गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

व्यवहारिक राजनीति का सच किसी 'ईश्वरीय' नियम का मुहताज नहीं होता


-अरुण माहेश्वरी

आज के ‘टेलिग्राफ’ में प्रभात पटनायक का लेख है - ’’The growing resistance against globalisation : Workers united” ।

इस लेख में मोटे तौर पर उनका कहना है कि वैश्वीकरण के खिलाफ सारी दुनिया में प्रतिरोध हो रहा है, जिसे एकसूत्रता में देखा जाना चाहिए। लेकिन इनके नेतृत्व में अपनी कतिपय गलत समझ के कारण कहीं भी वामपंथी नहीं है। विकसित देशों में तो इनका नेतृत्व दक्षिणपंथियों ने हथिया लिया है, चीन में नव-माओवादी इसके नेतृत्व में है। इनकी तुलना में, उनके अनुसार, भारत में चूंकि दक्षिणपंथियों ने अपने को वैश्वीकरण से जोड़ रखा है, इसलिये वामपंथियों के लिये मैदान खुला हुआ है, आज उन्हें सभी प्रकार के पूंजीवादी विकासवादी भ्रमों से मुक्त होकर वैश्वीकरण के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व देने के लिये उतर पड़ना चाहिए।

दरअसल, प्रभात किसी भी तरल और अस्पष्ट परिस्थिति के अपने तर्कों को नहीं देखना चाहते जिसमें हमेशा प्रकृति के सारे ‘सामान्य’ नियम स्थगित हो जाया करते हैं। वे इस अस्पष्ट, बनती-बिगड़ती स्थिति में वामपंथ जैसे किसी ईश्वरीय भूमिका में देखते हैं जो सर्वशक्तिमान होने के नाते सारी चीजों को देख कर अपनी मर्जी के अनुरूप ढाल सकता है। क्वांटम भौतिकी में ऐसी ईश्वरीय प्रणाली की सबसे बड़ी मुश्किल यह होती है कि ईश्वर इसमें बड़ी-बड़ी चीजों को देख पाता है, लेकिन जो और कई छोटे-छोटे दूसरे घटनाक्रम (quantum oscillations) चलते रहते हैं, वे उसकी जद से छूट जाते हैं। जैसे प्रभात ने इसी लेख में सारी दुनिया के प्रतिरोध आंदोलनों को एकसूत्रता में देखते हुए जोर देकर कहा है कि ‘पेड़ों को देख कर पूरे जंगल को ओझल नहीं किया जाना चाहिए’।

भारत का सच यह है कि यहां की दक्षिणपंथी ताकतें विकास और वैश्वीकरण की कितनी ही बातें क्यों न करें, उनकी राजनीतिक शक्ति का मूल स्रोत विकास या वैश्वीकरण नहीं, दूसरी छोटी चीजें, सांप्रदायिकता, जातिवाद और तमाम प्रकार के दंगा-फसाद और भ्रष्टाचार हुआ करता है। इसीलिये व्यवहारिक राजनीति न वैश्वीकरण पर और न नव-उदारवाद पर केंद्रित हो सकती है। इसे आर्थिक संघर्षों के साथ ही सामाजिक ध्रुवीकरण के दूसरे सभी प्रश्नों को मुख्य रूप से अपने सामने रख कर अपनी कार्यनीति तैयार करनी होगी। यहां तक कि विकसित दुनिया में, मसलन् ब्रेक्सिट के सवाल पर ब्रिटेन में भी, दक्षिणपंथियों ने वैश्वीकरण का नहीं, दूसरी प्रकार की जातीय संकीर्णताओं और आप्रवासन-विरोधी भावनाओं को भड़का कर अपना उल्लू सीधा किया था।

इसीलिये हम फिर यह दोहराना चाहेंगे कि जब परिस्थितियां तरल और धुंधली होती है, तब प्रकृति के तथाकथित ‘सामान्य’ नियम स्थगित हो जाते हैं। आईंस्टाईन का यह बिल्कुल सही कथन था कि ‘ईश्वर कभी धोखा नहीं देता’, लेकिन दार्शनिक जिजेक के अनुसार इसमें यह और जोड़ने की जरूरत है कि ईश्वर खुद भी धोखा खाता है। प्रभात की वैश्वीकरण के खिलाफ जन-असंतोष को भुनाने की ये सारी बातें हमारे देश की तरल और अस्पष्ट परिस्थितियों में ईश्वर के अपने धोखे की कई दूसरी सचाइयों को नहीं देखती हैं , जो किसी भी ईश्वरीय प्रणाली से अनिवार्य तौर पर जुड़ी होती है। इससे हमारे देश की राजनीति की सचाई का जरा सा भी अंदाज नहीं मिलता है।  


हम यहां प्रभात पटनायक के इस लेख को मित्रों से साझा कर रहे हैं -

http://www.telegraphindia.com/1161020/jsp/opinion/story_114401.jsp#.WAh22suwhiQ

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