रविवार, 5 अप्रैल 2020

कोरोना और सभ्यता का संकट वार्ता श्रृंखला -3


—अरुण माहेश्वरी


(3)


आज कोरोना और सभ्यता का संकट श्रृंखला की तीसरी कड़ी में हम मूलतः भारत की परिस्थिति की चर्चा करेंगे ।
दुनिया की अकेली महाशक्ति अमेरिका कोरोना के संक्रमण के मामले में भी आज सबको पीछे छोड़ चुकी है । वहां के विश्व विख्यात, वयोवृद्ध बुद्धिजीवी नोम चोमस्की का कहना है कि यह एक गंभीर संकट है और इसके गंभीर परिणाम होंगे, इसके बावजूद ये परिणाम अस्थायी होंगे । इनसे आगे निकला जा सकेगा । लेकिन आज मानवता के सामने इससे कहीं ज्यादा दो गंभीर खतरे खड़े हैं — नाभिकीय युद्ध का खतरा और ग्लोबल वार्मिंग का खतरा । इनके परिणामों से आगे मानव सभ्यता के उबरने का कोई रास्ता नहीं रहेगा । “Coronavirus is horrible and can have terrifying consequences, but there will be recovery. While the others won’t be recovered, it’s finished.”

आज कोरोना के संदर्भ में युद्ध जैसी स्थिति की बात की जा रही है । इस बात का अपने में एक महत्व है । यदि हमें इस संकट का मुकाबला करना है तो हमें निश्चित तौर पर युद्ध के काल के तरह की तैयारियां करनी होगी । मसलन् द्वितीय विश्वयुद्ध के समय में अमेरिका ने जिस प्रकार से अपनी वित्तीय तैयारियां की थी । उससे कर्ज का भारी बोझ बढ़ा था लेकिन अमेरिका में उत्पादन कई गुना बढ़ गया और उससे सारी दुनिया का विकास हुआ । हमें आज उसी मानसिकता की जरूरत है ताकि दुनिया में अभावों के कारण जो समस्या पैदा हो रही है उसे दूर किया जा सके और यह काम धनी देशों को ही करना होगा । “एक सभ्य जगत में धनी देश जरूरतमंदों की मदद करेंगे न कि उन्हें दबा देंगे ।” चोमस्की कहते हैं कि कोरोना वायरस का यह संकट लोगों को यह सोचने पर मजबूर करेगा कि हमें किस प्रकार की दुनिया चाहिए ।

“In a civilized world, the rich countries would be giving assistance after those in need, instead of strangling them.” “The coronavirus crisis might bring people to think about what kind of world we want”.

यहीं पर आकर चोमस्की अमेरिका की एक खास समस्या की बात करते हैं और कहते हैं — “इस कठिन समय में अमेरिका की बागडोर एक असामाजिक मूर्ख (sociopath bufoon) डोनाल्ड ट्रंप के हाथ में है । ।”
उनका निष्कर्ष है कि कोरोना के इस संकट के खत्म होने के बाद दुनिया के सामने वास्तव में दो ही विकल्प रह जायेंगे — और ज्यादा सर्वाधिकारवादी एक निर्दयी, निष्ठुर राज्य अथवा मानवीय आधार पर समाज का मूलभूत पुनर्गठन ।

अब हम भारत पर आते हैं । हम दुनिया की एक विशाल आबादी वाले ऐसे देश है जिसे चंद साल पहले तक बहुत तेजी से विकास कर रहा विकासशील देश कहा जाता था, लेकिन पिछले छः सालों में हमारी स्थिति तेजी से पीछे की ओर, अवनति की ओर बढ़ रहे एक गरीब देश की होती जा रही है । और इस त्रासदी की एक मात्र वजह यह है कि हमारे देश पर पिछले छः सालों से एक ऐसे जुनूनी दल का शासन है जिसके पास इस देश के विकास का अपना कोई ब्लूप्रिंट ही नहीं है, फिर भी वह अपने को अब तक के रास्ते से एक भिन्न पथ का पथिक साबित करना चाहता है । यह दल एक अजीब प्रकार की जुनूनी विक्षिप्तता का शिकार है । वह यह मान कर चलता है कि भारत की सारी समस्याओं का निदान यहाँ के लोगों में हिंदू गौरव की भावना पैदा करने में निहित है । सत्ता पर आने के बाद भी इस दल के लोग देश के विविधता से भरे यथार्थ को स्वीकारने के लिये तैयार नहीं हैं । मोदी बार-बार 130 करोड़ देशवासियों का हवाला देने के बावजूद देश में हिंदू-मुसलमानों के बीच तनाव पैदा करके चुनावी लाभ उठाने के लोभ का कभी संवरण नहीं कर पाते हैं । मुसलमानों के प्रति तीव्र घृणा को अपने अंदर जागृत रखना और इसको फैलाने के काम में जुटे रहना इस पूरे समूह के लिये किसी धार्मिक कर्त्तव्य से कम पवित्र नहीं है । ये पाकिस्तान को गाहे-बगाहे हमेशा ललकारने और युद्धम देहि की मानसिकता में जीते हैं । आरएसएस की भाषा में इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहा जाता है ।

राष्ट्रवाद की एक बालूई जमीन में शुतुरमुर्ग की तरह सर गाड़े रहने से उन्हें लगता है कि लोगों में राष्ट्रीय निर्माण की शक्ति पैदा होती है और ये अपनी जुनूनी विक्षिप्तता में उसे ही मुर्गी के अंडे की तरह सेंते रहते हैं । इनके नेता मोदी को आडवाणी ने बिल्कुल सही इवेंट मैनेजमेंट का एक बड़ा नायक बताया था ।

इसे हम अपना दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहेंगे कि आज कोरोना के इस संकट के समय यही दल और नेतृत्व सत्ता पर है । मोदी ने अपने प्रतीकवादी सोच के तहत ही पहले कोरोना की विदाई के लिए लोगों से घंटे और थाली बजवाई और अब आज ही उन्होंने आगामी पांच अप्रैल को मोमबत्ती या दीया जला कर प्रकाश की महाशक्ति से कोरोना के अंधेरे को दूर करने का आह्वान किया है । और हम जानते हैं कि एक बार फिर अमिताभ बच्चन सरीखे तत्त्व अब इस प्रकाश पर्व के महिमामंडन से लोगों को ध्वनि पर्व की तरह ही पागल बनायेंगे ।

जहां तक इस महासंकट से जमीनी स्तर पर लड़ने का सवाल है, यह काम हमारे देश की सभी राज्य सरकारें काफी मुस्तैदी और गंभीरता के साथ कर रही हैं । केरल में किये जा रहे उपायों की तो सारी दुनिया में चर्चा है । मोदी ने सार्क देशों के नेतृत्व से एक फिजूल की वीडियो कांफरेंसिंग कर ली, जी 20 की कांफरेंस में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई लेकिन भारत की सभी राज्य सरकारों से सीधे बात करने की उन्हें दो दिन पहले ही फुर्सत मिल पाई । वह भी इसलिये क्योंकि अचानक 25 मार्च को घोषित लॉक डाउन का देश के गरीब मजदूरों पर जो आघात लगा था, इसका वे अपने स्तर पर अनुमान ही नहीं कर पाए थे । कोरोना से जंग के लिये सबसे पहले यह जेहन में रखने की जरूरत है कि इससे पीड़ित स्टेज थ्री के देशों में भारत दुनिया के सबसे गरीब देशों में एक है । हमारी आबादी का 80 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा असंगठित क्षेत्र के मजदूरों का है, जैसा दुनिया में कम ही है ।

भारत पिछले कुछ सालों से इस सरकार की नीतियों के कारण ही लगातार आर्थिक पतन की दिशा में बढ़ रहा है । दुनिया के किसी भी देश की तुलना में यहां चिकित्सा व्यवस्था कहीं ज़्यादा बुरी दशा में हैं । आर्थिक असमानता अभी अपने चरम पर पहुँच गई है । आम लोगों की क्रय क्षमता लगातार गिरती जा रही है । आम आदमी आज तक नोटबंदी के धक्के से निकल नहीं पाया है । चंद दिन पहले जारी हुए विश्व ख़ुशहाली के सूचकांक में भारत दुनिया के 156 देशों में 144 वें स्थान पर आ गया है । इतनी तमाम आर्थिक-सामाजिक प्रतिकूलताओं के बीच एक जुनूनी नेतृत्व में भारत को इस भयानक वायरस का मुक़ाबला करना है ।

सन् 1918 में फ़्रांस और जर्मनी से आए स्पैनिश फ़्लू के प्रकोप के समय सारी दुनिया में मरने वालों में भारत में मरने वालों की संख्या सबसे अधिक लगभग बीस प्रतिशत हो गई थी, सिर्फ इसकी गरीबी और औपनिवेशिक शासन की वजह से । भारत में उस वक्त एक करोड़ सत्तर लाख की जानें गई थी, जिनमें अधिकांश लोग गरीब थे । तुलनात्मक रूप से भारत की आज की स्थिति 1918 से बहुत अधिक भिन्न नहीं है । तब भी अंग्रेज सरकार ने रोग से पीड़ित लोगों की संख्या को दबा कर रखने का अपराध किया था और सबसे खराब बात यह है कि भारत की वर्तमान सरकार भी तथ्यों को दबाने की मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त है । हमारे यहां कोरोना की सबसे कम टेस्टिंग हुई है और इसीलिये अभी इससे आक्रांत लोगों की जो संख्या बताई जा रही है, वह विश्वासयोग्य नहीं है । और बिना सच्चाई को जाने किसी के लिए भी इस विपत्ति से लड़ने का सही रास्ता अपनाना असंभव है । रणभूमि में प्राणों के उत्सर्ग की कोरी भावुकता और उग्रता से इसका मुकाबला नहीं हो सकता है । मोदी ने अपने एक प्रवचन में इसकी तुलना महाभारत के युद्ध से की थी, लेकिन सच यह है कि न यह महाभारत का युद्ध है और न कोई और धर्मयुद्ध । तेज़ी से फैलने वाली एक वैश्विक महामारी है । इसीलिये इससे लड़ाई में ढोल-नगाड़ों, और थोथी हुंकारों को दूर ही रखना चाहिए ।

‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका के 21 मार्च के अंक में ही, जिसकी चर्चा हमने पिछली वार्ता में भी की थी, कोरोना के संभावित प्रभावों के बारे में अनुमान के भारतीय परिदृश्य पर एक लेख था — अरब लोगों का सवाल ; यदि कोविद-19 भारत में आ जाता है तो संख्या विकट होगी । (The billion-person question ; If covid-19 takes hold in India the toll will be grim)

इसके बाद ही, उप-शीर्षक के तौर पर कहा गया है — “भारत गरीब है, भीड़ से भरा हुआ है, डाक्टरों और उपकरणों की कमी है और बीमारियों के प्रकोप से भरा हुआ है ।” (It is poor, crowded, short of doctors and equipment and rife with exacerbating diseases)

इस लेख का शीर्षक ही आगे की कहानी का एक अनुमान देने के लिए काफी है ।

लेख की शुरूआत 1918-19 के स्पैनिश इन्फ्लुएँजा को याद करते हुए की गई थी जब भारत की आबादी का छठवा हिस्सा खत्म हो गया था । उसकी एक सदी के बाद जब भारत में भीड़ बहुत ज्यादा बढ़ गई है, इकोनोमिस्ट लिखता है कि इस बात की आशंका की जा रही है कि शायद कोरोना की सबसे बड़ी कीमत इसी देश को चुकानी पड़ सकती है ।

इस मामले में भारत अब तक तो भाग्यशाली रहा है । नाना कारणों से भारत में चीन, ईरान और इटली से लोगों की आवाजाही बहुत कम है । इसी कारण अब तक काफी कम लोग इससे संक्रमित हुए है और जो संक्रमित पाए भी गए हैं, वे बाहर से आए हुए लोग है । भारत की राज्य सरकारें और केंद्र सरकार यात्रियों को रोकने के बारे में सक्रिय हो चुकी है । सभी टेलिविजन चैनलों से इसके बारे में लोगों को लगातार जागरूक किया जा रहा है । मोबाइल फोन पर भी संदेश दिये जा रहे हैं । स्कूल, कालेज, सार्वजनिक कार्यक्रम रोक दिये गये है । केरल जैसे राज्य में जहां जन स्वास्थ्य व्यवस्था दूसरे किसी भी राज्य से काफी बेहतर है, लोगों के घरों तक स्कूल का भोजन पहुंचाया जा रहा है, सड़क किनारे बेसिन लगा कर हाथ धोने के प्रबंध किये गये हैं । लोग घरों में क्वारंटाइन के आदेश का सख्ती से पालन करे, इसके लिए महाराष्ट्र सरकार लोगों के हाथ पर स्टांप लगा दे रही है । केरल में एक समय निपा वायरस पाए जाने पर जो सांस्थानिक व्यवस्थाएं विकसित की गई थी, वे इस बार भी कारगर ढंग से काम कर रही है ।

पर ‘इकोनोमिस्ट’ के अनुसार, भारत में परीक्षणों के सही आंकड़ें ही नहीं मिल रहे हैं । परीक्षण महंगा है और उसकी उतनी व्यवस्था भी नहीं है, इसीलिए अब तक बमुश्किल पंद्रह हजार लोगों का परीक्षण किया जा सका है जबकि दक्षिण कोरिया जैसे छोटे देश में तीन लाख का परीक्षण हो चुका है । इसके अलावा चूंकि परीक्षण सिर्फ विदेश यात्रा से लौटे लोगों का किया जा रहा है, इसीलिए यह मान लिया जा रहा है कि यह संक्रमण सिर्फ विदेश से आए लोगों में ही हुआ है । इकोनोमिस्ट के इस लेख में इस बारे में प्रिंसटन विश्वविद्यालय के डा. रमानन लक्ष्मीनारायण को उद्धृत करते हुए कहा गया था कि यदि इससे बीस गुना ज्यादा लोगों का परीक्षण किया गया होता तो मरीजों की संख्या भी अभी से बीस गुना ज्यादा पाई जाती । तब तक उनकी निजी राय में भारत में दस हजार से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके थे । अब तो खैर अधिकारी तौर पर ही यहां संक्रमित लोगों की संख्या दो हजार को पार कर चुकी है ।

अब तर्क यह कहता है कि जब वायरस ने भारत में पांव पसार लिये है तो इसका कोई कारण नहीं नजर आता कि इसका व्यवहार यहां दूसरे देशों से अलग होगा । बस इतना है कि यह भारत में अमेरिका की तुलना में दो हफ्ते बाद और इटली की तुलना में एक महीने बाद बड़े रूप में सामने आएगा । और यहीं पर खतरे की घंटी है । दुनिया के मानदंडों पर भारत इसके लिये इतना कम तैयार नजर आता है कि किसी के भी रौंगटे खड़े हो सकते हैं । जन स्वास्थ्य सुविधाओं में कई दशकों से निवेश में भारी कमी, जीडीपी के महज 1.3 प्रतिशत निवेश ने इस व्यवस्था को इतना कमजोर और खोखला बना चुका है कि थोड़े से दबाव में ही यह चरमरा कर ढह सकती है । देश के 130 करोड़ लोगों पर साधारण दिनों के लिये ही न पर्याप्त संख्या में डाक्टर है, न बेड और न ही जरूरी उपकरण । और जो संसाधन उपलब्ध हैं वे भी सब जगह समान रूप में नहीं है । मुंबई, दिल्ली में कुछ बेहतरीन अस्पताल है, जो काम कर सकते हैं । लेकिन 2017 में ही गोरखपुर में सिर्फ आक्सीजन की कमी के कारण 63 बच्चों की जानें चली गई थी । भारत भर में कुल एक लाख इंटेंसिव केयर के बेड साल भर में तकरीबन पचास लाख लोगों के काम आते हैं । उतने मरीज तो यहां एक महीने में तैयार हो सकते हैं ।

‘इकोनोमिस्ट’ ने लिखा था कि भारत के लोग भी उतने जागरूक नहीं हैं । खास तौर पर ऐसे रोगी जिनकी पहले से ही कुछ हालत खराब हो, उनमें फेफड़ों को प्रभावित करने वाली इस बीमारी को वे समझ ही नहीं पायेंगे । इसके साथ ही प्रदूषण और टीबी, स्थिति को और बदतर बना देते हैं । दुनिया के शुगर से पीड़ित रोगियों की संख्या में 49 प्रतिशत भारत में हैं । व्यापक गरीबी न सिर्फ इस बीमारी को बढ़ायेगी, बल्कि इसीके चलते लोग अपना काम छोड़ कर घर पर भी नहीं बैठ पायेंगे । अनेक जगह तो अच्छी तरह से साफ-सफाई भी मुमकिन नहीं है । 16 करोड़ लोगों तक स्वच्छ पानी भी उपलब्ध नहीं है ।

इन सबके कितने डरावने परिणाम हो सकते हैं, उसे कोई भी देख सकता है । डा. लक्ष्मीनारायण का कहना था कि भारत में लोगों में किसी भी बहाने, शादियों, त्यौहारों, राजनीतिक रैलियों में भीड़ इकट्ठा करने की विशेष योग्यता है । यहां ऐसे लोग भी है जो समझते हैं कि भारत की कड़ाके की गर्मी कोरोना वायरस को भगा देगी । सड़कों पर ऐसी उटपटांग बातें कहने वालों की भी कमी नहीं है कि भारत के लोग पहले से ही मुसीबतों के चलते इतने पक गये हैं कि उन्हें यह वायरस प्रभावित नहीं कर पायेगा । इसके अलावा नाना प्रकार के जादू-टोने वाले तो भरे हुए हैं । लक्ष्मीनारायण ने दिल्ली में गाय का पेशाब पिलाये जाने के आयोजन का भी उल्लेख किया जिसमें अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राजीव कुमार ने जोश के साथ कहा था कि गाय के पेशाब को “भारत आने वाले सभी पर्यटकों को पिलाया जाना चाहिए ।” एक हिंदू संगठन कह रहा था कि “हम इसके एक छोटे पैकेट राष्ट्रपति ट्रंप के पास भी भेजेंगे, ताकि उनकी कोरोना से रक्षा हो सके ।”

इन तमाम बातों के बाद शायद भारत में कोरोना वायरस के परिणामों के बारे में अलग से कहने को कुछ नहीं रह जाता है । जब राजनीतिक नेतृत्व में हर समय लोगों को उत्तेजित रखने की मानसिकता काम कर रही हो, जब हिटलर के पुस्तकों को जला कर उसकी आग की रोशनी से अज्ञान के अंधेरे को दूर करने की तरह के तर्कों को जनता पर आजमाया जा रहा हो, तब हम कोरोना के बाद के राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य में सिवाय अंधेरे के कुछ नहीं देख पा रहे हैं । हम नहीं जानते, कैसे और कहां से इस अंधेरे में भी प्रकाश की कोई किरण कहां से आएगी ।

भारत की राजनीति को इस विषय पर सोचना ही होगा कि  जो घर पर बैठा रह सकता है, वह कोरोना से बचेगा और जो पेट की मजबूरीवश घर पर नहीं रह सकता, वह या तो कोरोना से मरेगा या पुलिस और प्रशासन के डंडे से । यह कैसे चलेगा ? लॉक डाउन की तरह के कदम खुद में इस बीमारी से निपटने का नितांत ज़रूरी कदम होने पर भी इसका अंतिम इलाज नहीं है । इसके साथ ही व्यापक सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था, जन-वितरण प्रणाली का विकास और अन्य तमाम जन-कल्याणकारी नीतियों के बिना इस महामारी का कोई उपचार संभव नहीं है । मतलब समाज-व्यवस्था में बदलाव की प्रक्रिया भी शुरू करनी होगी । वर्तमान शासन के सच को दृढ़ता से सबके सामने रखना होगा कि इसने अब तक भारत को दुखों के सिवाय कुछ नहीं दिया है । हिटलर ने अपने जर्मनी के करोड़ों लोगों को युद्ध में उतार दिया था । बहुत बड़ा भाषणबाज था । बोलता था तो लोगों में आग की लपटें उठने लगती थी । मुसोलिनी इस मामले में हिटलर से भी दो कदम आगे था । भाषणबाज़ी में तब उसकी बराबरी का कोई नहीं था । पर इन दोनों के ही व्यक्तिगत जीवन में किसी भी प्रकार की सादगी के आदर्श का कोई स्थान नहीं था । इनकी तुलना में न रूस के लेनिन भाषणबाज थे और न स्तालिन ही । अपनी बातों को तार्किक ढंग से रखते थे, लेकिन उनकी बातों में कोई झूठ और आडंबर नहीं होता था । वे दोनों ही अत्यंत सादा और आदर्श जीवन जीते थे ।

भारत में तो सिर्फ़ गांधी और नेहरू ही नहीं, राष्ट्रीय आंदोलन के पूरे नेतृत्व की एक ही पूँजी हुआ करती थी — ‘सादा जीवन उच्च विचार’। इनके जीवन में आडंबर और प्रदर्शन की कोई जगह नहीं थी । गांधी जी, नेहरू जी आदि में कोई भी कभी भुजाएँ फड़काते हुए गर्जन-तर्जन के साथ भाषणबाज़ी नहीं करते थे । फ़िज़ूलख़र्ची और नैतिक स्खलन उनमें लेश मात्र भी नहीं दिखते थे। इनकी तुलना में जब आप बीजेपी के समूचे नेतृत्व पर गौर करेंगे तो इन सबकों सादगीपूर्ण नेतृत्व की श्रेणी में आप कभी नहीं रख पाएंगे । अभी कोरोना के काल में भी इनके आचरण को आप आडंबर से मुक्त नहीं पाएंगे । दरअसल, आरएसएस सैद्धांतिक तौर पर ऐसे निजी आदर्शों का विरोधी है । वे निजी जीवन में ज़िम्मेदारियों से पलायन का सुख भोगते हैं और आम लोगों को अपने कठपुतलों की तरह नचाने पर यक़ीन रखते हैं । भारत की भावी राजनीति को इसीका एक समग्र और ठोस विकल्प तैयार करना होगा ।

आज की वार्ता को हम इसी बिंदु पर खत्म करते हैं । अगली वार्ता में हम कोरोना के ही और बचे हुए प्रसंगों पर चर्चा करेंगे ।
03.04.2020

https://youtu.be/9XnyePiyMPw

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