गुरुवार, 23 फ़रवरी 2017

संकट में नागरिक की निजता : एक सोच


-अरुण माहेश्वरी

एक काल था जब वामपंथ समाज के कुलीन तबक़ों के खिलाफ आम लोगों की भावनाओं को आकर्षित करता था ।

सारी दुनिया में नागरिक चेतना कुलीनता का प्रतीक है और अभी दक्षिणपंथ उसके खिलाफ भीड़ की भावना को आकर्षित करने में सफल हो रहा है ।

इसके कारणों की तह में जाने की ज़रूरत है ।

विज्ञान और तकनीक की उन्नति का अभी एक ऐसा दौर चल रहा है जब काम के लिये आदमी की उपयोगिता कम हो रही है । तकनीक के विकास से दुनिया में सामाजिक सुरक्षा के लाभ किसी न किसी प्रकार से समाज के अधिकतम तबक़ों तक पहुँचने लगे हैं । चिकित्सा, खाद्य, शिक्षा और आवास की सुविधा का भी सारी दुनिया में आबादी में वृद्धि की तुलना में तेज़ी से विस्तार हुआ है ।

पहले जब आदमी के जीवन में अपेक्षाकृत कम आपाधापी थी, कुंडलियाँ मिला कर परिवारों में शादियाँ तय होती थी, मुहूर्त देख कर लोग घरों से निकलते थे, खान-पान के साथ धार्मिक विश्वास जुड़े होते थे और संतानोत्पत्ति तक को ईश्वर की देन माना जाता था । व्यक्ति का अपना कुछ नहीं था । सोचने-विचारने वाले स्वतंत्र जनों के संत-दार्शनिक नामक अलग-थलग समुदाय होते थे ।

विज्ञान ने मनुष्य जीवन के नियंता इन सामूहिक विश्वासों को चुनौती देना सिखाया और आम मनुष्यों के निजी व्यक्तित्व को, नागरिकता की चेतना को प्रतिष्ठित करने का आधार प्रदान किया ।

अब पुन: तेज़ी के साथ कुंडलियों का स्थान अखबारी विज्ञापनों और व्यक्ति की आमदनी के ब्यौरों तथा मेडिकल रिपोर्टों ने लेना शुरू कर दिया है क्योंकि प्रेम के लिये आदमी के पास समय की कमी है । यात्राएँ मौसम की गूगल भविष्यवाणियों से तय होने लगी हैं ; खान-पान भी छोटी-मोटी बीमारियों के आधार पर डाक्टरी नुस्ख़ों से निर्धारित हो रहा है । संतानोत्पत्ति में डाक्टरी तकनीक की भूमिका बढ़ती जा रही है ।

सर्वोपरि, पहले का आदमी जिस प्रकार धार्मिक कर्मकांडों की अ-यथार्थ दुनिया में अपना अधिक से अधिक समय बिताता था, वह अब टेलिविजन और मनोरंजन के दूसरे आभासी संसार में ज्यादा समय बिताता है ।

कह सकते हैं कि वैज्ञानिक विश्वासों के इस युग में पुन: व्यक्ति की निजता संकट के सम्मुखीन हो रही है । व्यक्ति की निजता का सीधा संबंध उसकी ख़ास, कुलीन कही जा सके, मानसिकता से होता है । धर्म के युग में विज्ञान ने व्यक्ति की प्रतिष्ठा की और इस विज्ञान के विश्वासों के युग में जहाँ भी संभव हो, शुद्ध भीड़ की आक्रामकता से निजता का हनन हो रहा है । जबकि और आगे के लिये तो एकल परिवार नहीं, बल्कि अकेले सामाजिक मनुष्य की अस्मिता के ठोस चित्र दिखाई दे रहे हैं ।

इसी तरह प्रगति की ओर उठा हुआ हर कदम आगे की ओर उठे दूसरे कदम में पीछे का कदम साबित होने लगता है । दुनिया में हिटलर की संततियों के नये उभार से कुछ इस प्रकार के पाठ भी पढ़े जा सकते हैं । नागरिक देवी प्रसाद मिश्र की पिटाई भी ऐसी ही कुछ बात कहती सी लगती है । 

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