गुरुवार, 29 सितंबर 2016

आतंकवाद, कश्मीर और इस्लाम

-अरुण माहेश्वरी

हम चाहे, न चाहे, आतंकवादियों से निपटना तो होगा ही । उन्हें जो मन में आए करने की अनुमति नहीं दी जा सकती । इसीलिये सीमा पर भारतीय सेना ने उनके खिलाफ जो कार्रवाई की है, उससे पाकिस्तान सहित किसी के भी ख़फ़ा होने का कोई कारण नहीं होना चाहिए ।

यदि यह मान लिया जाए कि आतंकवाद का यह मसला किसी न किसी रूप में कश्मीर की मूल समस्या से जुड़ा हुआ है, तब कहना होगा कि समय आ गया है जब कश्मीर के पूरे सवाल पर सभी जनतांत्रिक ताक़तों की दृष्टि साफ़ हो ।

कश्मीर समस्या का समाधान कभी भी उसकी आज़ादी नहीं हो सकता है । अगर कश्मीर के लिये ऐसा कोई समाधान हो सकता है, तो वह किसी न किसी प्रकार से भारत के दूसरे सभी राज्यों पर क्यों नहीं लागू होना चाहिए ?

क्या सिर्फ एक वजह से कश्मीर के विषय को भिन्न माना जा सकता है कि वहाँ मुसलमानों का बहुमत है, जो देश के दूसरे हिस्सों में अल्पमत में हैं ?

अगर इस प्रकार सोचा जाने लगा तो हम अपने को फिर एक बार सत्तर साल पहले की, 1947 की स्थिति में ले जायेंगे । और हमारा अब तक का अनुभव यही है कि बँटवारा इस उप-महादेश की समस्याओं का एक पूरी तरह से विफल समाधान साबित हुआ है । तब आगे कैसे कोई इसकी सफलता की कल्पना भी कर सकता है ?

दुनिया के हालात को देखते हुए, इसमें कोई शक नहीं है कि कश्मीर को आज़ाद करने का मतलब होगा उसे मुल्ला-मौलवियों के हाथ में सौंपना । वहाँ एक इस्लामिक क्रांति के लिये जमीन तैयार करना । सारी दुनिया के मज़हबी उग्रवादी उस पर ताक लगाए बैठे हैं ।

इस्लामिक क्रांति का अनुभव भी सारी दुनिया को है । ईरान और अफ़ग़ानिस्तान में इसके क्या परिणाम निकले हैं ? ईरान में आज भी, सैंतीस साल से लगातार एक कथित इस्लामिक शासन चल रहा है । जिस साम्राज्यवाद-विरोध के नाम पर उसका सूत्रपात हुआ था, आज उसी शैतान अमेरिका से हर प्रकार का समझौता करने के लिये ईरान आकुल-व्याकुल है । शाह के भ्रष्ट और तानाशाही शासन का परिणाम वहाँ ख़ुमैनी की और भी उग्र और हिंसक तानाशाही के रूप में सामने आया । इस कथित क्रांति से वहाँ की जनता ने अपने जीवन में क्या नया हासिल किया, जो अन्यत्र कहीं हासिल नहीं हुआ है ? लेकिन उन्होंने प्रकट रूप में अपने जीवन की बहुत सारी आज़ादियों को जरूर गँवा दिया । ईरान की इस्लामिक क्रांति आम लोगों की राजनीतिक और जनतांत्रिक आज़ादी की सभी संभावनाओं को कुचल कर वहां हज़ारों साल तक अपने प्रभुत्व को बनाये रखने का सपना पाले हुए है ।

यह आम तौर पर देखा जाता है कि धर्म मूलत: एक सामंती पुंसवादी वर्चस्व की विचारधारा होने के नाते जब और जहाँ भी शासन में उसका पलड़ा भारी होता है, स्त्रियों को उसकी भारी क़ीमत अदा करनी पड़ती है । राजनीतिक ताक़त के रूप में वह स्त्रियों के मानवोचित अधिकारों के हनन के ज़रिये ही अपने को चरितार्थ करता है ।

गहराई से देखा जाए तो पिछली सदी ने क्रांति की उस पूरी अवधारणा को एक विफल अवधारणा साबित किया है जिसके ज़रिये सत्ता को मुट्ठी भर लोगों के समूह में स्थाई तौर पर सीमित करने की योजना बनाई जाती है । सत्ता को पूरी तरह से अपने हाथ में संकेंद्रित करके विश्व विजय की ऐसी अवधारणाओं के ही सबसे बदतर उदाहरण हिटलर-मुसोलिनी रहे हैं । इस्लामिक क्रांति भी एक वैसी ही भ्रांति है ।

इसीलिये कश्मीर को किसी 'विश्व इस्लामिक क्रांति' का निहत्था शिकार बना कर छोड़ना उसकी किसी समस्या का समाधान नहीं हैं । देश के सभी जनतांत्रिक लोगों को कश्मीर में अधिकतम स्वायत्तता के साथ जनतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया को बनाये रखने पर बल देना चाहिए । कश्मीर के लोगों का भाग्य भारत के अन्य हिस्सों के लोगों के भाग्य के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है । कश्मीर में जनतंत्र और न्याय की सुरक्षा ही देश के दूसरे हिस्सों में भी जनतंत्र और न्याय को बल पहुँचायेगी । 

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