बुधवार, 15 अप्रैल 2020

अथातो चित्त जिज्ञासा (10)


(जॉक लकान के मनोविश्लेषण के सिद्धांतों पर केंद्रित एक विमर्श की प्रस्तावना)

—अरुण माहेश्वरी


जाक लकान
(13 अप्रैल 1901 — 9 सितंबर 1981)

(10)


(ख) 'प्रतिबिंब चरण'

जिस समय लकान ने अपनी डर के मनोविज्ञान के बारे में थिसिस पूरी की उसी समय उन्होंने एक रुदोल्फ लोवेनस्तीन का उपचार (विश्लेषण) शुरू किया था जो 1938 तक चला । लोवेनस्तीन का विश्लेषण पहले फ्रायड के शिष्य हेन्स सैक्स ने किया था । हैन्स अमेरिका चले गये, जहां बाद में उन्होंने अहम् (ego) के मनोविज्ञान पर काम किया और अहम् के उपाय (उपचार) को तय करने के कारण उनके काम की काफी प्रशंसा हुई थी ।

इसी बीच, मनोविकार और मनोचिकित्सा के ग्रंथों के बजाय लकान का रुझान क्रमश: कार्ल जैस्पर्स, हेगेल और मार्टिन हाइडेगर के दर्शनशास्त्रीय ग्रंथों की ओर हो गया था । उन्होंने अलेक्सेंद्रा कोजेव के हेगेल पर दिये गये व्याख्यानों को, जार्ज बातिले, रेमंड ऐरोन, पियर क्लौसोस्क और रेमन क्वीनो के स्तर के विचारकों के सेमिनारों को भी सुना । इन सब बौद्धिकों का तत्कालीन फ्रांसीसी बौद्धिक जगत पर काफी प्रभाव था ।



सन् 1936 में लकान ने अन्तरराष्ट्रीय मनोविश्लेषण संघ ( International Psychoanalytical Association) की सालाना कांग्रेस में 'प्रतिबिंब चरण' (Mirror Stage) के बारे में अपना एक आलेख पेश किया । उसके पहले तक उन्हें इस एसोशियेशन की सदस्यता भी नहीं मिली थी । यद्यपि लकान का दावा था कि वे इसके पहले ही इसकी सदस्यता को पाने की योग्यता रखते थे । बहरहाल, किसी भी एसोशियेशन से जुड़ने का यह लकान का पहला अनुभव था और वह अनुभव इतना त्रासद रहा कि लकान के अनुसार इससे उन्हें कोई खास मदद मिलने के बजाय उनके अंदर सैद्धांतिक और तकनीकी (व्यवहारिक) स्तर पर भी एक प्रकार की ऐसी अंतर-बाधा पैदा हुई, जो आगे उनके लिये उपलब्धि के किसी मील का पत्थर साबित होने के बजाय और हमेशा एक बड़ी समस्या के रूप में ही सामने आई !

लकान ने अपने लेख “ ‘यथार्थ सिद्धांत’ के परे” में एसोशियेशनवाद की कमियों के बारे में बहुत ही गहरी अन्तरदृष्टि के साथ विस्तृत सैद्धांतिक टिप्पणी की है । इसमें वे लिखते हैं कि “फ्रायडीय क्रांति को अपने वक्त के मनोविज्ञान के संदर्भ में ही समझा जा सकता है और उस मनोविज्ञान की पर कोई राय देने का मतलब होता है उससो जुड़ी सामग्रियों की आलोचनात्मक व्याख्या । आलोचना का अपना ढांचा तैयार करना ही आलोचना को चरितार्थ करता है । चेतना के तथ्यों की व्याख्या में ऐतिहासिक विधि के प्रयोग को उचित मानने पर भी मैं उसका प्रयोग उस विधि के मूल्य पर सवाल उठाने वाली उसमें निहित आलोचना से छुटकारा पाने के लिये नहीं करूंगा । यह आलोचना इतिहास से खोजे गये अन्य तथ्यों पर आधारित होती है, इस विधि के द्वारा अपनाए गये अन्य तथ्यों में निहित होती है । इससे पता चलता है कि किसी भी विधि को अपने काम के लिए ऐसे सवाल पैदा करने वाले तथ्यों की जरूरत होती है । 19वीं सदी का मनोविज्ञान, जो अपने वैज्ञानिक होने का दावा करता है और विरोधियों पर अपने को लादता है, वह क्यों वस्तुनिष्ठता के अपने उपकरणों और पदार्थवाद के अपने पेशे, दोनों के कारण ही सकारात्मक नहीं हो पाता है, वह प्रारंभ में ही पदार्थवाद और वस्तुनिष्ठता, दोनों का ही परित्याग कर देता है, उसका इसी से पता चलता है ।”

लकान कहते हैं कि “मनोविज्ञान का यह रूप मनोरोग की तथाकथित एसोशियेशनवादी अवधारणा पर टिका हुआ था, इसलिये नहीं कि उसने इस अवधारणा को सिद्धांत का रूप दिया, बल्कि इसलिये कि उसने इस अवधारणा से, जो यद्यपि सामान्यबुद्धि की ही बात थी, कई स्वयंसिद्ध तत्त्वों की एक श्रृंखला तैयार की, जिनसे मनोरोग की समस्या को पेश करने का एक निश्चित तरीका निर्धारित किया गया । यद्यपि हम देखते हैं कि शुरू में ही जिस विन्यास में वह किसी परिघटना को रोमांचकारी अभिज्ञता, छवियों, विश्वासों, तार्किक क्रियाओं, निर्णयों आदि-आदि में निरूपित करते हैं, उसे उसने खुद पुरातन पंडिताऊ मनोविज्ञान से हूबहू लिया होता है और वह भी सदियों के दर्शनशास्त्र से लिया हुआ होता है ।”  (Ecrits, पृष्ठ – 59/74)   

बहरहाल, प्रतिबिंब चरण के बारे में उनकी इस थिसिस की मूल प्रति तो कहीं लुप्त हो गई, लेकिन सन् 1938 में Encylopedie Francaise में उस आलेख के एक प्रकार के नये संस्करण में परिवार के बारे में उनके शानदार लेख में उनकी प्रतिबिंब चरण वाली सारी दलीलें साफ रूप में आई थी । इस इंटरनेशनल कांग्रेस में लकान के आलेख पर फ्रायड के जीवनीकार और उस सत्र के अध्यक्ष अर्न्सट जोन्स ने उन्हें टोका भी था । इस थिसिस को उन्होंने तेरह साल बाद 17 जुलाई 1949 में जुरिख में मनोविश्लेषण की अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस के 16वें अधिवेशन में विस्तार से समझाया था ।

'प्रतिबिंब चरण' की लकान की समझ के मूल में मानव प्राणी का यह जैविक सत्य रहा है कि प्राणी जगत में मानव-प्राणी एक ही ऐसा प्राणी है जो समय के पहले ही, जिसे कहा जा सकता है अपूर्ण रूप में, अन्याश्रित,  premature पैदा होता है । इसकी हम पहले भी चर्चा कर आए हैं । जीव जगत का यह प्राणी जन्म के साथ न चल सकता है, न अपनी बात कह सकता है । न चीजों को उठा सकता है और न उनकी ओर बढ़ सकता है, न दूर जा सकता है । अपने क्रियात्मक पक्षों पर उसका काफी कम नियंत्रण होता है । जन्म के उपरांत यदि उसकी देख-भाल न की जाए तो उसका जिंदा रहना कठिन होता है ।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि बच्चा जन्म के वक्त जैविक रूप से बमुश्किल ही पूर्ण कहला सकता है । सवाल यही है कि बच्चा, यह मानव प्राणी कैसे परवर्ती समय में अपने शरीर पर अपना नियंत्रण कायम करता है ? कैसे वह अपनी जन्मजात अपरिपक्वताओं से निपटता है ?


लकान ने 'प्रतिबिंब चरण' के अपने सिद्धांत में इन्हीं सवालों का जवाब दिया है । इसकी पृष्ठभूमि में वे देकार्ते के उस प्रसिद्ध कथन को रखते हैं कि “मैं हूं क्योंकि मैं सोचता हूं” । दर्शन शास्त्र का यह 'मैं' वाला पहलू ही लकान की इस 'प्रतिबिंब चरण' वाली समझ को निरूपित करता है । वे बताते हैं कि एक उम्र तक आदमी का बच्चा औजारों आदि के प्रयोग की बुद्धि के मामले में तो चिंपांजी से पीछे रहता है, लेकिन वह दर्पण में अपनी सूरत को पहचानने लगता है । उसकी यह पहचान एक प्रकार से उसके अंतर में हुए एक बोधोदय की सचेत आवृत्ति है, जो एक प्रकार से उसमें परिस्थिति की समझ का सूत्रपात करती है । इसे मानव प्राणी में बुद्धि की क्रियात्मकता का एक प्रमुख क्षण कहा जा सकता है ।

यहां हम थोड़ा सा भटकते हुए अभिनवगुप्त के 'तंत्रालोक' की बात करना चाहेंगे । 'तंत्रालोक' के तृतीयमाहिन्कम् में जहां अभिनव परमेश्वर के अनुत्तरपद अर्थात् उसके श्रेष्ठ उपाय के तहत मनुष्य के विवेक के बारे में चर्चा करते हैं, इसका प्रारंभ वे भी भैरव के परम तेज के स्वतंत्र रूप के तौर पर 'स्वयं प्रकाश' से करके निर्मल दर्पण में परिस्थिति के आभासित बिंब-प्रतिबिंब और शब्दप्रतिबिम्ब तक की चर्चा से करते हैं । विवेक मनुष्य की बुद्धि की क्रियात्मकता का ही सूचक है । आदमी में विवेक के बोधोदय की प्रक्रिया को बताते हुए अभिनव लिखते हैं कि “प्रच्छन्न रूप से प्रेम करने वाली नायिका प्रियतम के प्रतिबिम्ब से सुन्दर दर्पण को बड़े स्तनों से छूने पर भी तृप्त नहीं होती है । क्योंकि इस दर्पण का स्पर्श उतना निर्मल नहीं है जितना रूप ।”

(प्रच्छन्नरागिणी कान्तप्रतिबिम्बितसुन्दरम् ।
दर्पणं कुचकुम्भाभ्यां स्पृशन्त्यति न तृप्यति ।। (6)
न हि स्पर्शोंऽस्य विमलो रूपमेव तथा यतः । )


अर्थात विवेक का बोध असली और नकली के बोध, निर्मलता और कलुष के बोध के उदय से, बुद्धि की क्रियात्मकता से जुड़ा होता है । अभिनव आगे यह भी कहते हैं कि यह बोधोदय मात्र आंख की रोशनी का विषय नहीं है, बल्कि “देह के विभिन्न स्थलों में जो चाक्षुस तेज है उस तेज का अधिष्ठाता प्रमाता उसके अपने ही तेज से मुख का ज्ञान कर लेता है, फिर दर्पण का क्या प्रयोजन ।”

देहादन्यत्र यत्तेजस्तदधिष्ठातुरात्मनः ।
तेनैव तेजसा ज्ञत्वे कोऽर्थः स्याद्दर्पणेन तु ।। (13)

लकान कहते हैं कि बंदर दर्पण में अपने इस बिंब को देखता भर है लेकिन आदमी के बच्चे में इस बिंब की निर्रथकता से तत्क्षण कई भाव-भंगिमाओं की श्रृंखला पैदा होती है, जिसमें वह खेल-खेल में बिंब में होने वाली हलचल और प्रतिबिम्बित परिवेश के बीच के संबंध को, इस आभासित जगत और उसके द्वारा दोहराये जाने वाले यथार्थ के बीच के संबंध को अनुभूत करता है — अर्थात् अपनी देह और उसके इर्द-गिर्द के लोगों और चीजों के बीच के संबंध को अनुभूत करता है ।



लकान अमेरिकी मनोविश्लेषक जेम्स मार्क बाल्डविन (1861-1934) के हवाले से बताते हैं कि बच्चों में छः महीने की उम्र में ही ऐसा होता है । जो बच्चा अभी तक चलना, यहां तक कि खड़ा होना भी नहीं सीखा है, वह दर्पण के सामने हंसने-खेलने लगता है । लकान कहते हैं कि यह सिलसिला लगभग डेढ़ साल की उम्र तक चलता है । और इसी बीच वह इस चीज से, दर्पण में देख कर प्रतिक्रिया करने से मुक्त हो जाता है, जो उसके पहले तक उसके लिए एक पहेली की तरह था, और बच्चा मनुष्यों के संसार के उस तात्विक विन्यास से परिचित हो जाता है जिसका, लकान के शब्दों में, 'डर के बारे में मेरी समझ से मेल खाता है' । लकान इस प्रक्रिया को मुक्तिदायी प्रक्रिया (libidinal dynamism) (Ecrits, page-94) अर्थात् अब वह उस वास्तविक जगत में आ जाता है । उसका ‘मैं’ यहां पहले अपने आदिम रूप में होता है, अन्य के साथ खुद को जोड़ने की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से वस्तुनिष्ठ होने के पहले के आदिम रूप में, भाषा के जरिये इस जगत का विषय बनने के पहले के रूप में । इसके आगे तो वह उस जगत का अंश होता चला जाता है जो ‘डर’, अर्थात् नियम-नैतिकताओँ से विन्यस्त संरचनाओं का जाल हुआ करता है ।


लकान कहते हैं कि प्रतिबिंब चरण में इस प्रकार की अपनी छवि, बिंब से पहचान के जरिये किसी स्फोट की तरह उसका एक रूपांतरण होता है ; यही छवि के साथ मनुष्य के संबंध का सूत्रपात है । आदमी के चित्त में छवियों की भूमिका का सूत्रपात । छवियों और मनुष्यों के सत्य के बीच भेद करने के विवेक का सूत्रपात ।

अभिनवगुप्त के शब्दों में — “ग्राहक बनने वाले प्रत्यावृत्त तेज के द्वारा अपने ही मुख से अपना रूप दिखाई देने लगता है न कि दर्पण में ।”

“विपर्यस्तैस्तु तेजोभिग्रार्हकात्मत्वमागतैः ।
रूपं दृश्येत वदने निजे न मकुरान्तरे ।। (तृतीयमाह्निकम् ; 14)


यही प्रक्रिया आदमी के बच्चे की अपनी जन्मजात कमियों, अपरिपक्वताओँ से उबरने की एक स्फोटमूलक प्रक्रिया है जिसे व्यक्ति को उसकी समग्रता की पहचान कराने वाला गेस्टाल्ट सिद्धांत कहते हैं । गेस्टाल्ट मनोविज्ञान (Gestalt psychology) के इस संप्रदाय के विकास में जर्मनी के मैक्स बरदाईमर (1880-1943) (Max Wertheimer) के अलावा दो अन्य मनोवैज्ञानिक, कर्ट कौफ्का (1887-1941) तथा ओल्फगैंग कोहलर (1887-1967) ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इस सम्प्रदाय का मुख्य बल व्यवहार में सम्पूर्णता के अध्ययन पर था। 'अंश' की अपेक्षा 'सम्पूर्ण' पर बल देते हुये बताया गया कि यद्यपि सभी अंश मिलकर सम्पूर्णता का निर्माण करते हैं, परन्तु सम्पूर्णता की विशेषताएं अंश की विशेषताओं से भिन्न होती हैं। गेस्टाल्ट का अर्थ होता है एक समग्र  'प्रारूप', 'आकार' या 'आकृति' । इस स्कूल द्वारा प्रत्यक्षण के क्षेत्र में प्रयोगमूलक शोध किए गए जिससे प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का नक्शा ही बदल गया। प्रत्यक्षण के अतिरिक्त इन मनोवैज्ञानिकों ने सीखना, चिंतन तथा स्मृति के क्षेत्र में काफी योगदान किया जिसने शिक्षा मनोविज्ञान को भी प्रभावित किया। लकान के 'प्रतिबिम्ब चरण' के सिद्धांत से भी इसकी एक समझ मिलती है ।

 मैक्स बरदाईमर (1880-1943)

इस संदर्भ में लकान के परवर्ती पाठों में बच्चे के आचरण के बारे में जिज्ञासा, जिसे नकल (mimicry) कहते हैं की ओर ध्यान खींचा गया है । कुछ जानवरों में अपने परिवेश के चिन्हों और रंगों को अपनाने की शीरत पाई जाती है । एक बांस का कीड़ा बांस के जैसा ही दिखाई देता है । इस बात की व्याख्या करते हुए कहा जाता था कि यह जानवर की अपने को किसी हमलावर से बचाने की प्रवृत्ति का सूचक है । इसके मूल में विकासवाद के सिद्धांत की समझ काम कर रही थी । लेकिन अनेक शोधकर्ताओं ने यह लक्ष्य किया है कि जो जानवर अपनी इस प्रकार की छवि ग्रहण करते हैं या अपने को छिपाते हैं, वे भी उसी प्रकार मार कर खा लिये जा सकते हैं जैसे वे खाये जाते हैं, जो ऐसा नहीं करते हैं ।


1930 के जमाने में तो अमेरिकी सरकार ने एक सर्वे में लगभग 6000 चिड़ियाओं के पेट से उनके द्वारा निगले गये कीड़ों की जांच कराई थी । उस जांच में जिन कीड़ों के बारे में माना जाता है कि वे अपने को छिपा लिया करते हैं, वे भी चिड़ियों के पेट में उतनी ही संख्या में पाए गए, जितनी संख्या में वे कीड़ें पाए गए जो अपने को नहीं छिपाते हैं, अर्थात् अपनी पहचान के बारे में ईमानदार बने रहते हैं । यही वजह है कि विकासमूलक जीव विज्ञान के पास इस प्रकार की नकल या सदृश्यता को अपनाने का कोई सही जवाब नहीं है । इसी से लकान इस नतीजे पर पहुंचे कि अपनी पहचान के ऐसे सभी सवालों का अगर कहीं कोई उत्तर पाया जा सकता है तो वह सिर्फ मनोविश्लेषण के जरिये ही संभव है ।

ओल्फगैंग कोहलर (1887-1967)

लकान ने इस बात को नोट किया था कि फ्रांसीसी विचारक औजरे कैलिओ (1913-1978) (Roger Caillois) मनुष्यों के नकाबों के खेल से काफी आकर्षित थे । उन्होंने इसे जीव जगत के साथ मनुष्य के संबंध के एक खेल के रूप में देखा था । उन्होंने कहा कि यह एक प्राकृतिक नियम है कि कोई भी जीव जब अपने परिवेश की गिरफ्त में आ जाता है, तब वह अपने चारों ओर के रंग में रंगा जाने लगता है । यही उसका चित्त, चारो ओर के संकेतों को पढ़ने का उसका आंतरिक ढांचा, symbolic order होता है । 
औजरे कैलिओ (1913-1978)

लकान ने औजरे की इस थिसिस को प्रतिबिंब चरण के बारे में अपने काम से आगे और विकसित किया । उसे बच्चे के मनोविज्ञान के अध्ययन और सामाजिक सिद्धांत से जोड़ा और किसी भी जीव के अपने बाहर की किसी अन्य छवि में अपनी कल्पना करके उसकी गिरफ्त में आ जाने के तर्क को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया ।

वे कहते है कि किसी भी समूह में दो व्यक्तियों के बीच संबंधों को एक बच्चा बड़ों की तुलना में ज्यादा कुशाग्रता से पकड़ लेता है, क्योंकि बड़ों की सारी समझदारी के बावजूद मनुष्यों के व्यवहार के बारे में उनके ज्ञान और अन्य से अपने संबंध के हितों के चलते उसमें सच को देखने में एक स्वाभाविक बाधा काम करने लगती है । लकान लिखते हैं कि वासना के दबाव के सामने पशु के ज्ञान की तुलना में मनुष्य इसीलिये ज्यादा स्वतंत्र होता है क्योंकि सामाजिक संबंधों में बंधे होने के कारण, अर्थात सामाजिक द्वंद्वात्मकता के कारण मनुष्य का ज्ञान डर के रूप में, हिचक के रूप में विन्यस्त होता है, जीवन का वह तुच्छ यथार्थ, जिससे अतियथार्थवादी इतना चिढ़ते हैं, आदमी को अपने से बांधता है । इसी आधार पर लकान प्रतिबिंब चरण के बारे में कहते हैं कि इससे बच्चे में, सामाजिक द्वंद्वों से पहले ही स्थान संबंधी जो एक बोध पैदा होता है, वह उसे अपने प्राकृतिक यथार्थ की सीमा से परिचित कराता है । इसप्रकार प्रतिबिंब चरण आदमी में छवियों की भूमिका को समझने के सूत्र देता है, प्राणी और उसके यथार्थ के बीच के संबंध को तय करने वाली छवियों की भूमिका को प्रकाशित करता है । (Ecrits, Page — 77/96)

(क्रमशः)

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