शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

डा. अंबेडकर की धार्मिक विरासत और मिशेल फुको


-अरुण माहेश्वरी

आज 14 अक्तूबर। डा. भीमराव अंबेडकर का धर्म-परिवर्तन दिवस। आज के ‘टेलिग्राफ’ में इसी विषय पर रामचंद्र गुहा का एक बहुत दिलचस्प लेख छपा है - A sort of victory (एक प्रकार की जीत)।

गुहा ने अपनी परिचित ऐतिहासिक घटनाओं के वर्णन की लुभावनी शैली में 14 अक्तूबर 1956 के उस दिन की घटना का पूरा चित्र खींचा है जब डा. अंबेडकर ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म को अपनाया था। ‘बोम्बे क्रोनिकल’ की रिपोर्ट पर आधारित इस वर्णन में एक ओर जहां धर्म परिवर्तन के पहले 1935 से लेकर 1956 तक डा. अंबेडकर के अंदर चले वैचारिक मंथन की पृष्ठभूमि का उल्लेख किया गया है, वहीं दूसरी ओर धर्म-परिवर्तन के सात हफ्तों के बाद ही डा. अंबेडकर के चल बसने से उनके पीछे छूट गये सवालों की चर्चा है। लेख के अंतिम अंश में गुहा लिखते हैं –

‘‘ अंबेडकर ने क्यों 14 अक्तूबर को अपने धर्म-परिवर्तन के लिये चुना ? क्या इसलिये कि वह रविवार का दिन था, या इसलिये कि वह विक्रम संवत का एक महत्वपूर्ण (विजया दशमी का) दिन था ? यदि विजया दशमी की वजह से उन्होंने इसे चुना तो क्या वे अपने इस कदम को किसी जीत या विजय के रूप में देख रहे थे ?

‘‘इन सवालों पर सब चुप है। लेकिन इससे ज्यादा दिलचस्प यह कयास है कि यदि बौद्ध धर्म अपनाने के बाद अंबेडकर इतनी जल्दी गुजर न गये होते तो क्या होता ? ...यदि वे और कुछ दशक जीते तो निश्चित तौर पर उनसे प्रेरित होकर और भी अछूत बौद्ध धर्म की ओर आए होते। ...कुछ लाख लोगों के बजाय करोड़ों लोगों के धर्म परिवर्तन का भारत के सामाजिक ओर राजनीतिक इतिहास पर गहरा रूपांतरणकारी प्रभाव पड़ा होता। ’’

गुहा कहते हैं - ’’शायद अंबेडकर की शीघ्र हुई मौत में कहीं ज्यादा बड़ा दुखांत निहित है।...महान मुक्तिदाता गुजर गया और हम हिन्दू शीघ्र ही अपने प्राचीन और गहरे पूर्वाग्रहों से ग्रसित रास्ते पर लौट आए। ’’

हम यहां रामचंद्र गुहा के इस पूरे लेख को साझा कर रहे हैं।

जाहिर है कि गुहा ने अपने इस लेख में बौद्ध-धर्मावलंबी अंबेडकर में एक मुक्तिदाता की सूरत देखी है। गुहा की तरह ही आज उनके अनेक अनुयायी अपनी कल्पनाओं में अंबेडकर में किसी मुक्तिदाता मसीहा की मूरत ही देखते हैं। जैसा कि हमेशा होता है - मसीहाओं का जन्म उनकी जैविक उपस्थिति के अंत से ही हुआ करता है !

डा. अंबेडकर, बौद्ध धर्म और धर्म परिवर्तन की उनकी सामूहिक मुहिम का यह पूरा प्रसंग पता नहीं क्यों, अनायास ही हमें मिशेल फुको की प्रसिद्ध किताब Madness and Civilization की याद दिला देता है। इस किताब का पहला अध्याय है - Stultifera Navis (मूर्खों का जहाज)। यह प्लैटो के ‘रिपब्लिक’ से निकला एक जहाज का रूपक है, जिसका एक चालक बाकी सबसे कद-काठी में काफी ज्यादा मजबूत है लेकिन वह थोड़ा कम सुनता है, देखता भी कम है और जहाज चलाने का उसका ज्ञान भी खास नहीं है। फिर भी, जहाज में आपसी अराजकता की स्थिति में अन्य सब ने मजबूत कद-काठी के ऐसे आदमी को ही जहाज की कमान सौंप देने का निर्णय ले लिया।

इस अध्याय में फुको ने शुरू में ही ईसाई धर्म और कुष्ठ रोग के इतिहास पर चर्चा की है और बताया है कि किस प्रकार यूरोप के मध्ययुग में कुष्ठ रोगियों की सेवा-सुश्रुषा के साथ ईसाई मिशनरियों का राज जुड़ा हुआ था। तब वहां हजारों की संख्या में बड़े-बड़े कुष्ठाश्रम तैयार हो गये थे जिनमें रोगियों को अलग रख कर उनकी सेवा की जाती थी। फुको बताते हैं कि काल-क्रम में रोगियों को अलग रखने की (पृथक्करण)  इस व्यवस्था के चलते कुष्ठ रोग पूरी तरह खत्म हो गया। फुको के शब्दों में - ’’A strange disappearance, which was doubtless not the long-sought effect of obscure medical pracices, but the spontaneous result of segregation and also the consequence, after the Crusades, of the break with Eastern sources of infection.”
(एक अनोखा अंत, जो निस्संदेह पुरानी चिकित्सा पद्धति का फल नहीं था, बल्कि रोगियों को अलग रखे जाने का एक स्वत:स्फूर्त परिणाम था और, धर्मयुद्धों के बाद, विषाणुओं के पूर्वी स्रोतों से कट जाने का भी फल था।)

क्या धर्म परिवर्तन से किसी सामाजिक रूपांतरण की परिकल्पना कुछ ऐसी ही, मसीहाओं के नेतृत्व में एक अलग बसावट (पृथक्करण) के लाभ को हासिल करने की परिकल्पना नहीं है? रामचंद्र गुहा लाखों के बजाय करोड़ों के धर्म-परिवर्तन में जिन नई संभावनाओं को देखते हैं, वे क्या कुछ-कुछ पादरियों की सेवाओं के सदृश्य नहीं है ?

अंबेडकर नहीं रहे, लेकिन उन्होंने धर्म-परिवर्तन के इसी सम्मेलन से भारत में बौद्ध धर्म के पुनरुत्थान के लिये कोष इकट्ठा करने आदि का अभियान शुरू करवा दिया था। वे रहते तो यह काम और जोर से, व्यापक पैमाने पर चलता, लेकिन उनकी अनुपस्थिति में भी किसी न किसी रूप में यह निश्चित रूप से जारी रहा। रिपब्लिकन पार्टी आदि की तरह के इसके राजनीतिक परिणाम भी सामने आए।

लेकिन आज ? आज इन सभी कार्यों का परिदृश्य जनशून्य कुष्ठाश्रमों की उन स्मृतियों की तरह ही है जो ईसाई मिशनरियों को बेहद प्रिय होने पर भी उनका कोई वास्तविक महत्व नहीं रह गया है। बनिस्बत, अधिकांश कुष्ठाश्रमों की संपत्तियों पर बाद के काल में या तो जेल बना दिये गये या अस्पताल। अर्थात, उनके जरिये लोगों को अलग रखने की पुरानी व्यवस्थाएं नए रूप में बनी रह गई। यहां रिपब्लिकन पार्टी का एक धड़ा आज महाराष्ट्र में भाजपा का सहयोगी है। और अंबेडकर की बाकी विरासत पर मायावती का कब्जा है।

यही है पागलपन और सभ्यता के बीच के संबंधों की फुको की अवधारणा का सार।

बहरहाल, रामचंद्र गुहा के लेख को पढि़ये और उनकी शैली और चिंताओं का लुत्फ लीजिए –

http://www.telegraphindia.com/1161014/jsp/opinion/story_113268.jsp#.WADksI997IV



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