मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016

गर्त में भारत की विदेश नीति



-अरुण माहेश्वरी

मोदी शासन के अढ़ाई साल को भारत की विदेश नीति के चरम पतन के अढ़ाई साल कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

इन्होंने शुरूआत की थी पड़ौस के सभी देशों के शुभाशीष से और आज सारे पड़ौसी भारत को गहरे शक की निगाह से देख रहे हैं। सबसे बुरा नजारा नजारा तो देखने को मिला अभी गोवा में, ब्रिक्स की आठवीं बैठक (15-16 अक्तूबर 2016) में। इसके साथ ही चली बिमस्टेक ( द बे ऑफ बंगाल इनीशियेटिव फार मल्टी-सेक्टरल टेक्निकल एंड इकोनोमिक को-आपरेशन) के राष्ट्राध्यक्षों के साथ बैठक पर भी ब्रिक्स की काली छाया पड़ी रही। और, कुल मिला कर देखने को यह मिला कि ब्रिक्स की बैठक के दो दिन बाद ही नरेन्द्र मोदी उत्तराखंड में एक सभा में इसराइल की प्रशंसा करते हुए पाए गये। इसराइल - यानी अरब दुनिया में अमेरिका और पश्चिमी देशों की एक सामरिक चौकी, अपने पड़ौसी राष्ट्रों से पूरी तरह अलग-थलगपन का प्रतीक, मूलत: एक सामरिक राज्य, जनता के एक हिस्से ( फिलिस्तीनियों) के दमन की नाजीवादी सत्ता का एक जीवंत उदाहरण।

जब गोवा में ब्रिक्स की बैठक चल रही थी, उसी समय भाजपा और मोदी सरकार के कुछ मंत्री यहां चीनी सामानों के वहिष्कार का अभियान चला रहे थे। उनका यह अभियान कितना भारतीय अर्थ-व्यवस्था के हित में है या कितना अहित में, यह चर्चा का एक अलग विषय है। तथ्य यह भी है कि चीन से आयात के बढ़ने के साथ-साथ उससे ज्यादा अनुपात में भारत में दूसरे देशों से आयात में कमी आई है। लेकिन, ब्रिक्स की बैठक में नरेन्द्र मोदी ने जिस प्रकार से पूरा जोर पाकिस्तान-विरोध पर लगा दिया था, चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग ने उतने ही साफ ढंग से पाकिस्तान के खिलाफ भारत की एक भी दलील को सुनने से इंकार कर दिया। अजहर मसूद पर पाबंदी और पाकिस्तान को आतंकवाद की जननी बताने की मोदी की बात पर उनका दो टूक जवाब था - पाकिस्तान भी आतंकवाद का उतना ही शिकार है, जितना कोई और देश। और तो और, चीन ने एनएसजी में भारत की सदस्यता के सवाल पर भी उसका साथ देने से इंकार कर दिया।

रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने शुरू में ही आतंकवाद पर भारत की चिंताओं के प्रति मौखिक सहानुभूति जाहिर करके सफलता के साथ भारत को अपने हथियारों का एक जखीरा जरूर बेच दिया। लेकिन फिर उन्होंने भी न पाकिस्तान के साथ अपने सैनिक अभ्यास को रोकने के बारे में कोई आश्वासन दिया और न ही ब्रिक्स की बैठक से किसी प्रकार का कोई पाकिस्तान-विरोधी बयान जारी करने की भारत की पेशकश का साथ दिया। जहां तक ब्रिक्स के दूसरे सदस्य, ब्राजिल और दक्षिण अफ्रीका का सवाल है, उन्हें भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव के प्रकार के क्षेत्रीय सामरिक विषयों में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी।

ब्रिक्स की इस बैठक में एक आंखों को चुभने वाला दृश्य तब देखने को मिला जब नेपाल के प्रधानमंत्री की चीन के राष्ट्रपति के साथ चल रही बैठक के बीच में बिना किसी पूर्व सूचना के ही नरेन्द्र मोदी उपस्थित होगये। आज मोदी जी के भूल से इस प्रकार उनके कमरे में पहुंच जाने पर भारत की ओर से कुछ भी सफाई क्यों न दी जाए, लेकिन कयास लगाने वालों को इसमें नेपाल के प्रति भारत सरकार की आशंकाओं की झलक देखने से कौन रोक सकता है !

जो चीन एक समय में कश्मीर जैसे सवाल पर अमेरिकी दबावों के सामने किसी न किसी रूप में भारत के साथ खड़ा रहता था, वही आज जैसे किसी भी सवाल पर भारतीय पक्ष का साथ देने के लिये तैयार नहीं है। और, नेपाल से तो मोदी ने अपने संबंध जिस प्रकार बिगाड़े हैं, उसे देखते हुए म्यांमार और बांग्लादेश के भी कान खड़े हो गये है और वे किसी भी विषय में अकेले भारत के भरोसे चलने को तैयार नहीं है। ये दोनों देश भी चीन के साथ गहरे संबंध तैयार करने में जुटे हुए हैं।

भारत की यह अलग-थलग दशा, सचमुच दक्षिण एशिया के इस क्षेत्र में क्रमश: वैसी ही होती जा रही है जैसी कि अरब दुनिया में इसराइल की है। जब से बराक ओबामा ने मोदी जी को अपनी पीठ पर हाथ रखने की अनुमति दी और उनके हाथ की बनाई चाय पी ली, मोदी जी अपने को इस क्षेत्र में शायद इसराइल की तरह ही दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति का दूत मानने लगे हैं। जबकि, यह भी उनका कोरा भ्रम ही है। अमेरिका यह जानता है कि इस पूरे क्षेत्र में यदि किसी के जरिये उसे इसराइल की तरह की भूमिका अदा करवानी है तो वह भारत कभी नहीं हो सकता, इसके लिये पाकिस्तान या वैसा ही कोई दूसरा छोटा देश उसके काम आयेगा। इसीलिये, भले नरेन्द्र मोदी अपने अंदर आरएसएस के दिये संस्कारों के कारण, इसराइल बनने का सपना पाले हुए हो, लेकिन इसराइल बनने के लिये उन्हें जिन पश्चिमी देशों की गुलामी स्वीकारनी होगी, उनकी अभी यह तैयारी ही नहीं है कि वे भारत की तरह के एक विशाल और असंख्य समस्याओं से भरे देश को अपने गुमाश्तों की कतार में शामिल करें। इतिहास की आधी-अधूरी समझ के कारण आरएसएस वालों ने इसराइल को इस्लाम का दुश्मन समझ रखा है, और इसीलिये वे इसराइल-वंदना में लगे रहते हैं। लेकिन, यहूदी धर्म और इस्लाम के बीच के संबंधों की उन्हें जरा भी जानकारी होती तो वे इसराइल की मौजूदा स्थिति के सच को ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकते थे। इसराइल पूरे अरब विश्व में साम्राज्यवादियों की सामरिक रणनीति की एक अग्रिम चौकी है, इसीलिये अरब दुनिया उसे पश्चिमी प्रभुत्व के प्रतीक के तौर पर देखती है, उससे दूरी रखती है।

इस प्रकार कहा जा सकता है, एक क्षेत्रीय आक्रामक शक्ति बनने की मोदी सरकार की बदहवासी ने भारत की विदेश नीति को पूरी तरह से दिशाहीन बना कर छोड़ दिया है। पिछली सरकारें विदेश नीति के प्रत्येक महत्वपूर्ण विषय पर देश के विपक्षी दलों के नेताओं का सहयोग लेती रही है, इसके कई उदाहरण मौजूद है। लेकिन इस सरकार ने तो विपक्ष के साथ राष्ट्रीय महत्व के किसी भी गंभीर विषय पर संवाद का कोई रिश्ता नहीं रखा है। यह आगे तमाम मोर्चों पर इसकी नीतियों के और भी पतन का कारण बनेगा। विदेश नीति तो सचमुच गर्त में जा चुकी है।




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