मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा (11)



(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी


जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(11)

एक छवि में कैद होना

1936 में इंटरनेशनल साइकोएनालिसिस एशोसियेशन की कांग्रेस में लकान ने अपनी ‘प्रतिबिंब चरण’ वाली थिसिस को पेश किया था । इसके बाद सन् 1938 में फ्रेंच विश्वकोश (Encyclopedie Francaise) के लिये लिखे गये अपने लेख ‘व्यक्ति के गठन में पारिवारिक ग्रंथियां : मनोविज्ञान के कार्य के विश्लेषण की एक कोशिश’ (“The Family Complexes in the Formation of the Individual: Attempt at an Analysis of a Function in Psychology”) में वे आदमी के अपने से बाहर की किसी छवि में फंस जाने के विषय पर चर्चा करते है । वे कहते हैं कि कोई भी बच्चा अपने बाहर की किसी एक छवि से जुड़ जाता है, वह भले आईने में उसकी अपनी ही वास्तविक छवि हो या उसके बाहर के किसी दूसरे बच्चे की छवि । मोटे तौर पर इस छवि की पूर्णता, जिसकी हमने ऊपर गेस्टाल्ट मनोविज्ञान की बात में चर्चा की है, उसे अपने शरीर पर एक नया अधिकार प्रदान करती है । इसमें लकान ने बच्चे के व्यवहार में एक काल में एक प्रकार के जिद्दीपन अथवा स्नेह-दुलार के दो विरोधी धुरों पर डोलने की न समझ में आने वाली बात की शानदार व्याख्या की थी । वे इसे दो अलग-अलग व्यक्तियों के बीच की किसी टकराहट के साथ जोड़ कर देखने के बजाय, मसलन्, बच्चे और उसे देखने वाले के बीच की टकराहट के रूप में देखने के बजाय बताते है कि यह स्थिति दोनों के ही अपने-अपने अंदरूनी द्वंद्व से पैदा होती है, जो अपने को अन्य पक्ष के साथ जोड़ कर देखने की वजह से पैदा होता है । यह व्यक्ति के मानस अथवा चित्त के विकास का एक संगठनात्मक सिद्धांत है, न कि महज शैशव का कोई एक क्षण । यदि हम अपने को अपने से बाहर की किसी छवि के साथ जोड़ लेते हैं तो हम ऐसी चीजें कर सकते हैं जो पहले नहीं कर सकते थे । लेकिन ऐसा करने की हमें एक कीमत देनी पड़ती है । यदि कोई अपने को दूसरे बच्चे से पूरी तरह जोड़ लेता है तो उसको चोट लगने पर वह भी रोने लगेगा । किसी चीज को पाने की उसमें जो इच्छा पैदा होगी, उसमें भी उसे ही पाने की इच्छ पैदा होगा, क्योंकि वही उसकी जगह होता है । इस प्रकार आदमी एक ऐसी छवि में फंस जाता है, जो बुनियादी रूप से उससे बाहर होती है, अलग होती है ।


इससे बिल्कुल भिन्न, किसी भी मनुष्य का अपनी खुद की क्रियात्मकता (Motor Function) पर अधिकार होना और खुद के बूते मनुष्यों के जगत में प्रवेश करना, उसमें विचरण करना उसके एक मूलभूत अलगाव, विच्छिन्नता की कीमत पर ही संभव होता है । यह अन्यों की छवि से मुक्त होना होता है । इसे ही तंत्रशास्त्र अपनी पदावली में शिव का स्वातंत्र्य कहता है, आत्म के विस्तार की प्रक्रिया में शिव के स्वातंत्र्य की भूमिका । लकान इसे आदमी की वह ग्रंथी कहते हैं जिसमें आदमी की अपनी पहचान बनती है, एक 'कल्पना प्रसूत' पहचान । यह व्यक्ति की आत्मरक्षा का एक आंतरिक उपाय, अन्दुरूनी ढांचा है । लकान दृष्ट अर्थात् चाक्षुस, और उसकी एक छवि में बच्चे के जकड़े जाने के बीच के संबंध को समझने पर बल देते हैं ।


“एक मरीचिका में अपनी पूरी देह को देखकर गेस्टाल्ट से व्यक्ति अपनी शक्ति से जिस प्रकार परिचित होता है, वह उससे बाहर की एक परिस्थिति है । यह आकार इस रूप में अपने में एक संघटन होने की तुलना में कहीं ज्यादा चित्त का, व्यक्तित्व का संघटनकारी होता है । सर्वोपरि, उसे ऐसा लगता है जैसे उसकी पूरी आकृति के अंश जिनके उपद्रव से, हाथ-पैर पटकने से वह सोचता है कि वह उन्हें सजीव करता है, वे उस पूर्ण आकृति में एक संहति में दिखाई देने से बिल्कुल भिन्न, बल्कि उलटे नजर आने लगते हैं ।” (Ecrits. p – 95) अलग-अलग अंगों का संचालन समग्रता में कत्तई अलग-अलग नहीं रह जाता है । इसीप्रकार, प्रत्यक्ष की समग्रता मनुष्य में 'मैं' की एक स्थायी मानसिक आकृति तैयार करती है, जो उसकी चेतना में बस जाती है । और यही है जो उसे विच्छिन्न, अपनी खास पहचान के साथ अलग-थलग भी करती है । यही संहति 'मैं' को उसकी उस प्रतिमा से जोड़ती है जिसमें वह खुद को पेश करता है, वह प्रेत उस पर सवार हो कर अपने ही बनाये संसार की स्वयंक्रिया से एक धुंधले संबंध के जरिये आनंद लेना चाहता है । बाकी अनेक चीजें उसके लिये बंद, foreclosed हो जाती है, जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे । इसी प्रकार की नाना निजी और सामाजिक प्रक्रियाओँ के बीच से भी ज्ञान मस्तिष्क पर अज्ञान की पट्टी बन जाता है ।


बहरहाल, इस खास गेस्टाल्ट प्रक्रिया को हमारा आध्यात्मवादी तंत्रशास्त्र 'प्रत्यावृत्त तेज' का परिणाम कहने पर भी इसकी पूर्णता के अधिष्ठान को प्रमाता (subject) की देह के विभिन्न स्थलों के चाक्षुस तेज से जोड़ता है । मूल बात है, स्वयं में एक प्रकार की पूर्णता की चेतना । आधुनिक मनोविश्लेषण इसे आदमी की अपनी प्रतिमा से जोड़ कर इसके मिथ्याभास को समझने पर बल देता है । तथापि लकान कहते हैं कि “मनुष्य का ज्ञान वासना के वशीभूत पशु के ज्ञान से ज्यादा स्वतंत्र होता है क्योंकि इसमें एक सामाजिक द्वंद्वात्मकता की भूमिका होती है, जो एक अलग दबाव, डर के रूप में मनुष्य के ज्ञान का विन्यास करती रहती है”।  लेकिन, लकान के शब्दों में ही “जो चीज इसे सीमित करती है वह है 'तुच्छ यथार्थ', (scant reality), अतियथार्थवादियों का असंतोष इसी चीज की आलोचना किया करता है ।”(Ecrits, page – 96)

अहम् (Ego) और अलगाव (Alienation)

बहरहाल, लकान यह दिखाते हैं कि इस प्रकार की अपनी एक पूर्ण छवि को लेकर अलगाव की चेतना के साथ ही मनुष्य में अहम् का प्रवेश होता है । अहम् स्वयं से जुदा, एक अलग पहचान की निर्मिति है । इसके निर्माण की प्रक्रिया देह और स्नायुतंत्र की शुरूआती अपूर्णता के वक्त से ही शुरू हो जाती है ।

इसके बारे में लकान की थिसिस से सन् 1914 में फ्रायड ने आत्ममुग्धता (narcicism) के विषय में जो सवाल उठाये थे, उनका एक जवाब मिलता है । मनुष्य का अहम् ही उसकी आत्ममुग्धता का अधिष्ठान होता है, लेकिन आत्ममुग्धता यदि मनुष्य में जन्म के साथ नहीं पाई जाती है तो सवाल रह जाता है कि आत्ममुग्धता के पैदा होने की क्या वजह होती है ? अहम् के ऐसे संघटन के लिये किसी न किसी नई मनोवैज्ञानिक क्रिया का होना जरूरी है । फ्रायड ने यह नहीं बताया था कि वह क्रिया क्या होती है । लकान की 'प्रतिबिम्ब चरण' की थिसिस से फ्रायड के द्वारा अनुत्तरित रख दिये गये इस सवाल का माकूल जवाब मिला था । “आदमी की अपनी प्राकृतिक वास्तविकता में ही उसकी जैविक कमी निहित होती है, सामाजिक द्वंद्व तो बाद की चीज है ।” (वही, पृष्ठ – 96) उस पहलू को वे अन्य के साथ व्यक्ति के संबंध के संदर्भ में अपने लेखन में काफी गहराई और विस्तार से व्याख्यायित करते हैं ।

नकारात्मक मतिभ्रम


यदि आदमी का अहम् ही स्वयं में संपूर्ण और संहत हो तो यह मानना होगा कि उसके बाहर की देह एक बिखरी हुई, उससे लगभग असंलग्न सी चीज होती है। लकान कहते हैं कि इस प्रकार अहम् सब कुछ नहीं, बल्कि हमेशा एक अप्रमाणिक माध्यम है जो अपनी खुद की अखंडता की कमी को ढंकने की कोशिश में लगा रहता है । यही नकारात्मक मतिभ्रम कहलाता है । कहना न होगा, अहम् के बारे में लकान की इस अवधारणा में फ्रायड के ही कुछ प्रारंभिक विचारों की झलक मिलती है ।

'प्रतिबिंब चरण' लकान के शब्दों में “एक नाटक है जिसका अंदुरूनी दबाव आदमी में अपनी कमी को पूरा करने की तीव्रता पैदा करता है और आदमी अपनी एक निजी पहचान के चक्कर में अपनी देह की विखंडित कल्पना से शुरू करके एक समग्रता की ओर लपकता है और एक ऐसी बाहरी पहचान में फंस जाता है जिसके संख्त सांचे में ही आगे उसका मानसिक विकास होना होता है । इस प्रकार अंतर के बाह्य के वृत्त में बिखराव से अहम् की कभी न पूरी होने वाली, खुद की कमी को पूरा करने की हवस की दौड़ शुरू हो जाती है ।

फ्रायड में इस प्रकार के नकारात्मक मतिभ्रम को लेकर काफी उत्सुकता थी । वे कहते हैं कि आदमी की आंख पर सम्मोहन का पर्दा डाल कर उसे यदि यह बता दिया जाए कि इस कमरे में कोई फर्नीचर नहीं है और उससे कहा जाए कि उसे उसी कमरे के किसी दूर के कोने से कोई चीज उठा कर लानी है, तब भी वह उस कोने में बेहिचक सीधे चल कर नहीं जाता है, बल्कि बड़ी सावधानी से अपना रास्ता बनाते हुए सा बढ़ता है — जैसे फर्नीचर से ही बच कर जा रहा हो । इसके बारे में जब उससे पूछा जाता है तो वह जवाब में झूठ बोलता है कि वोह दीवार पर टंगी हुई उस तस्वीर को देख रहा था या उसने वहां अपनी एक मित्र को देखा तो उस ओर मुड़ गया था ।

झूठा अहंकार


कहने का तात्पर्य यह है कि सम्मोहन में फंसे व्यक्तियों की क्रियाओँ के पीछे के तर्कों को पकड़ कर उनकी वास्तविक मनोदशा पर विचार किया जा सकता है । अन्य टिप्पणीकारों ने इस अहम् को झुठलाने वाले चरित्र के नकारात्मक मतिभ्रम को एक पूरी तरह से अलग-थलग परिप्रेक्ष्य में रखा था, लेकिन फ्रायड और लकान ने इसे अहम् की अपनी नैसर्गिकता के रूप में देखा ।

आदमी के बचपन में प्रतिबिंब चरण के वक्त के अहम् की तरह ही आदमी में अहम् की भूमिका अपनी एक संहति और संपूर्णता की झूठी प्रतीति को बनाये रखने की होती है । इसी वजह से फ्रायड मानते थे कि अहम् के क्षेत्र से निकलने वाली हर सामग्री को मनोचिकित्सा में भरोसा न करने लायक, भरमाने वाली सामग्री के तौर पर देखना चाहिए । मनोविश्लेषण के किसी भी सिद्धांत में जिसमें मनोचिकित्सक रोगी के अहम् के साथ किसी भी प्रकार से जब अपने को जोड़ता या समझौता करता है, वह सिद्धांत बुनियादी रूप से ही विश्लेषण को एक गलत दिशा में मोड़ देता है । तब रोगी और विश्लेषक के बीच परस्पर छल के सिवाय कुछ नहीं बचा रहता है ।


जैसा कि उपरोक्त चर्चा से ही जाहिर है, लकान के काम के शुरू के अंश में आदमी का चित्त दो छोर के बीच डोलता रहता है : उसकी एक छवि, जो उससे बाहर होती है, और दूसरा, उसकी वास्तविक देह, उसका शरीर जो कई अंगों में बटा होता है । 1930 के दशक और 1940 के दशक के प्रारंभ में लकान ने अक्सर शास्त्रीय मनोविश्लेषण की जटिलताओं के पीछे विखंडित शरीर की छवियों की उपस्थिति को दिखाने की कोशिश की थी । विखंडन की इस फैंटेसी को विक्षिप्तता , Neurosis की बहुचर्चित फैंटेसी के पीछे भी पाया जा सकता है । लकान ने यह थिसिस दी कि डर में हम एक प्रकार के ठहरे हुए गदलेपन को देख सकते हैं जो गदलापन छवि के सामान्य संघटन और प्रत्यक्ष नजर आने वाले सत्य के चरणों को साफ रूप में दर्शाता है । यह अनुभूति की वह गोधुली बेला या उषा काल है जिससे आगे के उतरते हुए अंधेरे अथवा प्रकाश का अनुमान मिल सकता है ; शब्दों की लिखावट के पहले का खाली पन्ना ।

इस प्रकार लकान के लिये 'प्रतिबिंब चरण' की क्रियात्मकता एक प्रकार से आदमी के चित्त में छवियों की क्रियात्मकता का मसला बन जाता है जिससे यथार्थ और प्राणीसत्ता के बीच, अंतर और बाह्य के बीच संबंध कायम होता है । मजे की बात है कि यहीं पर आकर लकान एक स्फोट के जरिये प्रकृति के साथ आदमी के रिश्ते में बदलाव की चर्चा करते हैं ; जन्म के ठीक बाद मनुष्य में जो आदिम असंहति रहती है, वह तब बिल्कुल बदल जाती है । यही हैं आदमी में पाई जाने वाली जन्मजात कमी से निकलने की स्फोटमूलक परिघटनाएँ ।

अहम् का निर्माण


डर की अनुभूति में सामान्य तौर पर कुछ खास परिस्थितियों की छवियों के संकेत, उनसे प्रेषित होने वाले संदेश, उन पर ध्यान लग जाना और एक प्रकार की बाहरी प्रतारणा का अहसास पाये जाते हैं । इन्हें ही आदमी के अहम् के निर्माण नींव के पत्थरों के रूप में भी समझा जा सकता है । हमारा अहम् यदि खुद की बाहरी छवि से बनता है, यदि हमारी पहचान अन्य लोगों के साथ दैनन्दिन जीवन के संबंधों में उनसे भिन्नता के आधार पर हासिल होती है, तब हम इन बाहरी तत्वों के प्रति पूरी तरह से सचेत नहीं होते हैं । यद्यपि कला, साहित्य के अनेक रूपों में इस चीज को रखने की कोशिश की जाती है, जैसा कि सल्वाडोर डाली ने अपनी कृतियों में दिखाने की कोशिश की है ।

दरअसल, अहम् का सत्य खास तौर पर आदमी के पागलपन की दशा में पूरी तरह से सामने आता है जब उसके लिये बाकी दुनिया खत्म सी हो जाती है और स्वयं और अन्य के बीच के फर्क पर बिल्कुल मूलभूत सवाल उठ जाता है ।

इसी के आधार पर लकान इस नतीजे पर पहुंचे थे कि मनुष्य का ज्ञान मूल रूप से भयजनित होता है । भयाक्रांत स्थिति में ही हम अपने सारे अंग-प्रत्यंगों को, अपने गठन की सभी चीजों को, संसार के साथ अपने को जोड़ने की कोशिशों को बिल्कुल साफ-साफ देख पाते हैं । पागलपन हमें यह सब दिखा देता है ।

जैसा कि हम पहले ही चर्चा कर आए हैं लकान के इस विचार को शुरू में अतियथार्थवाद के प्रभाव के तौर पर देखा जाता था । लेकिन वास्तव में इसका कहीं ज्यादा बड़ा संबंध जोसेफ कैपग्रास की तरह के फ्रांसीसी मनोचिकित्सक की धारा के काम से और उन मनोवैज्ञानिक चिंतकों के कामों से था जो खुद को जानने, आदमी की अपनी छवि-प्रतिछवि की समस्याओं के बारे में दिलचस्पी रखते थे । लकान अपने कार्यों में प्रतिबिम्ब चरण की अपनी अवधारणा पर बार-बार लौटते हैं ताकि अपने अध्ययन और विश्लेषणों में बार-बार उसे नये रूप में संदर्भित कर सके । इस मामले में वे कभी भी जड़ नहीं रहे । यह कहने में जरा भी हिचक नहीं होनी चाहिए कि लकान के कामों में प्रतिबिंब चरण के बारे में कोई एक निश्चित सिद्धांत नहीं है, बल्कि कईं हैं ।

सिल्विया मेकल्स बताइले

हम पहले भी इस तथ्य का उल्लेख कर चुके हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध में जब फ्रांस पर जर्मनी का कब्जा था, लकान को फ्रांसीसी सेना में काम करने के लिये बुलाया गया था और उन्हें पैरिस के ‘वैल द ग्रेसा’ अस्पताल में नियुक्त किया गया । इन्हीं दिनो सिल्विया मेकल्स बताइले से उनके संबंध हुए । बताइले एक लेखक जार्ज बताइले की पत्नी थी जिनसे लकान की मुलाकात 1933 में उन दिनों हुई थी जब वे हेगेल के 'भाव का घटनाचक्र' (Phenomenology of Spirit) पर अलेक्संद्र कोजेव के सेमिनार सुना करते थे । 1934 से ही सिल्विया जार्ज से अलग हो चुकी थी । 1938 में लकान ने उनसे शादी की । यह उनकी दूसरी शादी थी । इसके पहले 1934 में लकान ने अपनी बहन की दोस्त मैरी लुईस ब्लोंडिन (1906-1983) से शादी की थी जिनसे उनके तीन बच्चे भी हुए । ब्लोंडिन से लकान का बाकायदा तलाक 1941 में हुआ था ।

सिल्विया बताइले और ज्यां रेन्योर

सिल्विया बताइले अपने समय की फ्रांसीसी फिल्मों की प्रसिद्ध नायिका थी । ज्यां रेन्योर की फिल्मों में अपनी भूमिकाओँ के कारण उनका काफी नाम हो चुका था । 1938 में जब फ्रांस पर हिटलर का कब्जा हो गया था, लकान अक्सर बताइले से मिलने पैरिस से दक्षिणी फ्रांस की ओर जाया करते थे । 1941 में उनकी बेटी जुदिथ का जन्म हुआ ।
लकान और मैरी लुईस ब्लोंडिन

जर्मनी पर हिटलर के कब्जे के बाद जिन पुस्तकों को सार्वजनिक रूप से जलाया गया था, उनमें फ्रायड की किताबें भी शामिल थी । फ्रायड यहूदी थे । 1930 में ही जर्मनी की साहित्यिक संस्कृति में उनके योगदान के लिये उन्हें प्रसिद्ध गोयथे पुरस्कार मिल चुका था । हिटलर ने जब किताबों का दहन किया था तब फ्रायड ने क्षुब्ध हो कर कहा था कि “हमने क्या प्रगति की है । मध्ययुग होता तो वे मुझे ही जला देते ।” इन परिस्थितियों में ही 1938 में फ्रायड वियेना से लंदन आ गये । लंदन की यात्रा के बीच में ही फ्रायड पैरिस में रुके थे, जहां फ्रायड की एक बहुत धनी मित्र और मनोविश्लेषक प्रिंसेस मैरी बोनापार्ट ने, जिन्होंने नाजियों से फ्रायड को बचा कर लंदन भेजने का प्रबंध किया था, उनके सम्मान में एक पार्टी की थी । लकान इस समय तक फ्रायड के व्यक्तिगत संपर्क में आ चुके थे । उन्होंने ‘डर के मनोविज्ञान पर व्यक्तित्व के संदर्भ में’ अपनी थिसिस की एक प्रति फ्रायड को भेजी थी जिसकी प्राप्ति की फ्रायड ने उन्हें सूचना भी दी थी । लकान ने फ्रायड के एक लेख ‘ईर्ष्या, डर और समलैंगिकता में कुछ विक्षिप्त क्रियात्मकता’ (Some Neurotic Mechanisms in Jealousy, Paranoia and Homosexuality) का 1932 में ही फ्रेंच में अनुवाद भी कर चुके थे । फिर भी लकान प्रिंसेस मैरी की फ्रायड के सम्मान में पार्टी में इसलिये शामिल नहीं हो पाए क्योंकि कहा जाता है कि उन दिनों वे सिल्विया बताइले के चक्कर लगा रहे थे । फ्रायड की मृत्यु लंदन में ही 23 सितंबर 1939 के दिन 83 साल की उम्र में हुई थी ।

प्रिंसेस मैरी बोनापार्ट

द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में लकान ने सचेत रूप में लिख कर कुछ भी प्रकाशित नहीं करने का निर्णय लिया था । वे किसी भी औपचारिक कार्यक्रम में शामिल नहीं होते थे । उन्होंने इसके बारे में खुद बताया कि “कई सालों तक मैंने चुप्पी साध ली । मानवता के दुश्मन की गुलामी के तहत हमारे समय की ग्लानि ने मुझे बोलने से रोक दिया । फोटेनील (17वीं सदी के फ्रांसीसी लेखक) की तरह मैंने अपने को इस कल्पनालोक में छोड़ दिया कि मेरे हाथ में सत्य भरा हुआ है क्यों न उसे ही मुट्ठी में बांधे रहूं ।” (देखें – Ecrits, पृष्ठ — 152) लकान ने कहा था कि मैं स्वीकारता हूं कि वह एक हास्यास्पद कल्पना है, लेकिन वही उस प्राणी सत्ता की सीमाओं को दर्शाता है जो चीजों को महज देखने के लिये मजबूर होता है ।


बहरहाल, जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि 1936 में ही मैरियनबैड में आईपीए की 14 वीं कांग्रेस में लकान ने प्रतिबिंब चरण के बारे में अपना लेख पेश कर दिया था । इसके साथ ही उन्होंने मनोविश्लेषण का निजी क्लिनिक शुरू कर दिया था । 1938 में उन्होंने फ्रांस के विश्वकोश के लिये “व्यक्ति के गठन में पारिवारिक ग्रंथियों” वाला लंबा लेख लिखा था । तभी 1939 में हिटलर ने फ्रांस पर कब्जा कर लिया और कहना न होगा, लकान की भी जुबान बंद हो गई ।


युद्ध खत्म होने के बाद 1945 में लकान पांच हफ्तों के अध्ययन के लिये इंगलैंड गये । अपने इंगलैंड के अनुभवों का उन्होंने बहुत महत्व के साथ अपने लेख ‘English Psychiatry and the war’ (1947) में जिक्र किया है । लकान ने युद्ध के दिनों में अंग्रेजों की मानसिकता की खास प्रशंसा की । उसी यात्रा में उनकी मुलाकात मनोविश्लेषक विल्फ्रेड बियोन और जॉन रिकमैन से हुई । इन्होंने युद्ध के दौरान अपंग हो गये और सेना के काम न आने वाले लोगों का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन करने का प्रयास किया था ।


लकान उस यात्रा में खास तौर पर उन सबकी छोटे-छोटे समूहों में मिल कर काम करने की पद्धति के बारे में काफ उत्साहित थे । किसी एक नेता स्वरूप अधिकारी व्यक्ति के इर्द-गिर्द लोगों को इकट्ठा करके उन्हें प्रेरित करने की पद्धति के बजाय, जिसमें मान कर चला जाता है कि लोग उस नेतृत्वकारी व्यक्ति से अपने को जोड़ लेते हैं, इंगलैंड के इन लोगों ने छोटे-छोटे समूहों में काम करने पर बल दिया । इसमें किसी एक निश्चित काम के लिये एक समूह का गठन किया जाता है । इसमें शामिल लोगों को अपनी पहचान और कर्त्तृत्व के भिन्न प्रकार के अपने लक्ष्य-केंद्रित संकेत मिलते हैं । प्रत्येक के कर्त्तृत्व के प्रश्न पर इस प्रकार की संवेदनशीलता की लकान ने काफी तारीफ की और उनका यह दावा था कि युद्ध में ब्रिटेन की सफलता में फौज में इस प्रकार के वैचारिक प्रयोगों की भी कम भूमिका नहीं थी ।

(क्रमशः)

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