मोदी-शाह-आदित्यनाथ सबको इतना डराते क्यों है ?
-अरुण माहेश्वरी
मोदी-शाह और उनके तमाम लोगों के चुनावी भाषणों पर ग़ौर कीजिए, उनका अधिक से अधिक ज़ोर लोगों में अपनी वर्तमान स्थिति के प्रति एक भयंकर डर पैदा करने का होता है । देश के प्रधानमंत्री होने के बावजूद मोदी जी जहाँ जाते है, उस जगह के हालात का ऐसा भयानक चित्र पेश करते हैं जैसे आदमी सिर्फ और सिर्फ चोरों, उचक्कों, गुंडों, बदमाशों, बलात्कारियों और हत्यारों से घिरा हुआ है । हिंदुओं में ये ऐसा ख़ौफ़ पैदा करेंगे कि बस अब वे अपने घरों में चंद दिनों के ही मेहमान हैं । वे दिन दूर नहीं जब सबक़ों पलायन करना होगा । पलायन करके लोग कहाँ जायेंगे, इस पर ये सब चुप्पी साधे रहते हैं । नवयुवतियों के लिये उनका एक ही संदेश रहता है, या तो बलात्कार के लिये तैयार रहो या किसी विधर्मी के झाँसे के लिये ।
ऊपर से ये इसमें नोटबंदी का डर, आयकर वालों का डर, पुलिस और सेना का डर जोड़ कर एक पूरी तरह से संत्रस्त राष्ट्र का ऐसा मंज़र तैयार कर रहे हैं जिसमें चारों ओर सिर्फ भयभीत आदमी के जमावड़े दिखाई दें और मोदी नामक मसीहा इन डरे हुए लोगों के हुजूम को चीख़-चीख़ कर सांत्वना दें । सेना प्रमुख भी कश्मीर में किसी को भी राष्ट्र-द्रोही घोषित करके उसे दंडित करने का अधिकार को डरावने ढंग से अपने हाथ में लेने की बात कह रहे हैं ।
कोई राजनीति नहीं, कोई विचारधारा नहीं । डर के आधार पर लोगों को इकट्ठा करो और उन्हें अपनी रक्षा के लिये किसी माफ़िया सरदार की शरण में डाल दो !
मोदी जी कहते है, देखों, गुजरात को, 2002 के नायकों ने वहाँ कैसी शांति बना रखी है ! देखो मध्य प्रदेश को व्यापमं के हत्यारे भ्रष्टाचारियों ने आईएसआई वालों का जाल बिछवा कर कैसा महान शासन क़ायम किया है । देखो राजस्थान को, राजा-रजवाड़ों की परंपरा को ज़िंदा करके वहाँ कैसा जनतंत्र क़ायम किया गया है ! महाराष्ट्र में तो अभिव्यक्ति की आजादी का ऐसा राज चल रहा है जिसमें मुख्यमंत्री और शिवसेना प्रमुख खुल कर एक दूसरे की धन-संपत्ति के बारे में सवाल उठा रहे है ! इनकी ये सभी नोटबंदी की तरह की नायाब कीर्तियां ! हमारी शरण में आए, चुटकियों से भ्रष्टाचार, काला धन और माफ़ियाओं से मुक्ति दिला देंगे !
सचमुच, क्या मायने है विचारधारा-विहीन शुद्ध डर की इस राजनीति का ? जब राजनीति के पास कोई भविष्य दृष्टि नहीं होती, कोई आदर्श या बड़ा लक्ष्य नहीं होता तो सिवा सत्ता और प्रशासन के राजनीति के पास शेष क्या रह जाता है ? और ऐसे में जिसे राजनीति का रोमांच कहते हैं, लोगों को अंदर तक प्रभावित करने वाला तत्व, उसे पैदा करने का इनके पास एक ही तरीक़ा बचता है - लोगों को डराओ, उन्हें आतंकित करो ताकि आदर्शों की धुन में खोने के बजाय मारे डर के लोग अपना होश खो बैठे । एक नागरिक को प्रशासन के इशारों पर चलने वाले आत्मशून्य मनुष्य रूपी जीवों में तब्दील करने वाली अराजनीति की राजनीति । मानो शारीरिक तौर पर जीवित रहने के अलावा आदमी के जीने का दूसरा कोई मकसद ही न होता हो !
कहना न होगा, जब आप मानवीय संवेदनाओं से शून्य होंगे, जब आपमें कमज़ोर आदमी के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होगी तो आप आसानी से राज्य द्वारा दी जाने वाली किसी भी यंत्रणा या यातना के समर्थक बन जायेंगे । आप सहर्ष फासीवाद की कामना करने वाले भक्तों की फ़ौज में एक रंगरूट के तौर पर शामिल हो जायेंगे ।
वैसे भी राजसत्ता के प्रति वफ़ादारी में हमेशा सत्ता के दमनकारी कामों, युद्ध आदि में विध्वंस और सामूहिक हत्या की उसकी भूमिका के प्रति एक प्रकार की सहमति का तत्व निहित होता है । लेकिन एक संत्रस्त और संवेदनहीन आदमी में तो साजिशाना ढंग से की जाने वाली व्यक्ति हत्याओं के प्रति भी कोई चिंता-उत्कंठा शेष नहीं रहती है । राज्य के द्वारा दी जाने यातनाओं के जघन्य इतिहास में ऐसी दवाओं की खोज का जिक्र मिलता है जो आदमी की धड़कनों को बढ़ा कर उसे एक प्रकार की स्थाई बेचैनी में डाल देती है । ऊपर से भला-चंगा दिखने वाला आदमी अंदर से बुरी तरह घबड़ाया हुआ, डर से कांपता हुआ आदमी होता है ।
मोदी जी ने यूपी के चुनाव में एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया । गुजरात में रहते वक़्त भी उनको यह कहते सुना गया था कि सरकार से आप अपने लिये सुविधाएं जरूर लें, लेकिन हमसे सटने की कोई कोशिश न करें । संघ का लव जेहाद आदि का सारा अभियान भी अंतर-धार्मिक संबंधों से लोगों को दूर रखने का ही अभियान है ।
सवाल उठता है कि ऐसा क्यों ? ऐसा सिर्फ इसलिये क्योंकि जिसके बारे में आप जितना ज्यादा जानेंगे, उतना ही कम आप उससे नफरत कर पायेंगे ; और जितना कम जानेंगे, उतना ज्यादा आप उसके दुख-दर्दों के प्रति उदासीन रह पायेंगे । साहित्य इसीलिये अपनी प्रकृति से प्रगतिशील होता है क्योंकि वह पाठक को दुनिया-ज़हां के लोगों के जीवन की कथाओं से परिचित कराके उसमें अन्यों के प्रति संवेदनशीलता पैदा करता है ।
इस पूरी चर्चा के संदर्भ में साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों के खिलाफ मोदी जी के अभियान से शुरू करके, सोशल मीडिया पर ट्रौलर्स की फ़ौज को उतारने और हर जगह इनके द्वारा पैदा किये जाने वाले डर और आतंक के माहौल के अभियानों के पीछे की सचाई को आसानी से समझा जा सकता है । आज डराना ही इनकी राजनीति है, इनकी विचारधारा और इनका आदर्श है । ये किसी महान राष्ट्र के नहीं, सिर्फ डरे हुए, संत्रस्त और दब्बू राष्ट्र के ही निर्माता हो सकते हैं ।
-अरुण माहेश्वरी
मोदी-शाह और उनके तमाम लोगों के चुनावी भाषणों पर ग़ौर कीजिए, उनका अधिक से अधिक ज़ोर लोगों में अपनी वर्तमान स्थिति के प्रति एक भयंकर डर पैदा करने का होता है । देश के प्रधानमंत्री होने के बावजूद मोदी जी जहाँ जाते है, उस जगह के हालात का ऐसा भयानक चित्र पेश करते हैं जैसे आदमी सिर्फ और सिर्फ चोरों, उचक्कों, गुंडों, बदमाशों, बलात्कारियों और हत्यारों से घिरा हुआ है । हिंदुओं में ये ऐसा ख़ौफ़ पैदा करेंगे कि बस अब वे अपने घरों में चंद दिनों के ही मेहमान हैं । वे दिन दूर नहीं जब सबक़ों पलायन करना होगा । पलायन करके लोग कहाँ जायेंगे, इस पर ये सब चुप्पी साधे रहते हैं । नवयुवतियों के लिये उनका एक ही संदेश रहता है, या तो बलात्कार के लिये तैयार रहो या किसी विधर्मी के झाँसे के लिये ।
ऊपर से ये इसमें नोटबंदी का डर, आयकर वालों का डर, पुलिस और सेना का डर जोड़ कर एक पूरी तरह से संत्रस्त राष्ट्र का ऐसा मंज़र तैयार कर रहे हैं जिसमें चारों ओर सिर्फ भयभीत आदमी के जमावड़े दिखाई दें और मोदी नामक मसीहा इन डरे हुए लोगों के हुजूम को चीख़-चीख़ कर सांत्वना दें । सेना प्रमुख भी कश्मीर में किसी को भी राष्ट्र-द्रोही घोषित करके उसे दंडित करने का अधिकार को डरावने ढंग से अपने हाथ में लेने की बात कह रहे हैं ।
कोई राजनीति नहीं, कोई विचारधारा नहीं । डर के आधार पर लोगों को इकट्ठा करो और उन्हें अपनी रक्षा के लिये किसी माफ़िया सरदार की शरण में डाल दो !
मोदी जी कहते है, देखों, गुजरात को, 2002 के नायकों ने वहाँ कैसी शांति बना रखी है ! देखो मध्य प्रदेश को व्यापमं के हत्यारे भ्रष्टाचारियों ने आईएसआई वालों का जाल बिछवा कर कैसा महान शासन क़ायम किया है । देखो राजस्थान को, राजा-रजवाड़ों की परंपरा को ज़िंदा करके वहाँ कैसा जनतंत्र क़ायम किया गया है ! महाराष्ट्र में तो अभिव्यक्ति की आजादी का ऐसा राज चल रहा है जिसमें मुख्यमंत्री और शिवसेना प्रमुख खुल कर एक दूसरे की धन-संपत्ति के बारे में सवाल उठा रहे है ! इनकी ये सभी नोटबंदी की तरह की नायाब कीर्तियां ! हमारी शरण में आए, चुटकियों से भ्रष्टाचार, काला धन और माफ़ियाओं से मुक्ति दिला देंगे !
सचमुच, क्या मायने है विचारधारा-विहीन शुद्ध डर की इस राजनीति का ? जब राजनीति के पास कोई भविष्य दृष्टि नहीं होती, कोई आदर्श या बड़ा लक्ष्य नहीं होता तो सिवा सत्ता और प्रशासन के राजनीति के पास शेष क्या रह जाता है ? और ऐसे में जिसे राजनीति का रोमांच कहते हैं, लोगों को अंदर तक प्रभावित करने वाला तत्व, उसे पैदा करने का इनके पास एक ही तरीक़ा बचता है - लोगों को डराओ, उन्हें आतंकित करो ताकि आदर्शों की धुन में खोने के बजाय मारे डर के लोग अपना होश खो बैठे । एक नागरिक को प्रशासन के इशारों पर चलने वाले आत्मशून्य मनुष्य रूपी जीवों में तब्दील करने वाली अराजनीति की राजनीति । मानो शारीरिक तौर पर जीवित रहने के अलावा आदमी के जीने का दूसरा कोई मकसद ही न होता हो !
कहना न होगा, जब आप मानवीय संवेदनाओं से शून्य होंगे, जब आपमें कमज़ोर आदमी के प्रति कोई सहानुभूति नहीं होगी तो आप आसानी से राज्य द्वारा दी जाने वाली किसी भी यंत्रणा या यातना के समर्थक बन जायेंगे । आप सहर्ष फासीवाद की कामना करने वाले भक्तों की फ़ौज में एक रंगरूट के तौर पर शामिल हो जायेंगे ।
वैसे भी राजसत्ता के प्रति वफ़ादारी में हमेशा सत्ता के दमनकारी कामों, युद्ध आदि में विध्वंस और सामूहिक हत्या की उसकी भूमिका के प्रति एक प्रकार की सहमति का तत्व निहित होता है । लेकिन एक संत्रस्त और संवेदनहीन आदमी में तो साजिशाना ढंग से की जाने वाली व्यक्ति हत्याओं के प्रति भी कोई चिंता-उत्कंठा शेष नहीं रहती है । राज्य के द्वारा दी जाने यातनाओं के जघन्य इतिहास में ऐसी दवाओं की खोज का जिक्र मिलता है जो आदमी की धड़कनों को बढ़ा कर उसे एक प्रकार की स्थाई बेचैनी में डाल देती है । ऊपर से भला-चंगा दिखने वाला आदमी अंदर से बुरी तरह घबड़ाया हुआ, डर से कांपता हुआ आदमी होता है ।
मोदी जी ने यूपी के चुनाव में एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया । गुजरात में रहते वक़्त भी उनको यह कहते सुना गया था कि सरकार से आप अपने लिये सुविधाएं जरूर लें, लेकिन हमसे सटने की कोई कोशिश न करें । संघ का लव जेहाद आदि का सारा अभियान भी अंतर-धार्मिक संबंधों से लोगों को दूर रखने का ही अभियान है ।
सवाल उठता है कि ऐसा क्यों ? ऐसा सिर्फ इसलिये क्योंकि जिसके बारे में आप जितना ज्यादा जानेंगे, उतना ही कम आप उससे नफरत कर पायेंगे ; और जितना कम जानेंगे, उतना ज्यादा आप उसके दुख-दर्दों के प्रति उदासीन रह पायेंगे । साहित्य इसीलिये अपनी प्रकृति से प्रगतिशील होता है क्योंकि वह पाठक को दुनिया-ज़हां के लोगों के जीवन की कथाओं से परिचित कराके उसमें अन्यों के प्रति संवेदनशीलता पैदा करता है ।
इस पूरी चर्चा के संदर्भ में साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों के खिलाफ मोदी जी के अभियान से शुरू करके, सोशल मीडिया पर ट्रौलर्स की फ़ौज को उतारने और हर जगह इनके द्वारा पैदा किये जाने वाले डर और आतंक के माहौल के अभियानों के पीछे की सचाई को आसानी से समझा जा सकता है । आज डराना ही इनकी राजनीति है, इनकी विचारधारा और इनका आदर्श है । ये किसी महान राष्ट्र के नहीं, सिर्फ डरे हुए, संत्रस्त और दब्बू राष्ट्र के ही निर्माता हो सकते हैं ।
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