अरुण माहेश्वरी
साहित्य आलोचना सौन्दर्यशास्त्र के विशेष दायरे का विषय होने पर भी उसे वस्तुगत स्तर पर सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों से अलग करना नामुमकिन है । और, किसी भी प्रकार का साहित्य समारोह तो पूरी तरह से सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य का ही एक हिस्सा होता है ।
बीकानेर में हरीश भादानी रचना समग्र के लोकार्पण पर आज के साहित्य-विमुख कहे जाने वाले समय में जिस प्रकार की सामाजिक संलग्नता और उत्साह दिखाई दिया वह किसी भी समाज के द्वारा अपने एक महत्वपूर्ण कवि का स्मरण भर नहीं था, बल्कि उससे भिन्न कुछ और भी था ।
लोकार्पण के मंच के केंद्रीय व्यक्तित्व थे कांग्रेस दल के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और बाक़ी पूरा मंच सर्वज्ञात जनवादी और मार्क्सवादी लेखकों, आलोचकों से सज़ा हुआ था । और, सामने प्रेक्षागृह में शहर के तमाम जाने-माने लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के साथ ही कांग्रेस दल के विधायक, पूर्व विधायक, पूर्व महापौर सहित नेताओं के रूप में परिचित और कुछ लोग भी शामिल थे ।
मंच से डा. रमेश कुंतल मेघ, डा. कर्ण सिंह चौहान, सरला माहेश्वरी, अरुण माहेश्वरी अपने परिचित अंदाज में ही हरीश भादानी के संदर्भ में आज के समय के बारे में अपनी चिंताएँ जाहिर कर रहे थे, और जब कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री के बोलने का वक़्त आया, वे क़लम की शक्ति की, पिछले दिनों लेखकों द्वारा पुरस्कारों को लौटाये जाने वाले आंदोलन की अहमियत पर बोल रहे थे । उनका सारा ज़ोर इस बात पर था कि ग़रीब और दुखीजनों के साथ सबसे अधिक क़रीब का संवेदनात्मक संबंध रखने वाला यह समुदाय ही हमेशा समाज के सामने आने वाले ख़तरों को सबसे पहले भाँप लेता है और पूरे समाज को उनके प्रति जागरूक करता है। गहलोत भाजपा की फासीवादी राजनीति पर तीखा हमला कर रहे थे और उन्होंने इस बात पर गहरी चिंता जताई कि कैसे एक व्यक्ति शुद्ध रूप से झूठी बातों का सहारा लेकर देश की सर्वोच्च सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाता है और फिर अपनी ही बातों को जुमलेबाजी बता कर अपने को सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर लेता है । गहलोत ने सांप्रदायिकता के साथ ही जातिवाद को भी एक ख़तरा बताया जो फासीवादी ताक़तों के खिलाफ एकजुट लड़ाई को कमज़ोर करती है ।
इस प्रकार, इस समारोह से हमने जिस एक नई सच्चाई को महसूस किया वह थी ज़मीनी स्तर पर तैयार हो रहे संयुक्त प्रतिरोध की सचाई । भाजपा कितने अंश तक फासीवादी है और कितने अंश तक नहीं, इस झूठी मगजपच्ची से पैदा होने वाली दुविधाओं के जंजाल में न पड़ने की सचाई । मंच पर वामपंथियों के बीच केंद्रीय आकर्षण था एक कांग्रेसी पूर्व मुख्यमंत्री और प्रेक्षागृह में लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और आम लोगों की भीड़ में खोये हुए थे कांग्रेस दल के कुछेक धाकड़ स्थानीय नेतागण । उत्साह और दुविधाएँ दोनों ओर हैं, फिर भी, अंतत: किसी तरह साथ रहने की इच्छा भी दोनों ओर है !
कांग्रेस के लोग जानते हैं कि इस अंचल में वामपंथ की ताक़त नगण्य है, जैसी कि देश के बाक़ी अधिकांश क्षेत्रों में भी नगण्य है, लेकिन अभी भी उनका एक ख़ास प्रकार का सम्मान कुछ-कुछ क़ायम है, जिसे हासिल करके व्यापक ग़रीब जनता में कांग्रेस की खोई हुई साख को क़ायम करने में थोड़ा सा लाभ मिल सकता है ।
और, वामपंथी रुझान के लोग वामपंथ की लोकप्रियता के लगातार गिर रहे ग्राफ़ से वाक़िफ़ हैं । लेकिन वे कांग्रेस और भाजपा के बीच के कुछ बुनियाद भेद को समझने के मामले में किसी विभ्रम के शिकार नहीं हैं । आरएसएस-भाजपा एक ऐसा सच है जिसकी दिशा फासीवाद से भिन्न हो ही नहीं सकती है । इससे भिन्न दिशा पकड़ने पर वे विकसित नहीं होंगे, बिखर जायेंगे । और कांग्रेस का मूल सच जनतंत्र और आजादी की लड़ाई से जुड़ा हुआ है । उसमें तानाशाही की तरह की प्रवृत्तियाँ उसे कमज़ोर और नष्ट करेगी ।
दोनों के बीच यह एक ऐसा बुनियादी फर्क है जिसे कथित 'वर्गीय' राजनीति की 'सैद्धांतिक' दलीलों से झुठलाया नहीं जा सकता है ।
ऐसे में वे इस बात को भी समझ रहे है कि आरएसएस-भाजपा का जो अंतर्निहित अव्यक्त क्रमश: व्यक्त हो रहा है, समय रहते यदि प्रभावशाली ढंग से उसका प्रतिरोध करके पराजित नहीं किया गया तो जनतंत्र मात्र का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा, वामपंथ की संभावनाएँ तो बहुत दूर की बात है । इसीलिये उनका सोच पूरी तरह से खुद को खोकर फिर से खुद को पाने की दिशा में बढ़ता हुआ दिख रहा है । यह गहरे संकटों के संयोग का ऐसा बिंदु है, जहाँ से कोई भी डूबता हुआ भविष्यहीन व्यक्ति गहरे अतीत में जाकर आत्म-पहचान की नई यात्रा का प्रारंभ करने के लिये मजबूर होता है ।
इस लिहाज से देखा जाए तो संयुक्त प्रतिरोध के इस प्रकट नये समीकरण में शामिल तमाम पक्षों के स्वार्थ उसी प्रकार जुड़े हुए हैं, जैसा कि किसी भी संयुक्त मोर्चे में शामिल होने वाली ताक़तों के हुआ करते हैं । इसे अगर कोई कोरा अवसरवाद कहेगा तो उसे यह भी कहना पड़ेगा कि वह संयुक्त मोर्चा के निर्माण की प्रक्रिया के हर रूप के विरुद्ध है ।
बीकानेर का यह लोकार्पण समारोह इसीलिये मुझे ऐतिहासिक प्रतीत हुआ जहाँ पार्टियों की गिरोहबंदी द्वारा लादी जाने वाली सीमाओं का अतिक्रमण करके समाज के बौद्धिक तबक़ों की पहल पर फासीवाद के आसन्न ख़तरे के खिलाफ स्वत:स्फूर्त ढंग से प्रतिरोध के बैरिकेड तैयार होने के संकेत मिले हैं । देश के दूसरे हिस्सों में भी निश्चित तौर पर किसी न किसी रूप में इस प्रकार की प्रक्रिया का सूत्रपात हो रहा होगा । इसे हम नकारात्मक दिशा से, पुराने प्रकार के सोच की जकड़ में फँसे लेखकों-बुद्धिजीवियों के बीच दिखाई दे रहे अवसाद के संकेतों से भी पकड़ सकते हैं । सार्थक सोच, सार्थक लेखन और सार्थक सामाजिक-राजनीतिक कार्रवाइयों के लिये जरूरी है, अवसाद और पंगुता के कारकों से मुक्ति पाई जाए । बीकानेर के इस लोकार्पण समारोह के अनुभवों से हमें तो यही संदेश मिला है ।
साहित्य आलोचना सौन्दर्यशास्त्र के विशेष दायरे का विषय होने पर भी उसे वस्तुगत स्तर पर सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों से अलग करना नामुमकिन है । और, किसी भी प्रकार का साहित्य समारोह तो पूरी तरह से सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य का ही एक हिस्सा होता है ।
बीकानेर में हरीश भादानी रचना समग्र के लोकार्पण पर आज के साहित्य-विमुख कहे जाने वाले समय में जिस प्रकार की सामाजिक संलग्नता और उत्साह दिखाई दिया वह किसी भी समाज के द्वारा अपने एक महत्वपूर्ण कवि का स्मरण भर नहीं था, बल्कि उससे भिन्न कुछ और भी था ।
लोकार्पण के मंच के केंद्रीय व्यक्तित्व थे कांग्रेस दल के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और बाक़ी पूरा मंच सर्वज्ञात जनवादी और मार्क्सवादी लेखकों, आलोचकों से सज़ा हुआ था । और, सामने प्रेक्षागृह में शहर के तमाम जाने-माने लेखकों और संस्कृतिकर्मियों के साथ ही कांग्रेस दल के विधायक, पूर्व विधायक, पूर्व महापौर सहित नेताओं के रूप में परिचित और कुछ लोग भी शामिल थे ।
मंच से डा. रमेश कुंतल मेघ, डा. कर्ण सिंह चौहान, सरला माहेश्वरी, अरुण माहेश्वरी अपने परिचित अंदाज में ही हरीश भादानी के संदर्भ में आज के समय के बारे में अपनी चिंताएँ जाहिर कर रहे थे, और जब कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री के बोलने का वक़्त आया, वे क़लम की शक्ति की, पिछले दिनों लेखकों द्वारा पुरस्कारों को लौटाये जाने वाले आंदोलन की अहमियत पर बोल रहे थे । उनका सारा ज़ोर इस बात पर था कि ग़रीब और दुखीजनों के साथ सबसे अधिक क़रीब का संवेदनात्मक संबंध रखने वाला यह समुदाय ही हमेशा समाज के सामने आने वाले ख़तरों को सबसे पहले भाँप लेता है और पूरे समाज को उनके प्रति जागरूक करता है। गहलोत भाजपा की फासीवादी राजनीति पर तीखा हमला कर रहे थे और उन्होंने इस बात पर गहरी चिंता जताई कि कैसे एक व्यक्ति शुद्ध रूप से झूठी बातों का सहारा लेकर देश की सर्वोच्च सत्ता पर क़ाबिज़ हो जाता है और फिर अपनी ही बातों को जुमलेबाजी बता कर अपने को सारी ज़िम्मेदारियों से मुक्त कर लेता है । गहलोत ने सांप्रदायिकता के साथ ही जातिवाद को भी एक ख़तरा बताया जो फासीवादी ताक़तों के खिलाफ एकजुट लड़ाई को कमज़ोर करती है ।
इस प्रकार, इस समारोह से हमने जिस एक नई सच्चाई को महसूस किया वह थी ज़मीनी स्तर पर तैयार हो रहे संयुक्त प्रतिरोध की सचाई । भाजपा कितने अंश तक फासीवादी है और कितने अंश तक नहीं, इस झूठी मगजपच्ची से पैदा होने वाली दुविधाओं के जंजाल में न पड़ने की सचाई । मंच पर वामपंथियों के बीच केंद्रीय आकर्षण था एक कांग्रेसी पूर्व मुख्यमंत्री और प्रेक्षागृह में लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और आम लोगों की भीड़ में खोये हुए थे कांग्रेस दल के कुछेक धाकड़ स्थानीय नेतागण । उत्साह और दुविधाएँ दोनों ओर हैं, फिर भी, अंतत: किसी तरह साथ रहने की इच्छा भी दोनों ओर है !
कांग्रेस के लोग जानते हैं कि इस अंचल में वामपंथ की ताक़त नगण्य है, जैसी कि देश के बाक़ी अधिकांश क्षेत्रों में भी नगण्य है, लेकिन अभी भी उनका एक ख़ास प्रकार का सम्मान कुछ-कुछ क़ायम है, जिसे हासिल करके व्यापक ग़रीब जनता में कांग्रेस की खोई हुई साख को क़ायम करने में थोड़ा सा लाभ मिल सकता है ।
और, वामपंथी रुझान के लोग वामपंथ की लोकप्रियता के लगातार गिर रहे ग्राफ़ से वाक़िफ़ हैं । लेकिन वे कांग्रेस और भाजपा के बीच के कुछ बुनियाद भेद को समझने के मामले में किसी विभ्रम के शिकार नहीं हैं । आरएसएस-भाजपा एक ऐसा सच है जिसकी दिशा फासीवाद से भिन्न हो ही नहीं सकती है । इससे भिन्न दिशा पकड़ने पर वे विकसित नहीं होंगे, बिखर जायेंगे । और कांग्रेस का मूल सच जनतंत्र और आजादी की लड़ाई से जुड़ा हुआ है । उसमें तानाशाही की तरह की प्रवृत्तियाँ उसे कमज़ोर और नष्ट करेगी ।
दोनों के बीच यह एक ऐसा बुनियादी फर्क है जिसे कथित 'वर्गीय' राजनीति की 'सैद्धांतिक' दलीलों से झुठलाया नहीं जा सकता है ।
ऐसे में वे इस बात को भी समझ रहे है कि आरएसएस-भाजपा का जो अंतर्निहित अव्यक्त क्रमश: व्यक्त हो रहा है, समय रहते यदि प्रभावशाली ढंग से उसका प्रतिरोध करके पराजित नहीं किया गया तो जनतंत्र मात्र का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा, वामपंथ की संभावनाएँ तो बहुत दूर की बात है । इसीलिये उनका सोच पूरी तरह से खुद को खोकर फिर से खुद को पाने की दिशा में बढ़ता हुआ दिख रहा है । यह गहरे संकटों के संयोग का ऐसा बिंदु है, जहाँ से कोई भी डूबता हुआ भविष्यहीन व्यक्ति गहरे अतीत में जाकर आत्म-पहचान की नई यात्रा का प्रारंभ करने के लिये मजबूर होता है ।
इस लिहाज से देखा जाए तो संयुक्त प्रतिरोध के इस प्रकट नये समीकरण में शामिल तमाम पक्षों के स्वार्थ उसी प्रकार जुड़े हुए हैं, जैसा कि किसी भी संयुक्त मोर्चे में शामिल होने वाली ताक़तों के हुआ करते हैं । इसे अगर कोई कोरा अवसरवाद कहेगा तो उसे यह भी कहना पड़ेगा कि वह संयुक्त मोर्चा के निर्माण की प्रक्रिया के हर रूप के विरुद्ध है ।
बीकानेर का यह लोकार्पण समारोह इसीलिये मुझे ऐतिहासिक प्रतीत हुआ जहाँ पार्टियों की गिरोहबंदी द्वारा लादी जाने वाली सीमाओं का अतिक्रमण करके समाज के बौद्धिक तबक़ों की पहल पर फासीवाद के आसन्न ख़तरे के खिलाफ स्वत:स्फूर्त ढंग से प्रतिरोध के बैरिकेड तैयार होने के संकेत मिले हैं । देश के दूसरे हिस्सों में भी निश्चित तौर पर किसी न किसी रूप में इस प्रकार की प्रक्रिया का सूत्रपात हो रहा होगा । इसे हम नकारात्मक दिशा से, पुराने प्रकार के सोच की जकड़ में फँसे लेखकों-बुद्धिजीवियों के बीच दिखाई दे रहे अवसाद के संकेतों से भी पकड़ सकते हैं । सार्थक सोच, सार्थक लेखन और सार्थक सामाजिक-राजनीतिक कार्रवाइयों के लिये जरूरी है, अवसाद और पंगुता के कारकों से मुक्ति पाई जाए । बीकानेर के इस लोकार्पण समारोह के अनुभवों से हमें तो यही संदेश मिला है ।
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