रविवार, 30 अक्तूबर 2016

यह दिवाली फौज के नाम !


-अरुण माहेश्वरी

प्रधानमंत्री मोदी ने इस दिवाली पर जवानों के नाम एक दीया जलाने का क्या आह्वान किया, भारत के सारे टेलिविजन न्यूज चैनलों ने पूरी दिवाली ही फौज के नाम लिख दी। दिवाली से जुड़े कार्यक्रमों में सेना के जवान और भारत माता की जय के नारे छाये रहे। इस पर्व के धार्मिक-सांस्कृतिक आयाम न जाने किस सुदूर पृष्ठभूमि में धकेल दिये गये। राजनीतिक तत्ववाद किस प्रकार सामाजिक जीवन के सांस्कृतिक विरेचन का एक बड़ा कारण बनता है, इस दिवाली पर इसका एक सबसे बुरा नमूना देखने को मिला।

आज के टेलिग्राफ की सुर्खी है - ‘‘State of no war, no peace”( न युद्ध की, न शांति की परिस्थिति)। इस खबर के साथ चंडीगढ़ में जलते हुए दीयों से बनाई गई एक जवान, उसकी बंदूक और उस पर उसके हैलमेट की तस्वीर भी छपी है। और इस पूरी खबर के संदर्भ को बताने वाली ऊपर एक पंक्ति है - ‘‘एक महीना होगया, ‘सर्जिकल स्ट्राइक‘ ने सीमाओं पर सशस्त्र बलों को कैसे प्रभावित किया है’’। (A month on, how the ‘surgical strikes’ have impacted the armed forces along the border)

इस रिपोर्ट का प्रारंभ हरयाणा के कुरुक्षेत्र के एक जवान सैनिक की घटना से किया गया है जिसके सिर को पिछली रात धड़ से अलग कर दिया गया था। कहा गया है कि जवान की यह स्थिति भारत-पाकिस्तान के बीच संबंधों की वर्तमान, ‘न युद्ध न शांति’ वाली दशा में आई गिरावट का प्रतीक है।

टेलिग्राफ की यह पूरी रपट पिछले एक महीने से सीमा पर चल रही ऐसी वारदातों के बारे में है जिसमें ‘एक सिर के बदले दस सिर लाने’ की नेताओं की हुंकारें हैं तो अतीत के ऐसे ही अनुभवों का उल्लेख है जब लगभग एक दशक से भी पहले सन् 2003 के नवंबर महीने के बाद नियंत्रण रेखा पर हर रोज दोनों देशों की फौजों के बीच इसीप्रकार गोलाबारी हुआ करती थी।

इसमें ‘No war, no peace’ शीर्षक एक किताब का जिक्र है जिसके लेखक द्वय, जार्ज पर्कोविच और टौबी डाल्टन ने लिखा है कि पाकिस्तान के खिलाफ इन भारतीय सैनिक कार्रवाइयों के चार लक्ष्य हैं - 1. पाकिस्तान को दंडित करने की देश की राजनीतिक मांग को पूरा किया जाए ; 2. पाकिस्तान अपने यहां आतंकवादियों पर कार्रवाई करने के लिये मजबूर हो; 3.सशस्त्र झड़पों को इसप्रकार नियंत्रण में रखा जाए ताकि पाकिस्तान उसे एक हद से आगे न ले जा सके; और 4. इन झगड़ों से ज्याद नुकसान न हो।

बहरहाल, इसी रिपोर्ट में एक जगह पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल एच. एस. पनाग का कथन आया है जिसमें वे कहते हैं कि ‘‘यह साफ है कि वे (भाजपा वाले) इसकी अंतिम बूंद तक निचोड़ लेंगे।’’ पनाग ने कहा है कि ‘‘1999 में कारगिल युद्ध के बाद नेताओं की उत्तेजक बातें इस हद तक चली गई थी कि तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वी. पी. मलिक प्रधानमंत्री वाजपेयी के पास गये और उन्होंने राजनीतिक पोस्टरों में सेना प्रमुखों की तस्वीरों के इस्तेमाल का प्रतिवाद किया।’’

इसके साथ ही लेफ्टिनेंट जनरल पनाग ने कहा कि इन परिस्थितियों में सुरक्षा एजेंशियों को एक बड़ी आतंकवादी कार्रवाई की आशंका रहती है। पनाग के शब्दों में ‘‘ यह तब तक चलता रहेगा जब तक कि पाकिस्तान कोई और बड़ा कांड नहीं करता जिससे यह सरकार किसी बड़े धर्मसंकट में फंस जाए। इसप्रकार की (राजनीति और सर्जिकल स्ट्राइक का दावा करने वाली) रणनीति में मार खाने का खतरा हमेशा बना रहता है।’’

जो भी हो, लेफ्टिनेंट जनरल पनाग के कुछ भी सामरिक अंदेशें क्यों न हो, अपने खुद के अनुभव से हम बार-बार यह देख रहे हैं कि जब-जब हमारे देश में भाजपा-आरएसएस के पास सत्ता होती है, उस सत्ता का प्रारंभ तो पाकिस्तान के साथ दोस्ती के भारी ताम-झाम से होता है, लेकिन बहुत जल्द ही परिस्थितियां तेजी से इस कदर बदल जाती है कि हमारी सीमाएं सुलगने लगती है और सीमाओं पर लगी ‘न युद्ध न शांति’ वाली आग की इस आंच पर भाजपा-आरएसएस अपनी राजनीति की रोटियां सेंकने लगते हैं।

यह परिस्थिति हमें अनायास ही आरएसएस के बारे में लगभग छ: दशक पहले अमेरिकी शोधार्थी जे. ए. कुर्रान, जूनियर की कही इस बात की याद दिला देती है कि ‘‘भारत में आरएसएस की राजनीति का भविष्य पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों की स्थिति पर निर्भर करता है। जब-जब इनमें तनाव बढ़ेगा, भारत में आरएसएस की राजनीति फलेगी-फूलेगी और जब तनाव कम होगा, वह कमजोर होगी।’’

फिलहाल, आज दिवाली के दिन, हम तो यह देख रहे हैं कि वर्तमान मोदी सरकार ने दीवाली के त्यौहार से जुड़ी हमारी सांस्कृतिक खुशियों पर ग्रहण लगाने का काम किया है। भारत के टेलिविजन चैनल आज सिर्फ युद्ध और युद्ध की हुंकारों में मुब्तिला है।

हम यहां टेलिग्राफ की आज की इस खबर का लिंक दे रहे हैं -

http://www.telegraphindia.com/1161030/jsp/frontpage/story_116442.jsp#.WBYyC5pb7j8

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