रविवार, 12 अप्रैल 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा - 8


(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी


जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(8)


दर्शनशास्त्र और लकान


भारतीय दर्शन में तंत्र की भूमिका हमेशा दार्शनिक विमर्श के क्षितिज को उस बिंदु की सीमा से आगे ले जाने की रही जहां दर्शन में चीजें अपने ठोस रूप को बाकायदा छोड़ दिया करती है । एक ऐसी अमूर्त दशा में किसी विमर्श के निरंतर बने रहने से उसकी परंपरा को कायम रखने के क्रम में न सिर्फ उसका रूपांतरण ही हो जाता है, बल्कि इस बात की हमेशा एक संभावना बनी रहती है कि उससे एक बिल्कुल भिन्न प्रकार के विमर्श का प्रारंभ हो जाए । यह दर्शनशास्त्र या किसी भी विचारधारात्मक उपक्रम का स्वयं को ही समस्याग्रस्त, संशयग्रस्त बनाते हुए आगे का रास्ता पाने का एक उपक्रम कहलाता है । भारतीय तंत्र और उसके श्रेष्ठतम गुरू अभिनवगुप्त के जरिये शैवागमों में वर्णित प्रत्यभिज्ञादर्शन को इसी उपक्रम में भारतीय दर्शन की एक समानान्तर धारा को प्रतिष्ठित करना कहा जा सकता है । यह विमर्शों के बीच से दर्शनशास्त्र की सीमाओँ की आलोचना के साथ ही एक नई तत्वमीमांसा, बल्कि बेहतर परा-तत्वमीमांसा का उपक्रम था । कहना न होगा, पश्चिम में दर्शनशास्त्र का यही आंतरिक संकट एक ओर जहां मार्क्स के जरिये सामाजिक विकास के संदर्भ में दर्शनशास्त्रीय चिंतन के एक सर्वथा नये विमर्श का मार्ग खोलता है, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की एक नई धारा को स्थापित करता है, वहीं फ्रायड और लकान के जरिये मनुष्य के आत्मिक जगत के संदर्भ में मनोविश्लेषण के एक नये विमर्श को, एक परा-तत्वमीमांसा को जन्म देता है ।

जैसे मार्क्स को 'दर्शन-विरोधी' कहने वालों की दुनिया में कमी नहीं रही है, बिल्कुल उसी प्रकार मनोविश्लेषण पर भी वहां आम तौर पर 'दर्शन-विरोधी' होने का आरोप लगाया जाता है । लकान अपने एक सेमिनार में इसी आरोप का जवाब देते हुए कहते भी है कि “मैं दर्शनशास्त्र पर आघात करता हूं ? यह बहुत बड़ी अतिशयोक्ति है !” (I am attacking philosophy ? That’s greatly exaggerated !) (Lacan, Seminar XVII)


लकान पर ऐलेन बाद्यू के सेमिनारों की किताब 'Lacan' की भूमिका में केनेथ राइनहार्ड लिखते हैं कि “यह लकान का दर्शन-विरोध ही है जिस पर किसी भी दर्शनशास्त्री को निश्चित रूप से काम करना चाहिए, वही है जो न सिर्फ सत्य और ज्ञान को नकारता है, बल्कि उनके परस्पर संबंधों और यथार्थ के साथ संबंध पर पुनर्विचार करता है ।”(Alain Badiou, Lacan, page – xxxvii) और, बाद्यू कहते हैं कि यह देखना होगा कि “क्यों लकान को महज दर्शन-विरोधी नहीं, बल्कि उल्टे इस प्रकार देखा जा सकता है जिसने अभी के दर्शन-विरोध का अंत कर दिया है । इस अंत का मतलब दर्शन के साथ दर्शन-विरोध के संबंध को मान कर चलना मात्र नहीं है, बल्कि दर्शन-विरोध के साथ दर्शन-विरोध के संबंध को भी देखना है । ऐसा कोई अंत नहीं होता है जो जिसे खत्म करना होता है उसके साथ एक खास, सुनिश्चित संबंध पर आधारित नहीं होता है ।...अंत करने का सवाल तब जटिल हो जाता है जब हम पूछते हैं कि वह किस बात का प्रारंभ करता है, क्योंकि हर अंत भी अपने में एक प्रारंभ भी होता है ।” (वही, पेज – 2)


मार्क्सवाद के बारे में ही लकान की टिप्पणी थी कि उसे एक ‘विश्वदृष्टि’ बताना कोरा मजाक है । किसी भी विश्लेषणमूलक विमर्श में ऐसी किसी अवधारणा की कोई जगह नहीं होती है । मार्क्स की बातों को आप्त वाक्यों की तरह उद्धृत करना मार्क्स के नजरिये के बिल्कुल विपरीत है । लकान कहते हैं कि मार्क्सवाद इसके बिल्कुल विपरीत है । वह कुछ ऐसा है जिसे हम गॉस्पेल (पूर्ण सत्य) कहते हैं । उसमें यह ऐलान है कि इतिहास अपने में विमर्श एक भिन्न आयाम को लिए हुए है, और इस प्रकार वह विमर्श के ही, और दार्शनिक विमर्श के पूरी तरह से विध्वंस की संभावना को खोल रहा है जिस दार्शनिक विमर्श पर, सही कहा जाए तो, विश्वदृष्टि की बात पर टिकी हुई है ।
(“putting forward such a term to designate Marxism is also a joke. Marxism does not seem to me to be able to pass for a world view. The statement of what Marx says runs counter to that in all sorts of striking ways. Marxism is something else, something I will call a gospel. It is the announcement that history is instation another dimension of discourse and opening up the possibility of completely subverting the function of discourse as such and of philosophical discourse, strictly speaking, in so far a world view is based upon latter.)


इसी बिंदु पर लकान का खास महत्व सामने आता है । संकेतकों (अर्थात अक्षरों, लक्षणों) के स्वरूप ग्रहण और महत्व से संबद्ध इस भिन्न परा-तत्वमीमांसा और उस पर आधारित भाषाई नियमों के बारे में लकान के बीसवें सेमिनार के इन दो अंशों से उनके शुरू किये गये विमर्श की मुख्य बातों को समझा जा सकता है :

“किसी भी संकेतक को सनातन मान कर नहीं रचा जाता है । ...संकेतक को आक्समिकता की श्रेणी में रखना ही उचित होता है । संकेतक सनातनता की श्रेणी से इंकार करते हैं तथापि विचित्र बात यह है कि ये अन्तरनिहित होते हैं ।”.
(For no signifier is produced as eternal….it would have been better to qualify the signifier with the category of contigency.)
“भाषा में जिसे संयोजक (होना की तरह की क्रिया) का प्रयोग कहते हैं, तत्वमीमांसा उसे संकेतक बताती है । ...यदि किसी श्रेष्ठ विमर्श में 'होने' की क्रिया पर बल नहीं दिया जाता है तो हमें कुछ भी नहीं दिखाई देगा ।”(The Seminar of Jacques Lacan, Book XX, W. W. Norton & Company,  p. 40, and p.31)


अर्थात इसमें अंत का वस्तुत: कोई स्थल नहीं है । भारत के शैवमत की भाषा में कहे तो उनका दर्शन-विरोधी अंत दर्शन को उस ज्ञेय से जोड़ता है जो ‘पूर्णप्रथात्मक ज्ञान’ है, जिसमें अज्ञान का कोई अंश नहीं है ।

अभिनवगुप्त अलग-अलग दार्शनिक धाराओं से शैवमत को अलगाते हुए लिखते हैं कि “ मैं राग आदि के द्वारा मलिन नहीं हूँ ( यह विज्ञानवादी बौद्धों का मत है ), मैं अन्तःशून्य हूँ ( यह माध्यमिकों का सिद्धांत है), मैं कर्तृत्व से रहित हूँ (यह सांख्यों का मत है) इस प्रकार का सम्पूर्ण रूप से अथवा पृथक्-पृथक् होने वाले ज्ञान उतने से ही (अर्थात् केवल कार्म या मायीय या आणव अथवा तीनों मलों से) मुक्ति प्रदान करता है । इस प्रकार अंशतः मुक्त होते हुए भी अन्य आंशिक बन्धन के वर्तमान होने से जीव अमुक्त ही है । वस्तुतः मुक्त तो वही होता है जो समस्त बन्धन से रहित होता है ।” (तंत्रालोक, प्रथमान्हिकम्, श्लोक 33,34) अर्थात् मुक्तिदाता ज्ञेय तत्व पूर्ण प्रथात्मकज्ञान होता है, उसमें अज्ञान का कोई पक्ष नहीं होता है ।


लकान की एक अनन्य विशेषता यह रही कि उन्होंने अपने चिकित्सीय व्यवहार से मनोविश्लेषण की ऐसी नई पद्धतियों को विकसित किया था जिनमें विश्लेषकों के खास-खास समूहों के बीच वार्ताएं भी हुआ करती थी । ये पद्धतियां स्वयं में किसी भी विश्लेषण पद्धति के आदर्श स्वरूप को पेश करती है । वे अपने विश्लेषणों पर लंबे काल तक हर हफ्ते पेरिस में सेमिनार किया करते थे, जो कई किश्तों में चलते थे । इन सेमिनारों में उनके सैकड़ों पन्नों में फैले लंबे-लंबे वक्तव्य अब तक अनेक खंडों में प्रकाशित हो चुके हैं, जिन्हें दुनिया के सारे मनोचिकित्सक और विचारक भी अक्सर बहुत ध्यान से उसी प्रकार से छानते रहते हैं, जैसे फ्रायड के पर्यवेक्षणों को छाना जाता है । जैसे वकील आम तौर पर अदालतों में सभी विशेष मामलों के बारे में विस्तृत ब्यौरों की किताबों को टटोलते रहते हैं, उसी प्रकार फ्रायड, लकान आदि के प्रत्येक रोगी के मनोविश्लेषण के ब्यौरे रोगी के निदान के साथ ही किसी खत्म अध्याय की तरह बंद हो जाने के बजाय उसी विषय में आगे और अध्ययन और शोध के आधार बनते जा रहे हैं । यही उनके विमर्शमूलक मनोविश्लेषण की खास विशेषता रही है जो आगे के सामान्य सूत्रों, मन की गति के नियमों का संधान देने का काम करती है । एक दीर्घ समय के अंतराल में लिखे गये 92 शैवागमों पर आधारित तंत्रालोक की तरह के मनोविश्लेषण के एक नये, संपूर्ण शास्त्र की संभावना तैयार करती है ।


कई सूत्रों से हमें उनके कुछ भारी-भरकम सेमिनार पेपर जुटाने में सफलता मिली है और उन पर लिखी कई महत्वपूर्ण किताबों को भी उलटने-पलटने का मौका मिला है । सचमुच एक मनोचिकित्सक का आज के युग में इस प्रकार का लगभग साठ साल से ज्यादा समय तक मनुष्यों के चित्त के आयामों को उधेड़ कर समझने का यह सुचिंतित लेखन बेहद रोमांचक है । इनको देख कर पता चलता है कि कैसे डार्विन ने सालों की लंबी साधना से जीवों के विकास के अवलोकन से विकासवाद के सिद्धांत के अकाट्य नतीजों को निकाला था ; हेगेल ने मनुष्य की अन्तर-बाह्य क्रियाशीलता के सार्वलौकिक और तात्कालिक पहलुओँ की खोज करके उसके अनेक ऐतिहासिक रूपों के द्वंद्वमूलक विकास के दार्शनिक सूत्रों को खोजा था ; मार्क्स ने ताउम्र पूंजीवाद के सूक्ष्मतम पर्यवेक्षण से उसकी तात्विकता, गतिशीलता और उसके संकटों के आवर्त्तों के सिद्धांतों की रचना की और समाज के इतिहास के विकास के नियमों की खोज की थी ; फ्रायड ने आदमी के मनोभावों के पीछे काम करने वाले चेतन और अवचेतन के तत्वों की कड़ियों को जोड़ कर मनुष्यों के चित्त के जगत के नियमों का पता लगाया ; हाइडेगर ने समाज के अंतर की गतियों को जिस प्रकार उनके तात्विक समूहों की द्वंद्वात्मक क्रियाशीलता में उनके अंत से जोड़ कर दिखाने का काम किया, बिल्कुल उसी प्रकार जॉक लकान ने आदमी के चित्त के निर्माण में उसके परिवेश, भाषा और तमाम प्रकार के दृष्ट संकेतकों (signifiers) की भूमिका की श्रृंखला को पेश करके मनुष्य और उसके समाज, उसके परिवेश के बीच के संबंधों और साहित्य, कला, संस्कृति के तमाम उपादानों के अध्ययन के बिल्कुल नये पथ का संधान दिया । कहना न होगा, आज के काल में एलेन बाद्यू जैसे कम्युनिस्ट दार्शनिक मार्क्स और लकान की इसी जमीन पर खड़े हो कर समाज और मानव मन, सत्य के बरक्श दोनों की ही गतियों के गणितीय सूत्र तक का सफलता के साथ संधान करके पेश कर पा रहे हैं ।


जैसे मार्क्स ने दर्शनशास्त्र को सामाजिक विकास के संदर्भ में उसकी दीर्घकालीन आधिभौतिक अमूर्तता से निकाल कर हेगेल के औजारों से एक द्वंद्वमूलक रूप प्रदान किया, वैसे ही यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति के आत्म-संसार के संदर्भ में संपूर्ण दर्शनशास्त्रीय विमर्श फ्रायड और लकान के मनोविश्लेषण के जरिये भी एक भिन्न पटल पर अपनी अमूर्त जड़ता से मुक्त हुआ है । दर्शनशास्त्र और मनोविश्लेषण के बीच के इस द्वंद्वात्मक संबंध को फ्रायड के बाद लकान में बहुत साफ और उन्नत रूप में देखा जा सकता है ।   

किसी भी द्वंद्वात्मक प्रक्रिया में दो के बीच के द्वंद्व से पैदा होने वाली गति के पीछे न जाने कितने अन्य संकेतकों के समूहों की द्वांद्विक उपस्थिति काम करती रहती है । लकान के मनोवैज्ञानिक पर्यवेक्षण ने इस बहुलता की, द्वांद्विक प्रक्रिया में नानात्व के समुच्चयों (sets of multiplicities) की, 'मालिनीविजयतंत्र' (अभिनवगुप्त ने 'तंत्रालोक' में इसी की पुनरुक्ति का दावा किया है) की मालिनी की भूमिका की खोज की आधारशिला रखी । इनके अवलोकनों से लेवी स्ट्रास से लेकर फूको और दरीदा तक के भाषाई संरचनावादियों, ज्ञान के स्थापत्य और पाठ के बदलते सामाजिक रूपों के अध्ययनों की सीमाओं और संभावानाओँ, दोनों को जांचा जा सकता है । फूको ने 'ज्ञान का स्थापत्य' में उस पूरी निर्मिति के लिये जिन सब जरूरी गारे-पानी पर गंभीरता से चर्चा की है, उस श्रृंखला में समाज में जारी विमर्शों की हर कड़ी का अपना एक जगत (भुवन) और इतिहास होता है । ये सब मिल कर जिस एक समग्र चित्त जगत (symbolic order) का निर्माण करते हैं, उसीसे मनुष्य की ऐन्द्रिक अनुभूतियां निरूपित होकर उसकी क्रियात्मक गतिविधियों का स्वरूप ग्रहण करती हैं । लकान के दीर्घ प्रेक्षणमूलक काम ने इसी चित्त के जगत की क्रियात्मकता के मूलभूत सूत्रों को प्रकाश में लाने का अपना एक मौलिक काम किया है।

कहना न होगा मानव मन के वस्तु-सत्य के संधान से ब्रह्मांड की गति तक के नियमों को खोजने वाले दर्शनशास्त्र के स्तर तक उत्तरण में समर्थ मनोविश्लेषण के इस नये शास्त्र का अपना खुद का अंतर-संसार क्या है, जिसे कहते हैं 'विशेषज्ञता की तत्वमीमांसा' (ontology of mastery), उसे शास्त्रकार के अहम् से स्वतंत्र रूप में देखना और विवेचित करना काफी तात्पर्यपूर्ण और संकेतपूर्ण हो सकता है । इसके अलावा, मनोविश्लेषण के आधुनिक सिद्धांतों के विवेचन में अगर हम कहीं-कहीं भारतीय तंत्र और शैवागमों के प्रत्यभिज्ञादर्शन के पक्षों को भी प्रकाशित कर पाते हैं तो वह हमारी खुद की एक अतिरिक्त उपलब्धि भी हो सकती है ।

यहीं पर हम 'तंत्रालोक' के रचयिता अभिनवगुप्त का फिर जरा सा उल्लेख करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे है । यह जो चित्त का जगत है, विचारों और भावों के मूर्तन का जगत, एक बेहद जटिल जगत है । यह जितना आदमी के अपने अंतर की चीज है उतना ही उसके बाहर का भी है । अभिनवगुप्त ने अपने तंत्रालोक में तंत्रशास्त्र को भोग और मोक्ष, दोनों का दर्शन कहा है । जैसा कि हमने पहले बार-बार कहा है, पश्चिम में इस चित्त के जगत के इन सभी पहलुओं के सूत्रों के संधान में फ्रायड के बाद अभी तक जो दूसरा जो सबसे बड़ा नाम उभर कर सामने आया है, वह जॉक लकान का ही है । (क्रमशः)

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