रविवार, 4 सितंबर 2016

कोलकाता में 'आलोचना के कब्रिस्तान से' का लोकार्पण और 'लहक' संगोष्ठी









कोलकाता के भाषा परिषद के सभागार में 4 सितंबर को 'लहक' पत्रिका की ओर से हमारी पुस्तक 'आलोचना के क़ब्रिस्तान से' पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया । गोष्ठी की अध्यक्षता की वरिष्ठ कवि श्री ध्रुवदेव मिश्र 'पाषाण' ने ।
काफी दिनों बाद कोलकाता की एक संगोष्ठी में महानगर के हिंदी के इतने सारे वरिष्ठ लेखक इकट्ठा हुए थे । सब पुराने मित्रों से मिलना हमारे लिये एक बहुत सुखद अनुभव रहा । एक सौ से भी ज़्यादा लेखकों का उपस्थित होना आज के समय में एक बड़ी बात थी । लगभग साढ़े तीन घंटे तक चली इस गोष्ठी में बोलने वालों में सर्वश्री गीतेश शर्मा, विमलेश्वर, श्री निवास शर्मा, हितेन्द्र पटेल, आशुतोष, विमल वर्मा, मृत्युंजय श्री वास्तव, जगदीश्वर चतुर्वेदी और 'लहक' के संपादक निर्भय देवयांश शामिल थे ।
कार्यक्रम का संचालन किया श्री ब्रजमोहन सिंह ने ।
इस कार्यक्रम में रखे गये अपने वक्तव्य को हम मित्रों से साझा कर रहे हैं :


मित्रो,
पुस्तकों का लोकार्पण या उन पर गोष्ठियां आज किसी भी नगर, महानगर के सांस्कृतिक जीवन की इतनी साधारण सी बात है कि मैं नहीं जानता इसको लेकर किसी में भी कोई खास आकर्षण या उत्तेजना शेष है। साहित्य और पुस्तकों की दुनिया में यह सब इतने बड़े पैमाने पर हो रहा है कि किसी के लिये भी इसके कोई खास मायने नहीं रह गये हैं।

लेकिन आदमी है कि जो सामान्य, गतानुगतिक जीवन को भी, कुछ कर्मकांडी कामों के जरिये ही क्यों न हो, घटना-बहुल बनाने के रोमांच को जीता रहता है। कर्मकांडों के रोमांच से बड़ा जीवन में शायद दूसरा कोई रोमांच नहीं होता। और समझ लीजिए कि एक लेखक या एक लेखक-समाज होने के नाते, हम भी अपने लिये कुछ ऐसे आयोजन करके, कराके या उनमें हिस्सा लेकर अपनी लेखकीय सत्ता के प्रति खुद को आश्वस्त करते रहते हैं और एक सीमा तक आनंदित भी होते हैं। संभव है, आज का यह आयोजन भी, वैसा ही, महज एक आयोजन भर हो, हमारी अपनी खुशी के लिये रचा गया, लेकिन व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य के हिसाब से प्राय: महत्वहीन, एक कोरा कर्मकांड।

इस एक प्रकार के एक निराशा भरे नोट से शुरू करने के बावजूद कुछ बातें हैं, जिनकी ओर मैं मित्रों का ध्यान खींचना चाहूंगा। हम यहां जिस किताब का लोकार्पण कर रहे हैं, वह मेरी एक बहुत ही पतली सी किताब है। एक पत्रिका में छपे सिर्फ सात लेखों का संकलन। दुनिया की तमाम पत्रिकाओं के अपने कुछ खास लेखक हुआ करते हैं, जिनसे उन पत्रिकाओं की पहचान बनती है, और लेखक की भी पत्रिका के माध्यम से अपनी एक अलग पहचान बनती है। इसीलिये, हमारे इस संकलन के साथ, सिर्फ हमारी नहीं, कोलकाता से निकलने वाली इस ‘लहक’ पत्रिका की भी एक पहचान या कह सकते हैं, शक्ति जुड़ी हुई है। और यही इस संकलन की सबसे बड़ी विशेषता है और आज के इस आयोजन की भी।

आज हिंदी में, मेरी समझ के अनुसार, ‘लहक’ एक ऐसी पत्रिका है, जिसने अपने चंद अंकों से ही सामान्य तौर पर गहरी नींद में सोये हुए हिंदी साहित्य के जगत में अपनी एक ऐसी चुभने वाली जगह बना ली है, जिसकी मौजूदगी की कोई भी आसानी से अवहेलना नहीं कर पा रहा है। सवाल है कि आखिर इसकी क्या वजह है ?

मित्रो, यह एक सवाल ही हमसे अपने इर्द-गिर्द की बहुत से चीजों को देखने की अपेक्षा रखता है। कोलकाता से जिस काल में इस पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ, उस समय एक बार के लिये पश्चिम बंगाल में वामपंथ का लाल सूरज अस्त हो चुका था। विगत कई दशकों से जिस सूरज के तेज से देश भर में जनवादी और प्रगतिशील साहित्य और विचारों का दुर्दमनीय प्रताप बना हुआ था, वह 2011 तक आते-आते गोधुली के अपने रहस्यमय उजाले की छटा के अंत के साथ क्रमश: अंधेरे की खाई में उतर चुका था।

मित्रों, वामपंथ के इस अस्त ने, देश भर में आधुनिकता के बाकी सभी रूपों, धर्म-निरपेक्षता, जनतंत्र और सामाजिक न्याय के आंदोलनों को भी क्षति पहुंचाई और हमारे देखते ही देखते, एक चरम दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक और फासिस्ट शक्ति का देश भर में डंका बजने लगा। विचारों के साथ जीने वाले पूरे बौद्धिक समाज के लिये इसे एक असहनीय परिस्थिति का सूत्रपात कहा जा सकता है। इस परिस्थिति का एक दानवीय रूप इसी बीच, तब हमारे सामने सबसे प्रकट हो कर आया, जब डाभोलकर, पानसारे और कलबुर्गी जैसे कन्नड़ और मराठी भाषा के जाने-माने लेखकों की  सुनियोजित ढंग से हत्याएं की गई। लेकिन इसके दबाव के ताप को वास्तव में उसी समय से महसूस किया जाने लगा था जब गुजरात के जनसंहार के नायक को जनमत को झूठ-सच के मायावी खेलों से अपने साथ टेर लेने के लिये अभावनीय ताम-झाम के साथ उतारा गया था।

और मित्रों, जाहिर है कि संकट के ऐसे अशनि संकेतों के बीच, किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति का पहला दायित्व अपने अंदर झांक कर अपनी कमजोरियों की निर्ममता से जांच करने और तर्क तथा विचार की अपनी शक्ति को नये रूप में संयोजित करने की दिशा में होता है। जिसे कहते हैं, नदी का प्रवाह, लाख बाधाओं के बाद भी कहीं न कहीं से अपने लिये आगे का रास्ता खोज ही लेता है, यह आत्मानुसंधान, या आत्मालोचन, तर्क और विवेक की नई शानित शक्ति को अर्जित करने की यह कोशिश भी वैसी ही होती है। यह लगभग अस्थि का रूप ले चुके विचारों की जड़ता को झाड़ कर नई शक्ति अर्जित करने का ऐसा उपक्रम होता है जो एकबारगी किसी को भी भारी विध्वंसक जान पड़ता है, लेकिन सचाई यही है कि विचारों के विकास की धारा ही कुछ ऐसी है जिसमें कोई भी एक वृत्त अपने अंदर के ताप से जब किसी दूसरे नये और उच्चतर वृत्त को जन्म देता है तब वह अपने में ही लौट कर अपनी पूर्ण गति को प्राप्त करता है और नये वृत्त के पौर्वापर्य की भूमिका तक से भी वंचित होगया दिखाई देने लगता है।

सच कहा जाए तो, मित्रों आज हम समय के एक ऐसे ही संयोग-स्थल पर है, जब अपने आगे के रास्ते के लिये ही हमें अपने पीछे की गहरी तहों तक जाकर पूरे अब तक के खोल को ही पलट देना होगा। इस किताब की भूमिका में भी मैंने इसी संदर्भ में हमारे अभिनवगुप्त और उनके प्रत्यभिज्ञान विमर्श को याद किया है जिसमें वे एक संयोग-स्थल से चिंतन की गहरी गुहा में प्रवेश करके बिल्कुल नई शक्ति प्राप्त करने की प्रक्रिया के बारे में कहते हैं। इस किताब के लेखों में मैंने इसीलिये अतीत के वैचारिक महलों के ढहने का उत्सव मनाने वाले मार्क्स के वैचारिक रूझान की मूलभूत भावनाओं के साथ खुद को जोड़ने की कोशिश की है।

मुझे यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है कि इस मामले में हमारे लिये सबसे बड़ा संबल बनी है निर्भय देवयांश जी की यह ‘लहक’ पत्रिका। मुझे लगता है कि साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में देवयांश जी जैसे खाली स्लेट की तरह की मानसिकता के साथ आए थे। उनकी संपादकीय दृष्टि पहले से किसी भी खास आग्रह से दूषित नहीं थी। वे सिर्फ एक बात समझ रहे थे कि अभी जो स्थिति है वह सही नहीं है; और इस स्थिति के लिये हिंदी के साहित्य जगत में आज तक जो चलता रहा है, वह भी कम जिम्मेदार नहीं है ; यह ऐसे ही चल नहीं सकता है। और, इस मामले में उनकी एक बहुत साफ हेगेलियन दृष्टि भी रही कि जो चल नहीं सकता, उसे अपनी जगह को छोड़ना होगा। नहीं छोड़ता तो उसे हटाना होगा। मोटे तौर पर ऐसे ही एक, नकारात्मक प्रकार के नजरिये से उन्होंने अपनी पत्रिका को जो दिशा दी है, उसकी गूंज-अनुगूंज आज हमें क्रमश: पूरे हिंदी जगत में सुनाई देने लगी है। ‘लहक’ की नकारात्मकता हिंदी आलोचना में सचमुच एक सृजनात्मक विध्वंस के सूत्रपात की भूमिका अदा कर रही है। आलोचना को कोरे स्तवन और कर्मकांडी क्रियाओं से मुक्त करके यह उसे नये रूप में अपनी प्राणी सत्ता को अर्जित करने के लिये प्रेरित कर रही है।

इसीलिये, लहक के अंकों में प्रकाशित हमारे लेखन का भी हमें थोड़ा विशेष महत्व जान पड़ता है। इसमें जरा भी संदेह नहीं है कि अगर ‘लहक’ की जैसी पत्रिका का मंच न होता तो इस प्रकार शालीनता-अशालीनता की बिना परवाह किये हम अपनी घोड़ागाड़ी के कोच से कूद कर बाहर नहीं आ सकते थे, जिसके बारे में किर्केगार्द अपनी The Seducer’s Diary में सावधान करते हुए कहते हैं –

“Caution, my beautiful unknown ! Caution ! Stepping out of a coach is not so simple a matter. Sometimes it is a decisive step. …steps in coaches are so badly placed that one has almost to forget about being graceful and risk a desperate lunge into the arms of coachman and footman.”

‘‘सावधान, मेरी अज्ञात सुन्दरी ! सावधान! कोच से निकलना उतना सीधा मामला नहीं है। कभी-कभी यह एक निर्णायक कदम होता है।...कोच की सीढि़यां इतनी बेढब रखी होती है कि कोई भी उनसे शालीनता से नहीं उतर सकता है। उसे कूद जाना पड़ता है, जिसमें हमेशा कोचवान या अर्दली की बाहों में गिर जाने का खतरा होता है।’’

किताब आप लोगों के पास है। मुझे उम्मीद है, और कुछ भी क्यों न हो, इसके विचारों की उष्मा को कहीं न कहीं से आप सभी जरूर महसूस करेंगे। मुझे 19वीं सदी के फ्रांसीसी प्रयोगधर्मी कवि स्टीफन मलार्मे की यह बात मालूम है कि ‘सभी विचार एक पासे को फेंकने की तरह ही हुआ करते हैं’। पासा फेंकने से कभी संभावनाओं का अंत नहीं होता। विचारों की सचाई की स्वीकृति में अंतत: परिस्थितियों के संयोग की एक प्रमुख भूमिका होती है। इसीलिये वे जोखिम भी होते हैं, और अपने में एक दाव भी। हेगेल की राय थी कि विचार और ज्ञान को जब तक व्यक्त नहीं किया जाता, वे पूरी तरह से निर्मित नहीं होते हैं। इसीलिये, यह जोखिम उठाना, यह दाव खेलना दरअसल किसी भी विचार की निर्मिति की बुनियादी शर्त है।  आज के वैचारिक गतिरोध के समय में यदि हमें किसी बड़े विचार के साथ जीना हैं तो उसे इसीप्रकार के जोखिम भरे रास्तों से निर्मित करना, प्राप्त करना होगा। इसका दूसरा कोई विकल्प नहीं है।

जहां तक इन लेखों की अपनी एक खास प्रकार की शैली का प्रश्न है, मैं उसकी प्रकृति को बहुत अच्छी तरह से देख पा रहा हूं। जब किन्हीं विषयों पर काफी लंबे अर्से की आपकी तैयारी को समग्रता के साथ किसी पत्रिका के सीमित पृष्ठों में उतारना हो, तो लेखन की जिसप्रकार की एक सान्द्र शैली विकसित होती है, उसे इन लेखों में भी देखा जा सकता है। यदि इसका हमें किसी ठोस रूप में वर्णन करना हो तो मैं आस्ट्रेलिया के कंगारू की याद करूंगा जिसके पीछे के पैर काफी लंबे होते हैं, कह सकते हैं दूर तक धसे हुए, लेकिन आगे के पैर उतने ही छोटे, एक पत्रिका के सीमित पन्नों की तरह। कंगारू जब बैठता तो बहुत ही जम कर ऐसे बैठता है जैसे किसी सिंहासन पर बिल्कुल स्थिर होकर शान से बैठा हो। लेकिन जब वह अपने विषय के तमाम आयामों तक जाता है तो इसप्रकार की छलांग लगाते हुए जाता है कि उसे देख कर अच्छे-अच्छे लोग भी सकते में आ जाते हैं। लेखन में ऐसी छलांगों से पैदा होने वाली खाइयों में ही दरअसल उसका सौन्दर्य छिपा होता है। जो between the lines कहलाने वाली इन खाइयों को पढ़ पाता है, उसे अपने अंदर किसी सत्य के उद्घाटित होने की तरह का रोमांचपूर्ण आनंद महसूस हो सकता है। लेकिन जो इन्हें पढ़ने मे असमर्थ होते हैं, उनके लिये यह लेखन महज एक पहेली भर बन कर भी रह जाता है।

लहक के पृष्ठों पर जब ये लेख छप रहे थे, उस समय हमें जिस प्रकार की तमाम प्रतिक्रियाएं मिलीं, उनमें यदि एक अनोखे रोमांच की अनुभूति की गूंज सुनाई देती थी, तो कुछ ऐसी भी थी जो अंदर के सारे मानदंडों के ढह जाने की चिंता और क्रोध से भी भरी हुई थीं। और कुछ लोग तो  स्वाभाविक तौर पर, ठिठक कर शब्दों के इस खेल को देख भर रहे थे, इनमें प्रवेश की उनकी कोई गति नहीं थी।

बहरहाल, आज ‘लहक’ के इस आयोजन में काफी सालों बाद सभी मित्रों से इस मुलाकात ने हमारे अंदर एक प्रकार की नोस्टालजिक अनुभूतियां भी पैदा की है। इसके लिये मैं आप सबका, और खास तौर पर ‘लहक’ के संपादक का शुक्रगुजार हूं।

धन्यवाद।
04.09.2016



आज के ‘राजस्थान पत्रिका’ और ‘प्रभात खबर’ के कोलकाता संस्करण में ‘लहक’ की प्रथम संगोष्ठी की खबर :


<http://epaper.patrika.com/c/12989597>

<http://epaper.prabhatkhabar.com/c/12992675>



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