम अपने इन त्रिआयामी अनुभवों में ही नाना प्रकार से डूबते जाते हैं ।

जैसा कि हमने पहले दृष्ट की, जो नजर आता है, उसकी चर्चा की, लकान इसकी सारी अनुभूतियों को चित्रात्मक छवियों के रूप में विवेचन का विषय बनाते हैं — लकान की पदावली में ये संकेतक (signifiers) होते हैं जिसे उन्होंने स्विस भाषाशास्त्री फर्दिनांद द सौस्योर से लिया है । ये संकेतक (लक्षण) ही आदमी के दृष्ट की पहचान की ग्रंथी को संचालित करते हैं जिन्हें लकान कल्पना के जगत के तत्वों के तौर पर देखते हैं । शब्दों और वाक्यों के अर्थ भी छवियों के रूप में, मानसिक छवियों के रूप में, जिन्हें संकेतित (signifieds) कहते हैं, प्रकट होते हैं, जो चीजों की अलग-अलग पहचान की भेदमूलक क्रियात्मक अंतरक्रिया का जगत रचते हैं, जिसे लकान ने प्रतीकमूलक व्यवस्था (symbolic order) कहा, कह सकते हैं, उसे ही तंत्रशास्त्र में चित्त की संज्ञा दी गई है । आदमी का चित्त ही उसके अंतर का symbolic order  है, यथार्थ और उसकी अनुभूति के बीच का प्रसारित बोधमूलक क्षेत्र।

चित्त के इसी अदृश्य खालीपन में जिसमें अक्षरों की दृष्ट छवियां और शब्दों के क्रियात्मक अर्थ अपने अस्पष्ट स्वरूप में प्रकट होते हैं, उनसे वह जरूरी जमीन तैयार होती है जो खुद न पूरी तरह से दृष्ट होती है और न क्रियात्मक । यह लक्षणों का जगत होता है जिन्हें परिस्थिति के अनुसार यथार्थ का रूप लेना होता है । यही मनुष्य की संभावनाओं और असंभवताओं का क्षेत्र है ।

किसी पृष्ठ का खालीपन, जैसे नक्शा बनाये जाने और भाषा से चिन्हित किये जाने के पहले का शरीर और विश्व — इसे ही लकान ने अद्भुत रहस्यमय ढंग से यथार्थ (reality) बताया है — चित्रों और भाषा के परे का स्वयं में पूर्ण संसार । मनुष्य का यथार्थ महज कोई दृष्ट संसार नहीं है । लकान की विलक्षण विडंबना यह है कि यह यथार्थ हमारे लिये सिर्फ घटित हो जाने के बाद ही, अनुभूति में ढल कर ही अस्तित्व में आता है — यह तभी सामने आता है जब उसकी आदिम अदृष्ट पूर्णता हमेशा के लिये काल्पनिक और प्रतीकात्मक चिन्हों के चित्रों और अभिलेखों के महाजाल में लुप्त हो जाती है ! यही हेगेल और मार्क्स के चिंतन का द्वंद्ववाद है ।


हेगेल का बहुत प्रसिद्ध कथन है —“स्वर्ग का उल्लू शाम के उतरने के बाद ही अपने पर फैलाता है ।”( The owl of Minerva spreads its wings only with the falling of the dusk.) बुद्धि और दर्शन की युनानी देवी एथेना से उल्लू को जोड़ा जाता है । हेगेल का कहना था कि जब दिन की प्रमुख घटनाएं घट जाती है, तभी दिन के अंत में दर्शन और विचार के उल्लू की उड़ान शुरू होती है । अर्थात् किसी इतिहास के अंत के बाद ही मनुष्य इतिहास के विकास के तर्क को समझ सकता है ; और एक बार पूरी तरह से समझ जाने पर वह इतिहास के साथ अपना हिसाब बैठा लेता है, उसकी गति को अपना लेता है । अर्थात् घटना घटित होने के बाद ही पूरी तरह से हमारी अनुभूति/अनुभव का रूप ले पाती है ।

इसी में, किंतु वह चमत्कार भी होता है, जैसा कि न्यूयार्क में 9/11 या लंदन में 7/7 के बारे में कहा जाता है कि दुनिया एक क्षण में पहले जैसी नहीं रही, जो अब तक था जैसे एक क्षण में मिट कर सपाट हो गया है, यथार्थ की अपौरुषेय अर्थहीनता अचानक और डराती हुई हमारे दृश्य में प्रविष्ट करती है और हमारे जाने-पहचाने जगत की अब तक की काल्पनिक और प्रतीकात्मक संहति को, उसके समन्वित, उसके समंजित रूप को अस्थिर कर देती है । आज कोरोना महामारी से उत्पन्न परिस्थितियां भी इसी श्रेणी में आती है ।

जब सत्, चित्त, और आनंद के तीन प्रारंभिक अक्षरों से सच्चिदानंद कहा जाता है, जैसे फ्रेंच भाषा में R.S.I  (reality, symbolic, imaginary) तो लगता है जैसे शायद कोई अन्य नक्षत्र का प्राणी बोल रहा है । इस प्रकार के मौखिक श्लेष और उनके भौतिक रूपों का अंतर-संबंध और उनका उन्मोचन — इन तीन क्रमों को पूरी तरह से व्यक्त करने का यह एक खास लकानियन उदाहरण भी है जिसमें मानव अनुभव के समूचे सत्य को समेट लिया गया है । लकान के अनुसार सचमुच ऐसे ही गंभीर, मायावी, ज्ञान-विहीन झूठ में ही सत्य निहित होता है, यद्यपि वह भी 'परम सत्य' नहीं है, जिसे वे बार-बार बल दे कर बताते रहते हैं ।

प्राणियों के जगत में इस प्रकार के भाषाई निदेशकों के बीच में आने से ही मानव का पशुओं की तुलना में बिल्कुल रूपांतरण हो जाता है । मनुष्यों का संसार शरीरों और भाषाओं का संसार हो जाता है । संकेतों की यही श्रृंखला मनुष्य को मनुष्य बनाती है । वह सांस्कृतिक तौर पर संचालित होने लगता है और ऐतिहासिक तौर पर भेदमूलक, अलग-अलग मानव समूहों में रूपांतरित हो जाता है । इसके साथ ही किसी भी पर्यवेक्षक की सबसे बड़ी विडंबना होती है कि वह विश्व में किसी भी मानव प्राणी की मूल वृत्ति से जुड़ी पूर्णता तक तत्काल पहुंच के रास्ते को खो देता है । मनुष्य असंख्य भेदों का समुच्चय हो जाता है । भेदाभेद ही उसका सच होता है । ‘शब्द ही ब्रह्म है’ के हमारे वाक्यपदीयकार की बात का रहस्य यही है ।


लकान कहते हैं कि किसी भी दृष्ट प्राणीसत्ता के रूप में हमें जो उपलब्ध हो पाता है उसकी दृष्ट छवियों के आवरण के पीछे घटित हुई इस आदिम क्षति को हम सहने के लिये अभिशप्त हैं । इस क्षति के स्थान पर हमें सांत्वना के तौर पर हासिल क्या होता है ? हमारी कथित 'संस्कृति' । आदमी पर बार-बार और लगातार संकेतकों की श्रृंखला का दबाव ही उसके व्यवहार में दोहराव की स्वतःस्फूर्तता का कारण है । वे कहते हैं कि यदि हमें फ्रायड की खोज को गंभीरता से लेना हैं तो आदमी के अवचेतन के विषय को इसी में कहीं खोजना होगा । (देखें — Seminar on “The Purloined Letter”, Ecrits, page -12)

इस प्रकार हमारी वाक्-प्राणीसत्ता को संकेतकों-प्रतीकों के क्रियात्मक अर्थों की सीमाओं में खुद के बारे में कुछ तात्कालिक अवबोध कायम करने के लिये कहा जाता है, जिसमें हमारी भाषा हमें संबोधित करती है और एक प्रकार से हमें सजाती-संवारती है । हमारी शारीरिक प्राणीसत्ता इस डरावने आधे-अधूरेपन को ही मान कर चलने के लिये मजबूर होती है, जो चुपचाप और अदृश्य रूप में, हमें सामाजिक मान्यताओं और नैतिकताओं के नाम पर घेरे रहती है । हम अपने तई, अपनी स्वतंत्र नैसर्गिकता के तई इन संदिग्ध संरचनाओं में जीने के लिये वास्तव में अपने स्तर पर जूझते रहते हैं । चित्त की ये संदिग्ध संरचनाएं ही जब किसी एक चरण में आकर मानो किसी विस्फोट से उड़ा दी जाती है, या उड़ जाती है — उससे मेल बैठाने में असमर्थ आदमी असामान्य या मनोरोगी कहलाने लगता है ।
(क्रमश:)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें