सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

वैलेंटाइन डे के अवसर पर सभी मित्रों को हार्दिक प्रेम के साथ रवीन्द्रनाथ की चंद उक्तियों का उपहार :

 -अरुण माहेश्वरी




आज प्रेम के अन्तरराष्ट्रीय महोत्सव ‘वैलेंटाइन डे’ के अवसर पर हम यहां हमारे कवि गुरू रवीन्द्रनाथ की प्रेम के बारे में चंद उक्तियों को दे रहे हैं। प्रेम क्या है, इसमें उपहारों का अर्थ क्या है, इसके अभाव में आदमी में सिवाय विद्वेष के कुछ नहीं रहता। देखिये रवीन्द्रनाथ के शब्दों में -

‘‘संबंध पूर्णता पाता है प्रेम द्वारा ही। प्रेम में भेद-भाव नहीं रहता और उस पूर्णता को पाकर मानव-आत्मा अपना चरम लक्ष्य पा लेती है; तब-तब वह अपनी सीमाओ को पार करके असीम को स्पर्श करने लगता है। प्रेम ही मनुष्य को यह ज्ञान देता है कि वह अपनी सीमाओं से बाहर भी है और यह कि वह विश्व की आत्मा का भाग है।’’

‘‘जिसे भी हम प्रेम करते हैं उसमें अपनी आत्मा का रूप देखते हैं। ...अपने से बाहर आत्मीयता की तलाश का यह पहला कदम होता है।...अहंभाव का झूठा अभिमान आत्मा के पूर्ण विकास में रुकावट डालता है।’’

‘‘जब मनुष्य की आत्मा अपने ‘अहं’ के पर्दे को उतार कर अपने प्रेमी प्रभु के सम्मुख आती है तो वह विधाता को नई-नई रचनाओं में लीन पाती है। उसका प्रेमी कलाकार है। अपनी काल में वह नए-नए रूपों में स्वयं प्रकट होता है, और हर रूप में उसका सौंदर्य बढ़ता जाता है। हमारी प्रेमी आत्मा इस नित्य नए रूप् को मुग्ध भाव से देखती रहती है।’’
(उपरोक्त सारी उद्धृतियां रवीन्द्रनाथ के लेख ‘आत्म बोध से हैं।)


‘‘जब फूल मनुष्य के हृदय को मोह लेता है तो उसका उपयोगितामय जीवन विलासी जीवन में बदल जाता है। वही फूल जो असीम कार्य-व्यग्रता की मूर्ति था, अब सौंदर्य और शांति की मूर्ति बनता है।’’

‘‘फूल भी हमारे महान प्रेमी का यही संदेश लेकर आता है।...फूल हमारे प्रभु का संदेश लेकर आता है और हमारे कानों में धीरे से कहता है, ‘मैं आ गया हूं। उसने भेजा है। मैं उस सौंदर्य-देवता का दूत हूं जिसकी आत्मा प्रेम से पूर्ण है। वह तुम्हें भूला नहीं है, जल्दी ही लेने आएगा। स्वर्ण-नगरी के ये मायाजाल तुम्हें देर तक अपने बंधनों में नहीं रख सकेंगे।

‘‘सचमुच वह सुुंदर होता है। यही तो हमारें प्रेम की निशानी है। तब हमारे सब संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। केवल उस मधुर स्मृति-चिन्ह का स्पर्श हमें दिव्य प्रेम से विभोर कर देता है। हमें साफ अनुभव होने लगता है कि इस स्वर्ण-नगरी में हमारे लिए कोई आकर्षण नहीं, हमारा घर इससे दूर, बहुत दूर है।’’

‘‘यह आनंद - जिसका दूसरा नाम प्रेम भी है - स्वभाव से ही द्वित्वमय है। प्रत्येक कलाकार द्वित्वमय होता है। गायक गीत गाते हुए श्रोता भी होता है। श्रोताओं में भी उसका यह अंश विस्तीर्ण होता है। प्रेमी अपनी प्रिय वस्तु में अपनी ही छाया देखता है।’’

‘‘प्रेम का अभाव भी एक मात्रा में विद्वेष का ही एक रूप है, क्योंकि प्रेम चेतना का पूर्ण रूप है। प्रत्येक वस्तु का, जो भी अस्तित्व रखती है, प्रयोजन प्रेम में ही पूरा होता है। अत:, प्रेम केवल एक भावना नहीं है, वह सत्य है ; यह वह आनंद है जो प्रत्येक वस्तु के निर्माण का मूल स्रोत है।’’

‘‘प्रेम में लाभ-हानि एकसम हो जाते हैं। इसके मूल्यांकन में आय और व्यय के अंक एक ही स्तंभ में लिखे जाते हैं। उपहारों की गणना लाभ के साथ होती है। सृष्टि के इस आश्चर्यजनक उत्सव में, आत्मदान के इस ईश्वरीय महायज्ञ में, प्रेमी को निरंतर आत्माहुति देनी पड़ती है। इस आत्मदान से ही वह प्रेम पाता है। प्रेम ही ऐसा यज्ञ है जिसने आदान और प्रदान समवाई भाव से संबद्ध हैं।’’

(उपरोक्त उद्धृतियां रवीन्द्रनाथ के लेख ‘प्रेम-साधना से प्रभु-प्राप्ति तक’ से हैं)





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें