‘आपका कामरेड, पूंजीवाद’
‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका के 20 अगस्त 2016 के अंक में एक दिलचस्प लेख है - Comradely Capitalism - अमेरिका ने कैसे अनायास ही अपने जमानती कर्जों के बाजार का राष्ट्रीयकरण कर लिया (How America accidently nationalised its mortgage market) ।
इस लेख की शुरूआत सन् 2008 के लेहमैन ब्रदर्स के पतन से की गई है। मकानों के लिये कर्ज को वित्तीय पण्य बना कर बैंकों के खेल में कर्ज की किश्तों के भुगतान में असमर्थ ग्राहकों के चलते जो सबप्राइम संकट पैदा हुआ, उसका भी जिक्र है। लेकिन इसमें सबसे दिलचस्प है वह कहानी कि 2007 से ही शुरू हुए वित्तीय संकट की आहटों के बाद 2008 के सबप्राइम भूचाल सहित पिछले लगभग दस सालों ने अमेरिका के हाउसिंग क्षेत्र पर क्या प्रभाव डाला है। और देखने लायक है उस पर ‘इकोनोमिस्ट’ की व्यंग्योक्ति जो उनकी इस कहानी के शीर्षक से ही जाहिर है।
आज अमेरिका में दुनिया की सबसे बड़ी आवासीय संपत्ति है जिसकी कीमत 26 ट्रिलियन डालर कूती जाती है। यह वहां के शेयर बाजार की कुल पूंजी से थोड़ी ज्यादा है। इसपर लोगों को तकरीबन 11 ट्रिलियन डालर का जमानती कर्ज दिया हुआ है, जिसे दुनिया के किसी भी दूसरे देश की तुलना में वित्तीय जोखिम का एक सबसे बड़ा जखीरा माना जाता है। इसके अतिरिक्त सारी दुनिया में ऐसे और भी एक ट्रिलियन डालर के जमानती कर्जों के साथ अमेरिकी वित्तीय व्यवस्था गहराई से जुड़ी हुई है।
‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका की अमेरिकी प्रशासन से शिकायत है कि 2008 में इस क्षेत्र में इतना बड़ा विस्फोट होने के बाद भी वहां की वित्तीय व्यवस्था के इस क्षेत्र में पुराने दोष जस के तस पड़े हुए हैं।
इस बारे में ‘इकोनोमिस्ट’ की टिप्पणी है कि जमानती कर्ज देने की इस प्रणाली ने अमेरिका में एक अनोखा रास्ता पकड़ा हुआ है, जिनका आम लोगों और महाजनों, दोनों की ही मानसिकता पर असर दिखाई देता है। उसके शब्दों में -‘‘The supply of mortgages in America has an air of distinctly socialist command-and-control about it. Some 65-80% of all new home loans are repackaged by organs of the state. The structure of these loans, their volume and the risks the entail are controlled not by markets but by administrative fiat.”
(अमेरिका में दिये जाने वाले जमानती कर्ज में कमान और नियंत्रण वाली समाजवादी पद्धति की एक स्पष्ट झलक है। लगभग 65 से 80 प्रतिशत मकानों के लिये कर्जों की सरकारी संस्थाओं ने नये रूप में तैयार किया है। इन करों का ढांचा, इनकी मात्रा और इनके साथ जुड़े जोखिम भी बाजार के द्वारा नहीं, प्रशासनिक आदेशों के द्वारा तय किये जाते हैं।)
बाजारवाद का खुला पक्षधर ‘इकोनोमिस्ट’ इस बात को बहुत गलत मानता है। उसके अनुसार इसमें जीडीपी का लगभग एक प्रतिशत, प्रतिवर्ष 150 बिलियन डालर आवासीय कर्ज की क्षतिपूर्तियों में खर्च हो जाता है। वह इसे साफ शब्दों में करदाताओं के धन का दुरुपयोग मानता है।
‘इकोनोमिस्ट’ को अमेरिका की आवासीय व्यवस्था शुरू से ही कुछ अजीबोगरीब लगती है। उसके अनुसार जब अधिकांश देशों में बैंकें अपने जोखिम को कम करने के लिये अल्पावधि या व्याज की परिवर्तनीय दरों पर ऐसे कर्ज देती है तब अमेरिका में ये नियत दर पर 30 साल की दीर्घावधि और आसानी से चुकाई जा सके ऐसी शर्तों पर ये कर्ज दिये जाते हैं। उसका आरोप है कि यह बाजार के बल पर नहीं, सिर्फ सरकारी मशीनरी के बल पर किया जा रहा है।
‘इकोनोमिस्ट’ ने इस पूरे विश्लेषण के अंत में अमेरिका के इस क्षेत्र पर यह लांक्षण लगाया है कि उसने 2007-2008 के इतने बड़े संकट की शिक्षाओं को व्यर्थ कर दिया है। यदि उन्होंने उस संकट से शिक्षा ली होती तो वे आसानी से जमानती कर्ज देने वाली मशीनरी को वही रास्ता पकड़ने के लिये मजबूर कर सकते थे, जो बैंकों का सब जगह आजमाया हुआ रास्ता है। अमेरिका में इस व्यवस्था में सुधार करके इसमें सरकार की भूमिका को कम करने के बारे में कई प्रस्तावों पर काम चल रहा है, जिनमें ‘इकोनोमिस्ट’ के अनुसार कौर्कर-वार्नर का विधेयक सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन ‘इकोनोमिस्ट’ को अफसोस है कि आज वहां कोई ऐसे विधेयक को पारित करने की हड़बड़ी में नहीं दिखाई देता है।
‘इकोनोमिस्ट’ इस रिपोर्ट के अंत में कहता है कि हाल के संकट के चलते विश्व वित्तीय व्यवस्था में कुछ सुधार हुए हैं, लेकिन अमेरिकी जमानती कर्ज का क्षेत्र अभी भी सबसे बड़ी समस्या का क्षेत्र बना हुआ है। उसके अनुसार, इसके कारण वहां के आम लोगों में कर्ज लेने का नशा है, असमानता को दूर करने के लिये क्षतिपूर्तियों का इस्तेमाल किया जाता है और राजनीतिक बाधा बरकरार है। इस रिपोर्ट का अंतिम वाक्य है - ‘‘स्वतंत्र लोगों के देश में, जहां अपना मकान होना एक राष्ट्रीय स्वप्न है, मकान खरीदने के लिए कर्ज जुटा कर देने का काम सरकार कर रही है और इसके लिये करदाताओं को सताया जा रहा है।’’
कहना न होगा, ‘इकोनोमिस्ट’ का यह दुख और क्षोभ ही हमारा सुख और संतोष है। ‘इकोनोमिस्ट’ को महाजनों और करदाता वित्तवानों की चिंता है। लेकिन यह राजनीतिक परिस्थितियों का दबाव है, जो ‘इकोनोमिस्ट’ को फूटी आंखों नहीं सुहा रहा है, कि अमेरिका में दुनिया के सबसे बड़े महाजनों की सरकार भी आम लोगों की, उनके स्वप्नों की चिंता करनी पड़ रही है। और पूंजीवाद के संदर्भ में भी हम कहेंगे कि पूंजीवाद अपने इसी लचीलेपन के चलते अब तक कई प्रकार के संकटों के आवत्र्तों से निकल पाया है। अगर ‘इकोनोमिस्ट’ की तरह की बाजारवादी अकड़ पर पूरी तरह से बना रहता तो अन्यत्र तो छोडि़यें, वह अपने सबसे मजबूत गढ़ में ही कब का दम तोड़ दिया होता।
-अरुण माहेश्वरी
The Economist | Housing in America: Comradely capitalism
http://www.economist.com/news/briefing/21705316-how-america-accidentally-nationalised-its-mortgage-market-comradely-capitalism?frsc=dg%7Ca
‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका के 20 अगस्त 2016 के अंक में एक दिलचस्प लेख है - Comradely Capitalism - अमेरिका ने कैसे अनायास ही अपने जमानती कर्जों के बाजार का राष्ट्रीयकरण कर लिया (How America accidently nationalised its mortgage market) ।
इस लेख की शुरूआत सन् 2008 के लेहमैन ब्रदर्स के पतन से की गई है। मकानों के लिये कर्ज को वित्तीय पण्य बना कर बैंकों के खेल में कर्ज की किश्तों के भुगतान में असमर्थ ग्राहकों के चलते जो सबप्राइम संकट पैदा हुआ, उसका भी जिक्र है। लेकिन इसमें सबसे दिलचस्प है वह कहानी कि 2007 से ही शुरू हुए वित्तीय संकट की आहटों के बाद 2008 के सबप्राइम भूचाल सहित पिछले लगभग दस सालों ने अमेरिका के हाउसिंग क्षेत्र पर क्या प्रभाव डाला है। और देखने लायक है उस पर ‘इकोनोमिस्ट’ की व्यंग्योक्ति जो उनकी इस कहानी के शीर्षक से ही जाहिर है।
आज अमेरिका में दुनिया की सबसे बड़ी आवासीय संपत्ति है जिसकी कीमत 26 ट्रिलियन डालर कूती जाती है। यह वहां के शेयर बाजार की कुल पूंजी से थोड़ी ज्यादा है। इसपर लोगों को तकरीबन 11 ट्रिलियन डालर का जमानती कर्ज दिया हुआ है, जिसे दुनिया के किसी भी दूसरे देश की तुलना में वित्तीय जोखिम का एक सबसे बड़ा जखीरा माना जाता है। इसके अतिरिक्त सारी दुनिया में ऐसे और भी एक ट्रिलियन डालर के जमानती कर्जों के साथ अमेरिकी वित्तीय व्यवस्था गहराई से जुड़ी हुई है।
‘इकोनोमिस्ट’ पत्रिका की अमेरिकी प्रशासन से शिकायत है कि 2008 में इस क्षेत्र में इतना बड़ा विस्फोट होने के बाद भी वहां की वित्तीय व्यवस्था के इस क्षेत्र में पुराने दोष जस के तस पड़े हुए हैं।
इस बारे में ‘इकोनोमिस्ट’ की टिप्पणी है कि जमानती कर्ज देने की इस प्रणाली ने अमेरिका में एक अनोखा रास्ता पकड़ा हुआ है, जिनका आम लोगों और महाजनों, दोनों की ही मानसिकता पर असर दिखाई देता है। उसके शब्दों में -‘‘The supply of mortgages in America has an air of distinctly socialist command-and-control about it. Some 65-80% of all new home loans are repackaged by organs of the state. The structure of these loans, their volume and the risks the entail are controlled not by markets but by administrative fiat.”
(अमेरिका में दिये जाने वाले जमानती कर्ज में कमान और नियंत्रण वाली समाजवादी पद्धति की एक स्पष्ट झलक है। लगभग 65 से 80 प्रतिशत मकानों के लिये कर्जों की सरकारी संस्थाओं ने नये रूप में तैयार किया है। इन करों का ढांचा, इनकी मात्रा और इनके साथ जुड़े जोखिम भी बाजार के द्वारा नहीं, प्रशासनिक आदेशों के द्वारा तय किये जाते हैं।)
बाजारवाद का खुला पक्षधर ‘इकोनोमिस्ट’ इस बात को बहुत गलत मानता है। उसके अनुसार इसमें जीडीपी का लगभग एक प्रतिशत, प्रतिवर्ष 150 बिलियन डालर आवासीय कर्ज की क्षतिपूर्तियों में खर्च हो जाता है। वह इसे साफ शब्दों में करदाताओं के धन का दुरुपयोग मानता है।
‘इकोनोमिस्ट’ को अमेरिका की आवासीय व्यवस्था शुरू से ही कुछ अजीबोगरीब लगती है। उसके अनुसार जब अधिकांश देशों में बैंकें अपने जोखिम को कम करने के लिये अल्पावधि या व्याज की परिवर्तनीय दरों पर ऐसे कर्ज देती है तब अमेरिका में ये नियत दर पर 30 साल की दीर्घावधि और आसानी से चुकाई जा सके ऐसी शर्तों पर ये कर्ज दिये जाते हैं। उसका आरोप है कि यह बाजार के बल पर नहीं, सिर्फ सरकारी मशीनरी के बल पर किया जा रहा है।
‘इकोनोमिस्ट’ ने इस पूरे विश्लेषण के अंत में अमेरिका के इस क्षेत्र पर यह लांक्षण लगाया है कि उसने 2007-2008 के इतने बड़े संकट की शिक्षाओं को व्यर्थ कर दिया है। यदि उन्होंने उस संकट से शिक्षा ली होती तो वे आसानी से जमानती कर्ज देने वाली मशीनरी को वही रास्ता पकड़ने के लिये मजबूर कर सकते थे, जो बैंकों का सब जगह आजमाया हुआ रास्ता है। अमेरिका में इस व्यवस्था में सुधार करके इसमें सरकार की भूमिका को कम करने के बारे में कई प्रस्तावों पर काम चल रहा है, जिनमें ‘इकोनोमिस्ट’ के अनुसार कौर्कर-वार्नर का विधेयक सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन ‘इकोनोमिस्ट’ को अफसोस है कि आज वहां कोई ऐसे विधेयक को पारित करने की हड़बड़ी में नहीं दिखाई देता है।
‘इकोनोमिस्ट’ इस रिपोर्ट के अंत में कहता है कि हाल के संकट के चलते विश्व वित्तीय व्यवस्था में कुछ सुधार हुए हैं, लेकिन अमेरिकी जमानती कर्ज का क्षेत्र अभी भी सबसे बड़ी समस्या का क्षेत्र बना हुआ है। उसके अनुसार, इसके कारण वहां के आम लोगों में कर्ज लेने का नशा है, असमानता को दूर करने के लिये क्षतिपूर्तियों का इस्तेमाल किया जाता है और राजनीतिक बाधा बरकरार है। इस रिपोर्ट का अंतिम वाक्य है - ‘‘स्वतंत्र लोगों के देश में, जहां अपना मकान होना एक राष्ट्रीय स्वप्न है, मकान खरीदने के लिए कर्ज जुटा कर देने का काम सरकार कर रही है और इसके लिये करदाताओं को सताया जा रहा है।’’
कहना न होगा, ‘इकोनोमिस्ट’ का यह दुख और क्षोभ ही हमारा सुख और संतोष है। ‘इकोनोमिस्ट’ को महाजनों और करदाता वित्तवानों की चिंता है। लेकिन यह राजनीतिक परिस्थितियों का दबाव है, जो ‘इकोनोमिस्ट’ को फूटी आंखों नहीं सुहा रहा है, कि अमेरिका में दुनिया के सबसे बड़े महाजनों की सरकार भी आम लोगों की, उनके स्वप्नों की चिंता करनी पड़ रही है। और पूंजीवाद के संदर्भ में भी हम कहेंगे कि पूंजीवाद अपने इसी लचीलेपन के चलते अब तक कई प्रकार के संकटों के आवत्र्तों से निकल पाया है। अगर ‘इकोनोमिस्ट’ की तरह की बाजारवादी अकड़ पर पूरी तरह से बना रहता तो अन्यत्र तो छोडि़यें, वह अपने सबसे मजबूत गढ़ में ही कब का दम तोड़ दिया होता।
-अरुण माहेश्वरी
The Economist | Housing in America: Comradely capitalism
http://www.economist.com/news/briefing/21705316-how-america-accidentally-nationalised-its-mortgage-market-comradely-capitalism?frsc=dg%7Ca
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