शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

मोदी जी का ‘वर्तमानवाद’

-अरुण माहेश्वरी

आज सीएनएन न्यूज 18 के अपने साक्षात्कार के अंत में प्रधानमंत्री मोदी से जब साक्षात्कारकर्ता ने उनकी कार्यपद्धति के बारे में सवाल किया तो उन्होंने बड़ी संजीदगी से कहा कि वे हमेशा वर्तमान में जीते हैं। उनका कहना था कि मैं जब जिस काम में लगा रहता हूं, उसके प्रति पूरा न्याय करने की कोशिश करता हूं। जब साक्षात्कार दे रहा हूं तो मेरा ध्यान और किसी चीज पर नहीं रहता। जब फाइलों को देखता हूं तो उन्हीं में डूब जाता हूं। इससे सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि मुझसे जो भी मिलता है, संतुष्ट हो कर जाता हैं क्योंकि उसे लगता है उसे क्वालिटी समय दिया गया। उसकी बात को सुना गया।

मोदी जी ने इस बात को कुछ इस प्रकार से कहा जैसे यही उनका जीवन दर्शन हो, क्योंकि इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि जरूरत पड़ने पर मैं अपनी कई पुरानी बातों को छोड़ने की हिम्मत रखता हूं।

किसी भी व्यक्ति को एक बार के लिये मोदी जी की इस बात से लग सकता है कि इन बातों से वे अपने काम के प्रति निष्ठा की बात कह रहे हैं। लेकिन यदि हम थोड़ी सी भी गहराई में जाकर देखें तो हमें यह समझने में जरा भी देर नहीं लगेगी कि उनकी ‘पूरी तरह से वर्तमान में जीने’ की यह बात कैसे किसी भी राजनेता के लिये बहुत उथली और प्रत्येक प्रवंचक नेता के लिये एक प्रकार की अति-साधारण बात है।

यही तो है जहां से मोदी जी की ‘जुमलेबाजी’ की पूरी समस्या पैदा होती है। सोचने का यह ढंग ही तो किसी भी राजनीतिज्ञ को मौका देख कर बोलने के गुर सिखाता है। ‘वर्तमान में जीने’ का सीधा मतलब होता है सोच-विचार और मनन की परंपरा से कट कर जीना। इसमें आदमी यह मान कर चलता है कि बात ही तो है, उसका क्या मोल है कि उसके प्रति सतर्कता बरती जाए ! जब जैसा समय हो वैसी बात बोल कर, एक बार के लिये लोगों को सम्मोहित करके चलते बनो। बड़े मजे से कह दिया जाता है कि हमने बात ही तो कही है, किसी का नुकसान तो नहीं किया !  कोरी, खास तौर पर चिकनी चुपड़ी बातों की खूबी यही होती है कि उन्हें बहुत मासूम मान लिया जाता है, जिनसे किसी को कोई नुकसान नहीं होता। और कहना न होगा, यही किसी के लिये भी ‘वर्तमान में जीने’ का सबसे आसान उपाय भी होता है !

आम लोगों की बात छोड़ दीजिये। मोदी जी से हमारा सिर्फ एक सवाल है कि क्या वे यह नहीं जानते कि राजनेताओं के जनता के बीच संबोधन, राष्ट्र और संसद में किये गये संबोधन किसी भी राष्ट्र के इतिहास के अभिन्न अंग हुआ करते हैं ? वे कितने ही लच्छेदार या घुमावदार लहजे में क्यों न किये गये हो, उनके साथ बोलने वाले का चरित्र, उसकी निजी नैतिकता और आत्मिक प्रकृति समान रूप से जुड़े होते हैं। वे क्या और कैसे काम करते हैं, उसकी सैद्धांतिकी का भी ‘वर्तमान’ के दबाव में की जाने वाली इन जुमलेबाजियों से अंदाज मिलता है। और इतिहास में दर्ज इन जुमलों के पीछे की आत्मा में प्रवेश करके ही यह पता चलता है कि किस व्यक्ति का बौद्धिक और नैतिक जीवन क्या और कैसा था।

हम नहीं जानते कि राजनीति के तात्कालिक खेल में मोदी जी को इस या इस प्रकार की सारी बातों से क्या हासिल हो रहा है, लेकिन यदि वे कोरी बातों की ‘मासूमियत’ के भरोसे राजनीति का अपना सारा कारोबार चलाना चाहते हैं तो कहना न होगा, उनकी दौड़ बहुत ही छोटी साबित होगी। राजनेता की जरूरत अपने वर्तमान में जीने की या अपने विषय में डूबने की नहीं होती। ऐसे लोग वास्तव में मनन की प्रक्रिया से कोसों दूर रहते हैं। जरूरत वर्तमान से ऊपर उठ कर चलने की होती है। हेगेल अपने इतिहास के दर्शन में सीजर के बारे में कहते हैं कि वह राजनेताओं में भी ऊंचा इसलिये था क्योंकि उसने अपने उद्देश्यों के अनुसरण से इतिहास बनाया था।  

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