शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

नेहरू और उनकी विचारधारा


अरुण माहेश्वरी

(नेहरू जी की 125वीं जयंती के अवसर पर हम यहां ईएमएस नम्बुदिरिपाद की पुस्तक ‘‘नेहरू आइडियोलोजी एण्ड प्रेक्टिस’’ (नेहरू, विचारधारा और व्यवहार)  के आधार पर उनके शताब्दी वर्ष पर लिखे गये अपने एक लंबे लेख को मित्रों से साझा कर रहे हैं। इसे पंडित नेहरू के बारे में भारत के कम्युनिस्टों की पारंपरिक समझ के तौर पर देखा जा सकता है। यह सच है कि पिछले पचीस सालों में परिस्थितियां काफी बदल गयी है। ऐसे में नेहरू के बारे में नये सिरे से सोचने की जरूरत है। उनकी विरासत को पूरी तरह नकारात्मक के बजाय अनेक अर्थों में सकारात्मक रूप में समझने की भी जरूरत है। फिर भी, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के इतिहास के कई पहलुओं का इस लेख में किया गया विश्लेषण आज भी वैध प्रतीत होता है। बहरहाल, अपने मित्रों से हम इस लेख को सजग आलोचनात्मक दृष्टि के साथ पढ़ने का निवेदन करेंगे : )



14 नवम्बर सन् 1889 में जन्मे पंडित जवाहरलाल नेहरू का यह जन्म-शताब्दी वर्ष चल रहा है। अपने 75 वर्षों के जीवन में पंडित नेहरू लगभग 35 वर्षों तक भारत की राजनीति के शीर्ष स्थान पर रहे। सन् 1929 में जब वे पहली बार राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये, तब से लेकर उम्र की अन्तिम घड़ी, 27 मई 1964 तक सम्पूर्ण भारतीय राजनीति पर उनके व्यक्तित्व का प्रभुत्व रहा । भारत की आजादी की लड़ाई में लगभग 18 वर्षों तक तथा आजादी के बाद देश के प्रधानमंत्री के रूप में लगभग 17 वर्षों तक इस अकेले व्यक्तित्व ने किसी भी दूसरे व्यक्ति की तुलना में भारतीय समाज और राजनीति को कम प्रभावित नहीं किया । यही वजह है कि इतिहास में इस व्यक्ति के उचित स्थान को निर्धारित करना भारत के समूचे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के बारे में एक सही तथा संतुलित समझदारी कायम करने के लिए भी जरूरी है। वर्ना आजादी के लिए भारत की जनता के राजनैतिक संघर्षों के इतिहास को सही रूप में समझने से हम चूकेंगे। 
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव कामरेड ईएमएस नम्बूदिरिपाद ने नेहरू जन्म शताब्दी के अवसर पर अपनी पुस्तक ‘‘नेहरू आइडियोलोजी एण्ड प्रेक्टिस’’ (नेहरू, विचारधारा और व्यवहार) प्रकाशित करके इस दृष्टि से एक अत्यन्त सार्थक और दिशा दिखाने वाले कार्य किया है। 
एक ही वर्ग के तीन चेहरे 
भारत की आजादी की लड़ाई में ही भारतीय बुर्जुआ के तीन स्वरूप खुलकर सामने आ गये थे। एक शुद्ध बुर्जुआ स्वरूप था जिसके सामने त्याग, बलिदान के आदर्शों का वस्तुत: कोई मूल्य नहीं था। यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बिल्कुल प्रारम्भिक काल के स्वरूप का ही विकास था, जिसका राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई के दिनों में एक सीमा तक पंडित मोतीलाल नेहरू प्रतिनिधित्व करते थे। इनके जेहन में शुद्ध पश्चिमी तर्ज पर संसदीय जनतंत्र की साफ परिकल्पना थी। बुर्जुआ नेतृत्व का दूसरा स्वरूप था महात्मा गाँधी का, एक धार्मिक मानवतावादी का, इसने बुर्जुआ के वर्गीय हितों की लड़ाई के साथ भारत की व्यापक गरीब और मेहनतकश धर्म-भीरू जनता को जोड़ने की एक ऐतिहासिक भूमिका अदा की। तीसरा स्वरूप था पंडित जवाहरलाल नेहरू का- पूँजीवाद के पतन के काल में समाजवाद की ओर आकर्षित एक सामाजिक जनतंत्रवादी का। एक ही वर्गीय हित का प्रतिनिधित्व करने की वजह से ही सामाजिक जनतंत्रवादी नेहरू की शुद्ध बुर्जुआ जनतंत्रवादी मोतीलाल नेहरू और धार्मिक मानवतावादी महात्मा गाँधी के साथ एक स्वाभाविक संगति कायम हो गयी थी। लेकिन फिर भी तीनों के सोचने और काम के तरीकों में काफी फर्क था। यही वजह है कि जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते वक्त अक्सर एक ओर जहां भारत के वामपंथी मोटे तौर पर उन्हें अपना मित्र समझने के बावजूद चंद मसलों पर उन्हें अवसरवादी समझते रहे हैं, वहीं, भारत के दक्षिणपंथियों को भी समाजवाद, जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की नेहरूजी की तमाम बातों के बावजूद उनका साथ निबाहने में बहुत ज्यादा दिक्कत कभी नहीं महसूस हुई। 
का. ईएमएस ने पंडित नेहरू के समूचे व्यक्तित्व के इसी, एक अंश तक मायावी, व्यक्तित्व की गुत्थी को सुलझाते हुए लगभग 300 पृष्ठों की अपनी इस पुस्तक में ऐतिहासिक तथ्यों की रोशनी में भारतीय बुर्जुआ के प्रतिनिधि और प्रवक्ता के रूप में एक राष्ट्रीय नेता के तौर पर उनके विकास और अवसान की पूरी प्रक्रिया को प्रकाशित किया है। 
का. ईएमएस के शब्दों में पुस्तक में इस मूलभूत समझ को स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है कि ‘‘नेहरू स्वतंत्रता आंदोलन की सबसे बड़ी हस्तियों में एक तथा स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री इसीलिए बने पाये क्योंकि उन्होंने एक विशेष वर्ग, भारतीय बुर्जुआ वर्ग का प्रतिनिधित्व किया तथा उसके प्रवक्ता के रूप में कार्य किया। जैसा कि उस वर्ग ने किया, उसी तरह सिर्फ अपने वर्ग के हित का नहीं बल्कि राष्ट्र के आम हितों को प्रतिबिम्बित करते हुए स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम 18 वर्षों (1929-1947) तक तथा स्वातंत्रोत्तर काल के प्रथम 17 वर्षों तक वे पूरे राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर अपना प्रभुत्व कायम रख सके। लेकिन, जब स्वातंत्रोत्तर वर्षों में उस वर्ग के हितों, जिसके वे सबसे प्रभावशाली नेता थे, तथा पूरे राष्ट्र के हितों के बीच अन्तर्विरोध पैदा होने लगे, तभी से स्वतंत्र भारत की सरकार के नेता के रूप में वे विफल होने लगे। इसीलिए, उनकी जिन्दगी के अंतिम वर्ष एक नेता के रूप में जवाहर लाल नेहरू के लिए तथा साथ ही साथ उस राष्ट्र के लिए जिसके नेतृत्व में वे थे, दुखांतकारी हो गये।’’ 
कुल 38 अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक में अत्यन्त प्रमाणिक स्रोतों के हवाले तथा वैज्ञानिक विश्लेषण-पद्धति के जरिये भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के साथ आद्योपांत जुड़े पंडित नेहरू के घटना-बहुल जीवन को व्याख्यायित किया गया है। इसी कारण भारत के राष्ट्रीय आंदोलन को भी तत्कालीन विश्व परिस्थिति की पृष्ठभूमि में अच्छी तरह से समझने की गहरी अंतर-दृष्टि इस विश्लेषण के जरिये प्राप्त होती है। 

राजनीति में पदार्पण का काल
एक अत्यन्त सम्पतिशाली, प्रभुत्वशाली पिता की छत्रछाया में पले हुए जवाहरलाल  नेहरू ने सन् 1922 के असहयोग आंदोलन के वक्त स्वराज पार्टी वालों का साथ न देकर गाँधीजी के नेतृत्व के प्रति अपने पूर्ण समर्थन से सर्वप्रथम कांग्रेस की राजनीति में अपने पिता से अलग स्वतंत्र व्यक्तित्व का परिचय देना प्रारम्भ किया। इसके बाद ही उस दशक का प्रारम्भ होता है जब कांग्रेस के मंचों पर सोवियत क्रांति से प्रेरणा प्राप्त कम्युनिस्टों की, अत्यन्त मन्द ही क्यों न हो, आवाज सुनाई देने लगी थी। सन् 1922 से लेकर 1933 के बीच के 12 वर्षों में बिटिश सरकार द्वारा चलाये गये पेशावर के तीन, कानपुर तथा मेरठ में एक-एक कम्युनिस्ट षड़यंत्र मुकदमों ने कम्युनिस्टों के सफाये के बजाय यथार्थ में भारत की जनता में कम्युनिस्ट विचारों के फैलाव का काम ही किया। ‘‘जो लोग सोवियत संघ, कम्युनिस्ट अन्तर्राष्ट्रीय या कम्युनिस्टों के छोटे-छोटे समूहों तथा भारत में उनके सहधर्मियों के बारे में कुछ नहीं जानते थे, वे अब उन्हें तथा उनके कार्यक्रम और नीतियां क्या हैं, के बारे में कहीं ज्यादा जानने लगे।’’
‘‘यही वह काल था जब भारी संख्या में पुराने प्रकार के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट बन रहे थे।... यह कोई आकस्मिक बात नहीं कि ठीक उसी वक्त जब भगत सिंह और उनके साथियों पर लाहौर षड़यंत्र मामले में मुकदमा चलाया जा रहा था, 30 से ज्यादा प्रमुख कम्युनिस्टों तथा जुझारू ट्रेड यूनियनिस्टों के खिलाफ मेरठ षड़यंत्र मुकदमा चलाया जा रहा था।’’

साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना 
इस समूचे घटनाक्रम का नेहरू के जीवन से कोई प्रत्यक्ष संबंध न होने पर भी भारत और दुनिया की स्थितियों के कारण वे वामपंथ की ओर क्रमश: झुकने लगे। सन् 1926 में अपनी पत्नी की बीमारी के लिए यूरोप यात्रा पर जाने पर वहाँ उनका सम्पर्क सारी दुनिया के प्रगतिशीलों, कम्युनिस्टों तथा स्वतंत्रता-प्रेमियों से हुआ। उसी दौरान सन् 1927 में ब्रुुसेल्स में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक प्रतिनिधि के रूप में ‘‘लीग अगेन्सट इम्पीरियलिज्म’’ के सम्मेलन में उन्होंने हिस्सा लिया, वे सम्मेलन के अध्यक्षमंडल के सदस्य बने तथा लीग की कार्यकारिणी के सदस्य चुने गये। उसी समय उन्हें सोवियत क्रांति की 10 वीं सालगिरह के मौके पर सोवियत संघ जाने का अवसर मिला। दुनिया के स्वतंत्रता-प्रेमियों, कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों से परिचय तथा सोवियत संघ की इस संक्षिप्त यात्रा ने उनके पूरे व्यक्तित्व पर काफी गहरा असर डाला। नेहरू के जीवनीकार श्री एस. गोपाल के शब्दों में ‘‘जो व्यक्ति गाँधी के एक समर्पित शिष्य के रूप में भारत से यात्रा पर निकला था, वह एक आत्म-चेतन क्रांतिकारी, प्रगतिशील के रूप में वापस लौटा। यद्यपि हमेशा गाँधी से गहराई से प्रभावित होने पर भी, अब वह कभी भी गाँधीवादी सांचे का पूरी तरह से बंदी नहीं हो सकता था।’’

कांग्रेस और वामपंथ 
नेहरू यूरोप से साम्राज्यवाद के खिलाफ अन्तर्राष्ट्रीय आंदोलन के एक ‘‘सहयात्री’’ के रूप में भारत लौटे। इसी दौर में भारत में बेइन्तहां दमन के बावजूद कम्युनिस्टों ने संगठित पार्टी का रूप लेना शुरू कर दिया था। दिसम्बर 1925 में कानपुर में कम्युनिस्टों का पहला खुला सम्मेलन हुआ। विदेश में कम्युनिस्टों का ‘‘सहयात्री’’ बने पंडित नेहरू इसीलिए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी तथा वर्कस एण्ड पीजेन्ट्स पार्टी के लिये वे स्वाभाविक तौर पर ‘‘सहयात्री’’ बन गये।
इसी पृष्ठभूमि में, सन् 1929 के कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में हसरत मोहानी का जो पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव बहुमत से पराजित हो गया, सन् 1927 के मद्रास अधिवेशन में नेहरू का वही प्रस्ताव बहुमत से पारित हुआ। ‘‘दरअसल एक संगठन के रूप में कांग्रेस भारत तथा विदेश में साम्रााज्यवाद-विरोधी तथा कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ने लगी।’’ सन् 1928 के कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के नाम न्यूयार्क से सरोजिनी नायडू, श्रीमती सुनयात सेन तथा मैडम रोमारोलां से लेकर पर्सियन सोशलिस्ट पार्टी, न्यूजीलैंड की कम्युनिस्ट पार्टी, लीग ऑफ राइट्स ऑफ मेन की तरह के व्यक्तियों और संगठनों के शुभकामना संदेश मिले। 
‘‘इस प्रकार यह साफ था कि देश के अन्दर मजदूर वर्ग तथा कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रति और साथ ही साथ विदेश में क्रांतिकारी साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के प्रति सहानुभूति जवाहरलाल नेहरू की व्यक्तिगत मनमर्जी नहीं थी बल्कि कांग्रेस पार्टी तथा उस वर्ग की नीति थी जिसके वे निष्ठावान प्रतिनिधि तथा नेता थे।’’
लेकिन इसी मोड़ से कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेताओं के वामपंथ के प्रति कान और ज्यादा खड़े हो गये। कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के बाद ही 1929 में लाहौर अधिवेशन हुआ। गाँधीजी के प्रस्ताव पर जवाहरलाल कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। जो लोग नेहरू को वामपंथियों का विश्वस्त मित्र जानकर आतंकित थे, उन्हें गाँधीजी ने आश्वस्त किया। उन्होंने कहा ‘‘एक अनुशासन प्रेमी के रूप में उसने (जवाहरलाल ने) ऐसे समय भी स्वयं को दृढ़ता से अनुशासन के अधीन रखने की क्षमता दिखाई है, जब वह क्लेशदायी जान पड़ता था।’’ दरअसल यहीं से नेहरू का वह दोहरा रूप सामने आने लगता है जब वे अपने विश्वासों और सिद्धांतों से व्यवहार की जमीन पर अक्सर समझौता करते दिखाई देने लगते हैं। ‘‘कांग्रेस अध्यक्ष नेहरू ने प्रतिनिधियों में से संगठित वामपंथियों से खुद को अलग कर लिया... जो नयी वर्किंग कमेटी बनी उसमें अध्यक्ष के अलावा एक भी वामपंथी नहीं था।’’

राष्ट्रव्यापी संघर्ष और दंगा 
लाहौर अधिवेशन के बाद 26 जनवरी 1930 को देशभर में स्वतंत्रता दिवस के पालन तथा मार्च-अप्रैल 1930 में नमक सत्याग्रह और गाँधीजी के  दांडी मार्च ने देश व्यापी स्तर पर आंदोलन की एक नयी लहर पैदा की। उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रांत में निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली चलाने से गढ़वाली बटालियन द्वारा इनकार किये जाने, चटगांव में सूर्य सेन के नेतृत्व में शस्त्रागार पर कब्जे तथा शोलापुर में मजदूरों के हिंसक आंदोलन ने जनता की मानसिकता का परिचय दिया। ऐसे माहौल में गाँधी-इरविन समझौता, आंदोलन के उस पूरे ज्वार का एक अस्वाभाविक शमन था। नेहरू के जीवनीकार एस. गोपाल के शब्दों में ‘‘अपने असंतोष के बाद भी कांग्रेस के कराची अधिवेशन में जवाहरलाल ने इस समझौैते की स्वीकृति का प्रस्ताव पेश किया।’’
कांग्रेस का कराची अधिवेशन जिस समय हुआ उस समय पूरे सम्मेलन पर भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की फाँसी की विषादपूर्ण छाया थी। इसके साथ ही, बिल्कुल विपरीत छोर पर गाँधी-इरविन समझौैते को स्वीकृति का प्रश्न था। जनता में गहरा आक्रोश फैला था, नौजवान कांग्रेसजनों में समाजवादी विचारों के प्रति गहरा आकर्षण पैदा हो चुका था। कराची अधिवेशन में जवाहरलाल ने एक ओर जहां गाँधी-इरिवन समझौते को स्वीकृति का प्रस्ताव रखा, वहीं ऐसी मांगों का प्रस्ताव पेश किया जिसके जरिये पहली बार कांग्रेस के कार्यक्रम में मजदूर वर्ग के आर्थिक हितों से जुड़ी मांगें शामिल हुईं। इसप्रकार ‘‘एक ओर जहां उसने (कराची अधिवेशन ने) शासकों के साथ समझौते की अपनी नीति को चलाने में दक्षिणपंथी नेतृत्व को मदद दी, वहीं उसमें पहली बार कांग्रेस का वामपंथ की ओर भी झुकाव हुआ।’’

हताशा 
गाँधी-इरविन समझौते के तहत सन् 1931 में गोलमेज वार्ता के लिए कांग्रेस की ओर से  गाँधीजी लंदन के लिए रवाना हुए। इधर देश में बिटिश सरकार का कांग्रेस संगठन के खिलाफ चरम दमन शुरू हो गया। लगान के प्रश्न पर विभिन्न स्थानों पर किसान-आंदोलन शुरू हुए। एक के बाद एक दमनकारी अध्यादेश लागू किए जाने लगे। गाँधी-डरविन समझौते से जो एक प्रकार का अस्थायी युद्ध-विराम कायम हुआ था, बिटिश सरकार ने उसका लाभ नीचे के स्तर पर कांग्रेस संगठनों को कुचलने में करना चाहा। दूसरी ओर, लंदन के गोलमेज सम्मेलन में गाँधीजी को कुछ भी हाथ नहीं लगा। उल्टे बिटिश सरकार ने उस सम्मेलन का प्रयोग दुनिया के सामने भारत में पैदा हो रहे साम्प्रदायिक विभाजन को दिखाने के लिए किया। हताश गाँधीजी उस सम्मेलन से यह कहते हुए उठे कि ‘‘मैं नहीं जानता मेरा रास्ता अब किस दिशा में होगा।’’ भारत लौटकर उन्हें चारों ओर से सरकारी दमन के समाचार मिलने लगे। बम्बई में उनसे आकर मिलने के रास्ते में ही जवाहरलाल तक को गिरफ्तार कर लिया गया। मजबूरन फिर कांग्रेस को सिविल नाफरमानी और असहयोग का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। इसी बीच, बिटिश प्रधानमंत्री ने दलितों के लिए अलग मतदान आदि के अधिकारों की घोषणा करके भारतीय समाज में जाति के आधार पर एक और स्थायी दरार डालने की घोषणा की। इसके खिलाफ गाँधीजी ने आमरण अनशन का ऐलान किया। इसके पहले ही, अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी कमी पंडित नेहरू को हमेशा सताया करती थी, अब बापू की मृत्यु की आशंका ने उन्हें गहराई तक दहला दिया। जवाहरलाल के लिए यह जैसे उनके आखिरी सहारे के छिन जाने की तरह था। ‘‘उनके दो खम्भों में से एक (पिता) पहले ही ढह चुका था। दूसरा ढहने के कगार पर था। असहायता की एक गहरी अनुभूति----जिसने उन दिनों नेहरू को दहला दिया।’’
जनवरी 1932 में शुरू हुआ सिविल नाफरमानी आंदोलन वापस ले लिया गया तथा अब हरिजन उत्थान ने कांग्रेस के कार्यक्रम में सर्वोच्च प्राथमिकता ले ली। यहीं पर फिर एक बार नेहरू और गाँधी के सोच की प्रक्रिया की भिन्नता जाहिर हुई। इस दौरान लम्बे अर्से तक जेल में रहते हुए नेहरू ने देशी-विदेशी साहित्य का अध्ययन किया, मार्क्सवाद को जाना। सोवियत संघ और समाजवाद के बारे में अध्ययन किया और सर्वोपरि फासीवाद के उदय को समझा। ‘‘बीस के  दशक में अपनी यूरोप यात्रा के दौरान वामपन्थ की ओर पैदा हुए तथा अध्ययन के जरिये पुख्ता हुए लगाव को इटली और जर्मनी में सामने आये विरोधी दर्शन ने बिल्कुल सही साबित कर दिया।’’ लेकिन फिर भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में गाँधीजी पर उनकी निर्भरशीलता का कोई अन्त नहीं था। ‘‘विश्व समस्याओं के विश्लेषण और गाँधीवादी नेतृत्व द्वारा अपनाई गयी राजनीति की आलोचना में वे यूरोपीय समाजवादियों से एकमत थे, फिर भी अपने पिता और महात्मा की तरह की विशाल हस्तियों के सामने वे खुद को असहाय महसूस करते थे। यही कुल मिलाकर जवाहरलाल की सूरत है जैसी कि उन्होंने लाहौर में कांग्रेस के अधिवेशन में (उनके पिता और महात्मा द्वारा ) अध्यक्ष चुने जाने के बाद खुद की बनायी।’’

सीएसपी, सीपीआई और नेहरू 
लेकिन कांग्रेस के अन्दर समाजवादी विचारों के प्रति आकर्षित होनेवाले तमाम लोग गाँधी के प्रति वफादारी की डोर से ठीक उसी प्रकार बंधे नहीं थे, जैसे जवाहरलाल थे। इस नये तबके ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की नींव डाली। जवाहरलाल के ‘‘भाषणों तथा लेखों की विषयवस्तु दरअसल यही दिखाती थी कि वे उन्हीं विचारों की अभिव्यक्ति कर रहे थे जिन्हें कांग्रेस सोशलिस्ट कहा करते थे। फिर भी, दोनों में एक महत्वपूर्ण फर्क था। जैसा कि 1929 में गाँधी ने संकेत किया था, जवाहरलाल की प्रगतिशीलता और समाजवाद सख्ती के साथ कांग्रेस के अनुशासन के पाबन्द थे। दूसरी ओर कांग्रेस सोशलिस्ट उन्हीं बुनियादी बातों को चुनौती दे रही थी जिन पर गाँधीवादी कार्यक्रम तैयार किया गया था।’’
इसी समय, सन् 1936 के करीब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी तथा कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के बीच एक समझौता होता है। इस समझौते ने 30 के दशक के उतरार्द्ध में साम्राज्यवाद--विरोधी आलोड़न में एक बड़ी भूमिका अदा की।
सन् 1936 के लखनऊ अधिवेशन में जवाहरलाल फिर एक बार सन् 1929 की भांति कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। ‘‘इस प्रकार उन्हें बिल्कुल सही, वह भूमिका अदा करने के लिए तैयार किया गया, जो गाँधी चाहते थे : नीति संबंधी घोषणाएं तथा संगठन के बारे में ऐसे प्रस्ताव रखो ताकि वामपंथी रुझान के कार्यकर्ता और जनता प्रेरित होकर कांग्रेस की जरूरतों के अधीन भी रहें। निर्देश का वफादारी से पालन करते हुए इसे उन्होंने (जवाहरलाल ने) हासिल किया।’’
इस पद के लिए चुने जाने के वक्त नेहरू यूरोप में थे। वहां उनकी कई प्रगतिशीलों और कम्युनिस्टों से मुलाकातें हुई। इनमें ब्रिटिश कम्युनिस्ट बेन ब्रैडले तथा रजनी पाम दत्त भी शामिल हैं। नेहरू के जीवनीकार एस गोपाल ने लिखा है कि इन मुलाकातों में उन्होंने इस पर सहमति जाहिर की कि कांग्रेस दक्षिणपंथ की ओर बढ़ रही है। लेकिन साथ ही व्यक्तिगत रूप से उन्होंने कम्युनिस्टों के साथ मिल-जुलकर काम करने की इच्छा जाहिर की। लखनऊ अधिवेशन में उनके भाषण पर इन मुलाकातों का साफ असर दिखाई देता है। इसी समय ‘‘पहली बार इतिहास में, कांग्रेस की वर्किंग कमेटी में तीन सोशलिस्ट, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव तथा अच्युत पटवर्धन शामिल किये गये। सुभाष बोस (जो उस समय जेल में थे) तथा स्वयं अध्यक्ष को लेकर वर्किंग कमेटी में पांच वामपंथी हो गये थे।’’
इसी के साथ वर्किंग कमेटी में विवाद का एक नया सिलसिला शुरू हुआ। लेकिन जवाहरलाल सदैव बहुमत (जो दक्षिणपंथी था) की राय को स्वीकार कर चलने पर मजबूर थे। इस दौर में नेहरू जी की स्थिति क्या थी? इसका अनुमान उनके जीवनीकार के इस एक अंश से ही लग जाता है। बात उसी जमाने की है। ‘‘वर्किंग कमेटी (कांग्रेस की) ने चुनाव के परिणामों को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1935 की निन्दा और उसे ठुकरा दिये जाने के रूप में बताया तथा सभी कांग्रेस जनों को यह जताया कि इस ऐक्ट के विरुद्ध लड़ना तथा उसे समाप्त करना पार्टी की मूलभूत नीति हैं, और तभी, बिना किसी तर्क या हिचक के, सरकारी पदों को स्वीकारने की अनुमति दे दी गयी, बशर्ते विधानसभाओं में पार्टी के नेता यदि इस बात पर संतुष्ट हो जाए कि संविधान के तहत काम करते हुए सरकार के कामों में गवर्नर टांग नहीं अड़ायेगा। उस वक्त दिल्ली में एम.एन. राय नेहरू के पड़ोसी थे तथा इस पर नेहरू की प्रतिक्रिया को उन्होंने जिस प्रकार दर्ज किया है उसमें सच्चाई है।
‘‘तीसरे दिन, दोपहर के अन्तिम प्रहर में, वे अन्दर आये तथा बिस्तर पर पसर गये। बिल्कुल दुखी, प्राय: रो रहे आदमी की भांति। ‘मुझे इस्तीफा दे देना चाहिए’ उन्होंने कहा। मैंने पूछा, क्यों? क्या उन्होंने आपके मसौदे को ठुकरा दिया? ‘नहीं’ दबे हुए गुस्से के साथ आह भरते हुए उन्होंने कहा, उस ससुरे को पूरा का पूरा स्वीकार लिया, साथ ही किन्तु गाँधीजी का लिखाया हुआ एक छोटा-सा पैराग्राफ जोड़ दिया, जो पूरे प्रस्ताव को निरस्त कर देता है। 
‘‘कहना न होगा कि उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया, बल्कि अपने दृढ़ अनुशासनबोध के चलते, हार को स्वीकार कर लिया।’’
कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में नेहरू तथा अन्य वामपंथियों की रास इसी प्रकार वर्किंग  कमेटी के बहुमत के हाथ में, खास तौर पर गाँधीजी के हाथ में रहा करती थी। लखनऊ अधिवेशन के बाद फिर फैजपुर में नेहरू दुबारा कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। इस प्रकार कांग्रेस में वे पहले व्यक्ति थे जो तीन बार अध्यक्ष पद पर चुने गये। पहली बार सन् 1929 में तो पंडित मोतीलाल नेहरू की इच्छा के चलते वे अध्यक्ष बने थे। लेकिन 1936 में लखनऊ फैजपुर में उनके अध्यक्ष पद के लिए चुने जाने के कहीं ज्यादा वस्तुनिष्ठ कारण थे। 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट के मातहत राज्य विधानसभाओं के पहली बार चुनाव होने वाले थे। तथा फिर फैजपुर सम्मेलन ऐसे समय हुआ जब चुनाव बिल्कुल करीब आ चुके थे। ‘‘वह एक महत्वपूर्ण राजनीतिक लड़ाई थी जिसमें समूचे कांग्रेस संगठन को सक्रिय करना था। इसलिए यह जरूरी था कि ऐसा व्यक्ति अध्यक्ष हो जो कांग्रेस के अन्दर और बाहर, दोनों जगह के वामपंथी तत्वों को इकट्ठा कर सके। इसीलिए नेहरू को दुबारा अध्यक्ष पद पर बने रहने दिया गया। इसने गाँधी के नेतृत्व की वर्किंग कमेटी को सरकार द्वारा लाद दिये गये गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट के खिलाफ संघर्ष में कांग्रेस के साथ वामपंथी रुझान’ के कार्यकर्ताओं तथा आम जनता को गोलबन्द करने में मदद पहुँचायी।’’
लेकिन चुनावों में कांग्रेस की भारी जीत के बाद ही गाँधी के नेतृत्व की वर्किंग कमेटी को अब नेहरू की सेवाओं की जरूरत नहीं रह गयी। ‘‘सरकारी पदों को स्वीकारने के खिलाफ उनके तर्कों को तिरस्कार के साथ ठुकरा दिया गया।’’
कांग्रेसी सरकारों के बनने के कुछ महीनों बाद ही हुए हरिपुरा सम्मेलन में सुभाष बोस अध्यक्ष चुने गये। कांग्रेस सरकारें ‘कपूत के पैर पालने में’ की कहावत को चरितार्थ कर रही थी। बम्बई के तत्कालीन गृहमंत्री के.एम. मुंशी बंगाल की सीआईडी के साथ अपनी सीआईडी का तालमेल बैठाकर बम्बई के अन्दर और आस-पास कम्युनिस्टों के खिलाफ जेहाद छेड़े हुए थे। जवाहर लाल ने इसकी कड़ी निन्दा करते हुए वर्किंग कमेटी की बैठक में कहा कि ‘‘कांग्रेसी मंत्री ब्रिटिश सरकार पर अपने कामों के असर के बारे में अपनी जनता पर पड़ने वाले असर की तुलना में कहीं ज्यादा चिंतित रहते हैं।’’
कांग्रेस सरकारों की ऐसी जनविरोधी गतिविधियों ने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं तथा आम जनता के बीच भी गहरे असंतोष को जन्म दिया। ‘‘विभिन्न स्तरों पर कांग्रेस कमेटियों ने खुलेआम इस प्रकार की गतिविधियों का विरोध किया। कुछ मामलों में (उत्तर-प्रदेश, बंगाल, केरल आदि की) प्रांतीय कांग्रेस कमेटियां काफी आलोचनात्मक थीं; कुछ अन्य स्थानों पर जहां प्रांतीय कांग्रेस कमिटियों पर वामपंथियों का नियंत्रण नहीं था, भारी संख्या में कांग्रेस जन व्यक्तिगत रूप में कम्युनिस्टों, सोशलिस्टों तथा अन्य वामपंंथियों के साथ हो गये जो कांग्रेस सरकारों की जनतंत्र-विरोधी नीतियों और व्यवहारों का विरोध कर रहे थे।’’
इसी पृष्ठभूमि में हरिपुरा (1938) में सुभाष बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने। सुभाष बोस ने अंग्रेजों द्वारा लादी जा रही संघीय ढांचे की स्कीम के खिलाफ जबर्दस्त लड़ाई का आह्वान किया। बिटिश सरकार की मनमानी को रोकने के लिए सिविल नाफरमानी से लेकर हड़तालों तक के सभी रास्तों का प्रयोग करके एक जोरदार जनसंघर्ष छेड़ने का कार्यक्रम अपनाया गया, जो मंत्री बने बैठे कांग्रेस नेताओं को फूटी आँखों न सुहाता था। यही वजह है कि सुभाष बोस दुबारा अध्यक्ष न चुने जायें, इसके लिए इन दक्षिणपंथियों ने जी-जान की बाजी लगायी। उनकी सारी कोशिशों के बावजूद त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाष बसु विजयी हुए। गाँधीजी के उम्मीदवार पट्टाभि सितारमैय्या परास्त हुए। गाँधीजी ने इसे अपनी पराजय कहा। वर्किंग कमेटी में से 12 प्रमुख लोगों ने इस्तीफे दे दिये। खुद गाँधीजी ने सुभाष बसु के साथ असहयोग शुरू कर दिया। फलत: एक ऐसा वातावरण तैयार हुआ जिसमें  अंत में सुभाष बोस को इस्तीफा देना पड़ा। इसके साथ ही वस्तुत: उन तीन वर्षों के संयुक्त साम्राज्यवाद-विरोधी मोर्चे के युग की समाप्ति हो गयी जिसके लिए 1936 के कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में जवाहरलाल ने तजवीज की थी। ‘‘संगठित दलों के रूप में कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों, प्रमुख व्यक्तियों के रूप में नेहरू और बोस तथा भारी संख्या में ऐसे व्यक्ति जो कांग्रेस के वामपंथी हिस्से थे, गाँधी के नेतृत्व की वर्किंग कमेटी की आँख की ऐसी किरकिरी बन गये कि उन्होंने वामपंथियों की चुनावी जीत को वामपंथ के खिलाफ एक जोरदार प्रति हमले की शुरूआत में बदल दिया।’’

स्वतंत्र वामपंथ 
कांग्रेस के अन्दर वामपंथी अध्यक्ष नेहरू पर काबू पाने तथा सुभाष बोस को उखाड़ फेंकने में सफल होने के बावजूद गाँधी के नेतृत्व की वर्किंग कमेटी कांग्रेस के बाहर मजबूत हो रही स्वतंत्र वामपंथी ताकतों के बढ़ाव को रोकने में असमर्थ थी। अध्यक्ष पद पर लगातार तीन अवधियों तक वामपंथियों के रहने से कांग्रेस सोशलिस्टों तथा कम्युनिस्टों को काफी बल मिला। अन्दमान में कैद हजारों आतंकवादी नौजवानों ने हिंसा का रास्ता छोड़ कर कम्युनिस्ट पार्टी में शिरकत की। किसानों के सबसे बड़े संगठन अखिल भारतीय किसान सभा की नींव पड़ी, जिसके निर्माण में वामपंथी कांग्रेसजनों, कांग्रेस सोशलिस्टों तथा कम्युनिस्टों की मुख्य रूप में पहलकदमी थी। ‘‘कांग्रेस के स्थानीय कार्यकर्ताओं तथा किसान सभा के बीच असंख्य झड़पें राजनीतिक जीवन की आम बात हो गयी।’’
इसी दौर में भारतीय मजदूर वर्ग के हड़ताल संघर्षों की एक नयी लहर पैदा हुई। मजदूरों के हड़ताल संघर्ष अब बम्बई, कोलकाता, अहमदाबाद शोलापुर, मद्रास तथा कानपुर की तरह के संगठित औद्योगिक क्षेत्रों में सीमित रहने के बजाय देश के तमाम औद्योगिक केंद्रों तक फैल गये। इस प्रकार मेहनतकशों के दोनों प्रमुख हिस्से बुर्जुआ के नेतृत्व में साम्राज्यवाद--विरोधी संयुक्त मोर्चे के अभिन्न हिस्से के रूप में संगठित होने के साथ ही साथ आर्थिक और राजनैतिक आधार पर भी बुर्जुआ से संघर्षरत एक स्वतंत्र वर्ग के रूप में उभर कर सामने आये। 1936 में छात्रों का स्वतंत्र संगठन एआईएसएफ तथा प्रगतिशील साहित्यकारों का संगठन प्रगतिशील लेखक संघ भी बना।
‘‘इस प्रक्रिया में नेहरू और बोस की तरह के व्यक्तिगत नेताओं ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। ... फिर भी उस टकराहट (अध्यक्ष पद के लिए सुभाष बोस और पट्टाभि सितारमैय्या के बीच की टकराहट- लेखक) के बाद की घटनाओं ने दिखा दिया कि वामपंथी आंदोलन नेहरू और बोस की तरह के नेताओं के व्यक्तिगत समर्थकों की तुलना में कहीं ज्यादा विस्तृत और व्यापक था।’’
कांग्रेस के अन्दर वामपंथी नेतृत्व के इन तीन वर्षों ने स्वतंत्र वामपंथी ताकतों के बढ़ाव में सहायता करने के अलावा कांग्रेस के चरित्र में भी बड़े परिवर्तन किये। इसी दौरे में, दक्षिणपंथियों के न चाहने पर भी कांग्रेस देशी रियासतों की जनता के संघर्षों से जुड़ी। कांग्रेस के मंच से भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को विश्व घटनाक्रम के साथ जोड़ कर पेश किया जाने लगा। नेहरू के जीवनीकार एस. गोपाल के कथनानुसार ‘‘हमारे संघर्ष के मोर्चे सिर्फ हमारे देश में नहीं, स्पेन और चीन में भी है। चुनाव प्रचार के दौरान भी वे (नेहरू) भारतीय समस्या के अन्तर्राष्ट्रीय पक्ष को ओझल नहीं होने देते थे।’’ ‘‘इस काल की तीसरी महत्वपूर्ण घटना थी राष्ट्रीय योजना, जिसके साथ जवाहरलाल व्यक्तिगत रूप से जुड़े हुए थे। कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में सुभाष बोस ने राष्ट्रीय योजना कमेटी बनायी जिसके अध्यक्ष बने थे जवाहरलाल। ... ‘‘उनके लिए योजना जनतांत्रिक ढांचे के अन्तर्गत एक समाजवादी अर्थव्यवस्था के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई थी।’’
इन तीनों बिन्दुओं (देशी रियासतों की जनता के संघर्षों, अन्तर्राष्ट्रीयतावाद तथा राष्ट्रीय योजना) पर ही नेहरू का गाँधी तथा अन्य दक्षिणपंथी नेताओं के साथ स्पष्ट मतभेद था। फिर भी संगठन के सामूहिक निर्णय के रूप में सबको इन्हें स्वीकारना पड़ा था। दक्षिणपंथीयों के विरोध के बावजूद कांग्रेस इन तीनों प्रश्नों से पूरी तरह जुड़ गयी थी।
इसी समय विश्व युद्ध छिड़ गया तथा युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार के प्रति रवैये के प्रश्न पर कांग्रेस में स्पष्ट मतभेद उभर कर आये। नेहरू तथा अन्य वामपंथी ब्रिटिश सरकार से पूर्ण असहयोग के पक्ष में थे। गाँधी जी की राय के खिलाफ एआईसीसी के अधिवेशन ने प्रांतीय कांग्रेस सरकारों से इस्तीफा देने का आह्वान किया। अब प्रश्न ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़ाई के तरीके का आ गया। इसी आधार पर फिर कांग्रेस की बागडोर गाँधीजी के हाथ में आ गयी क्योंकि कांग्रेस के पास लड़ाई के गाँधीवादी तरीके के अलावा दूसरा कोई तरीका नहीं था। इसी पृष्ठभूमि में 1940 का रामगढ़ (बिहार) अधिवेशन हुआ। ‘‘इस अधिवेशन में गाँधी नेतृत्वकारी व्यक्तित्व बन गये तथा नारा दिया, प्रत्येक कांग्रेस कमेटी एक सत्याग्रह कमेटी’’---व्यक्तिगत सत्याग्रहियों की सूचियां बनीं। गाँधीजी ने सत्याग्रहियों के लिए अहिंसा की कड़ी शर्तें रखीं। ‘‘बिल्कुल सचेत रूप में इस संघर्ष में मजदूरवर्ग तथा मेहनतकशों के दूसरे जुझारू तबकों के सक्रिय हस्तक्षेप से बचा गया।’’
युद्ध के विकास के साथ ही साथ कांग्रेस के सत्याग्रह आंदोलन में काफी उतार-चढ़ाव आए। इसी समय जापान ने भारत की ओर रुख किया। पश्चिम के मोर्चे पर जर्मनी की बढ़त को रोकने में असमर्थ रूजवेेल्ट और चर्चिल ने भारत को प्राय: जापानियों के हाथ में चला गया मान लिया। इसी समय नेहरू ने जापानियों के खिलाफ घर-घर में लड़ाई की तैयारियों का आह्वान किया। एस. गोपाल के अनुसार- ‘‘जवाहरलाल के मस्तिष्क में उस प्रकार का मोर्चा खोलने की बात काम करती नजर आ रही थी जैसा कि चीन में हो रहा था। बिटिश सरकार ने युद्ध में सहयोग देने के कांग्रेस के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। लेकिन किसी भी स्थिति में कांग्रेस एक विदेशी हमलावर के सामने नहीं झुकेगी। वे हमलावर सेना को खदेड़ने में भले ही सफल न हों, लेकिन उन सैनिकों को भारतवासियों की लाश पर से गुजरना होगा। भारत फ्रांस की परिणति को नहीं स्वीकारेगा।’’

क्रिप्स मिशन और उसके बाद 
इसी समय भारत को डोमीनियन स्टेटस का दबाव भी बढ़ने लगा। तभी एक उच्चस्तरीय क्रिप्स शिष्टमंडल भारत में ऐसे प्रस्तावों के साथ आया जिसकी पहले कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इसमें कांग्रेस, मुस्लिम लीग तथा रियासती राजाओं, सबको खुश करने के अलग-अलग प्राविधान थे। मूल मकसद युद्ध में भारतवासियों का समर्थन हासिल करना भर था। क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव में सब के लिए कुछ-कुछ होने पर भी किसी ने उसे अपनी स्वीकृति प्रदान नहीं की।
क्रिप्स मिशन पूरी तरह से विफल रहा। नेहरू और आजाद की इच्छा के बावजूद गृह मंत्रालय और प्रतिरक्षा के भार को भारतीयों को न सौंपने की ब्रिटिश सरकार की जिद ने क्रिप्स मिशन के संदर्भ में नेहरू की आशाओं पर पानी फेर दिया। नेहरू ने यह आश्वासन दिया था कि हमलावर जापानियों का भारत में डटकर मुकाबला किया जायेगा। सिर्फ अहिंसक ही नहीं, गुरिल्ला तरीकों का प्रयोग भी किया जायेगा। लेकिन क्रिप्स मिशन की विफलता ने कांग्रेस में गाँधी के नेतृत्व को काफी बल पहुँचाया। गाँधी जी शुरू से ही इस मिशन के खिलाफ थे। गुरिल्ला युद्ध की बातों के लिए उन्होंने नेहरू को भी काफी लताड़ा। क्रिप्स मिशन की बुनियाद में भारत को विभाजित करने की अवधारणा काम कर रही थी। जो सरकार भारत के विभाजन की भाषा में सोचती है, गाँधीजी उससे किसी प्रकार की बातचीत के लिए तैयार नहीं थे। उनकी साफ राय थी, जापान की लड़ाई भारत से नहीं, ब्रिटिश सामाज्य से है। ब्रिटेन भारत की रक्षा नहीं कर पा रहा है, इसलिए उसे चले जाना चाहिए। भारत तब खुद की रक्षा जापान या अन्य किसी हमलावर से खुद कर लेगा लेकिन स्वतंत्र भारत का पहला कदम शायद जापान के साथ बातचीत का होगा।
एस. गोपाल के अनुसार, ‘‘क्रिप्स घोषणा के प्रति उनकी वितृष्णा ने गाँधी को जापानी साम्राज्यवाद की विशाल साजिश के प्रति अंधा बना दिया था।’’ नेहरू ने उसका विरोध किया। प्रस्ताव के अपने मसौदे में, कांग्रेस के पहले के मत से संगति रखते हुए, उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत का किसी भी देश की जनता से कोई झगड़ा नहीं है, लेकिन वह नाजीवाद तथा फासीवाद और साथ ही साथ साम्राज्य के विरुद्ध है।
इस प्रकार युद्ध के मसले पर कांग्रेस में भारी उलझन पैदा हो गयी। किन्तु अन्त में वर्किंग कमेटी की बैठक में जवाहरलाल का प्रस्ताव स्वीकृत हो गया। लेकिन इसने बिटिश सरकार के आक्रामक रवैये को कम नहीं किया। गांधीजी ने जापान के पक्ष की अपनी पुरानी राय को त्याग दिया। साथ ही किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टि से भी चीन को मदद पहुँचाने तथा मित्र शक्तियों की बढ़त को सुनिश्चित करने के लिए जवाहर लाल ने भी भारत से ब्रिटिश सत्ता की समाप्ति को जरूरी समझा। इसीलिए एआईसीसी के बम्बई अधिवेशन में पंडित नेहरू ने भारत छोड़ो  प्रस्ताव का समर्थन किया। जवाहरलाल तथा मौलाना आजाद आदि द्वारा ब्रिटिश सरकार से बातचीत की इच्छा और कोशिशों के बावजूद ब्रिटिश सरकार के रुख ने कांग्रेस को संघर्ष के रास्ते पर उतरने के लिए मजबूर कर दिया। ‘‘भारत छोड़ो’’ प्रस्ताव में कहा गया ‘‘एक स्वतंत्र भारत अपने सभी संसााधनों को स्वतंत्रता के लिए तथा नाजीवाद, फासीवाद और साम्राज्यवाद के हमले के खिलाफ झोंक कर स्वतंत्रता और जनतंत्र की इस सफलता को सुनिश्चित करेगा।’’

भारत छोड़ो आंदोलन और कम्युनिस्ट 
इसी संदर्भ में का. ईएमएस ने सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन और उसमें कम्युनिस्टों की भूमिका के अत्यन्त वितर्कित प्रश्न पर अपने विचार रखे हैं। का. ईएमएस ने इस अध्याय के शुरू में ही क्रिप्स मिशन के प्रति नेहरू के रुख को, जिसमें जाहिरा तौर पर भारत के विभाजन के बीज थे, तथा फिर ‘भारत छोड़ो’ की पुकार पर उनकी सहमति के पूरे प्रसंग को अधिकारी सूत्रों के हवाले से रखा है। उन्होंने बताया है कि किसप्रकार श्री सी. राजगोपालाचारी ने सन् 1942 में हुए एआईसीसी के इलाहाबाद अधिवेशन में पाकिस्तान को मान लेने का प्रस्ताव रखा था जिसे वहां भारी बहुमत से ठुकरा दिया गया। 15 जुलाई 1945 को उन्होंने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद ही ‘‘भारत छोड़ो प्रस्ताव’’ बम्बई अधिवेशन में स्वीकार किया गया। उस वक्त इस मूल प्रस्ताव में संशोधन रखने वाला एकमात्र संगठित गुट कम्युनिस्टों का था। नेहरू ने बाद में इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया तथा यहां तक कह दिया कि भारत के लोग जब अंग्रेज शासकों से लड़ रहे थे तब कम्युनिस्ट ‘‘दूसरे खेमे’’ में थे। बिटिश कम्युनिस्ट रजनी पामदत्त को 12 अगस्त 1945  में लिखे अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा ‘‘आपको यह समझना चाहिए कि भारत में कांग्रेस और कम्युनिस्टों के बीच पैदा हो गयी खाई मुझे पीड़ा देेती है। यह खाई अभी चौड़ी और गहरी है तथा इसके पीछे पिछले तीन वर्षों की सारी उत्तेजनाएं हैं। उसका कम्युनिज्म और समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि उनके पीछे महज अमूर्त भावनाओं के बजाय गहरा सोच है। इतना ही कम इसका सम्पर्क रूस से है जिसके लिए यहां सबमें काफी प्रशंसा का भाव है ... यह खाई भारत की अंदरूनी नीति के कारण पैदा हुई है तथा इस तथ्य ने कि जब राष्ट्रवाद और साम्राज्यवादी व्यवस्था के बीच तीखी लड़ाई चल रही थी, उस वक्त कम्युनिस्टों ने भारत के लोकप्रिय नेताओं को बदनाम किया, लोगों के सामने ऐसी तस्वीर पेश की कि जिसमें वे साम्राज्य की सरकार के पक्ष में काम करते दिखाई पड़ रहे थे।’’
इस पर सारे तथ्यों को रखते हुए का. ईएमएस ने बताया है कि कम्युनिस्टों के विरुद्ध जेहाद के समय कांग्रेस के नेतागण जिस लड़ाई को जनता की फैसलाकुन लड़ाई बता रहे थे, उसके सभी स्तरों पर कांग्रेसी नेता अंग्रेजों के साथ सुलह समझौता करने की कोशिश करते रहे हैं। क्रिप्स मिशन के प्रति नेहरू और आजाद का रुख, सन् 1944 में वाइसराय बेबेल के नाम गाँधीजी का पत्र, भारत छोड़ो आंदोलन के पहले राजगोपालाचारी का रवैया तथा खुद भारत छोड़ो प्रस्ताव जिसमें ‘‘शर्तों को मान लिए जाने पर युद्ध की तैयारियों में शामिल होने की उत्सुकता’’ दिखाई गयी थी, इस बात के यथेष्ट प्रमाण हैं। ‘‘इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि एआईसीसी द्वारा बम्बई प्रस्ताव को अपनाए जाने के बाद के हफ्तों में कम्युनिस्ट कांग्रेस तथा महात्मागाँधी के नेतृत्व की साम्राज्यवाद--विरोधी आंदोलन की मुख्य धारा के विरुद्ध खड़े हुए थे। ....भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति अपने रुख की भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने बाद में खुद एक आत्म--आलोचना की। यह स्वीकारा गया कि पार्टी की उस वक्त की घोषणाएं तथा व्यवहार वृहत्तर भारतीय जनता की साम्राज्यवाद--विरोधी आकांक्षाओं से मेल नहीं खाते थे।’’ 
लेकिन ‘‘अपने अभियान में कम्युनिस्ट पार्टी की बड़ी भूल भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान और बाद में पर्दे के पीछे की सच्चाई को समझने में उसकी असमर्थता की रही, अर्थात ‘‘समझौताहीन संघर्ष’’ की बातों के आवरण में चल रहे सौदेबाजी के प्रयत्नों को समझने में।... भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ना भी इस सौदेबाजी का ही एक अंग था। कम्युनिस्ट पार्टी सच्चाई के इस पहलू को तब नहीं समझ पायी थी। इसीलिए वे जनता को इस बात के प्रति सतर्क नहीं कर पाए थे कि उन दिनों क्या चल रहा था। जेल से गाँधीजी द्वारा लिखे गये पत्र से जो बातचीत शुरू हुई, उसका अंत 1947 की माउंट बेटन योजना में हुआ। इसीलिए पार्टी हस्तक्षेप नहीं कर पायी और जनता को अंत में किए गये समझौते के चरित्र के बारे में शिक्षित नहीं कर पायी। बाकी भारतीय जनता की भांति वह भी कांग्रेस की ‘‘भारत छोड़ो’’ मांग के स्थान पर जिन्ना की ‘‘तोड़ो और छोड़ो’’ मांग पर अमल की असहाय दृष्टा भर बनी रह गयी।
सन् 1942 और उसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा अपने मतों के प्रचार के लिए स्वतंत्र रूप से जो जबर्दस्त अभियान चलाया गया, उसने वस्तुत: कम्युनिस्ट पार्टी को देशव्यापी स्तर पर एक व्यापक, मजबूत तथा स्वतंत्र संगठन का स्वरूप प्रदान किया। साम्राज्यवाद--विरोधी आंदोलन की दूसरी प्रमुख वामपंथी ताकत कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं ने सन् 1942 के आंदोलन में जबर्दस्त प्रसिद्धि अवश्य हासिल की, लेकिन जनता के बीच उनकी पहचान कांग्रेस के कार्यक्रम पर अमल करने वालों के अतिरिक्त और कुछ नहीं बन पायी। इसीलिए, जैसे ही कांग्रेस के नेता जेलसे छूट कर आये, उन्होंने समझौता वार्ता शुरू करके कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी वालों को उनकी औकात समझा दी। यही वजह है कि आजादी के बाद के काल में भी प्रमुख वामपंथी विपक्षी पार्टी के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी ही उभर कर आयी, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी नहीं।
जहां तक राष्ट्रीय नेताओं को बदनाम करने का प्रश्न है, यह एकतरफा मामला नहीं था। कम्युनिस्टों को भी ‘ब्रिटिश दलाल’, ‘रूसी दलाल’ आदि क्या-क्या नहीं कहा गया। ‘‘इनमें किसी की भी बदनामी उचित नहीं थी, क्योंकि अब यह साफ है कि वह राजनीतिक कार्यनीति पर ईमानदारीपूर्ण मतभेदों का एक प्रश्न ही था।’’
देशभर में एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में कम्युनिस्ट पार्टी के विकास के बाद ही वस्तुत: पार्टी देश की जनता के सामने असंख्य जुझारू संघर्षों के संगठन और नेता के रूप में उभर कर आयी। ‘‘इस विद्रोह की व्यापकता के चलते ही (जिसमें कम्युनिस्टों ने किसी भी रूप में कम महत्वपूर्ण भूमिका अदा नहीं की) ब्रिटिश अधिकारियों को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग में उपस्थित बुर्जुआ के साथ एक समझौते के लिए मजबूर होना पड़ा। यदि कम्युनिस्टों ने ब्रिटिश के साथ खुद को जोड़ लिया होता तो ऐसा होना मुमकिन नहीं होता।’’
सन् 1942 के संघर्ष ने आम जनता की नजरों में कांग्रेस की एक क्रांतिकारी प्रतिमा तैयार की। इसका फल यह मिला कि सन् 1946 के चुनावों में अधिकांश ब्रिटिश इंडिया के प्रांतों में कांग्रेस की अच्छी जीत हुई। यहां तक कि मुस्लिम बहुल उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में भी कांग्रेस जीती। लेकिन इसके साथ ही दूसरा खतरनाक पहलू भी उभर कर  आया। सभी प्रांतों में मुस्लिम मतदाताओं के आधार पर मुसलमानों के लिए आरक्षित सीटें अधिकांशत: मुस्लिम लीग के हाथ लगीं। इस सदी के पहले दशक से ही अंग्रेजों ने कांग्रेस के खिलाफ मुस्लिम मोहरे का प्रयोग करने का जो खेल शुरू किया था, इस समय तक आते-आते वह अपने चरम तक पहुँच चुका था। जिन्ना मुस्लिम सम्प्रदाय के निर्विवाद नेता बन चुके थे। 1942 के आंदोलन के बाद जब सन् 1945 में कांग्रेस के नेतागण जेल से रिहा किये गये तब त्रिकोणीय वार्ता शुरू हुई-- ब्रिटिश सरकार, कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के बीच। इस बीच मुस्लिम लीग ने ‘‘दो राष्ट्रों के सिद्धान्त’’ का पूरा प्रचार कर लिया था। कांग्रेस शुरू में देश विभाजन के खिलाफ थी, लेकिन साथ ही उसने यह मत अपनाया कि यदि देश के किसी हिस्से के लोग ईमानदारी से अलग होना चाहें तो उन्हें जोर-जबर्दस्ती नहीं रखा जायेगा। मुस्लिम लीग देश तोड़ना चाहती थी, लेकिन साथ ही वे देश को एकजुट बनाये रखने को तैयार थे, बशर्ते ‘‘मुसलमानों की न्यायोचित मांगों’’ की रक्षा की जाए। अंग्रेजों ने इन दोनों के बीच अपनी चालें चलनी शुरू की और कांग्रेस नेतृत्व के न चाहने पर भी सारे मामले को कुछ इस रंग में रंग कर पेश करना शुरू कर दिया जैसे कांग्रेस हिन्दुओं का तथा मुस्लिम लीग मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती है। वाइसराय बेबेल ने नग्न रूप में मुस्लिम लीग के पक्षधर की भूमिका अदा की। फिर भी जिन्ना की ऐसी मांगों को कि केन्द्रीय कार्यकारी परिषद में मुस्लिम सदस्यों को वोटों का अधिकार होना चाहिए, वे भी नहीं मान सके। बात यहीं टूट गयी। इसी बीच देश में जगह-जगह विद्रोह भड़कने लगे।  बम्बई में नाविकों के फरवरी 1946 के विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार को आतंकित कर दिया। इसी पृष्ठभूमि में सन् 1946 में नये सिरे से बातचीत करने के लिए कैबिनेट मिशन भेजा गया। प्रस्ताव रखा गया कि हिन्दू और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से कांग्रेस और मुस्लिम लीग के समान अनुपात में प्रतिनिधियों को लेकर एक अखिल भारतीय सरकार और विधायिका का गठन किया जाए, जो विदेशी मामलों, प्रतिरक्षा, संचार और मूलभूत अधिकारों पर नजर रखेगी। बाकी अधिकार प्रांतीय सरकारों के होंगे। इसमें पाकिस्तान की बात को ठुकरा दिया गया था। लेकिन साथ ही मुसलमानों को कुछ रियायतें दी गयी थीं। कांग्रेस ने इस योजना को स्वीकार लिया तथा जवाहरलाल को अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया, लेकिन मुस्लिम लीग ने उसे ठुकरा दिया। जवाहरलाल वाइसराय की कार्यकारी परिषद के उपाध्यक्ष बने। लेकिन इसके साथ ही सिंध और बंगाल में ब्रिटिश गवर्नरों ने लीग के साथ संाठ-गांठ करके भयावह अराजक स्थितियां पैदा करनी शुरू कर दी। कलकत्ते में हुए भयानक दंगों ने सबको दहला दिया। इन्हीं कारणों से वाइसराय बेबेल और जवाहरलाल के बीच तनाव बढ़ गये। इन्हीं परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार ने बेबेल के स्थान पर माउंटबेटन को नियुक्त किया। माउंटबेटन के साथ लम्बी और कठिन बातचीत चली। ‘‘ब्रिटिश अधिकारियों तथा कांग्रेस के बीच वार्ताओं की कहानी यह दिखाती है कि प्रत्येक चरण पर कांग्रेस ब्रिटिश अधिकारियों के सामने झुकती गयी। कई दशकों के संघर्ष, खास तौर पर भारत छोड़ो आंदोलन से कांग्रेस के पक्ष में पैदा हुई सद्भावना इतनी शक्तिशाली नहीं थी कि वह ‘‘भारत छोड़ो’’ की कांग्रेस की मांग के खिलाफ मुस्लिम लीग तथा उसकी ‘‘तोड़ो और छोड़ो’’ की मांग के लिए पैदा हुई सद्भावना का मुकाबला कर सके। स्वतंत्रता आंदोलन के नेता नि:शक्त थे। चालाक ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें बेवकूफ बना दिया, जिनकी वजह से करोड़ों मुसलमान मुस्लिम लीग के पीछे हो गये, और यह उनका एक सबसे शक्तिशाली हथियार बन गया। अंग्रेजों ने इसका प्रभावशाली ढंग से न सिर्फ देश को विभाजित करने में, बल्कि दोनों नव-निर्मित राज्यों को स्थायी शत्रुु बनाये रखने में प्रयोग किया ताकि उनके बीच वे अपनी चालें खेल सकें। 
सन् 1942 के आंदोलन, उसके बाद की तूफानी परिस्थिति तथा लम्बी वार्ताओं की पेचीदगियों का अन्तिम परिणाम देश का विभाजन और दो नये स्वतंत्र राज्यों के निर्माण में हुआ। गाँधी जी विभाजन न चाहने पर भी, इस सारी परिस्थिति में उनकी स्थिति बिल्कुल निष्प्रभावी हो गयी थी। नेहरू और पटेल सहित कांग्रेस का प्रभावशाली नेतृत्व इस निष्कर्ष पर पहुँच गया था कि ‘‘भारतीय संघ को बनाये रखने पर बल देने का अर्थ सिर्फ कठिनाइयों को जारी रखना हो सकता है।’’
स्वतंत्र भारत में नेहरू अब खुद एक प्रमुख राष्ट्रीय नेता की हस्ती बन गये। अब उन्हें अपने पिता या महात्मा, किसी की जरूरत नहीं रह गयी थी। खुद गाँधी ने नेहरू के प्रधान-मंत्रित्व का रास्ता साफ किया था। लेकिन माउंटबेटन योजना तथा आजादी के बाद कांग्रेस को भंग कर देने के गाँधी के मत ने गाँधी को बाकी कांग्रेस से प्राय: अलग-अलग कर दिया। खुद नेहरू इस मौके पर गाँधी के विरुद्ध खड़े थे। लेकिन उसी समय पंजाब में साम्प्रदायिक हिंसा भड़की तथा चारों ओर जिस प्रकार का भारी उन्माद दिखायी दिया, दोनों ओर कुल मिलाकर लगभग 2 लाख से 6 लाख के करीब लोग मारे गये, इस भयावह घटनाक्रम के प्रति नेहरू और गाँधी की प्रतिक्रिया एक समान थी, जबकि पटेल और राजेन्द्र प्रसाद की तरह के लोगों ने पूरी तरह से साम्प्रदायिक नजरिये का परिचय दिया। यह भारत के लिए एक कठिन परीक्षा की घड़ी थी। गाँधी बंगाल के गाँव-गाँव में घूम कर साम्प्रदायिक सद्भाव की भावना का अलख जगा रहे थे। नेहरू दिल्ली में जगह-जगह उन्मादित भीड़ को ललकार कर, पुचकार कर शांत कर रहे थे। उसी समय परिस्थिति को और जटिल बना दिया ब्रिटिश की शह पर कश्मीर पर पाकिस्तान के हमले ने। इस मुद्दे पर गाँधी, नेहरू, पटेल और कांग्रेस ने एकता का परिचय और पूरी ताकत से उसका मुकाबिला किया। उसी समय बंटवारे की सम्पत्ति के एक हिस्से के रूप में समझौते की शर्त के अनुसार पाकिस्तान को भारत सरकार द्वारा 55 करोड़ रुपये के भुगतान का प्रश्न आया।  मंत्रिमंडल ने यह फैसला किया कि जबतक कश्मीर का मामला हल नहीं होता, यह राशि नहीं दी जायेगी। इसमें पटेल ने पहलकदमी की। तब गाँधी ने इसका विरोध किया और कहा कि यह ‘द्वदद्मद्यठ्ठद्यड्ढद्मथ्र्ठ्ठदथ्त्त्त्ड्ढ‘ तथा अविवेकशील और स्वतंत्र भारत सरकार का ‘‘पहला बुरा कदम’’ होगा। 13 जनवरी 1948 को उन्होंने ‘‘भारतीय जनता की आत्मा को जगाने तथा हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच संबंधों को सुधारने के लिए अनशन’’ किया। गाँधीजी के इस अनशन का पाकिस्तान में भी काफी अच्छा असर हुआ। भारत सरकार ने उनकी इच्छा को देखते हुए पाकिस्तान को तत्काल 55 करोड़ रुपये का भुगतान कर देने का फैसला लिया।
लेकिन इन्हीं सबके बीच हिन्दू महासभा और आरएसएस की गतिविधियां बढ़ गयी थीं। पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये दिलवाने की घटना ने हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों को गाँधी के खिलाफ उन्माद पैदा करने का अवसर दिया। इसी का अन्तिम परिणाम हुआ आरएसएस के नाथूराम गोडसे के हाथों 30 जनवरी 1948 को गाँधीजी की हत्या। इन दिनों गाँधीजी की क्या भूमिका थी, इसे नेहरू ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 13 दिसम्बर 1947 के अपने एक भाषण में इस प्रकार रखा था : ‘‘इन महीनों में महात्मा गाँधी की उपस्थिति भारत के लिए क्या मायने रखती है, आप में से कितने लोग इसे समझते हैं? हम सभी पिछली अर्द्धशती या उससे भी ज्यादा काल के दौरान भारत तथा आजादी को उनकी विराट सेवाओं से वाकिफ हैं। लेकिन पिछले चार महीनों में उन्होंने जो सेवा की है उससे बड़ी दूसरी कोई सेवा नहीं हो सकती है। एक बिखरती हुई दुनिया में वे एक उद्देश्यपूर्ण चट्टान तथा सत्य के प्रकाश-स्तम्भ की मानिन्द तथा उनकी दृढ़ मद्यिम आवाज असंख्य लोगों के शोर से कहीं ज्यादा ऊँची उठकर सही कार्य के रास्ते को दिखा रही है।’’
गाँधी की हत्या पर नेहरू की श्रद्धांजलि भी इतनी ही सारगर्भित थी। इस प्रकार नेहरू एक ऐसे व्यक्ति थे ‘‘जो गाँधी के कोई साधारण शिष्य नहीं थे। कई महत्वपूर्ण सवालों पर वे गाँधी से मतभेद रखते थे तथा उनसे उन्होंने लड़ाई भी की। वे उन लोगों में से एक थे जिन्होंने अन्य कई साथियों के साथ मिलकर कांग्रेस को भंग करने के गाँधी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। उनकी तरह वे चाहते थे कि कांग्रेस का तथा उसकी सरकार का इस्तेमाल करके उन चीजों को पुख्ता करें जिन्हें एक लम्बे तथा कठिन स्वतंत्रता संघर्ष के बीच से अर्जित किया गया था। लेकिन देश को जकड़ चुके साम्प्रदायिक उन्माद से लड़ने में, जिस उन्माद ने धर्म निरपेक्षता के लिए संघर्ष में उनके सबसे मजबूत सहयोगियों तक को निगल लिया था, वे अपने सभी मित्रों की तुलना में गाँधी के कहीं अधिक साथ थे। अपने वरिष्ठ साथी और नेता के समर्थन के बिना अब उन्हें अपने कंधे पर काफी ज्यादा भार लगने लगा था।’’
आजादी के बाद भी भारत के गवर्नर जनरल के पद पर माउंटबेटन तथा तीनों सेनाओं के प्रमुख भी ब्रिटिश अधिकारी बने रहे जबकि पाकिस्तान के गवर्नर जनरल जिन्ना बना दिये गये थे। इन ब्रिटिश अधिकारियों ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान को कश्मीर तथा रियासती राज्यों के विलय में पूरी मदद की। इन्हीं के चलते कश्मीर और जूनागढ़ का मसला एक अन्तर्राष्ट्रीय मसला बना दिया गया। लेकिन अंत में हैदराबाद निजाम के विरुद्ध 7 सितम्बर 1948 को भारतीय सेना के पहुँचने पर सारे रियासती राज्य ठंडे हो गये। ‘‘बिटिश अधिकारियों ने भारत के खिलाफ पाकिस्तान को मदद देने की हर सम्भव कोशिश की। ..उनकी गतिविधियां जूनागढ़ और हैदराबाद, दोनों राज्यों में सिर्फ इसलिए प्रभावशाली नहीं हो पायी कि वहां गैर-मुस्लिम आबादी का बहुमत था तथा इसके अलावा शक्तिशाली जनतांत्रिक आंदोलन था; भारत में विलय को इसीलिए भारी समर्थन प्राप्त था।’’
‘‘यहां तक कि कश्मीर में आबादी का बहुमत मुस्लिम होने पर भी भारत में विलय के पक्ष में भारी संख्या में लोग थे क्योंकि राज्य में एक शक्तिशाली जनतांत्रिक आंदोलन था जिसके नेता इस्लामिक तत्ववाद और अलगाववाद के खिलाफ एक फैसलाकुल लड़ाई लड़ रहे थे।’’
नये राष्ट्र के नेता के रूप में पंडित नेहरू विभिन्न कारणों से भारत को ब्रिटेन और अमरीका के साथ अधिक घनिष्ठ रखने का विचार रखते थे। यही वजह थी कि देश के अन्दर काफी विरोध के बावजूद उन्होंने कामनवेल्थ की सदस्यता स्वीकार की। यह भी तथ्य है कि शुरू में किसी भी शिविर के साथ न जुड़ने की उनकी घोषणा के पीछे खुद को सोवियत संघ से दूर रखने का आग्रह कहीं ज्यादा काम कर रहा था। चीन में नयी जनवादी क्रांति के बाद वहां की नयी सरकार के साथ संबंधों के विकास में वे सदा सतर्कता बरतने की बातें कहा करते थे। इसके अलावा भारत के विकास के लिए वे अमरीका की मदद पर बहुत ज्यादा आशा लगाये हुए थे। वे ऐसा कोई काम करना नहीं चाहते थे जिससे ब्रिटिश और अमरीकी सरकारें शंकित हों। फिर भी भारत के प्रति उनके रवैये में, कश्मीर में उनकी घिनौनी भूमिका में रत्तीभर का भी परिवर्तन नहीं हुआ। काफी आशा लगा कर नेहरू अमरीका यात्रा पर गये। लेकिन हाथ कुछ नहीं लगा। ‘‘उस वक्त का नेहरू का खुद आकलन यह था कि अमरीकी सरकार सभी मुद्दों पर हम से तो अपने मत को मनवा लेना चाहती थी, लेकिन भारत की किसी भी रूप में मदद के लिए अनिच्छुक थी।’’
इस पूरे प्रारम्भिक काल की नेहरू की विदेश नीति का लुब्बे-लुबाब यह था कि वे ‘‘एक ऐसी विदेश नीति तैयार कर रहे थे जो ब्रिटेन के साथ अपने संबंधों को जारी रखने तथा अमरीका के साथ नये संबंध स्थापित करने और नग्न रूप में (खुलेआम विरोध न करके भी) सोवियत संघ या उदीयमान समाजवादी शक्ति चीन से दूर रहने की नीति थी। न तो पुराने और नये साम्राज्यवाद के साथ सम्पर्क और न ही पुरानी और नयी समाजवादी शक्तियों के साथ दूरी ही इतनी दृढ़ थी कि नेहरू को इस या उस शिविर के साथ जोड़ देती। यही गुट-निरपेक्षता का वास्तव में प्रारम्भिक रूप था जिसे आगे अभी कईं परिवर्तनों से गुजरना था।’’
आजादी के उपरान्त गाँधी की हत्या के अलावा नेहरू को दूसरा बड़ा धक्का तब लगा जब वामपंथियों ने (कांग्रेस के अन्दर और बाहर, दोनों ने) उनका विरोध शुरू कर दिया। कम्युनिस्ट पार्टी तो युद्ध के बाद ही अपने स्वतंत्र संघर्षों तथा पुन्नाप्रा-वायलर और  तेलंगाना की तरह के संघर्षों से कांग्रेस के विरुद्ध खड़ी ही थी तथा नेहरू पूरी तरह से खुद को उनसे अलग समझने लगे थे। लेकिन कांग्रेस के अन्दर के वामपंथी, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के लोगों ने, आचार्य नरेन्द्र देव, जय प्रकाश की तरह के लोगों ने कांग्रेस से अलग हटने का फैसला करके उन्हें गहरा धक्का लगाया। उन्होंने जयप्रकाश को, कांग्रेस में रखने की भरसक कोशिश की, लेकिन जयप्रकाश का टके-सा जवाब था ‘‘आप समाजवाद की ओर बढ़ना चाहते हैं, लेकिन चाहते हैं कि पूँजीपति उसमें मदद करे। आप पूँजीवाद की मदद से समाजवाद बनाना चाहते हैं। आपकी उसमें विफलता अनिवार्य है।’’ देश के अन्दर ही नेहरू को दूसरी बड़ी चुनौती थी आरएसएस तथा हिन्दू पुनरुत्थानवादियों की। कांग्रेस के पुराने नताओं का बड़ा भारी हिस्सा इन पुनरूत्थानवादियों के पक्ष में था। यही तबका संविधान में सम्पत्ति के मूलभूत अधिकारों तथा राजाओं को प्रिविपर्स के रूप में भारी राशि देने के पक्ष में था। इन दोनों सवालों पर ही नेहरू को उनके दबाव के सामने झुकना पड़ा। न चाहने पर भी वे राजाओं को बेवजह प्रिविपर्स की विशाल राशि देने पर मजबूर हुए। कांग्रेस के अन्दर के इन सम्प्रदायवादियों के दबाव के कारण ही अपनी इच्छा के खिलाफ उन्हें साम्प्रदायिक और तंग नजरवाले राजेन्द्र प्रसाद को राष्ट्रपति पद के लिए मानना पड़ा। और तो और, सन् 1950 के अगस्त महीने में हुए कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव में पुरुषोत्तम दास टण्डन का खुलेआम विरोध करने के बावजूद पटेल तथा उनके गुट के लोगों की मदद से वे उस पद के लिए चुने गये। राज गोपालाचारी की तरह के व्यक्ति, जो ऊपर से तो नेहरू का साथ निभाने का स्वांग किया करते थे, अन्दर ही अन्दर पटेल गुट की साभी कारस्तानियों के साथ थे। उनके मंत्रिमंडल के दो साथी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी तथा के.जी. नियोगी ने जनसंघ का गठन कर लिया। नेहरू में एक प्रकार की असहायता की भावना पैदा होने लगी जब उनके मंत्रिमंडल के अधिकांश साथी (राजगोपालाचारी को छोड़कर) उनके संघर्ष में मददगार होने के बजाय वास्तव में हिन्दू धर्मान्धता को बढ़ावा दे रहे थे। वे प्रधानमंत्री पद छोड़ देने की बातें अक्सर कहने और लिखने लगे थे, यद्यपि इस पर अमल कभी नहीं किया। अपने एक पत्र में उन्होंने कहा वे ‘‘निराश तथा दुखी और पूरी तरह से निष्प्रभावी हो रहे हैं।’’
इसी पृष्ठभूमि में सन् 1952 के पहले आम चुनाव हुए। हिन्दू रुझान की दक्षिणपंथी पार्टियों को सामन्तों तथा राजा-महाराजाओं का समर्थन प्राप्त था। चुनावों की घोषणा ने नेहरू को फिर कांग्रेस के निर्विवाद नेता की हैसियत में ला दिया था। पटेल की मृत्यु हो जाने से कांग्रेस के अन्दर का वह गुट जो नेहरू के अधिकारों को सांगठनिक और  राजनीतिक तौैर पर चुनौती दिया करता था, काफी कमजोर हो गया। देश की जनता के बीच नेहरू की साख ने आगामी चुनावों को मद्देनजर रखते हुए कांग्रेस के अन्दर की उनकी सारी बाधाओं को एक बार के लिए समाप्त कर दिया। इसके अलावा नेहरू के लिए चुनाव में चुनौती दक्षिणपंथी विपक्ष से उतनी नहीं थी, क्योंकि उन्होंने एक व्यक्ति के रूप तथा उनकी पार्टी ने, वर्षों के कामों से (जनता में) प्रगतिशीलता की एक साख स्थापित की थी। मुख्य चुनौती वामपन्थ की ओर से थी। इनमें सोशलिस्ट पार्टी के साथ जयप्रकाश नारायण और आचार्य नरेन्द्र देव की तरह की राष्ट्रीय हस्तियाँ होने की वजह से वह एक प्रमुख ताकत थी। इनके अलावा कम्युनिस्ट पार्टी ने विभिन्न स्थानों पर अच्छी खासी शक्ति अर्जित कर ली थी। चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी संसद की प्रमुख विपक्षी पार्टी थी, सोशलिस्ट पार्टी को भी वोट कम नहीं मिले, लेकिन सीटों की दृष्टि से उसकी स्थिति बिल्कुल बदतर रही। उस पार्टी की सबसे गम्भीर बीमारी यह थी कि कम्युनिस्ट पार्टी की भांति वह खुद को बुर्जुआ राजनीति से अलग रूप में पेश नहीं कर पा रही थी। चुनाव में पराजय के साथ ही उस पार्टी के बिखराव की प्रक्रिया शुरू हो गयी। 
इस पहले बड़े राजनीतिक संघर्ष में यद्यपि कांग्रेस को भारी बहुमत मिला, लेकिन वोटों की दृष्टि से उसे 50 प्रतिशत से कम वोट ही मिल पाये। यही वजह है कि इसके बाद ही ‘‘कांग्रेस के लिए तथा व्यक्तिगत रूप से नेहरू के लिए परीक्षा का एक दौर शुरू हो गया।’’
इन चुनावों में उत्तर में तत्कालीन पूर्वी पंजाब तथा दक्षिण में मद्रास, त्रावनकोर, कोचीन इन तीन स्थानों पर कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला। पंजाब में चुनौती अकाली पार्टी की ओर से मिली थी तथा दक्षिण के राज्यों में जो विरोधी संयुक्त मोर्चा था, उसमें मुख्य शक्ति कम्युनिस्टों की थी। शुरू में इस बारे में नेहरू का रुख यह था कि ‘‘कांग्रेस की चुनाव में पराजय का अर्थ संविधान की विफलता नहीं है।’’ इसी आधार पर वे विपक्षियों को सरकार बनाने का मौका देना चाहते थे। पंजाब में अकाली दल के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा सरकार बनने का मौका दिया गया। यद्यपि यह सरकार सिर्फ एक साल ही चल पायी तथा मध्यावधि चुनाव में अकाली दल के एक हिस्से को अपने साथ मिलाकर कांग्रेस चुनाव जीत गयी। लेकिन दक्षिण में यह मौका नहीं दिया गया। राजगोपालाचारी ने खुलेआम कम्युनिस्टों के प्रति अपनी नफरत को जाहिर किया। ‘‘नेहरू व्यवहार में संविधान के साथ इस धोखा-धड़ी में शामिल हो गये, यद्यपि सिद्धांतत: वे इन निर्णयों को लेने में हिस्सेदार नहीं थे।’’
गवर्नर श्री प्रकाश के साथ तिकड़म करके राजगोपालाचारी मद्रास के मुख्यमंत्री बन गये तथा यह ऐलान किया कि कम्युनिस्ट हमारे एक नम्बर शत्रु हैं। उनसे शुरू से अन्त तक लड़ना होगा। राजगोपालाचारी ने अपने मंत्रिमंडल से सभी मुस्लिम मंत्रियों को निकाल कर भी नेहरू के सामने एक चुनौती पेश की। 
त्रावनकोर-कोचीन में इसी दौर में ‘‘कम्युनिस्ट विरोधी मोर्चे’’ की तरह के संगठन तक बने जिन्हें राज्य के कांग्रेस नेतृत्व का पूरा समर्थन प्राप्त था। नेहरू इस कट्टर कम्युनिस्ट-विरोध के कायल नहीं थे। वे सोशलिस्टों को राजनीतिक तौैर पर दबाना चाहते थे। ‘‘अपनी इस कोशिश में वे सफल नहीं हुए क्योंकि वे एक ऐसे संगठन के शीर्ष पर थे जो मानसिक तौर पर कम्युनिज्म तो क्या, समाजवाद तक का विरोधी था। उन्हें सोशलिस्ट पार्टी का भी समर्थन नहीं मिला जिनके साथ उनके विचार देश की दूसरी किसी भी पार्टी या ग्रुप की तुलना में कहीं ज्यादा मिलते थे। यदि वे सोशलिस्टों को अपने निर्भरयोग्य सहयोगी के रूप में रखते तो उन्हें अपनी खुद की पार्टी के अन्दर लड़ना पड़ता तथा उन नीतियों को बदलना पड़ता जिनके प्रति एक कांग्रेस नेता के रूप में वे स्वयं प्रतिबद्ध थे। इसके लिए वे तैयार नहीं थे। इसीलिए पहले के तमाम अवसरों की तरह ही उनका वामपंथी रुझान कांग्रेस के प्रति उनकी वफादारी के अधीन ही रहा।’’

वामपंथ की ओर 
एकता की नेहरू की इच्छा को सोशलिस्टों द्वारा दो-टूक जवाब ने उन्हें यह सोचने के लिए मजबूर किया कि कैसे कांग्रेस की तस्वीर को वामपंथी बनाया जाए। तभी एक ओर जहाँ वे साम्प्रदायिक ताकतों से निपट सकते थे, वहीं कम्युनिस्टों पर भी अंकुश लगा सकते थे। सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं को अपने पक्ष में करने का भी इससे बेहतर कोई दूसरा तरीका नहीं हो सकता था।
इसी समय दुनिया के पैमाने पर घटी कुछ घटनाओं ने उन्हें विदेश नीति के मामले में कुछ परिवर्तन के अवसर प्रदान किये। अब तक पूँजीवादी और समाजवादी शिविर के बीच समान दूरी बनाकर चल रही पंडित नेहरू की सरकार ने कोरिया युद्ध के मामले में साम्राज्यवाद-विरोधी रवैया आख्तियार किया। तिब्बत पर चीन की सार्वभौमिकता को स्वीकार कर चीन से दोस्ती की आधारशिला रखी। पश्चिम के प्रभुत्व से दबी दुनिया में कई एशियाई प्रश्नों को उठाने में उन्होंने पहलकदमी की। अभी भी एशिया और अफ्रीका के जो देश औपनिवेशिक गुलामी के शिकंजे में कसे हुए थे, उनकी आजादी के प्रश्न को केन्द्र में रखकर उन्होंने इंडोनेशिया के शहर बांडुग में एशिया और अफ्रीका के स्वतंत्र देशों का एक सम्मेलन करने की पहलकदमी की, जो गुटनिरपेक्ष आंदोलन का प्रारम्भ था। बांडुग सम्मेलन के बाद ही सोवियत संघ के साथ भी भारत की मित्रता के एक नये अध्याय का प्रारम्भ हुआ। 
समाजवादी चीन और सोवियत संघ के साथ नेहरू के संबंधों ने किन्तु राष्ट्रीयस्तर पर उनके कम्युनिस्टों के प्रति रूख में परिवर्तन नहीं किया। ख्रुश्चेव-बुल्गानिन की ऐतिहासिक भारत यात्रा के वक्त नेहरू ने ख्रुश्चेव से यह शिकायत की कि कम्युनिस्ट पार्टी को विदेश से काफी पैसा मिलता है। नेहरू के जीवनीकार एस. गोपाल के अनुसार इस सवाल पर ख्रुश्चेव ने कहा कि उन्हें ऐसी कोई जानकारी नहीं है। तब नेहरू ने कहा कि यह आम धारणा है कि कम्युनिस्ट दूतावासों में जिन भारतीयों को भर्ती किया जाता है उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की सिफारिश पर ही लिया जाता है। 
‘‘इस प्रकार जाहिर है कि समाजवादी देशों के साथ मित्रता का उपयोग नेहरू भारत में विपक्षी पार्टियों के खिलाफ, खास तौैर पर कम्युनिस्ट विपक्ष के खिलाफ कर रहे थे।’’ अपनी खुद की छवि को वामपंथी बनाने के लिए जनवरी 1955 में कांग्रेस के अवाडी अधिवेशन में उन्होंने ‘‘समाजवादी ढांचे के समाज’’ के लक्ष्य का प्रस्ताव पारित कराया। लेकिन इसके साथ ही यह बिल्कुल स्पष्ट कर दिया गया कि उनका समाजवाद विदेशी तरीके का नहीं होगा। ‘‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’’ पर आधारित ‘‘स्वदेशी समाजवाद’’ होगा।
समाजवादी योजना 
राष्ट्रीय लक्ष्य के रूप में समाजवाद को अपनाने के बाद ही दूसरी पंचवर्षीय योजना का निर्माण हुआ। कांग्रेस की ओर से यह दावा किया गया कि इस योजना के जरिये आर्थिक विकास के क्षेत्र में समाजवाद पर अमल किया जायेगा। वामपंथियों की कतार तक में भ्रम पैदा हुए। ‘‘कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दर, वास्तव में यहीं से दो गुटों के अन्दर गम्भीर विचारधारात्मक और राजनीतिक संघर्ष शुरू हुआ।’’ (इनमें से एक कांग्रेस के साथ संयुक्त मोर्चे की राजनीतिक लाइन रख रहा था।) यही संघर्ष एक दशक बाद अन्त में पार्टी में टूट के रूप में विकसित हुआ।
कामरेड ईएमएस ने इस तथाकथित समाजवादी योजना के वास्तविक चरित्र का गहराई से विश्लेषण करते हुए बताया है कि यह द्वितीय पंचवर्षीय योजना भारत के पूंजीवादी विकास के लिए अतीत में जितनी भी योजनाएं विभिन्न कोनों से पेश की गयी थी, उन्हीं के पदचिन्हों पर चलते हुए तैयार की गयी थी। 19 वीं सदी के अन्तिम दिनों में नैरोजी, राणाडे और दत्त की तरह के राष्ट्रीय अर्थनीति के प्रवक्ताओं से लेकर सन् 1936 में प्रकाशित मैसूर के एम. विश्वेश्वरैय्या की योजना और फिर सन् 1946 की टाटा-बिड़ला या बम्बई योजना की तरह के दस्तावेजों में राष्ट्रीय अर्थनीति के विकास में जिस सीमा तक सरकारी योजना और पहलकदमियों को महत्व दिया गया था, द्वितीय योजना में सरकारी क्षेत्र की भूमिका किसी भी अर्थ में उससे भिन्न या ज्यादा नहीं थी।
‘‘विश्वेश्वरैय्या की योजना और बम्बई योजना तथा नेहरू की पहलकदमी पर तैयार की गयी द्वितीय पंचवर्षीय योजना में परस्पर तुलना करने पर यह जाहिर हो जायेगा कि वे सभी मोटे तौर पर एक ही लाइन पर थीं।’’
जहां तक भारतीय योजना के साथ समाजवादी देशों के संबंध का मसला है, तथ्य यह है कि प्रारम्भ में भारत के शासक वर्ग भारत की तरह के देशों की मदद में समाजवादी देश समर्थ हैं, ऐसा सोचते ही न थे। लेकिन बाद में, पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान ही यह अनुमान गलत साबित हुआ। सोवियत संघ में युद्ध के बाद हुए तीव्र विकास तथा चीन में कृषि क्रांति ने इस धारणा को निराधार साबित कर दिया। 
दूसरी पंचवर्षीय योजना तथा देश के दक्षिणपंथियों द्वारा उसकी तीखी आलोचना  ने नेहरू तथा उनके साथियों को दक्षिणपंथियों के विरोध पर सीधा हमला करने और वामपंथियों में उलझने पैदा करने के दोहरे राजनीतिक लक्ष्य को हासिल करने में मदद पहुँचायी। 
‘‘वास्तव अर्थो में, वे सभी योजनाएँ पूँजीपतियों के लक्ष्यों और नीतियों के अनुरूप ही थे। फिरभी उस वर्ग के एक हिस्से ने इस कदम का इसलिए विरोध किया क्योंकि वह भीतरी और बाहरी प्रतिक्रिया से गहराई से जुड़ा हुआ था।’’
अवाडी कांग्रेस के बाद आर्थिक क्षेत्र की घटनाओं के साथ ही राजनीतिक क्षेत्र में भी कई परिवर्तन परिलक्षित हुए। सोशलिस्ट पार्टी अंध कांग्रेस विरोध से लेकर अंध नेहरू विरोध में पर्यवसित होकर टूट-फूट गयी। जयप्रकाश जीवनदानी बनकर तथा पट्टाभि सितारमैय्या साधु बनकर राजनीति से हट गये। मीनू मसानी टाटा कम्पनी के एक बड़े अफसर बन गये। लोहिया के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी दिशाहीन होकर नेहरू पर हमले में केन्द्रित हो गयी। 
कम्युनिस्ट पार्टी भी अपने को उन परिवर्तनों से अछूती न रख सकी। सन् 1955  के चुनाव में वह जहाँ आन्ध्र प्रदेश में बहुमत हासिल करने का अनुमान लगा रही थी, वहां चुनाव परिणामों में उसकी सीटें 41 से घटकर सिर्फ 15 हो गयी। सन् 1956 में पालघाट में पार्टी कांग्रेस हुई तथा पार्टी के अन्दर दोनों लाइनों के बीच तीव्र बहस के उपरान्त जो प्रस्ताव पारित हुआ, उसने जनता के सामने राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का ऐसा विकल्प पेश किया जो कांग्रेस के रास्ते के विरुद्ध था। पहली पंचवर्षीय योजना के अनुभवों से शिक्षा लेते हुए इस प्रस्ताव में साफ शब्दों में यह चेतावनी दी गयी कि ‘‘भारत अपने वर्तमान आर्थिक पिछड़ेपन तथा निर्भरशीलता से तब तक उबर नहीं सकता, अपनी अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण तबतक नहीं कर सकता, जबतक तेजी से औद्योगीकरण न हो, खास तौर पर भारी और मशीन निर्माता उद्योगों में, और जबतक बुनियादी भूमिसुधार न हो जिसमें खेतिहर मजदूरों तथा गरीब किसानों के बीच जमीन का वितरण निर्णायक स्थान ग्रहण करे।’’
इस प्रकार विपक्ष की दक्षिणपंथी और वामपंथी, अन्य किसी भी पार्टी की तुलना में अकेले कम्युनिस्ट पार्टी एक वास्तविक विकल्प कार्यक्रम के साथ सामने आयी, जबकि दूसरी सभी पार्टियां किसी न किसी प्रकार के संकीर्णतावादी रास्ते की ओर बढ़ती हुई दिखाई देने लगी। ‘‘देश के धर्मनिरपेक्ष और देशभक्त आंदोलन के सामने उपस्थित हुई यह नयी चुनौती थी।’’
आजादी की लड़ाई के काल से ही कांग्रेस भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के प्रति वचनबद्ध थी। लेकिन आजादी के बाद नेहरू ने अन्य समस्याओं की तुलना में इसे कम महत्व का विषय समझते हुए, इसे टालने की नीति अपनाई। किन्तु देश के संविधान के निर्माण के वक्त इस प्रश्न को पूरी तरह से दरकिनार नहीं किया जा सकता था। इसीलिए नेहरू ने संविधान सभा में खुद को, पटेल तथा कांग्रेस अध्यक्ष पट्टाभि सितारमैय्या को लेकर इस प्रश्न पर एक कमेटी गठित करवाई। कमेटी ने यह सुझाव रखा कि ‘‘... देश की अस्थिर परिस्थितियों को देखते हुए भाषाई प्रांतों के गठन को 10 वर्षों के लिए टाल दिया जा सकता है।’’
यह बात 1949 के अक्टूबर महीने की थी। लेकिन लोकसभा के पहले चुनाव में ही आंध्र प्रदेश सहित कई राज्यों में कांग्रेस की जो हारें हुईं, इसके बाद ही व्यापक पैमाने पर राज्यों के पुनर्गठन का काम शुरू कर दिया गया। लेकिन फिर भी भाषाई आधार पर राज्यों की सीमाएं तय करने के सिद्धान्त को सख्ती से नहीं अपनाया गया। इसीलिए चारों ओर एक प्रकार का असंतोष दिखाई देने लगा। खुद नेहरू को लगने लगा कि जैसे ‘‘भारत के कुछ हिस्सों में हम गृहयुद्ध के कगार पर पहुँच गये हैं।’’
चारों ओर दिखाई दे रही उत्तेजनाओं ने एक समय के लिए नेहरू को दिशाहीन-सा कर दिया था। ‘‘समस्या सिर्फ भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की ही नहीं थी। राष्ट्रीय अखंडता के अन्य कई पहलू थे जिन सब पर नेहरू विफल रहे। भारत एक ऐसा देश है जहां कई भाषाओं, जातियों और सामाजिक समूहों के लोग वास करते हैं, इसके बारे में उनका एक सही और व्यापक आकलन न होने के कारण वे इन समस्याओं से जिस प्रकार निपटना चाहते थे उस पर बुरा प्रभाव पड़ा।’’
इसका एक बड़ा उदाहरण है कश्मीर का। धार्मिक आधार पर भारत का विभाजन होने पर भी भारत धर्मनिरपेक्ष राज्य बना। इसी सच्चाई की वजह से शेख अब्दुल्ला कश्मीर की तरह के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य को भारत से मिलाने पर सहमत हुए। लेकिन 1949 के बाद ही शेख अब्दुल्ला आजाद कश्मीर की तरह की बातें करने लगे। इसके विपरीत एक ऐसा हिन्दू साम्प्रदायिक नजरिया भी तेजी से सामने आया जो कश्मीर के लिए विशेष संवैधानिक स्थिति को समाप्त कर देना चाहता था। इसे कांग्रेस के अन्दर भी बहुतों का समर्थन प्राप्त था। जम्मू में इस मांग पर हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों ने आंदोलन शुरू कर दिया। इस आंदोलन से निपटने के तरीके पर अब्दुल्ला और नेहरू में मतभेद हो गये तथा अब्दुल्ला ने साफ तर्क दिया कि ‘‘पूर्ण विलय’’ अथवा ‘‘पूर्ण स्वायत्तता’’ (जो स्वतंत्रता के लिए उनके द्वारा प्रयोग किया जाने वाला एक अपेक्षाकृत नरम पद था) के अलावा बीच का कोई रास्ता नहीं है, तथा चूंकि कश्मीर का बहुमत पहले विकल्प को नहीं स्वीकार सकता, इसलिए दूसरे के अलावा कोई चारा नहीं है। इस स्थिति ने कश्मीर की शासक पार्टी में ही एक संकट पैदा कर दिया। अब्दुल्ला और उनके समर्थक अल्पमत में हो गये। स्थिति यहां तक चली गयी कि मंत्रिमंडल के बहुमत ने शेख अब्दुल्ला को बाद देकर बैठक की तथा न सिर्फ अब्दुल्ला को बर्खास्त ही किया बल्कि उन्हें बंदी भी बना लिया गया। नेहरू को इसकी जानकारी बाद में हुई, लेकिन केन्द्रीय सरकार के प्रधान के नाते उन्होंने इसकी अन्तिम जिम्मेदारी स्वीकार की। नेहरू के जीवनीकार ने इसे नेहरू के जीवन की एक दुखांतकारी घटना बताया है। 
का. ईएमएस ने इस सारे घटनाक्रम पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि यह नेहरू के जीवन की नहीं, सारे देश की, उसके लोकप्रिय तथा धर्मनिरपेक्ष जनतंत्र की दुखांतकारी घटना थी। ‘‘कश्मीर में अब्दुल्ला सरकार पाकिस्तान के धार्मिक राज्य की तुलना में भारत में धर्मनिरपेक्षता की प्रतीक थी। यही देश में एक ऐसी सरकार भी थी जो वामपंथी आंदोलन द्वारा सुझाये गये प्रगतिशील कदमों, सर्वोपरि भूमिसुधार पर अमल कर रही थी। एक ऐसे राज्य में सरकार के प्रमुख को बर्खास्त करके बंदी बनाना देश की धर्मनिरपेक्ष तथा जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के सुनाम पर धब्बा थी।’’ आजतक कश्मीर भारतीय जनतंत्र के लिए एक समस्या बना हुआ है। 
कश्मीर की घटनाओं तथा देश में फैली साम्प्रदायिक भावनाओं की पृष्ठभूमि में नेहरू ने 17 नवम्बर 1953 को के.एन. काटजू के नाम एक पत्र में लिखा ‘‘वास्तविक हिन्दू धर्म क्या है, यह प्रत्येक हिन्दू के अपने विचार का विषय हो सकता है। हम सिर्फ उसके व्यवहार की बात कर सकते हैं। व्यवहार में, हिन्दू निश्चित रूप से सहनशील नहीं हैं तथा किसी भी दूसरे देश में सिया यहूदियों के किसी भी व्यक्ति की तुलना में कहीं ज्यादा संकार्ण-दिमाग का है। हिन्दू दर्शन जो महान है, उसकी बात करने से कुछ हासिल नहीं हो सकता। भारत का भविष्य मुख्य रूप से हिन्दुओं के दृष्टिकोण से बंधा हुआ है। यदि वर्तमान हिन्दू नजरिया बुनियादी तौर पर नहीं बदलता है, तो मेरा पक्का मानना है कि भारत का दुर्भाग्य है। मुस्लिम नजरिया हो सकता है, और मैं मानता हूँ कि अक्सर बहुत बुरा है, लेकिन भारत के भविष्य पर इसका बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ता।’’
कश्मीर तथा उसके बाद की घटनाओं ने जातिवाद और साम्प्रदायिकता की इन ताकतों को और भी आक्रामक बना दिया। उनकी (नेहरू की) जिन्दगी के अन्तिम वर्ष ऐसी ही दुखांतकारी घटनाओं से भरे थे जिनमें वे समझौतों के लिए मजबूर होते गये। यद्यपि अपने मन में वे उनसे उत्पन्न होने वाले खतरों से वाकिफ थे। 

काला अध्याय 
भारतीय जनतंत्र के सामने एक और परीक्षा की घड़ी उस वक्त आयी अब सन् 1957 में केरल में पहली कम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ। इस सरकार के प्रति शुरू में एक उदार जनतंत्रवादी का रवैया अपनाने के बावजूद कांग्रेस के भीतर की तथा केरल में काम कर रही अन्य प्रतिक्रियावादी कम्युनिस्ट- विरोधी ताकतों के दबाव को वे झेल नहीं सके। जिस नेहरू को एक समय में ‘‘अन्दर से कम्युनिस्ट’’ बताकर पेश किया जाता  था, वही कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ जघन्य जेहाद के नेता बन गये। 1959 में केरल की चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार को गिराना नेहरू के जीवन का एक काला अध्याय था।
‘‘एक चुनी हुई सरकार को गिराना उस राजनैतिक नैतिकता की संहिता के बिल्कुल बाहर की चीज थी जिसमें नेहरू की दीक्षा हुई थी। यहां लेकिन सवाल नैतिकता का नहीं बल्कि राजनीतिक जीवन की कठोर सच्चाई का था। एक गैर कांग्रेसी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी ने सफलता के साथ कांग्रेस को चुनौती दी थी तथा राज्य में अपनी सरकार कायम की थी। वह कुछ ऐसे कदम उठा रही थी जिन्होंने कांग्रेस पार्टी के सदस्यों और मित्रों सहित आम लोगों को आकर्षित किया था। सत्ता पर उसका बने रहना अन्य राज्यों की जनता पर प्रभाव डाल सकता था, देशव्यापी पैमाने पर शासक दल के रूप में कांग्रेस के अस्तित्व पर खतरा पैदा कर सकता था। इसलिए पार्टी के अस्तित्व के लिए ही जरूरी था कि नेहरू की तरह का एक उदार और सोशल डेमोक्रेट बुर्जुआ नेता के अपने असली रंग में सामने आ जाए। और वे आ गये।’’
कश्मीर और केरल में नेहरू की कार्रवाई में एक समानता थी। दोनों में ही राज्य की स्वायत्तता का प्रश्न शामिल था। लेकिन दोनों मामलों में कुछ बड़े फर्क थे। 
‘‘पहला, जम्मू और कश्मीर की कार्रवाई केन्द्रीय सरकार ने नहीं, खुद अब्दुल्ला सरकार के बहुमत ने की थी। शेख की गिरफ्तारी, नजरबंदी तथा उनके खिलाफ षड़यंत्र-मुकदमा राज्य के मंत्रिमंडल के काम थे। केरल में किन्तु केन्द्र ने एक राज्य सरकार के खिलाफ कदम उठाया, जिसे तब भी विधानसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त था।’’
‘‘दूसरा, दिल्ली में हिन्दू-अंधता के प्रति अपनी उत्तेजना के चलते शेख अब्दुल्ला वस्तुत: पाकिस्तान की ओर जा रहे थे। इसके कारण मंत्रिमंडल में उनका विरोध मजूबत हुआ। केरल में ऐसा कोई कारण नहीं था।’’
‘‘तीसरा, दोनों मामलों में ही नेहरू में एक अपराध बोध था। कश्मीर में अब्दुल्ला को फिर से लाकर उन्होंने प्रायश्चित करने की कोशिश की, यद्यपि सफल नहीं हुए। केरल में किन्तु उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे लगे कि वे प्रायश्चित कर रहे हों।’’
यहीं से नेहरू के सर्वतोमुखी पतन का दौर शुरू हुआ। ‘‘भारत की तरह का एक नव स्वाधीन देश व्यवस्था के एक अन्तर्निहित संकट के साथ पैदा हुआ। जबतक वह खुद को पूँजीवादी व्यवस्था से अलग नहीं कर लेता उससे मुक्ति संभव नहीं थी। स्वातंत्रोत्तर काल में जाति, सम्प्रदाय तथा अन्य विभाजनकारी ताकतों के उभरने में, शासक कंाग्रेस पार्टी के अन्दर की गुटबाजी में, आर्थिक विकास और योजना के क्षेत्र आदि में यह तथ्य जाहिर हुआ। एक बुद्धिजीवी के रूप में नेहरू देख रहे थे कि कुछ गड़बड़ है। लेकिन बुर्जुआ राजनीतिक नेता के नाते जो कुछ घट रहा था उसके ठोस विश्लेषण के लिए तैयार नहीं थे।’’
‘‘वास्तव में उनकी कोशिश भारतीय अर्थव्यवस्था को पूँजीवादी रास्ते पर विकसित करने तथा अपनी पार्टी को इस काम के उपयुक्त बनाने की थी। इसीलिए यह स्वाभानिक था कि अपनी योजना की उन्होंने जो सुहावनी तस्वीर बनायी थी, वह उनके जीवन काल में ही बिगड़ने लगी। सांगठनिक रूप में भी, कांग्रेस को एक वास्तविक राष्ट्रीय तथा जनतांत्रिक संगठन के रूप में विकसित करने का उनका सपना बिखर गया, क्योंकि कांग्रेस में ऊपर से नीचे तक गुटबाजी भरी हुई थी। अपने अन्तर्मन में वे जानते होंगे कि चीजें बिगड़ रही हैं। फिर भी वे न बीमारी का पता लगा सकते थे और न ही उसका निदान कर सकते थे। चीन की सीमा पर उनके दुस्साहस के गड़बड़ा जाने के कारण ने उनकी समस्याओं को और भी बढ़ा दिया।’’
इसके बाद ही कामरेड ईएमएस ने किंचित विस्तार के साथ भारत चीन सीमा संघर्ष के पीछे के नेहरू सरकार के राजनीतिक दृष्टिकोण के दिवालियापन को उद्घाटित किया है। इस घटना ने कांग्रेस दल के अन्दर भी नेहरू की स्थिति पर धक्का लगाया। प्रधानमंत्री के रूप में खुद उनकी स्थिति को सीधे चुनौती न मिलने पर भी उनके सबसे नजदीकी लोगों को हमलों का निशाना बनाया जाने लगा। कांग्रेस दल के अन्दर के असंतोष को शान्त करने के लिए ही नेहरू को तत्कालीन प्रतिरक्षा मंत्री कृष्ण मेनन की बलि चढ़ानी पड़ी। कांग्रेस के अन्दर नेहरू विरोधी गुट का फिर से तैयार होना एक वास्तविकता थी और नेहरू के लिए यह जरूरी हो गया था कि इससे निपटा जाए। परिस्थितियों की इसी पृष्ठभूमि में ‘‘कामराज योजना’’ आयी जिसका मकसद कांग्रेस के अन्दर नेहरू की निजी स्थिति को बल पहुँचाना भर था। राज्य सरकारों तथा केन्द्रीय मंत्रिमंडल से ऐसी कई हस्तियों का सफाया कर दिया गया जिन्होंने विभिन्न मौकों पर नेहरू के खिलाफ स्थिति अपनायी थी। ‘‘इसे गुटबाजी के चरित्रवाली उन तमाम चालों का प्रारम्भ कहा जा सकता है जो नेहरू के काल के बाद उनकी वारिस तथा बेटी इंदिरा गाँधी द्वारा कई मर्तबा चली गयी।’’
इसी समय कांग्रेस के अन्दर के भ्रष्टाचार के भी कई मामले सामने आने लगे। नेहरू ने किन्तु इन मामलों को ज्यादा अहमियत नहीं दी। इनके प्रति आँखे मूंदे रहना ही उन्हें श्रेयस्कर लगा। नेहरू के जीवनीकार एस. गोपाल ने दो ऐसे मामलों का उल्लेख किया है। एक के.डी. मालवीय का तथा दूसरा पंजाब के मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों का। मालवीय को इस्तीफा देना पड़ा लेकिन कैरों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा निन्दित किये जाने के बावजूद अछूता छोड़ दिया गया। 
पार्टी और प्रशासन के अन्दर की बिगड़ती हुई इन स्थितियों में ही नेहरू का स्वास्थ्य भी बिगड़ने लगा। 6 जनवरी 1964 को कांग्रेस के भुवनेश्वर अधिवेशन में उन्हें पहला हल्का-सा दिल का दौरा पड़ा। ‘‘धीरे-धीरे उनके बिगड़ते हुए स्वास्थ्य के साथ ही चीन के साथ सीमा-संघर्ष और कांग्रेस दल तथा प्रशासन के संकट जुड़े गये। 27 मई 1964 के तड़के उनका जो अंत हुआ, वह शारीरिक बीमारी तथा साथ ही साथ वे जिस नैतिक-राजनैतिक संकट में फंस गये थे, उनका स्वाभाविक परिणाम प्रतीत होता है।’’

गाँधी-नेहरू विरासत 
इसके बाद कामरेड ईएमएस ने पुस्तक के उपसंहार के तौर पर ‘‘गाँधी-नेहरू विरासत’’ शीर्षक से अन्तिम अध्याय लिखा है। एक नौजवान, प्रगतिशील नेता के रूप में जो नेहरू एक जमाने में भारत के स्वतंत्रता-प्रेमी युवकों के आदर्श बन गये थे, उन्हें ही किन्तु बाद के काल में क्रमश: कांग्रेस के दक्षिणपंथी नेतृत्व के विश्वस्त सहयोगी के रूप में देखा जाने लगा। एक कम्युनिस्ट के नाते नेहरू के व्यक्तित्व के इस विकास ने का. ईएमएस को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से उनके व्यक्तित्व के अध्ययन के लिए प्रेरित किया और यह साफ हो गया कि जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू तथा राजनीतिक गुरू गाँधी और स्वयं नेहरू एक ही वर्ग, भारतीय बुर्जुआ वर्ग के तीन चेहरे हैं। महात्मा गाँधी इसी वर्ग के खास प्रतिनिधि थे जो साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में जनता को उतारने के बावजूद जनता को हर प्रकार के जुझारू संघर्ष से दूर रखने में दिलचस्पी रखते थे। कांग्रेस के बाहर कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की तरह की वामपंथी स्वतंत्र शक्तियों के उदय तथा कांग्रेस के अन्दर नेहरू की तरह के दृढ़ साम्राज्यवाद-विरोधी की उपस्थिति ने इन सभी शक्तियों को, 30 के दशक के मध्य से एक संयुक्त मोर्चे में इकट्ठा किया था, जो द्वितीय विश्वयुद्ध की पूर्व बेला में टूट गया। 
नेहरू ने ही पहले, राज गोपालाचारी तथा राजेन्द्र प्रसाद की तरह के दक्षिणपंथियों के साथ मिलकर अंग्रेज सरकार और मुस्लिम लीग से त्रिपक्षीय वार्ता की रणनीति बनायी थी जिसके चलते भारत विभाजित होकर दो शत्रु देशों में बंट गया। जबकि महात्मा गाँधी ने इस आजादी में अपनी व्यक्तिगत पराजय को देखा था और आजादी के जश्न में शामिल होने से इंकार कर दिया। नेहरू को स्वतंत्र भारत के प्रमुख के रूप में अपनी क्षमताओं तथा समस्याओं के समाधान की अपनी सामर्थ्य पर बेइंतहा भरोसा था। लेकिन आजाद भारत के परवर्ती विकाश ने दिखाया कि किस प्रकार एक के बाद एक उनकी सारी आशाएं बिखरती गयीं। योजनाएं अपने लक्ष्य की दृष्टि से विफल रहीं, राष्ट्रीय एकता के सूत्र कमजोर हुए। प्रशासन में भष्टाचार छा गया। ‘‘प्रधानमंत्री के रूप में उनके जीवन के अन्तिम 17 वर्षों का कोई भी यथार्थ आकलन उन्हें पूरी तरह से विफल करार देगा।’’
ऐसा क्यों हुआ? क्यों गाँधी और नेहरू, दोनों ही अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति में विफल होकर चल बसे? इसका एक मात्र उत्तर है ‘‘दोनों ने एक वर्ग, भारतीय बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में एक ऐसे काल में बुर्जुआ जनतंत्र के आदर्श पर भारत का निर्माण करना चाहा था जब बुर्जुआ व्यवस्था एक गहरे संकट में फंस चुकी थी। उनमें से कोई भी इस बात को अपनी आशाओं के बिखरने के कारण के रूप में नहीं देख सका।’’
इसी आधार पर कामरेड ईएमएस अपना अन्तिम निष्कर्ष यह देते हैं कि ‘‘कुल मिलाकर गाँधी और नेहरू की विरासत नकारात्मक रही है। आज के दिन के भारत को इसका अनुसरण करने के बजाय इससे अलग हटने की जरूरत है।’’

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

‘रंगरसिया’

अरुण माहेश्वरी



आज राजा रविवर्मा के जीवन पर आधारित केतन मेहता की फिल्म ‘रंगरसिया’ देखी। जब मांसलता और अनहद का मेल हो तो उससे उत्पन्न गूंज की मादकता कितनी रंगीन, कामनाओं से लबरेज, कितनी खूबसूरत हो सकती है, इसका एक गहरा अहसास हुआ। पूरी फिल्म के दौरान एक प्रकार की विभोरता छायी रही। धर्म की कूपित कुदृष्टि की छवियां भी उसमें कोई खलल नहीं पैदा कर पायीं।

सचमुच, क्या विडंबना है कि सत्य, शिव और सुंदर के हर योग को धर्म के दुर्वासाओं के कोप से गुजरना ही पड़ता है। लेकिन मजे की बात यह है कि हर बार धर्म संस्थान की दशा किसी विदूषक से कम दयनीय नहीं होती। ‘रंगरसिया’ में भी यही हुआ। रविवर्मा एक साधारण स्त्री को देवी बनाते हैं और धर्म के ठेकेदार उसे वैश्या। कला सुन्दरता की सृष्टि करती है और धर्म कुरूपता और कलुष की। इन खलनायकों के पास अंत में सिवाय शारीरिक हमलें करने के और कुछ बचा नहीं रह जाता।

रवि वर्मा ने देवी देवताओं के चित्र बनाएं और छापेखाने के जरिये उन्हें घर-घर तक पहुंचाया। जो देवता मंदिरों में कैद थे उन्हें हर गली-नुक्कड़ तक फैला दिया। उनसे जुड़ी कथाओं को चाक्षुस करके उन पर मुट्ठी भर पंडों-पुजारियों की इजारेदारी को तोड़ डाला।

देवताओं को किसी वैरागी ने नहीं, सौन्दर्य के उपासक, कामनाओं के धनी एक कलाकार ने मुक्त किया। दो दिन पहले ही एक पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए हमने गम की खुशी के महान शायर गालिब के इस शेर को याद किया था :

नफस न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खेंच
अगर शराब नहीं, इन्तिजार-ए-सागर खेंच।

वे कहते हैं, अंजुमन-ए-आरजू अर्थात कामनाओं की महफिल के बाहर सांस लेना भी हराम है। कामनाएं गालिब का गौरव थी। रविवर्मा का और किसी भी सच्चे कलाकार का गौरव है। एक ऐसे गर्वोन्नत चरित्र को रणदीप हूडा ने इस फिल्म में जिस तरह जीया है और केतन मेहता ने पूरी फिल्म को रविवर्मा के रंगों में जिस दक्षता के साथ रंगा है; कामनाओं के संगीत के जिन स्वरों से मांसल अनुभवों के अनहद को गूंज दी है, उसकी जितनी सराहना की जाए, कम है। रविवर्मा की देवी सुगंधा स्त्री थी, इसीलिये उसने आत्म-हत्या कर ली, लेकिन उसकी यही पराजय रविवर्मा के जीवन की कहानी का अंग बन कर हर जीवित इंसान को हसरतों के गौरव के अहसास से समृद्ध करती रहेगी। नंदना सेन ने सुगंधा के रूप में आदमी की कामनाओ की अप्सराओं को मूर्त किया है।

रवि वर्मा के कलाकार की आत्मलीनता और इसके चलते उनके सामने आने वाली सामाजिक-नैतिक मुसीबतें अनायास ही कला जगत के बारे में हमें रवीन्द्रनाथ की कही बात की याद दिला देती है। कला का आनंददायी रस-तत्व ‘‘ किसी खास आधुनिक या सनातनी फार्मूले से तैयार नहीं होता। कई बार आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक रूढि़वाद जाग कर रससृष्टिशाला में डिक्टेटरी करने आ जाता है, दण्डधारी बाहर से शासन करता है, ...उनके तकमें जिन लोगों को प्रिय लगते हैं वे रसराज्य के बाहर के लोग है, वे हुजूम वाले हैं... रस की गहन, अभावनीय कही जाने वाली प्रकृति किसी उत्तेजित सामयिकता के कानूनों के अधीन नहीं होती। उसका प्रगट होना या न होना मानव स्वभाव की जिस गहरी विशिष्टता से जुड़ा होता है, उसपर कोई भी स्पष्ट राय नहीं दे सकता। अपनी प्रकृति की गहन सर्जनात्मक प्रेरणा से मनुष्य अपने ही खिलौनों को बनाता और तोड़ता रहता है।’’

बिल्कुल ताजा संदर्भों में देखें तो यह फिल्म मकबूल फिदा हुसैन, उनकी कला-कृतियों और उनके साथ संघ परिवार के लोगों के दुव्‍​र्यवहार के दुखद अनुभवों को जीवित कर देती है।





शनिवार, 8 नवंबर 2014

‘हिंदी प्रलाप’


आज, 9 नवंबर 2014, रविवार के ‘जनसत्ता’ में हिंदी के वयोवृद्ध वरिष्ठ लेखक डा. लक्ष्मीधर मालवीय का एक महत्वपूर्ण लेख है - ‘जय हिंद्(ई)'। नाना स्तरों पर नाना रूपों में चलने वाले ‘अनर्गल (हिंदी) प्रलाप’ के उबलते दूध में खट्टे नींबू की एक बूंद। मालवीय जी का कहना हैं :
1.हिंदी बनाम अंग्रेजी की सारी बहस धूल की रस्सी बटने की तरह ही वृथा है।
2.‘‘हिंदी मातृभाषा तो दूर, सामान्य अर्थ में भाषा भी नहीं है।’’
3.‘‘हिंदी भाषा नहीं, बहुभाषी ‘तर्जुमाकार है।’’ सिर्फ एक औजार, खास काम को साधने का औजार। यह ‘‘सिर्फ तर्जुमा करती है, आशु दुभाषिया है।’’
4.1956 में जब हिन्दी को राजभाषा बनाया गया, वह ‘अंधी गली में ले जाने वाली गलत राह’ पर बढ़ा हुआ कदम था। अब लौट चलना चाहिये उसी दोराहे पर जहां हिंदी को राज्य-राष्ट्र भाषा बनाया गया।
5.‘‘हिंदी से सरकार का स्पर्श भी न रह जाना चाहिए।’’ यह ‘शासकीय दीमक’ का स्पर्श है।
6.‘‘हिंदी के प्रोफेसर डाक्टर लक्ष्मीधर मालवीय की लिखित और मौखिक ‘हिंदी’ ही ऐसी क्यों होती है कि उसे समझने के लिए उसका सरल हिंदी में अनुवाद कराना पड़ता है।...हिंदी में जो जितना ही उच्च शिक्षा प्राप्त है, उसी के अनुपात में उसकी हिंदी भी ‘उच्च’ है।
7.‘‘यह विश्वविद्यालय की ‘हिंदी विभागी’ अभागी हिंदी है।’’ ‘प्रोफेसरी हिंदी’। ‘‘मतिमंद आचार्य अपने ‘डॉली द क्लोन’ मतिमंदों की अगली पीढि़यां-दर-पीढि़यां छोड़ते गए हैं। राष्ट्रभाषा हिंदी के जन्मदाता ये ही क्लोन है।
8.‘‘इसलिए जनहित देशहित के लिए क्लोनों की नसबंदी करना प्रथम आवश्यकता है !...कोलकाता से लेकर दिल्ली, चंडीगढ़ तक गऊ पट्टी के सभी विश्वविद्याल के सभी ‘हिंदी’ विभागों का कार्य स्थगित कर...उनकी जांच-परख कराना अतिआवश्यक है। ...जन-धन के व्यय की जांच करना शासन का कत्‍र्तव्य है।
9.‘‘हिंदी के अध्यापक को उर्दू-फारसी वर्णमाला का कामचलाऊ नहीं, पूरा ज्ञान होना अनिवार्य है। उर्दू-फारसी की पेशकश हिंदू-मुसलिम एकता बढ़ाने का स्वांग नहीं, एकदम उपयोगिता के स्तर पर है।’’
10.‘‘जो हिंदी विभाग कुछ नहीं कर रहे - और न करने की क्षमता रखते हैं, उन्हें ऐसे ही चलने देना चाहें तो चलने दें। आखिर लावारिस बच्चों के अनाथालय है कि नहीं।’’
11.‘‘शासन हिंदी को अपने नागपाश से छोड़ना तो दूर, उसे ढीला तक न करेगा। क्योंकि एक तो इससे, कम से कम वर्तमान प्रशासन की दृष्टि में, ‘हिंदी’ भावुकता के स्तर पर, ‘हिंदू’ ‘हिंदुस्तान’ के तरन्नुम में आ गई - ‘हिंदी’ से हर्रा लगे न फिटकरी, उसके अहम की तुष्टि होती है - देखो, हम हिंदी को आगे ले आ रहे हैं। उसके लिए भाषा या संप्रेषण का साधन न होकर हिदी तीर्थयात्रा के समान गदगद भावुकता है।
12.और अंत में, ‘‘हमारे दक्षिणात्य देशभाइयों ने हमवतनों की संकट की घड़ी में सदा आगे बढ़ कर रक्षा की है! ...इन दक्षिणात्यों की चौकस बनी रहने तक इस ‘हिंदी’ को हम सब पर थोपा न जा सकेगा। इत्यलम्।’’

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2014

सीपीआई(एम) की केन्द्रीय कमेटी में संगठन

अखबार बताते हैं कि सीपीआई(एम) की केन्द्रीय कमेटी में संगठन पर चर्चा हो रही है। यह सबसे महत्वपूर्ण है। अन्दर से कमजोर बाहर के दबावों के सामने असमर्थ होता हैं।

संगठन की कमजोरी के मूल में भी सांगठनिक सिद्धांतों की बड़ी भूमिका है। तथाकथित क्रांतिकारी पार्टी के बंद ढांचे ने इसे तबाह किया है।

सार्त्र का नाटक है - ‘No Exit’।

नर्क पहुंची तीन नीच आत्माओं को यातना देने के बजाय एक कमरे में हमेशा-हमेशा के लिये बंद कर दिया जाता है। आपस में कोई अपना पाप कबूल नहीं करना चाहता। लेकिन एक कहता है - हमें अपना नैतिक अपराध कबूल करना चाहिए। और इसी क्रम में एक बिना किसी यंत्रणादायी के ही यंत्रणा पाने के सच को देख लेता है। कहता है - ‘‘रुको! देखो यह कितनी सीधी बात है, बच्चों की तरह सीधी। यहां कोई शारीरिक यंत्रणादाता नहीं है। यह तो तुमलोग मानोगे? फिर भी हम नर्क में हैं। और, यहां कोई दूसरा नहीं आने वाला। हम तीनों हमेशा-हमेशा के लिये, इस कमरे में रहेंगे। ...संक्षेप में, यंत्रणा अधिकारी यहां नहीं है...जाहिर है उनके पास लोगों की कमी है - हममें से प्रत्येक बाकी दोनों के लिये यंत्रणादायी का काम करेगा।’’

बंद कमरा और शत्रु की तलाश की प्रवृत्ति - सोच लीजिये यह सब क्या किसी नर्क से कम है!

संगठन जितना बंद, उतना ही घना नर्क।

सीपीआई(एम) ने जन-क्रांतिकारी पार्टी के गठन के उद्देश्य को अपना कर इस प्रकार के बंदपन से मुक्ति का रास्ता तलाशा था। उसे पुनर्जीवित करने की जरूरत है।

सोमवार, 27 अक्टूबर 2014

संयुक्त मोर्चा और वाम मोर्चा


चर्चा गर्म है कि सीपीआई(एम) अब बुर्जुआ दलों के साथ संयुक्त मोर्चा के बजाय वाम दलों की एकता, वाम मोर्चा पर ही बल देगी ।
एक समय में अपने अनुभवों के आधार पर पार्टी ने जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण की नीति अपनाई थी । इसे आज तक अधिकारी तौर पर ख़ारिज नहीं किया गया है । लेकिन अभी का नेतृत्व 'जन-क्रांतिकारी' के बजाय 'क्रांतिकारी' पार्टी पर ज़्यादा बल देता है, 'जन-क्रांतिकारी' की चर्चा ही नहीं की जाती । जन-क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का फ़ैसला विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में भारत के कम्युनिस्टों का एक बड़ा योगदान था । इसका सीधा संबंध भारत की ठोस परिस्थितियों से, यहाँ के आधुनिक राजनीतिक इतिहास से जुड़ा हुआ था । यह ग़ैर-क्रांतिकारी परिस्थितियों में किसी भी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण और विस्तार का सिद्धांत था ।
'जन-क्रांतिकारी पार्टी' के सिद्धांत से ही संगति रखती हुई कार्यनीति है - 'संयुक्त मोर्चा' की कार्यनीति । इस कार्यनीति पर सफलता के साथ चलते हुए एक समय में सीपीआई (एम) ने भारत की राजनीति में ख़ुद को अच्छी तरह प्रतिष्ठित किया था ।
आज, सीपीआई(एम) का वर्तमान नेतृत्व 'जन-क्रांतिकारी पार्टी' के निर्माण के लक्ष्य को पूरी तरह से भुला कर 'क्रांतिकारी' पार्टी का जाप करता है । इसीके तार्किक विस्तारसे जुड़ा हुआ है, संयुक्त मोर्चा के बजाय वाम मोर्चा की एकता पर ही अधिक से अधिक बल देना ।
इस प्रकार का कार्यनीतिगत प्रत्यावर्त्तन पहले से ही सिमट रही पार्टी द्वार हताशा में आत्म-हत्या करने के निर्णय जैसा होगा ।
आख़िर कार्यनीति क्यों? पार्टी की राजनीति को व्यापक जनता के बीच ले जाने के लिये ही तो। आज क्या वामपंथी दलों की समाज में वह हैसियत हैं कि जिससे सिर्फ अपने बूते वह समाज के तमाम तबक़ों को संबोधित कर सकें ? ऐसे अनेक तबके हैं, जो वामपंथ की वर्गीय राजनीति में सहयोगी बन सकते हैं, फिर भी वामपंथियों की जद से पूरी तरह बाहर है । मोटे उदाहरण के तौर पर पूरे हिन्दी-भाषी क्षेत्र को लिया जा सकता है ।
दरअसल 'क्रांतिकारिकता' मध्यवर्गीय नेतृत्व के लिये सिर्फ एक लुभावनी अवधारणा ही नहीं है, संगठन पर नौकरशाही जकड़बंदी का औज़ार भी है । जनता की आशाओं-आकांक्षाओं के दबाव से पूरी तरह बचते हुए राजनीति के अपने सुरक्षित केंचुल में घुसे रहने का सबसे सरल उपाय ।

सीताराम येचुरी का वैकल्पिक राजनीतिक दस्तावेज़


आज (27 अक्तूबर) के 'टेलिग्राफ' और 'आनंदबाजार पत्रिका' की रिपोर्टों के अनुसार सीपीआई (एम) की केन्द्रीय कमेटी की आज से शुरू होने वाली बैठक के पहले पोलिट ब्यूरो की बैठक में सीताराम येचुरी ने आगामी पार्टी कांग्रेस में विचार के लिये राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में पार्टी के अधिकृत दस्तावेज़ का विरोध करते हुए अपना एक और दस्तावेज़ पेश किया है, जिसमें पार्टी की इधर के वर्षों की कार्यनीतिगत लाइन पर अमल में की गयी भूलों के लिये अभी के प्रभावी नेतृत्व को ज़िम्मेदार बताया गया है ।

अख़बारों की इस रिपोर्ट में कितना झूठ और कितना सच हैं, हम नहीं जानते । लेकिन इतना ज़रूर समझते हैं कि सीपीआई(एम) का मौजूदा नेतृत्व पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से जिस प्रकार की राजनीतिक कार्यनीतिगत लाइन पर चलता रहा है, वह देश के वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ के अवबोध से कोसों दूर कोरी आत्मगत, हठवादी और भारी भूलों से भरी हुई थी । सांगठनिक मामले में तो उसकी दशा और भी बदतर है । केन्द्रीयतावादी कमान प्रणाली पर चलते हुए ऊपर से नीचे तक उसका पूरा संगठन नौकरशाही संगठन बन गया है । उसके सभी जनसंगठन अपनी स्वतंत्र भूमिका को खो चुके हैं । और, इन सबके लिये उसके केन्द्रीय स्तर से लेकर राज्यों के स्तर तक का नेतृत्व ज़िम्मेदार है ।

इसीलिये, इस बात को पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि सीपीआई(एम) में एक लंबे अर्से से जो चलता रहा है, वह चल नहीं सकता है । इसने पार्टी से उसकी आंतरिक शक्ति और गति को छीन लिया है ।

हम नहीं जानते कि सीताराम येचुरी के वैकल्पिक दस्तावेज़ में क्या हैं । अभी तो पार्टी का अधिकृत दस्तावेज़ ही सामने आना बाक़ी है । उन सबके सामने आने पर निश्चित तौर पर उन पर विचार किया जायेगा । लेकिन सीताराम येचुरी जैसे क़द्दावर नेता का अभी के नेतृत्व के विरोध में ठोस रूप से उतरना सीपीआई(एम) के अंदर की एक ऐसी घटना है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिये । ऐसी टकराहटों के बीच से ही भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का आगे का रास्ता साफ होगा, एक पूरी तरह से नाकारा साबित हुए नेतृत्व की हाँ में हाँ मिलाने से नहीं ।

प्रधानमंत्री की पीठ पर मुकेश अंबानी का हाथ



प्रधानमंत्री की पीठ पर मुकेश अंबानी का हाथ । इस चित्र पर सब हैरान हैं ।

कहने के लिये तो वामपंथी शैली में सरकार के नेताओं को अक्सर पूँजीपतियों का दलाल कहा जाता हैं । इसके बावजूद, पंडित नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक, यहाँ तक कि राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी कभी ऐसा कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं दिया, जिससे यह लगे कि अमुक नेता पूरी तरह से किसी पूँजीपति की सरपरस्ती में काम कर रहा है ।

इसके विपरीत इन्दिरा गांधी जेआरडी टाटा से लेकर बिड़लाओं और धीरूभाई अंबानी के साथ अपने दफ़्तर में कैसा कठोर व्यवहार करती थी, इसे लेकर ढेरों क़िस्से प्रचलित हैं। नेहरू, शास्त्री के ज़माने तक तो बात ही कुछ और थी । कांग्रेस नेतृत्व पूँजीवादी विकास की नीतियों पर चलने के बावजूद पूँजीपतियों के साथ उसका प्रकट व्यवहार थोड़ा अलग रहा है । सिर्फ़ कांग्रेस के नेताओं का नहीं, अटल बिहारी और आडवाणी तक ने किसी पूँजीपति को उनकी पीठ पर हाथ रखने की अनुमति नहीं दी थी ।

भारत के राजनेताओं की घोषित नीतियों और उनके निजी व्यवहार के बीच के ऐसे द्वैत को पिछले दिनों एक व्यापक सैद्धांतिक चौखटे में समझने की कोशिश की गई थी । प्रभाट पटनायक ने 'टेलिग्राफ़' में अपने एक लेख में इसे सारी दुनिया के स्तर पर नेहरू, नासिर, सुकर्णो की तरह के नव-स्वाधीन देशों के राजनीतिक नेतृत्व के संदर्भ में समझते हुए इस नये राजनीतिक नेतृत्व को एक मध्यवर्ती वर्ग (intermediate class) का प्रतिनिधि कहा था । इस लेखक ने प्रभात की इस अवधारणा को ज्योति बसु, लालू यादव, मुलायम सिंह, मायावती, जयललिता तक खींचा था ।

पूँजीपतियों के प्रति राजनेताओं के इस व्यवहार के पीछे सबसे बड़ा सच यह रहा है कि यह राजनीतिक नेतृत्व इस बात को जानता था कि भारत के पूँजीपतियों ने जनता के जीवन में सुधार करने वाली अभिनव सामग्रियों की खोज, अर्थात शोध और विकास के कामों के ज़रिये धन नहीं कमाया हैं । इनकी आमदनी अधिक से अधिक राजनीतिक नेताओं के संरक्षण से बाज़ार में अपनी इजारेदारी, कोटा-परमिट और सार्वजनिक धन, सार्वजनिक उद्यमों की लूट पर निर्भर रही है । सरकारी संरक्षण में आम लोगों के संचित धन की लूट पर भी ।

ग़ौर करने लायक बात यह है कि पूँजी के आदिम संचय की यह प्रक्रिया भारत में अभी भी ख़त्म नहीं हुई है । सरकार की शह से प्राकृतिक स्रोतों की लूट आज भी यहाँ के पूँजीपतियों की आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत है । भारत के पूँजीपतियों ने आज तक शायद अपनी पहल पर ऐसे एक भी उत्पाद का ईजाद नहीं किया है, जिसे सारी दुनिया के लोग अपने जीवन में अपना सकें । पूँजीपति राजनेताओं पर अपनी इस निर्भरशीलता को अच्छी तरह जानते हैं। इसके बावजूद, मुकेश अंबानी प्रधानमंत्री की पीठ पर हाथ रखने का साहस कर पाये, यह एक विचारणीय बात है ।

रविवार, 26 अक्टूबर 2014

क्या यह किसी बड़े घोटाले की तैयारी है !


आज जगदीश्वर चतुर्वेदी के पोस्ट से पता चला कि भारत में मोबाइल कॉल और इंटरनेट की कीमत बढ़ाई जा रही है। यह काम तभी हो सकता है जब टेलिकॉम क्षेत्र की सभी कंपनियां आपस में मिल कर सिंडिकेट बना कर काम करें। इस प्रकार का सिंडिकलिज्म इजारेदारी को रोकने के एमआरटीपी एक्ट के विरुद्ध है।
मुसीबत यह है कि भारत में जो ‘टेलिकॉम रेगुलेटरी आथोरिटी (ट्राई) एक समय में टेलिकॉम कंपनियों की मनमानी से उपभोक्ताओं को बचाने के उद्देश्य से निर्मित हुई थी, आज वही टेलिकॉम कंपनियों के सिंडिकलिज्म के मंच में शायद तब्दील हो गयी है। अन्यथा, जिस युग में सारी दुनिया में फोन और इंटरनेट को जन-कल्याण कार्यक्रमों के तहत लगभग मुफ्त कर देने की बातें चल रही है, उसी समय यहां की टेलिकॉम कंपनियां बिना किसी प्रतिवाद के आसानी से इन सेवाओं को महंगा बना रही है।
केन्द्रीय सरकार क्या कर रही है? क्या वह टेलिकॉम कंपनियों की इस मिलीभगत के साथ है? अगर नहीं, तो इस प्रकार की इजारेदाराना हरकतों को रोकने के लिये वह क्या कर रही है?
कहीं यह एक और बड़े टेलिकॉम घोटाले का सूत्रपात तो नहीं है?

शनिवार, 25 अक्टूबर 2014

विस्मृत मृतात्माओं की साधना क्यों ?

अरुण माहेश्वरी

पांच महीने अभी पूरे हुए हैं और मोदी के प्रचारकों का सुर बदल गया। देखिये कल, 24 अक्तूबर के ‘टेलिग्राफ’ में स्वपन दासगुप्त का लेख - Picky with his symbol (अपने प्रतीक का खनन)।

स्वपन दासगुप्त, मोदी बैंड के एक प्रमुख वादक, चुनाव प्रचार के दिनों में बता रहे थे - गुजरात का यह शेर सब बदल डालेगा। आजादी के बाद से अब तक जीवन के सभी क्षेत्रों में ‘छद्म धर्मनिरपेक्षता’ का जो नाटक चलता रहा है, उसका नामो-निशान तक मिट जायेगा। इतिहास की एक नयी इबारत लिखी जायेगी।

आज वही दासगुप्ता मोदी विरोधियों को इस बात के लिये लताड़ रहे हैं कि क्या हुआ, मोदी को लेकर इतना डरा रहे थे, कुछ भी तो नहीं बदला। मोदी की राक्षस वाली जो तस्वीर पेश की जा रही थी, अल्पसंख्यकों को डराया जा रहा था, पड़ौसी राष्ट्रों से भारी वैमनस्य की आशंकाएं जाहिर की जा रही थी - वैसा कुछ भी तो नहीं हुआ। बनिस्बत्, अपने राजतिलक के मौके पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री तक को आमंत्रित करके, जापान, अमेरिका सहित सारी दुनिया को आर्थिक उदारवाद की मनमोहन सिंह की नीतियों पर ही और भी दृढ़ता के साथ चलने का आश्वासन देकर और ‘स्वच्छ भारत’ आदि की तरह के अपने प्रचार अभियानों में आमिर खान, सलमान खान को शामिल करके, और तो और, स्वपन दासगुप्त के अनुसार, योगी आदित्यनाथ की जहरीली बातों का खुला समर्थन न करके मोदी ने अपने ऐसे सभी विरोधियों को निरस्त कर दिया है। उनके लेख की अंतिम पंक्ति है - ‘‘ मोदी के आलोचकों को अब उनकी पिटाई के लिए नयी छड़ी खोजनी होगी, पुरानी तो बेकार होगयी है।’’ (Modi’s critics must find a new stick to beat him with. The old one has blunted)

दासगुप्त का यह कथन ही क्या यह बताने के लिये काफी नहीं है कांग्रेस-शासन के दुखांत के बाद, यह ‘कांग्रेस-विहीनता’ का शासन प्रहसन के रूप में इतिहास की पुनरावृत्ति के अलावा और कुछ नहीं साबित नहीं होने वाला !

मार्क्स की विश्लेषण शैली का प्रयोग करें तो कहना होगा - मानव अपना इतिहास स्वयं बनाते हैं पर मनचाहे ढंग से नहीं। वे अतीत से मिली परिस्थितियों में काम करते हैं और मृत पीढि़यों की परंपरा जीवित मनुष्यों के मस्तिष्क पर एक दु:स्वप्न सी हावी रहती है। ‘‘ऐसे में कुछ नया करने की उत्तेजना में ही अक्सर वे अतीत के प्रेतों को अपनी सेवा में आमंत्रित कर लेते हैं। उनसे अतीत के नाम, अतीत के रणनाद और अतीत के परिधान मांगते हैं ताकि इतिहास की नवीन रंगभूमि को चिर-प्रतिष्ठित वेश-भूषा में, इस मंगनी की भाषा में पेश कर सके।’’

आरएसएस के प्रचारक और गुजरात (2002) के सिंह के जिन प्रतीकों के आधार पर स्वपन दासगुप्त मोदी को एक नये बदलाव का सारथी बता रहे थे, वे ही अब यह कह करे हैं कि ‘‘प्रधानमंत्री मोदी और चुनाव प्रचार के समय का अदमनीय मोदी बिल्कुल भिन्न है। यह नयी मोदी शैली अभी विकासमान है और इसकी कोई चौखटाबद्ध परिभाषा करना जल्दबाजी होगी।’’(Modi the prime minister has chosen to be markedly different from Modi the indefatigable election campaigner. The style is still evolving and it would be premature to attempt a rigid definition of the new style)

नयी मोदी शैली ! पहले सरदार पटेल, अब गांधी, नेहरू भी - भारत की राष्ट्रीय राजनीति की चिरप्रतिष्ठित वेश-भूषा और मंगनी की पुरानी भाषा की सजावट से तैयार हो रही नयी शैली !

इसमें शक नहीं कि दुनिया के सभी बड़े-बड़े परिवर्तनों की लड़ाइयों को बल पहुंचाने के लिये अतीत के प्रतिष्ठित प्रतीकों का, आदर्शों और कला रूपों का भी प्रयोग होता रहा हैं। वर्तमान की लड़ाई के सेनानियों में एक नया जज़्बा पैदा करने के लिये अनेक मृतात्माओं को पुनरुज्जीवित किया जाता रहा है। भारत की आजादी की लड़ाई का इतिहास तो ऐसे तमाम उदाहरणों से भरा हुआ है। आधुनिक जनतांत्रिक विचारों के साथ ही इसकी एक धारा स्पष्ट तौर पर पुनरुत्थानवादी धारा रही है। लेकिन उस लड़ाई में अतीत के आदर्शों और प्रतीकों का, अनेक मृतात्माओं का उपयोग गुलामी से मुक्ति की लड़ाई को गौरवमंडित करने के उद्देश्य से किया गया था, न कि किसी प्रकार की भौंडी नकल भर करने के लिए; उनका उपयोग अपने उद्देश्यों और कार्यभारों की गुरुता को स्थापित करने के लिये किया गया था, न कि अपने घोषित कार्यभारों को पूरा करने से कतराने के लिये, अपने चरित्र पर पर्दादारी के लिये; उनका इस्तेमाल कुंद की जा चुकी प्राचीन गौरव की आत्मा को जागृत करने के लिए किया गया था न कि उसके भूत को मंडराने देने के लिए, अपने समय को भूतों का डेरा बना देने के लिये।

गौरवशाली, वीरतापूर्ण राष्ट्रीय आंदोलन की कोख से इस देश में एक पूंजीवादी जनतांत्रिक राज्य की स्थापना हुई। राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व से अबतक इसके विभिन्न चरणों में कई प्रवक्ता पैदा हुए - पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, मनमोहन सिंह। इनके अलावा गैर-कांग्रेस दलों से भी छोटे-बड़े अंतरालों के लिये मोरारजी देसाई, चरण सिंह, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर, देवगौड़ा, गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे प्रवक्ता सामने आएं। यह कहानी, स्वतंत्र भारत में भारतीय पूंजीवाद के विकास की कहानी, पूरे सड़सठ सालों की कहानी है। इतने लंबे काल तक नाना प्रकार के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से लगातार धन के उत्पादन, लूट-खसोट और गलाकाटू प्रतिद्वंद्विताओं मंन तल्लीन हमारा आज का उपभोक्तावादी समाज इस बात को लगभग भूल चुका है कि उसका जन्म आजादी की लड़ाई के दिनों के वीर सेनानियों की मृतात्माओं के संरक्षण में हुआ हैं। राजनीति एक आदर्श-शून्य, शुद्ध पेशेवरों का कमोबेस खानदानी धंधा बन चुकी है।

ऐसे सामान्य परिवेश में, अतीत के सारे कूड़ा-कर्कट को साफ कर देने की दहाड़ के साथ सत्तासीन होने वाले शूरवीर द्वारा अपनी सेवा के लिये मृतात्माओं का आह्वान किस बात का संकेत है ? क्या तूफान की गति से इतिहास का पथ बदल देने का दंभ भरने वालों में सिर्फ पांच महीनों में ही सहसा किसी मृतयुग में पहुंच जाने का अहसास पैदा होने लगा है? वैसे भी, हाल के उपचुनावों और राज्यों के चुनावों के बाद एक सिरे से सब यह कहने लगे हैं कि भाजपा की बढ़त के बावजूद मोदी लहर जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं रहा है। राजनीति के नाम पर वही सब प्रकार की जोड़-तोड़, सरकारें बनाने-बिगाड़ने की अनैतिक कवायदें, अपराधियों को हर प्रकार का संरक्षण देने की शर्मनाक कोशिशें, एक-दूसरे की टांग खिंचाई की साजिशाना हरकतें, सार्वजनिक धन को निजी हाथों में सौंप देने की राजाज्ञाएं, सीमाओं को लेकर थोथा गर्जन-तर्जन और विश्व पूंजीवाद के सरगना अमेरिका की चरण वंदना। यही तो है, एक शब्द में - राजनीति का मोदी-अमितशाहीकरण !

इसीलिये, स्वपन दासगुप्त जो भी कहे, अब इतना तो साफ है कि मोदी का सत्ता में आना किसी आकस्मिक हमले के जरिये बेखबरी की स्थिति में किसी को अपने कब्जे में ले लेना जैसा ही था। वैसा धुआंधार, एकतरफा प्रचार पहले किसी ने नहीं देखा था। अन्यथा, न भ्रष्टाचार-कदाचार में कोई फर्क आने वाला है, न तथाकथित नीतिगत पंगुता में। जब आंख मूंद कर पुराने ढर्रे पर ही चलना है तो क्या सजीवता, और क्या पंगुता ! इस पूरे उपक्रम में यदि कुछ बदलेगा तो, जैसा कि नाना प्रकार की खबरों से पता चल रहा है, पिछली सरकार द्वारा मजबूरन अपनाये गये गरीबी कम करने के कार्यक्रमों में कटौती होगी; भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों के हित में किये जारहे सुधारों को रोका जायेगा; और भारत में विदेशी पूंजी के अबाध विचरण का रास्ता साफ किया जायेगा। भारत सरकार गरीबों को दी जाने वाली तमाम प्रकार की रियायतों में कटौती करें, इसके लिये सारी दुनिया के  बाजारवादी अर्थशास्त्री लगातार दबाव डालते रहे हैं। इसीप्रकार भूमि अधिग्रहण के मामले में बढ़ रही दिक्कतों को खत्म करने और बैंकिंग तथा बीमा के क्षेत्र को विदेशी पूंजी के लिये पूरी तरह से खोल देने के लिये भी दबाव कम नहीं हैं। मनमोहन सिंह इन सबके पक्ष में थे, फिर भी विभिन्न राजनीतिक दबावों के कारण अपनी मर्जी का काम नहीं कर पा रहे थे। इसीलिये उनकी सरकार पर लगने वाले ‘नीतिगत पंगुता’ के सभी सच्चे-झूठे अभियोगों में ये सारे प्रसंग भी शामिल किये जाते थे। मोदी सरकार ने इसी ‘नीतिगत पंगुता’ से उबरने के लिये सबसे पहले गरीबी को कम करने वाली योजनाओं की समीक्षा करनी शुरू कर दी है। बीमा क्षेत्र को तो विदेशी पूंजी के लिये खोल ही दिया है, भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में भी पहले सर्वसम्मति से जो निर्णय लिये गये थे, उन सबको बदलने के बारे में विचार का सिलसिला शुरू हो गया है।

चन्द रोज पहले ही प्रकाशित हुई विश्व बैंक की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि सन् 2011 से 2013 के बीच दुनिया में गरीबी को दूर करने में भारत का योगदान सबसे अधिक (30 प्रतिशत) रहा है। खास तौर पर मनरेगा और बीपीएल कार्ड पर सस्ते में अनाज मुहैय्या कराने  की तरह के कार्यक्रमों ने सारी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। इन कार्यक्रमों के चलते भारत में मजदूरी के सामान्य स्तर में वृद्धि हुई है। लेकिन भारतीय उद्योग और मोदी सरकार भी सस्ते माल के उत्पादन की प्रतिद्वंद्विता में भारत को दुनिया के दूसरे देशों से आगे रखने के नाम पर मजूरी के स्तर को नियंत्रित रखना चाहती है। ‘श्रमेव जयते’ योजना, पूंजी और श्रम के बीच की टकराहट में सरकार की अंपायर की भूमिका के अंत की योजना, जिसकी घोषणा के दिन को खुद भाजपा के श्रमिक संगठन, भारतीय मजदूर संघ ने भारत के मजदूरों के लिये एक काला दिवस कहा, मोदी उसीकी शेखी बघारने में फूले नहीं समा रहे। हांक रहे हैं - ‘श्रमयोगी बनेगा राष्ट्रयोगी’।

इन सारी स्थितियों में, ‘कांग्रेस-विहीन’ भारत सिर्फ चमत्कारों पर विश्वास करने वाले कमजोर लोगों में ही किसी नये विश्वास का उद्रेक कर सकता है। भविष्य के उन कार्यक्रमों के गुणगान में, जिनकी उन्होंने अपने मन में योजनाएं बना रखी है, लेकिन उन पर असल में अमल की कोई मंशा या अवधारणा ही नहीं हैं, ये वर्तमान के यथार्थ के अवबोध को ही खो दे रहे हैं।

‘स्वच्छता अभियान’ का ही प्रसंग लिया जाए। साफ और स्वच्छ भारत के पूरे मसले को जनता के शुद्ध आत्मिक विषय में तब्दील करके पूरे मामले को सिर के बल खड़ कर दिया जा रहा है।

इन्हीं तमाम कारणों से वह समय दूर नहीं होगा, जब यह प्रमाणित करने के लिये इकट्ठे हुए लोग कि हम अयोग्य नहीं है, अपना बोरिया-बिस्तर समेटते हुए दिखाई देने लगेंगे - ‘जो आता है वह जाता है’ का बीतरागी गान करते हुए। स्वपन दासगुप्त मोदी-विरोधियों से मोदी की पिटाई के लिये नयी छड़ी खोजने की बात करते हैं। यह नहीं देखते कि जो पिटे हुए रास्ते पर चलने की पंगुता का शिकार हो, उसे पीटने के लिये किसी छड़ी की जरूरत ही नहीं होगी। मोदी शासन के प्रारंभ में ही उसके दुखांत के बीज छिपे हुए हैं।


मंगलवार, 21 अक्टूबर 2014

धन की उपासना का दीप-पर्व



अरुण माहेश्वरी

दीपावली - विजया दशमी के तकरीबन बीस दिन बाद राम की वापसी की इस अमावस्या की रात को अयोध्यावासियों ने दीयों की रोशनी से जगमग कर दिया  था। लेकिन राम की वापसी का उत्सव देखते ही देखते कैसे लक्ष्मी की पूजा के उत्सव में बदल गया, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। धन सुख-समृद्धि का पर्याय बन गया और लक्ष्मी प्रकाश का सबसे बड़ा स्रोत। धर्म जिसका दावा आदमी के आत्मिक उत्थान का होता है, भारत में उसका सबसे बड़ा उत्सव शुद्ध भौतिक विकास, धन-संपत्ति में वृद्धि का उत्सव है।

इस दीपपर्व के पहले दिन, धनतेरस पर अब तो एक ओर जहां धड़ल्ले से जूआ खेला जाता है, वहीं दूसरी ओर सोना-चांदी, बर्तन-बासन खरीदे जाते हैं। धन के ऐबों को भी इस धार्मिक उत्सव का अभिन्न अंग बना दिया गया है। अर्थात - रामराज्य का अर्थ है सुख और समृद्धि, सुख और समृद्धि का अर्थ है धन-संपत्ति और धन-संपत्ति से जुड़े हुए हैं -जूआ, मौज-मस्ती। इस पूरे उपक्रम में धर्म के आत्मिक उत्थान वाले किसी भी पक्ष का कोई स्थान नहीं है। फिर भी दिवाली हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा उत्सव है।

आज के ‘टेलिग्राफ’ में धनतेरस के मौके पर दुकानों में उमड़ पड़ी भीड़ की तस्वीरों के साथ एक बड़ी रिपोर्ट लोगों की खरीदारियों के ढर्रे को लेकर छपी है। गहनों की दुकानों के साथ ही अब महंगी उपभोक्ता सामग्रियों, जिनमें गाडि़यां भी शामिल हैं, की खरीद इस मौके पर काफी बढ़ गयी है। आसानी से किश्तों में भुगतान की सुविधाओं ने महंगे सामानों की बिक्री को बढ़ावा दिया है। धनतेरस पर सोना चांदी की खरीद का सिलसिला तो काफी वर्षों से चल रहा है। यह एक प्रकार से सामंती काल की धन को गाड़ कर सुरक्षित रखने की परंपरा की निरंतरता है।

यही वह गड़ा हुआ धन है जो सारी दुनिया में पूंजीवाद के आदिम संचय की प्रक्रिया का प्रथम स्रोत रहा है। मार्क्स के शब्दों में, ‘‘ चर्च की संपत्ति की लूट, राज्य के इलाकों पर धोखे-धड़ी से कब्जा कर लेना, सामूहिक भूमि की डाकाजनी, सामंती संपत्ति और कुलों के संपत्तिहरण और आतंकवादी तौर-तरीकों का अंधा-धुंध प्रयोग करके उसे आधुनिक ढंग की निजी संपत्ति में बदल देना - ये ही वे सुंदर तरीके हैं, जिनके जरिए आदिम संचय हुआ था।’’ भारत जैसे प्राचीन समाजों में तो ऐसे गड़े हुए धन का कोई पाराबार नहीं है। भारतीय पूंजीवाद का एक बड़ा हिस्सा आज तक इसी धन की लूट पर पल-बढ़ रहा है। भारत में आदिम संचय की  मार्क्स द्वारा वर्णित इस ‘सुंदर’ प्रक्रिया का अभी अंत नहीं हुआ है। अभी तो इसने ऐसा व्यापक सामाजिक-राजनीतिक संकट पैदा कर दिया है कि आज का सारा राजनीतिक विमर्श ही भ्रष्टाचार, अपराधीकरण, जमीन की लूट, नाना उपायों से परिवारों के संचित धन की लूट के संकट पर केंद्रित है। भ्रष्टाचार को चू-चू कर धन के बंटवारे के सिद्धांत (Trickle down theory) का एक मर्यादित उपाय मान लिया गया है। इसके साथ ही उपभोक्तावाद का योग, जैसा कि ऊपर बताया गया है, महंगी उपभोक्ता सामग्रियों को आदमी की लालसाओं का अभिन्न अंग बनाना, पूंजीवादी उत्पादन के जरिये संपत्ति के केन्द्रीकरण की प्रक्रिया का आत्मिक और भौतिक आधार भी तैयार करता है।

भारत के इस दीपपर्व पर, पूंजी के इस खेल को जितने समग्र और प्रकट रूप में देखा जा सकता है, वैसा दुनिया के दूसरे किसी भी उत्सव में शायद ही दिखाई देता हो। वस्तुत: यह धन की, अर्थात लक्ष्मी की पूजा का उत्सव है; रामचन्द्र जी की अयोध्या वापसी की खुशी सुदूर पृष्ठभूमि में चली गयी है। धर्म धन का जाप करा रहा है, और वही आत्मिक उत्थान का भी ठेकेदार बना हुआ है। यही हमारे समाज की खूबी है। धन का उपासक विश्व का ज्ञान-गुरू!

शनिवार, 18 अक्टूबर 2014

‘हैदर’ एक अविस्मरणीय फिल्म है



अरुण माहेश्वरी

पिछले रविवार के जनसत्ता में ‘हैदर’ फिल्म पर अपूर्वानंद की टिप्पणी पढ़ी - ‘नैतिक रूप से दुविधाग्रस्त’। तीन दिन पहले ही 9 अक्तूबर के जनसत्ता में इसी फिल्म पर हमारी टिप्पणी प्रकाशित हुई थी - ‘जख्मों की कहानी’ । अपनी टिप्पणी में हमने जिस फिल्म को हिंदी की एक एपिक फिल्म बताया, उसे ही अपूर्वानंद दर्शनशास्त्र के एक युवा अध्येता ऋत्विक अग्रवाल के हवाले से ‘लचर और बोरिंग मसाला फिल्म’, ‘लंबी खिंचने वाली’ फिल्म बता रहे थे। स्वाभाविक तौर पर हम सोच में पड़ गये कि आखिर मामला क्या है ?

हमने अपूर्वानंद की टिप्पणी को बहुत बारीकी से पढ़ना शुरू किया। जानने की कोशिश की कि आखिर फिल्म को लेकर उनकी ठोस आपत्तियां क्या और क्यों हैं ?

सबसे पहले तो हमने पाया कि वे फिल्म के बजाय पीवीआर के उस परिवेश से शुरू में ही उखड़ गये थे जिसमें बैठे मुट्ठी भर दर्शक बात बेबात पर सिर्फ हंसने और सिर्फ हंसने के लिये ही पंहुचे हुए थे। अपूर्वानंद पूरी फिल्म के दौरान फिल्म में ऐसे मौकों की तलाश में खोये रहे जब वह इन फूहड़, हंसी-ठठ्ठा में मतवाले दर्शकों को उनके इस आचरण पर शर्मींदा कर दें। लेकिन अफसोस कि फिल्म उनकी इस इच्छा को पूरा नहीं कर पायी। फिल्म इतनी दमदार नहीं निकली की उन कमबख्त हंसोड़ों को लज्जा से सिर झुका कर चुप बैठ जाने के लिये मजबूर करती! और इसप्रकार,  फिल्म की ‘लचरता’ का उनको पहला प्रमाण मिल गया। उनका गुस्सा सिर्फ ‘हैदर’ तक सीमित नहीं रहा, तमाम हिन्दी फिल्मों को उसने अपनी जद में ले लिया - ‘‘हिन्दी फिल्मों ने ऐसे ही दर्शक तैयार किये हैं’’! ‘हैदर’ भी एक हिन्दी फिल्म है इसलिये बुरे दर्शक तैयार करने के पाप का कुछ भागीदार तो उसे बनना ही पड़ेगा! अपूर्वानंद की नजर में हैदर जैसी फिल्मों का बड़ा दोष यह है कि ‘‘देखने के उसी प्रचलित तरीके में, बिना उसे विचलित किए वे (हैदर जैसी फिल्में) अपनी बात कहने की फांक खोज रही है।’’

अब अपूर्वानंद का दूसरा आरोप है - ‘‘एक चालू मुंबइया फिल्मी मुहावरे में गंभीरता का बाना पहन कर लचर कहानी कहने की दयनीय कोशिश।’’

‘लचर कहानी’! हम सब जानते हैं कि इस फिल्म की पटकथा शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ पर अवलंबित है। ‘हैमलेट’ क्या है? क्या यह सिर्फ राजमहलों में सिहांसन के लिये होने वाले षड़यंत्रों की एक राजनीतिक कहानी है। अगर सिर्फ इतना ही होता तो इसने दुनिया भर में न जाने कितने लेखकों, नाट्यकारों, फिल्मकारों, और साहित्य समीक्षकों को भी नये-नये संदर्भों में इसकी पुनर्रचना और चरित्रों की जटिलताओं से संबंधित नयी-नयी उद्भावनाओं से प्रेरित न किया होता। चौतरफा फैली धुंध में हैमलेट की दुविधाएं, उसके अंदर धधकती प्रतिशोध की ज्वाला और उसमें हर क्षण भस्म होते मानवीय संबधों की त्रासदी की कहानियां दुनिया भर के रचनाशील लोगों के लिये मनुष्य की त्रासदियों की गुत्थियों में प्रवेश के एक अकूत खजाने की तरह है। यह हैमलेट की निजी त्रासदी के साथ ही डेनमार्क राष्ट्र की त्रासदी की भी गाथा है।
हमारी राय में विशाल भारद्वाज ने इस फिल्म की पटकथा के आधार के तौर पर शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ का बिल्कुल सही चयन करके कश्मीर और उसके संत्रस्त राजनीतिक परिवेश के दबाव में हर दिन विकृत हो रहे मनुष्यों और मानवीय रिश्तों के त्रासद दुखांत की कहानी कही है। हमने उसे ‘‘राष्ट्रवादी उन्माद की राजनीति की भारी-भरकम चट्टानों के नीचे दबे जीवन के अंदर ईष्र्या, द्वेष, डर, आतंक, साजिशों, हत्याओं और लगातार हिंसा से विकृत हो रहे मानवीय रिश्तों का अत्यंत सुगठित आख्यान’’ कहा था। लेकिन इसके उल्टे, अपूर्वानंद की शिकायत है - भारद्वाज ने शेक्सपियर और कश्मीर जैसे दो भारी-भरकम शब्दों की सवारी का ‘पाप’ किया है!

इस फिल्म से अपूर्वानंद की तीसरी प्रमुख शिकायत है कि यह कलात्मक ईमानदारी से खाली फिल्म है क्योंकि इसमें कहीं-कहीं हास्य पैदा करने की ‘‘मुंबइया’’ हिमाकत की गयी है। शेक्सपियर या दुखांत नाटकों के पूरे इतिहास को देखिये, विदूषक नामक तत्व आपको हर जगह मिल जायेगा। विदूषक के जरिये आम तौर पर लेखक एक हास्यास्पद दार्शनिक लहजे में जीवन के यथार्थ की अपनी बहुत गहरी बातों को प्रेषित किया करता है। और, सिर्फ विदूषक ही नहीं, एक बेहद तनावपूर्ण, संगीन से वातावरण में यही भूमिका कई मासूम से दिखाई देने वाले पात्र भी अदा करते हैं। अर्थात, कठिन से कठिन समय में हंसना किसी गैर-ईमानदारी का सूचक नहीं हुआ करता। और जहां तक इस फिल्म में हैदर की प्रेमिका अर्शी का प्रश्न है, वह सचमुच हैमलेट की ओफ़ीलिया है। एक बेहद तनावपूर्ण, अशुभ संकेतों से भरे वातावरण में ओफ़ीलिया की मासूमियत खुद में एक हंसी का विषय ही थी, और उसी हद तक हैदर की अर्शी भी अपनी तमाम भंगिमाओं से एक संकटजनक परिस्थिति में अनायास ही हंसा देने की क्षमता रखती है।
अपूर्वानंद शिकायत करते हैं कि अर्शी ने पढ़-लिख कर अपनी ‘जुबान साफ’ क्यों नहीं की ! जैसे कोई शेक्सपियर से यह शिकायत करें कि हिंसा और प्रतिशोध के उस सहमे हुए परिवेश में राजमंत्री पोलोनियस की बेटी इतनी मासूम क्यों बनी रहीं, वह भी अन्यों की तरह परिपक्व क्यों नहीं हो गयी ! और, इसे शेक्सपियर की गैर-ईमानदारी का प्रमाण मानना होगा!

अपूर्वानंद की चौथी बात है - फिल्मी भाषा, उसका ‘लिरिकल’ होना - ‘प्रसून जोशी छाप’। इसपर शायद कुछ भी कहना नागवार होगा। कोरे अहंकार से भरी प्रगल्भित बौद्धिकता इसे ही कहते है।
आगे आती है, इस फिल्म के बारे में अपूर्वानंद की सबसे बड़ी शिकायत, जिससे उनकी टिप्पणी का ‘नैतिकता’ वाला शीर्षक भी बनता है। वे कहते हैं कि इस फिल्म में विशाल भारद्वाज को जिस एक चीज के लिये कभी माफ नहीं किया जा सकता, वह है - ‘स्त्री पात्रों का चरित्रांकन’। इस विषय पर नैतिक आवेश से भरा उनका लहजा कुछ वैसा ही है जैसे कोई किसी लेखक से इस बात पर क्रुद्ध हो कि उसने हिंदू पात्र का ऐसा चरित्रांकन क्यों किया; मुस्लिम पात्र को ऐसे क्यों पेश क्यों किया; ब्राह्मण का, यादव का या चमार के साथ ऐसा क्यों किया ! सांप्रदायिकता और जाति के पूर्वाग्रहों से मुक्त मानववादी अपूर्वानंद का इल्जाम हैं - स्त्रियों का चरित्रांकन ऐसा क्यों किया?

पात्रों को हमेशा प्रतिनिधि-रूप में देखने-समझने की यह एक बहुत ही पिटी-पिटाई समीक्षा दृष्टि है। इसी बीमारी ने न जाने दुनिया के कितने आलोचकों को रचनात्मक साहित्य के खलनायकों की श्रेणी में खड़ा कर दिया है। समाजवादी यथार्थवाद को तो इसी बीमारी ने असमय मौत के घाट उतार दिया। यह अपने प्रकार की एक ‘नैतिक पुलिसगिरी’ भी है जिसका रचनात्मक साहित्य से हमेशा छत्तीस का रिश्ता होता है। अपूर्वानंद कहते हैं - पति की हत्या होगयी और पत्नी देवर के साथ गाने सुन रही है! क्या गजब है! वे शायद नहीं जानते कि हैमलेट के चरित्र की जटिल संरचना में मां की बेवफाई की एक प्रमुख भूमिका थी।
इसीप्रकार, फिल्म की पूरी कहानी को अपने किसी इप्सित ढांचे में ढालने की इच्छा रखने वाले अपूर्वानंद जी शिकायत करते हैं - इसमें कश्मीर की स्त्रियों का राजनीतिकरण क्यों नहीं दिखाया गया है ? वही, हर चीज को, चरित्र हो या परिवेश या घटना, ‘प्रतिनिधिमूलक’ देखने की बीमारी! ऐसा लगता है मानो कश्मीर की अराजनीतिक स्त्रियों की कोई कहानी हो ही नहीं सकती!

अपूर्वानंद की टिप्पणी से एक बात साफ है कि वे यह तो जानते हैं कि ‘हैदर’ फिल्म ‘हैमलेट’ पर अवलंबित है, लेकिन यह नहीं जानते कि ‘हैमलेट’ क्या है। अन्यथा ऐसी फब्ती शायद पढ़ने को नहीं मिलती - ‘‘किसी भी अच्छी हिन्दी फिल्म की तरह इन दोनों औरतों को फिल्म के अंत में अपनी जान देकर प्रायश्चित करना होता है।’’

‘हैमलेट’ के दुखांत का सार तो यही है कि होने न होने की धुंध की परिस्थितियों में प्रतिशोध और षड़यंत्रों में लिपटी जिंदगियों के अंत में लाशों के ढेर के सिवाय कुछ नहीं बचता। शेक्सपियर का हैमलेट भी मर जाता है, भारद्वाज का हैदर कुहासे में लुप्त होता है। दोनों स्थितियों में, संकेत सर्वनाश का ही है।

अपूर्वानंद की टिप्पणी की बाकी बातें उनकी बगल में बात-बेबात हंसने वाले दर्शकों की उपस्थिति से खिन्न एक ‘बौद्धिक’ की असंलग्नता का परिणाम है। हमारी दिक्कत यह है कि हमने यह फिल्म कोलकाता के एक पीवीआर के खचाखच भरे हुए हॉल में सांस थामे हुए दर्शकों के गहरे सन्नाटे में देखी थी। हैमलेट नाटक को पढ़ते हुए हम जिसप्रकार उद्वेलित होते रहे हैं, इस फिल्म को देख कर वैसी ही उत्तेजना और आनंद का अनुभव हुआ। अपूर्वानंद की टिप्पणी की गहराइयों में जाने के बाद हमारी यह राय और पुख्ता हुई कि ‘हैदर’ हिन्दी की एक एपिक, अविस्मरणीय फिल्म है।

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014

‘श्रमेव जयते स्कीम’


आज प्रधानमंत्री ने बड़े ताम-जाम के साथ विज्ञान भवन से ‘दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते स्कीम’ की घोषणा की। प्रधानमंत्री ने अपने परिचित, थोथी बातों के भारी-भरकम अंदाज में कहा - ‘आने वाले समय में श्रमयोगी बनेगा राष्ट्रयोगी’। जिन योजनाओं के बारे में साफ तौर पर यह कहा जा रहा है कि इनके जरिये अब सारी दुनिया में ‘शेर दहाड़ेगा’, अर्थात् पूंजी को आकर्षित करने की प्रतिद्वंद्विता में भारत सबसे आगे रहेगा, उन्हीं दुनिया के पूंजीपतियों को लुभाने के लिये बनायी गयी श्रम सुधार की योजनाओं को श्रमिकों के कल्याण की योजना बताया जा रहा है।
एनडीटीवी पर प्राइम टाईम में आज बिल्कुल उचित इस स्कीम पर चर्चा हो रही थी। लेकिन, इस चर्चा की पहली सबसे दुखद बात यह रही कि इसके संयोजक महोदय ने चर्चा के शुरू में ही कह दिया कि वे इस विषय के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते हैं। टीवी चैनलों के संयोजक वैसे तो दुनिया के तमाम विषयों पर अपने को महाउस्ताद बताते हैं, लेकिन जब भारत के मजदूरों के जीवन से जुड़े सवाल हो, वे एकदम मासूम सी सूरत बना लेते हैं। एक ऐसे अहम विषय पर उनकी यह प्रकट दयनीयता, उनके विनय-भाव के प्रति किसी प्रकार की नम्रता के बजाय किसी भी भले आदमी को खिन्न करने के लिये काफी है। इसीसे जाहिर होता है कि भारत के यथार्थ को पेश करने का दंभ भरने वाले टेलिविजन चैनल श्रमजीवी जनता की समस्याओं के प्रति कैसी निष्ठुर उदासीनता पाले हुए हैं।
बहरहाल, इस चर्चा में श्रमिक पक्ष को रखने वाले ट्रेडयूनियन नेताओं ने, जिनमें भाजपा के भारतीय मजदूर संघ के प्रतिनिधि भी शामिल थे, इसी ‘कल्याणकारी स्कीम’ के संदर्भ में आज के दिन को भारत के मजदूरों के जीवन का एक काला दिन बताया। उन्होंने तथ्य दे-देकर इस बात को साबित किया कि पूरी स्कीम मोदी सरकार द्वारा बहु-राष्ट्रीय निगमों को श्रम कानूनों में तमाम रियायतें देने के आश्वासनों पर पूरी नंगई के साथ अमल करने की शुरूआत है। पूंजी और श्रम के विरोध के बीच सरकार की जो एक अंपायर की भूमिका होती है ताकि कोई श्रमिकों के साथ अन्याय न करने पाये, उस भूमिका को खत्म करने की यह एक शर्मनाक कोशिश है।
इस पूरी चर्चा में जोर देकर इस बात को रखा गया कि 1991 के बाद शुरू हुए भारत में आर्थिक उदारतावाद के दौर में संगठित क्षेत्र में मजदूरों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है। 1991 तक संगठित क्षेत्र के मजदूरों की संख्या जहां कुल श्रम शक्ति की 8 प्रतिशत थी, वह अब और भी कम होकर सिर्फ 6 प्रतिशत रह गयी है। इन दिनों हर उद्योग में ठेके पर मजदूरों को रखने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। ठेके पर रखे गये मजदूरों की नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं होती। हर 11 महीने पर उन्हें नये सिरे से भर्ती किया जाता है, ताकि श्रम कानूनों की चपेट से बचा जा सके। और आमदनी ? संगठित और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के बीच आमदनी के फर्क को बताते हुए इसी चर्चा में यह तथ्य सामने आया कि मारुति के कारखाने में ठेके पर काम करने वाले मजदूरों को जो तनख्वाह मिलती है उसकी तुलना में वहां के स्थायी मजदूरों की तनख्वाह दस गुना ज्यादा है।
मजदूर वर्ग के जीवन पर कहर बरपाने वाली आर्थिक उदारतावाद की आंधी को और भी विध्वंसक बनाने के लिये श्रम कानूनों को सरल बनाने के नाम पर यह सरकार जो तमाम कदम उठा रही है, बड़ी शान के साथ श्रमेव जयते स्कीम के नाम से उन्हीं की शेखी बघारी जा रही है। इसके साथ दीनदयाल उपाध्याय का नाम जोड़ा गया है। तथाकथित ‘एकात्म मानववाद’ के प्रवर्त्तक, संघ परिवारियों के लिये एक ‘प्रात:-स्मरणीय’ नाम। ऐसी बदनीयती से भरी योजनाओं के साथ उनके नाम को जोड़ कर मोदी सरकार ने उन्हें भी सदा के लिये कलंकित करने का काम किया है।

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2014

‘इजारेदारी समाज के लिये एक बुराई है’ - अपने शोधकार्यों से इस सच को साबित करने वाले फ्रांसीसी अर्थशास्त्री ज्यां तिरोल को 2014 का अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार


-अरुण माहेश्वरी


इस साल के नोबेल पुरस्कार पाने वालों में फिर एक बार फ्रांस - साहित्य में पैट्रिक मोदियानो के बाद अब अर्थशास्त्र में फ्रांसीसी अर्थशास्त्री ज्यां तिरोल। आर्थिक विषय पर जिस फ्रांस के थामस पिकेटी की हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘कैपिटल इन द ट्वंटीएथ सेंचुरी’ को इस साल की एक बेस्टसेलर माना जाता है, उसीके ज्यां तिरोल को यह साबित करने के लिये कि औद्योगिक इजारेदारी एक सामाजिक बुराई है और इसपर नियंत्रण करना अर्थ-व्यवस्था और समाज, दोनों के हित में है - नोबेल पुरस्कार का मिलना आज के बाजारवाद के युग में खुद में एक बहुत अर्थपूर्ण घटना है।

बाजार अर्थ-व्यवस्था में उठे 2008-2010 के तूफान की धूल अब जम चुकी है। पूंजी का केंद्रीकरण, उत्पादन के क्षेत्रों में बढ़ती हुई बेइंतहा इजारेदारी और बैंकों और ऋणों के खेलों के विध्वंसक परिणामों की एक सूरत सारी दुनिया देख चुकी है। अब जरूरत है, जीवन के इन भयावह अनुभवों की ठंडे दिलो-दिमाग से समीक्षा करने की, उससे शिक्षा लेने की और सरकारों की आगे की नीतियों को नये सिरे से ढालने की ताकि इजारेदार घरानों और बैंकों की मिलीभगत से तैयार होने वाले अर्थनीति के क्षेत्र के हिंस्र पशुओं को काबू में रखा जा सके, समाज को इनके जानलेवा हमलों से बचाया जा सके।

ज्यां तिरोल को 2014 के अर्थशास्त्र के क्षेत्र के नोबेल पुरस्कार की घोषणा करते हुए रॉयल स्वीडिश सोसाइटी ऑफ साइंसेज ने अपने बयान में तिरोल को आज के समय का एक अत्यंत प्रभावशाली अर्थशास्त्री बताते हुए कहा है कि उन्होंने उद्योगों के क्षेत्र में इजारेदारी (monopoly) के सामाजिक-आर्थिक परिणामों पर शोध करके यह प्रमाणित किया है कि कैसे इजारेदारी समाज के लिये बेहद नुकसानदेह होती है। उनके शोध का यह साफ निष्कर्ष है कि यदि उद्योगों पर मुट्ठी भर लोगों का कब्जा रहता है और उनपर अंकुश नहीं लगाया जाता है तो उससे तैयार होने वाले बाजार से समाज के लिये अवांछित परिणाम देखने को मिलते हैं। मालों की कीमतों का उनपर आने वाली लागत से संबंध टूट जाता है, समाज से लागत से बहुत ज्यादा कीमतें वसूली जाती है और बहुतेरी अनुत्पादक कंपनियां नाना उपायों से अपने क्षेत्र में नये लोगों के प्रवेश को रोक कर अपना प्रभुत्व बनाये रखती है, उत्पादनशीलता में वृद्धि के रास्ते की बाधा बनती है।

जो लोग यह मान कर बैठे हुए हैं कि तथाकथित मुक्त बाजार अर्थ-व्यवस्था में कीमतों को तय करने के मामले में बाजार की भूमिका निर्णायक होती है, तिरोल के शोध ऐसे बाजार-पूजकों के विश्वासों को एक सिरे से खारिज करते हैं। तिरोल ने अपने शोधों के जरिये इजारेदारी पर रोक लगाने के लिये सरकारों पर सभी प्रकार के औद्योगिक विलयनों और अधिग्रहणों (mergers and acquisitions) पर कड़ी नजर रखने और उनका नियमन करने के उपाय बताये हैं। उन्होंने बताया है कि इस मामले में आम तौर पर सरकारें मालों की अधिकतम कीमत (capping) निश्चित करने और प्रतिद्वंद्वियों के बीच कोई आपसी सांठ-गांठ न होने पाये, उसे देखने के कुछ साधारण नीतिगत नियमों की चर्चा किया करती है। इसके साथ ही किसी भी माल के उत्पादन की पूरी श्रंखला में पड़ने वाली कंपनियों के बीच आपसी सहयोग की बात भी करती है। लेकिन तिरोल का कहना है कि ये सारी बाते कुछ खास परिस्थितियों में ही कारगर साबित होती हैं। सच कहा जाए तो इनसे फायदे से कहीं ज्यादा नुकसान होता है। माल की अधिकतम कीमत तय कर देने से वर्चस्वशाली कंपनियां कुछ सख्त रास्ते अपना कर अपनी लागत को कम कर लेती है, जो समाज के लिये एक अच्छी बात है। लेकिन इससे कंपनी को प्रकारांतर से अधिकतम मुनाफा करने की अनुमति भी मिल जाती है जो समाज के लिये हानिकारक है। बाजार में कीमतों को आपस में मिल-जुलकर या किसी प्रकार की सांठ-गांठ करके तय कर लेना सामान्य तौर पर ही एक बुरी प्रणाली है। जबकि पेटेंटों के मामले में यदि इसीप्रकार का आपसी सहयोग किया जाएं कि किसी भी पेटंट का सामूहिक रूप से इस्तेमाल किया जा सकता है तो वह समाज के लिये लाभदायी होता है। किसी भी कंपनी/फर्म और उसके आपूर्तिकर्ताओं(suppliers) का विलय कुछ नयी खोजों के लिये प्रेरक बन सकता है लेकिन यह बाजार में प्रतिद्वंद्विता को विकृत भी कर सकता है।

इन्हीं तमाम बातों के आधार पर तिरोल का कहना है कि उद्योगों की खास-खास परिस्थितियों को मद्देनजर रखते हुए सावधानी के साथ उपयुक्त नियमों और प्रतिद्वंद्विता की नीतियां बनायी जानी चाहिए। तिरोल ने अपने लेखों और पुस्तकों के जरिये ऐसी नीतियों को तैयार करने का एक आम ढांचा भी पेश किया है और उन्हें दूरसंचार, बैंकिंग की तरह के कई उद्योगों पर लागू करके दिखाया हैं। इनसे सीख कर सरकारें शक्तिशाली इजारेदाराना कंपनियों को ज्यादा उत्पादनशील बनाने और साथ ही बाजार में प्रतिद्वंद्विता और ग्राहकों को नुकसान पंहुचाने से रोकने की नियामक नीतियां तैयार कर सकती हैं। तिरोल के कामों का सबसे अधिक महत्व इसी बात में है कि उनका सीधा संबंध अर्थव्यवस्था के चालू नीतिगत पक्षों के व्यवहारिक पहलुओं से जुड़ा हुआ है। आम तौर पर इन्हीं पक्षों पर अक्सर क्रांतिकारी विचारों की ताकतों में एक प्रकार की पंगुता दिखाई दिया करती हैं क्योंकि वे उपलब्ध परिस्थितियों में ‘क्रांति’ से भिन्न कुछ भी नया करने में खुद को असमर्थ पाती हैं।
 

सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

फिल्म ‘हैदर’ पर



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-अरुण माहेश्वरी



आज सचमुच हिन्दी की एक एपिक राजनीतिक फिल्म देखी - हैदर। राजनीतिक यथार्थ और व्यक्तिगत त्रासदियों के अंतरसंबंधों की जटिलताओं की एक अनोखी कहानी। हिन्दी फिल्मों की हदों के बारे हमारी अवधारणा को पूरी तरह से धराशायी करती एक जबर्दस्त कृति। राष्ट्रवादी उन्माद की राजनीति की भारी-भरकम चट्टानों के नीचे दबे जीवन के अंदर ईष्‍​र्या, द्वेष, डर, आतंक, साजिशों, हत्याओं और लगातार हिंसा से विकृत हो रहे मानवीय रिश्तों का ऐसा सुगठित आख्यान, हिन्दी फिल्मों की मुख्यधारा में मुमकिन है, हम सोच नहीं सकते थे। ‘हैमलेट’ का अवलंब और कश्मीर की अंतहीन त्रासदी  - मानवीय त्रासदी के महाख्यान को रचने का शायद इससे सुंदर दूसरा कोई मेल नहीं हो सकता था। विशाल भारद्वाज की इस फिल्म को देखकर तो कम से कम ऐसा ही लगता है।

जब हम यह फिल्म देखने गये, उसके पहले ही सुन रखा था कि यह शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ पर अवलंबित एक कश्मीरी नौजवान की कहानी है। हैमलेट और कश्मीर का नौजवान - इन दोनों के बारे में सोच-सोच कर ही काफी रोमांचित था। कितना सादृश्य है दोनों में! कश्मीर खुद ही हैमलेट से किस मायने में कम है ! अपनी दुविधाओं में, प्रतिशोध की धधकती आग, षड़यंत्रों और अतार्किक हिंसा में, महाविनाशकारी त्रासद दुखांत में!

‘हैमलेट’ में क्लाडियस अपने भाई, हैमलेट के पिता की हत्या करके डेनमार्क का राजा बनता है और हैमलेट की मां उसके चाचा की रानी। राज-दरबार में मौत का शोक और शादी का उत्सव - दोनों साथ-साथ होते हैं। अति-संवेदनशील और कुशाग्र हैमलेट यह सब देख कर बदहवास है। क्लाडियस उसे समझाता है - जीवन-मृत्यु तो शाश्वत सत्य है। ‘‘यही होना था - व्यर्थ शोक को मिट्टी में फेंको।’’ तुम्हारे आगे सारा जीवन पड़ा है। शोक से निकलो, तुम्हें धरती के सारे सुख दूंगा। लेकिन हैमलेट ! ‘‘मेरे भीतर जो चल रहा है, वह मातम के दिखावे से परे है।...काश यह पत्थर जिस्म पिघल सकता और ढल जाता ओस की एक बूंद जैसा, या फिर उस अविनाशी ने आत्मघात की मनाही न की होती।’’

पिता की प्रेतात्मा ने हैमलेट को बता दिया था कि उसकी हत्या क्लाडियस ने ही की थी और हैमलेट को इसका बदला लेना है। राजा का मिथ्याचार, मां की कमजोरियां और पोलोनियस जैसे राज्याधिकारियों की राजा के प्रति अंध निष्ठा - इन सबको देख कर प्रतिशोध की आग और आत्मघात की गहरी घुटन से भरा बेचैन और दुविधाग्रस्त हैमलेट पिता की हत्या के दृश्य को नाटक के रूप में पेश करके क्लाडियस को बेनकाब करता है। हैमलेट क्लाडियस को मार डालने की फिराक में और क्लाडियस हैमलेट को। मौका पाकर भी अपने संस्कारों के कारण हैमलेट प्रार्थना कर रहे क्लाडियस को मार कर स्वर्ग में नहीं भेजना चाहता, चूक जाता है। अंत में, पोलोनियस के बेटे लेयर्टीज के साथ तलवारबाजी में जहर बुझी तलवार और जहरीली शराब से क्लाडियस, रानी, हैमलेट सब मारे जाते हैं। पीछे छूट जाते हैं - लाशों का ढेर और उनकी कहानियां। मरते वक्त भी अविश्वास से भरा हुआ हैमलेट होरेशियो से फरियाद करता है, ‘‘ अगर तूने कभी मुझको अपने दिल में जगह दी हो तो छोड़ दे अपनी खुशी थोड़ी देर के लिए और इस जालिम दुनिया में अपनी दर्द की सांसे गिनता हुआ मेरी कहानी कहने के लिए जिन्दा रह।’’

‘हैमलेट’ की इस कथा के संदर्भ में कश्मीर की कहानी की कल्पना कर रहा था। वहां जितने प्रकट मिथ्याचार, प्रतिशोध, साजिश, हत्या और अन्तहीन हिंसा के रूप में शासन और राजनीति के नाम पर जो सबकुछ चलता रहा है और आज भी चल रहा है, उसका अंत ऐसी ही विभत्स विध्वंसक त्रासदियों के अलावा और किसी में नहीं हो सकता। सोच रहा था क्या विशाल भारद्वाज में इतना साहस और शक्ति है कि कश्मीर में हर रोज रची जारही इन त्रासदियों की पीछे छूट रही कथाओं को फिल्म में उतार पायेंगे? कश्मीर की पृष्ठभूमि पर पहले भी कई फिल्में बन चुकी हैं। इसीलिये कब कोई फिल्म मुख्यधारा की फिल्म के अपने तर्क पर चलने लगेगी और सब मटियामेट हो जायेगा, इसका खतरा हमेशा बना हुआ था।

लेकिन यह देखकर बेहद सुखद आश्चर्य हुआ कि विशाल भारद्वाज ने हैमलेट और कश्मीर के जख्मों की कहानी, दोनों का ही इस फिल्म में बखूबी निर्वाह किया है। शेक्सपियर के नाटक हमेशा से उनके प्रिय विषय रहे हैं। इसके पहले ‘मैकबेथ’ पर ‘मकबूल’ और ‘ओथेलो’ पर ‘ओमकारा’ बना चुके हैं। हमने वे दोनों फिल्में ही नहीं देखी, इसलिये उनपर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता। वैसे अखबारों में उनकी भी काफी प्रशंसा पढ़ी थी। लेकिन ‘हैमलेट’ एक ऐसा विषय है, जिसके सारी दुनिया में न जाने कितने फिल्म और नाट्य रूपांतरण हुए होंगे। हैमलेट का ‘होने, न होने’ की दुविधाओं में फंसे, प्रतिशोध के नर्क की आग में जलते चरित्र का आकर्षण कभी खत्म नहीं हो सकता। ‘हैमलेट’ नाटक भी कोई व्यक्तिगत त्रासदी मात्र नहीं था। उसके साथ अविभाज्य तौर पर तख्तो-ताज का सवाल, राजनीति का सवाल, डेनमार्क का सवाल जुड़ा हुआ था। ‘हैदर’ की भी विशेषता यह है कि इसमें सिर्फ चरित्र नहीं, पूरा परिवेश ही ‘हैमलेट’ की त्रासदी की कहानी बयान कर रहा है। इसीलिये हम समझते हैं कि यह जरूर ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ से कुछ अलग है।
शाहिद कपूर और तब्बू के असाधारण अभिनय, पंकज कुमार की सिनेमेटोग्राफी ने इसे फिल्मांकन के उच्चतम अन्तरराष्ट्रीय मानकों के समकक्ष ला दिया है। विशाल भारद्वाज सचमुच साधुवाद के पात्र है। भारतीय फिल्म के इतिहास में ‘हैदर’ को मैं एक महत्वपूर्ण योगदान मानूंगा।