सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

गदहापन के बारे में



-अरुण माहेश्वरी

अखिलेश यादव ने गुजरात के गदहों वाले अमिताभ बच्चन के विज्ञापन का उल्लेख क्या कर दिया, चारों ओर भारी तूफ़ान खड़ा हो गया है । शुचिता-प्रेमी सारे लोग दुखी हैं । इसे प्रधानमंत्री मोदी के गाँव-गाँव में श्मशान बनवाने के उद्घोष का प्रत्युत्तर मान कर घटियापन की प्रतिद्वंद्विता का उदाहरण बता रहे है

हिंदी में कहावत है - वज्र मूर्ख । गांधारी ने अपने पुत्र दुर्योधन से कहा था कि मेरे सामने पूरी तरह से निर्वस्त्र होकर आओ तो तुम्हारे पूरे शरीर को वज्र बना दूँगी । अर्थात आदमी जब अपने को अंतर के ज्ञान के लेश मात्र से भी मुक्त कर लेता है, उसका सब कुछ बाहर ही बाहर होता है, तभी वह वज्र बन सकता है ।

मनोविश्लेषक दार्शनिक स्लावोय जिजेक के प्रसिद्ध गुरु लाकान की फ़्रेंच भाषा की पत्रिका का नाम था - L'Âne -अर्थात गदहा । आदमी के अंदर जब कुछ नहीं होता है, सब कुछ बाहर ही बाहर होता है, इसी सफ़ाचट मनोदशा पर चर्चा करते हुए जिजेक ने इसका उल्लेख किया है । जिजेक के अनुसार चरम निर्बुद्धिपन की इसी दशा से आदमी सिद्धि पाता है ।
(In this full acceptance of the externalization in an imbecilic medium, in this radical refusal of any initiated secrecy, this is how I, at least, understand the Lacanian ethics of finding a proper worth. - "Connections of the Freudian Field to Philosophy and Popular Culture"  - Slavoj Zizek)

इसलिये गदहेपन से जुड़ी आदमी की वज्रता की इस सिद्धि पर इतना बवाल क्यों है ? कोरी लाठी भाँजने की महा- सिद्धि वज्रता  की ही सिद्धि होती है, जिसे मनोविश्लेषक गदहेपन की विशेषता बताते हैं ।

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