शनिवार, 25 फ़रवरी 2017

शिवरात्रि के मौक़े पर शैवमत में स्वातंत्र्य के भैरव भाव पर एक सोच


-अरुण माहेश्वरी




दरअसल, ठहर कर गंभीरता से इस बात की जाँच करने की ज़रूरत है कि भारत के धर्मों के इतिहास में शैवमत से हमारा तात्पर्य क्या है । क्या यह हिंदू धर्म का ही एक भिन्न पंथ है, अपने दायरे में एक स्वतंत्र धर्म या अलग प्रकार के आदर्शों, विश्वासों, कर्मकांडों की एक और धारा जिसमें शिव शब्द के किसी न किसी रूप में प्रयोग के ज़रिये ही एक प्रकार की संहति क़ायम की गई है?

बहरहाल, भारतीय ज्ञान परंपरा की इस शैव मत की धारा के जिस पहलू में हमें एक प्रकार का अनोखा दर्शनशास्त्रीय आकर्षण दिखाई देता है, वह है कश्मीरी शैवमत में प्रत्यभिज्ञा की पूरी अवधारणा में  । वैदिक-औपनिषदिक दर्शन की धारा की सापेक्षता में शैवमत कितना उस पर निर्भरशील है और कितना स्वतंत्र, इसे साफ तौर पर रेखांकित करने वाला पद है यह प्रत्यभिज्ञा विमर्श का पद । भेद-भेदाभेद-अभेद पर टिका भाववादी अद्वैत । इसके प्रयोग के अनंत आयाम हो सकते हैं । यह अनेक द्वंद्वों की उपस्थिति के साथ एक निश्चित दिशा में गतिशीलता की पूरी अवधारणा पेश करता है । विविधता में एकता की भारतीयता की तात्विकता । इसमें हेगेल की भाँति ही शिव के स्वातंत्र्य भाव, उसके भैरव रूप की साधना की जाती है । यही है जो सत्य के साथ शिव के योग से सौन्दर्य के स्फुरण का एक संपूर्ण विचार पेश करता है ।

प्राचीन हिंदू दर्शन की धारा पर विचार करने वाले तमाम विद्वानों ने वैदिक-वैष्णव परंपरा को जो मान दिया है, शैवागमों के इस प्रत्यभिज्ञा विमर्श की उतनी ही उपेक्षा की है । इसके चलते शंकर के बाद भारतीय दर्शन के उत्कर्ष के एक सबसे मूल्यवान पहलू से हम वंचित रहे हैं । यह कमी भारतीय दर्शन के इतिहासकार एस एन दासगुप्ता, उनके शिष्य देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय की भी है । पाँच खंडों के अपने 'भारतीय दर्शन का इतिहास' में दासगुप्त ने कश्मीर के शैवमत के बारे में अंतिम खंड के अंत में सिर्फ पाँच पन्ने ख़र्च किये हैं, जबकि सिर्फ उत्तरी शैवमत की धारा में पड़ने वाला तंत्र साहित्य अपनी विपुलता में वैदिक साहित्य से कम नहीं है ।  गोपीनाथ कविराज ने तंत्र साहित्य की जो एक सूची भर तैयार की है वही लगभग साढ़े सात सौ पृष्ठों की है ।

आज दुनिया में हेगेल के द्वंद्वात्मक भाववाद और मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की श्रृंखला में स्लावोय जिजेक की तरह के दार्शनिक जब द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को एक नई आधारशिला पर रखने की अपनी प्रस्तावना पेश कर रहे है तब वे अपने इस प्रकल्प के शुरू में ही द्वन्द्वात्मकता को निश्चयात्मक रूप से संश्लेषण (synthesis) की किसी इकहरी प्रक्रिया में देखने के बजाय द्वंद्वों के एक असंगत मिश्रण के गतिशील रूप में देखते हैं । (not as a universal notion, but as “dialectical [semiotic, political] matters,” as an inconsistent (non-All) mixture.)

गौर करने की बात यह है कि भारतीय योगसाधना में भी यह मान कर चला जाता है कि मन विकल्पात्मक होता है, अविकल्प नहीं। जिजेक अपनी इस सबसे महत्वपूर्ण किताब ‘Absolute Recoil’ में आदमी के मनन की प्रक्रिया में चीजों के बनने-बिगड़ने के तमाम पक्षों के सम्मिश्रण के इसी विकल्पात्मक महाभाव का विवेचन करते दिखाई देते हैं। चीजों के बारे में आदमी के ज्ञान में कितने प्रकार के पहलू काम करते हैं, जो द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के बीच से ही आदमी के हस्तक्षेप को प्रेरित करते हुए भौतिक दुनिया को बदलते हैं, इसके तमाम पक्षों को उन्होंने इस उपक्रम में उजागर किया है। माक्‍​र्सवादी चिंतक एलेन बदउ के शब्दों को उधार लेते हुए वे कहते हैं कि सच्चे भौतिकवाद को ‘‘बिना भौतिकवाद वाला भौतिकवाद’’ (materialism without materialism) कहा जा सकता है।

कश्मीरी शैवमत के 11वीं सदी के दार्शनिक अभिनवगुप्त ‘तंत्रालोक’ में कहते हैं कि जब हम विषय के अन्तर्विरोधों (विकल्पों) पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, अन्तर्विरोधों का संस्कार, शोधन और परिमार्जन शुरू हो जाता है और वह अन्त में स्फुटतम अवस्था पर पहुंच जाता है, एक निश्चित अर्थ देने लगता है। इस प्रकार, कहा जा सकता है कि द्वंद्वात्मकता से एक अद्वैत ज्ञान तक की यात्रा तय होती है। ‘विश्वभावैकभावात्मकता’ तक की। (विश्व में जितने भी नील-पीत, सुख-दुख आदि भाव है, उन सबका एक भावरूप में, सर्व को समाहित करने वाले महाभाव रूप में, आत्मरूपता का अविकल्प भाव से साक्षात्कार के सर्वश्रेष्ठ स्वरूप तक की) यह ‘द्वंद्वों का असंगत मिश्रण’ ही प्रत्यभिज्ञा का सामस्त्य भाव है। (श्रीमदभिनवगुप्तपादाचार्य विरचित: श्रीतंत्रालोक:, प्रथममाकिम् -।।141।।)

कहना न होगा, शैवमत के प्रत्यभिज्ञा दर्शन के इस सामस्त्य भाव को पूरी तरह से उपेक्षित करके, स्वातंत्र्य के भैरव भाव को कुचल कर, सनातन धार्मिक परंपरा में उसे विलीन करके शिव को मात्र पूजा की विषय-वस्तु बना कर भारतीय चिंतन में गहराई तक निहित चिंतन के स्वातंत्र्य भाव का हरण किया गया है । महा शिवरात्रि के उत्सव के वक़्त क्या विचार का यह अभी एक महत्वपूर्ण विषय नहीं हो सकता है ?

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