बुधवार, 14 सितंबर 2016

रवीन्द्रनाथ और जार्ज लुकाच की कोरी फतवेबाजी का सच

-अरुण माहेश्वरी








फेसबुक पर अनायास ही कुछ मित्रों अजायबघर से ढूंढ कर रवीन्द्रनाथ के उपन्यास ‘घोरे बाहिरे’ की समीक्षा को उछाला है कि यह न सिर्फ रवीन्द्रनाथ के उपन्यास लेखन की धज्जियां ही उड़ाता है बल्कि एक के शब्दों में तो यह रवीन्द्रनाथ के खिलाफ लुकाच का एक फौजदारी अभियोगपत्र है। फेसबुक पर मैंने जब इसपर आपत्ति की तो हमारे मित्र कृष्ण कल्पित ने अपने स्वाभाविक बेलौस अंदाज में फेसबुक की खास ट्रौलिंग (कीर्तिगान) की परंपरा में लिख मारा था - ’’कोई बंगाली या मारवाड़ी-बंगाली तभी तक मार्क्सवादी है जब तक रवीन्द्रनाथ का नाम न आये । रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर वे सैंकड़ों कार्ल मार्क्स और हज़ारों जॉर्ज लूकाच क़ुर्बान कर सकते हैं !”1

हम अभी शुरू में ही रवीन्द्रनाथ के इस उपन्यास की लुकाच की उस समीक्षा पर कोई अंतिम टिप्पणी के पहले उसमें क्या है, और उसकी अपनी भी एक क्या खास प्रकार की पृष्ठभूमि है, उसकी सचाई को रखना चाहते हैं। और जिन लोगों में इस समीक्षा से अचानक ही रवीन्द्रनाथ को किसी संगीन अपराध में पकड़ लिये जाने का रोमांच पैदा हुआ है, उन्हें इस विषय की पूरी सचाई की जमीन पर लाना चाहते हैं।

जार्ज लुकाच ने यह समीक्षा सन् 1922 में लिखी थी जिसका शीर्षक है - टैगोर का गांधी उपन्यास ( Tagore’s Gandhi Novel ) ।

गांधी यहां कोई संज्ञा नहीं, एक विशेषण है। अंग्रेजों और पश्चिम के अनेकों के बीच गांधी को एक चालाक लोमड़ी माना जाता था। भारत में कुछ लोग उन्हें अंग्रेजो का पिट्ठू तो मुसलमानों का दलाल समझते थे। कुछ खुद के बारे में उन्हीं के कहे को उद्धृत करते हुए उनको सनातनी हिंदू मानते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के कतिपय वामपंथी इतिहास में भी उन्हें पूंजीपतियों के प्रतिनिधि के रूप में विवेचित किया जाता रहा है। और खुद राष्ट्रीय कांग्रेस के अंदर उनके बारे में समय-समय पर यह शिकायत रहती थी कि अहिंसा और सत्य के प्रति अतिरिक्त आग्रह के कारण उन्होंने अनेक बार जनता के क्रांतिकारी उबाल पर पानी डालने का काम किया। उन्हें डिक्टेटर तो कहा ही जाता था।

लुकाच के ‘गांधी’ का क्या तात्पर्य है, यह तो हम आगे देखेंगे, लेकिन अभी की सचाई यह है कि गांधी के बारे में आज भारत में उस प्रकार की नफरत या दुर्भावना रखने वाले लोग आरएसएस के चंद हिंदू कट्टरवादी लोगों के अतिरिक्त कम ही बचे हैं। यहां गांधी एक विशेषण के तौर पर कोई अवमाननामूलक शब्द तो नहीं ही रह गया है !

बहरहाल, शुरू में ही हम  लुकाच से जुड़े कुछ दूसरे तथ्यों की ओर यहां ध्यान खींचना चाहते हैं।  लुकाच ने अपने लेखन के जिस काल में रवीन्द्रनाथ के इस प्रसिद्ध उपन्यास की समीक्षा लिख कर उसे एक सिरे से खारिज ही नहीं किया बल्कि उसकी बुरी तरह से निंदा करते हुए उसे भारी उपहास का विषय भी बनाया था, उसी काल में (सन् 1920-1930 के काल में )उपन्यास विधा के बारे में उनकी समग्र क्या समझ थी, इसे उन्होंने अपनी एक किताब ‘The Theory of the Novel’ में काफी विस्तार से लिखा था। और सबके जानने लायक दिलचस्प बात यह है कि लुकाच के विपुल लेखन में शायद उनकी यह अकेली किताब रही है, जिसे परवर्ती काल में, खास तौर पर स्तालिन के बाद की सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस के बाद में, लुकाच ने ही उस किताब के अपने एक प्राक्कथान में उसे पूरी तरह से, from roots to branches, ठुकरा  दिये जाने की बात कही थी।2

लुकाच की मृत्यु 1971 में हुई थी और मरने के नौ साल पहले, 1962 में इस किताब में उपन्यासों के बारे में सन् ‘20-‘30 की अपनी समझ के बारे में खुद उन्होंने लिखा था कि ‘‘ The author of The Theory of the Novel… was looking for a general dialectic of literary genres that was based upon the essential nature of aesthetic categories and literary forms, and aspiring to a more intimate connection between category and history than he found in Hegel himself; he strove towards intellectual comprehension of permanence within change and of inner change within the enduring validity of the essence. But his method remains extremely abstract in many respects, including certain matters of great importance; it is cut off from concrete socio-historical realities. For that reason, as has already been pointed out, it leads only too often to arbitrary intellectual constructs….When M. A. Lifshitz and I, in opposition to the vulgar sociology of a variety of schools during the Stalin period, were trying to uncover Marx’s real aesthetic and to develop it further, we arrived at a genuine historico-systematic method. The Theory of the Novel remained at the level of an attempt which failed both in design and in execution… the novel form are here the mirror-image of a world gone out of joint. This is why the ‘prose’ of life is here only a symptom, among many others, of the fact that reality no longer constitutes a favourable soil for art”

(‘ द थ्योरी ऑफ द नावेल’ का लेखक साहित्यिक शैली के बारे में एक सामान्य तर्क की तलाश कर रहा था, जो सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों और साहित्यिक रूपों के सार-तत्व पर आधारित हो, और हेगेल में उसने जो पाया उसकी तुलना में प्रतिमान और इतिहास के बीच और भी गहरे संबंध को पाना चाहता था ; उसने परिवर्तन के स्थायित्व और सार-तत्व की चिरस्थाई मान्यता के अंदर के परिवर्तने की एक बौद्धिक समझ कायम करने की कोशिश की थी। लेकिन अनेक दृष्टियों से उसका तरीका अत्यंत अबूझ सा रहा गया, यहां तक कि कुछ अत्यधिक महत्व के विषय भी अबूझ बने रहे ; वह सामाजिक-ऐतिहासिक यथार्थ से ही कट गया।...स्तालिन के काल के कुत्सित समाजशास्त्र के कुछ स्कूलों के खिलाफ जब मैं और एम. ए. लिफशित्ज मार्क्स के वास्तविक सौन्दर्यशास्त्र को खोल कर और विकसित करने की कोशिश कर रहे थे तब हम एक वास्तविक ऐतिहासिक-व्यवस्थित प्रणाली तक पहुंच पाए थे। ‘थ्योरी ऑफ नावेल’  वहीं पड़ा रह गया जो अपने सोच और प्रयोग, दोनों ही मामलों में विफल साबित हुआ था। ...उसमें उपन्यास का ढांचा एक बिगड़ चुके विश्व के प्रतिबिंब की तरह था। इसीलिये उसमें जीवन का ‘गद्य’ अन्य चीजों की तरह, यह मान कर  कि यथार्थ कला के लिये अब कोई उपयुक्त जगह नहीं बची है, इस तथ्य का सिर्फ एक लक्षण भर बन कर आया था ।)

लुकाच के इस काल के लेखन पर कौन से प्रभाव काम कर रहे थे, इसे उन्होंने खुद बताया था -

‘‘ Kierkegaard always played an important role for the author of The Theory of the Novel, who, long before Kierkegaard had become fashionable, wrote an essay on the relationship between his life and thought.’ And during his Heidelberg years immediately before the war he had been engaged in a study, never to be completed, of Kierkegaard’s critique of Hegel. These facts are mentioned here, not for biographical reasons, but to indicate a trend which was later to become important in German thought. It is true that Kierkegaard’s direct influence leads to Heidegger’s and Jaspers’ philosophy of existence and, therefore, to more or less open opposition to Hegel…. Kierkegaard’s direct influence cannot yet be proved here. But in the 1920s it was present everywhere, in a latent form but to an increasing degree, and even led to a Kierkegaardisation of the young Marx.

(किर्केगार्द ने थ्योरी ऑफ नावेल के लेखक के लिये हमेशा एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। ...इन तथ्यों को यहां सिर्फ जीवन के तथ्यों को गिनाने के लिये नहीं बताया जा रहा है। ...किर्केगार्द के प्रत्यक्ष प्रभाव को अब भी साबित नहीं किया जा सकता है। लेकिन 1920 के जमाने में वह सर्वत्र मौजूद था, पोशीदा रूप में, लेकिन काफी ज्यादा मात्रा में , और यहां तक कि युवा मार्क्स का किर्केगार्दीकरण किया जा रहा था।)

सिर्फ इतना ही नहीं, अपनी तब की दृष्टि की तीव्र समीक्षा करते हुए लुकाच यहां तक चले जाते हैं कि -

‘‘ Thus, if anyone today reads The Theory of the Novel in order to become more intimately acquainted with the prehistory of the important ideologies of the 1920s and 1930s, he will derive profit from a critical reading of the book along the lines I have suggested. But if he picks up the book in the hope that it will serve him as a guide, the result will only be a still greater disorientation. As a young writer, Arnold Zweig read The Theory of the Novel hoping that it would help him to find his way; his healthy instinct led him, rightly, to reject it root and branch.”

(इसीलिये, आज यदि कोई ‘द थ्योरी ऑफ द नावेल’ को 1920 और 1930 के जमाने की प्रमुख विचारधाराओं के पूर्व इतिहास को गहराई से जानने के लिये पढ़ेगा तो वह मेरे सुझाए हुए ढंग से आलोचनात्मक नजरिये से पढ़ कर ही लाभान्वित हो पायेगा। लेकिन यदि वह इस उम्मीद में उस किताब को उठायेगा कि इससे उसे कोई दिशा-निर्देश मिल पायेगा तो इसका परिणाम उसके लिये और भी ज्यादा भटकाने वाला होगा। जैसा कि युवा लेखक आर्नोल्ड स्वाइक ने इससे कुछ सीखने के लिये इसे पढ़ा तो उसकी स्वस्थ इंद्रियों ने, बिल्कुल सही, इसे जड़ों से लेकर शाखा तक ठुकरा दिया।)
  

“संदीप निखिलेश्वर को समझाता है - ‘‘देखो निखिल, मनुष्यों का इतिहास दुनिया के सभी देशों और जातियों को लेकर तैयार हुआ है। इसीलिये धर्म को बेच कर की जाने वाली पोलिटिक्स से देश का निर्माण नहीं चल सकता है। मैं जानता हूं कि यूरोप इस बात को मन से नहीं मानता, लेकिन इसीलिये यूरोप हमारा गुरू हो जायेगा, यह मैं नहीं मानता।’’
इसके बाद ही संदीप का दूसरा वाक्य है - ‘‘सत्य के लिये आदमी मर कर अमर होता है, अगर कोई राष्ट्र भी मर जाए तो वह राष्ट्र अमर हो जायेगा। उस सत्य की भावना इस दुनिया में शैतान के गगनभेदी अट्टाहास के बीच सच साबित हो। लेकिन विदेश से आकर यह कौन सी पाप की महामारी हमारे देश में घुस आई है !’’(रवीन्द्र रचनावली, खंड - आठ, पश्चिमबंग सरकार, पृष्ठ -105-106)

(दैखो निखिल, मानुषेर इतिहास पृथ्वीर समस्त देश के समस्त जात के निये तैरी होये उठेछे, एई जन्ये पोलिटिक्सेउ धर्म के बिकिये देश के बाडि़ये तोला चोलबे ना। आमी जानि यूरोप एक कोथा मनेर संगे माने ना, किन्तु ताई बोलेई जे यूरोपई आमादेर गुरू ए आमी मानबो ना। सत्येर जन्ये मानुष मोरे अमर होय, कोनो जातिउ जदि मोरे ता होले मानुषेर इतिहासे सेउ अमर होबे। सेई सत्येर अनुभूति जगतेर मध्ये एई भारतवर्षेई खांटी होए उठूक शोयतानेर अभ्रभेदी अट्टहासीर माझखाने। किन्तु विदेश थेके ए की पापेर महामारी ऐसे आमादेर देशे प्रवेश करले !)

गौर करने की बात है कि संदीप ने अपनी मुस्लिम-विरोधी मानसिकता के अनुसार ही निखिलेश्वर को जो बात देश की लड़ाई के साथ ही धर्म की लड़ाई पर अटल रहने की सलाह देते हुए कही थी, लुकाच ने उसी बात को अपनी समीक्षा में  विकृत करके रवीन्द्रनाथ की बात के रूप में उद्धृत कर दिया था। उनके शब्दों में ‘‘He writes: “Men who die for the truth are immortal ; and if a whole people dies for the truth it will achieve immortality in the history of mankind” और इसके बाद ही लुकाच साहब रवीन्द्रनाथ के विचारों के बारे में अपना अंतिम सुना देते हैं  - ‘‘This stance represents nothing less than the ideology of the eternal subjection of India”।

’’यह मत भारत की सनातन गुलामी की विचारधारा से जरा भी कम नहीं है।’’

इसे लुकाच की बौद्धिक गैर-ईमानदारी नहीं तो और क्या कहा जा सकता है ?


यह थी लुकाच की उपन्यासों के बारे में अपनी ही तत्कालीन समझ पर राय, जिस समय उन्होंने रवीन्द्रनाथ की ‘घोरे बाहिरे’ की समीक्षा लिखी थी। खुद लुकाच कहते हैं कि उस समय की उनकी समझ का मार्क्सवाद से कोई संपर्क नहीं था ;  उससे उपन्यास पर कोई सही समझ हासिल नहीं की जा सकती थी ; और यहां तक कि किसी भी स्वस्थ मस्तिष्क को उसे पूरी तरह से, आद्योपांत ठुकरा देना चाहिए, जैसा कि आर्नोल्ड ज्वैग ने किया।

कहना न होगा, उसी काल में रवीन्द्रनाथ के ‘घोरे बाहिरे’ के बारे में लुकाच की समीक्षा की भी यही सचाई है - एक शुद्ध बकवास, जिससे हासिल कुछ भी नहीं किया जा सकता और किसी भी स्वस्थ इंसान के द्वारा उसके एक-एक शब्द को ठुकरा देना ही बिल्कुल स्वाभाविक है। यह हमारी राय नहीं, खुद लुकाच की उस काल विशेष मे उपन्यासों की उनकी आम समझ के बारे में राय रही है। और उनकी इस आत्म-स्वीकृति की  सचाई को हम आगे इस उपन्यास और उसपर लुकाच की समीक्षा पर विस्तृत चर्चा के संदर्भ में ज्यादा ठोस रूप में देखेंगे।

अपनी इस समीक्षा में लुकाच सिर्फ रवीन्द्रनाथ से नहीं, एक प्रकार से तत्कालीन जर्मन कुलीन समाज की साहित्य की समझ से भी अपने प्रकार का शायद कोई ‘वर्ग संघर्ष’ कर रहे थे। रवीन्द्रनाथ के प्रति जर्मनी के इन लोगों के आदर-भाव को वे इस समीक्षा में एक ‘सांस्कृतिक स्कैंडल’ (cultural scandal) और जर्मनी के संभ्रांतो का एक ऐसा ‘सांस्कृतिक स्खलन’ (total cultural dissolution) बताते हैं जो असली और नकली के बीच भेद करने की अपनी पुरानी शक्ति को भी गंवा चुका है।

लुकाच अपनी इस समीक्षा के पहले वाक्य में ही रवीन्द्रनाथ को एक ‘बेकार का आदमी’ (insignificant figure) घोषित करके फतवा देते हैं कि उनके चरित्र लुंजपुंज और घिसे-पिटे (pale sterotypes)होते हैं और कहानी ऊबाऊ (uninteresting)। उपनिषदों और भागवद गीता के कचरे से बिन कर (stirring the scraps) वे अपना काम चलाते हैं। जर्मन पाठकों को यह कह कर लताड़ते हैं कि उन्हें ‘पाठ’ और ‘उद्धरणों’ के बीच फर्क करने की तमीज न होने के कारण वे भारतीय दर्शन की झूठन (scanty leftovers) की तरह की त्याज्य चीज का स्वाद लेने लगते हैं। इन जर्मनों पर उनका आक्षेप है कि जो अपने देश के दार्शनिकों के बीच ही फर्क नहीं कर पाते हैं, तो सुदूर भारत के संसार के बारे में कैंसे जानेंगे ! और इसी रौ में लुकाच ने रवीन्द्रनाथ के लेखन की तुलना एक नितांत स्थानीय साधारण से लेखक फ्रेंसेन के सडि़यल ऊबाऊपन (unctuous tediousness) से भी कर डाली। अंग्रेजों द्वारा टैगोर के मान को तो उन्होंने ब्रिटिश शासकों द्वारा अपने एक ‘बौद्धिक दलाल’ (intellectual agent) को दिया जाने वाला पुरस्कार बता दिया और रवीन्द्रनाथ का इतना कीर्तिगान करने के बाद जब वे ‘घोर बाहिरे’ उपन्यास पर आते हैं तो शुरू में ही उसे उपन्यास की जगह महज एक प्रचारमूलक, भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के खिलाफ घटिया सा ‘पैंफलेट’ घोषित कर दिया, सड़े हुए ज्ञान में सना हुआ पैम्फलेट (steeped in unctuous ‘wisdom’)। और टैगोर की सफलता को टैगोर का कृतित्व नहीं, बल्कि जर्मन कुलीनों की मानसिकता का परिणाम परिणाम बताया । इसके अलावा इस उपन्यास में उन्हें भारत के स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति एक नपूंसक घृणा दिखाई दी, और टैगोर के ‘सत्य और अहिंसा’ के रास्ते को वे ‘भारत की सनातन गुलामी की विचारधारा’ (ideology of the eternal subjection of India) कहने से भी नहीं चूके।

उनकी इन बातों की तह में जाकर आगे हम देखेंगे कि  उपन्यासों के बारे में अपनी जिस समझ के जिस सडि़यलपन को खुद उन्होंने यह कह कर स्वीकारा था कि वे तब साहित्य के पूरे ढांचे में हमेशा एक ‘स्थायी तत्व’ की तलाश में जुटे रहते थे, उनका तरीका ‘सामाजिक-ऐतिहासिक यथार्थ से कटा हुआ तरीका था, उस पर फिख्ते के ‘पूर्ण शैतानियों के युग की छाया थी ( The Theory of the Novel is not defined in Hegelian terms but rather by Fichte’s formulation, as ‘the age of absolute sinfulness’),  ये सारी बातें  इस समीक्षा में पूरी तरह से मौजूद है। इससे भी दो कदम आगे बढ़ कर पायेंगे कि इस समीक्षा में लुकाच ने किसी भी बड़े चिंतक से की जाने वाली बौद्धिक ईमानदारी का भी परिचय नहीं दिया था। उन्होंने उपन्यास के उद्धरण को पूरी नासमझी के साथ गलत ढंग से पेश करके रवीन्द्रनाथ पर दुनिया भर की तोहमते जड़ दी थी।

फेसबुक की कल्बे कबीर की वाल पर उनके सबसे पहले के कथन पर, जिसमें उन्होंने लुकाच की इस समीक्षा को उछाला था, प्रतिक्रिया देते हुए मैंने यह लिखा था कि ‘‘यह सच है कि रवीन्द्रनाथ पर बांग्ला में आज तक हजारों किताबें आ चुकी है और उनके बाद भी आज तक वे बांग्ला के किसी भी साहित्य प्रेमी या साहित्य चिंतक के समान रूप से आकर्षण के केंद्र बने हुए हैं। और यह भी सच है कि यह विषय कोरा जातीय अभिमान या गौरव का मामला नहीं है। बल्कि रवीन्द्रनाथ पर इतनी सारी पुस्तकों के निरंतर प्रकाशन के बावजूद उनके साहित्य और विचारों से परिचित हर व्यक्ति की यह एक सामान्य अनुभूति है कि वे दुनिया के एक ऐसे रचनाकार-चिंतक हुए हैं जिन्हें शायद सबसे कम समझा गया है। रवीन्द्रनाथ के साहित्य को जो जितना ज्यादा जानता है, उसकी यह अनुभूति उतनी ही ज्यादा प्रगाढ़ होती है।

हमने वहां यह भी कहा था कि ’’ रवीन्द्र साहित्य के अध्येताओं को ऐसा महसूस होना अकारण नहीं है। क्योंकि आज तक भारत के प्राचीन औपनिषदिक चिंतन की दीर्घ परंपरा को आधुनिक जीवन की अन्विति में दुनिया में कहीं भी विचार का विषय तक नहीं बनाया जा सका है। अरविंद और राधाकृष्णन आदि की तरह के लोग पौर्वात्य चिंतन के कोरे प्रचारक हुए। लेकिन यह पौर्वात्य चिंतन बदलते हुए आधुनिक जीवन के साथ संगति में कैसे क्रियाशील है, कैसे लोगों के व्यवहार को लगातार प्रभावित करता है, इसे यदि किसी एक लेखक-चिंतक की रचनाओं और विचारों के माध्यम से गहनता और समग्रता से जाना जा सकता है तो हम भारत में अकेले रवीन्द्रनाथ को पायेंगे। आधुनिक चिंतन के मानदंडों पर हम अपने जीवन और साहित्य की आलोचना तो कर सकते हैं, लेकिन उसकी एक समग्र व्याख्या और समझ कायम करने के लिये जरूरी है कि हम अपने अन्तर में घर किये बैठी तमाम पुरातन धारणाओं की सचाई को भी जानें। अक्सर हम अपने दैनन्दिन व्यवहार में अपने विचारों की तुलना में काफी आगे दिखाई पड़ते हैं। विज्ञान के दिये हुए अधुनातन उपकरणों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं, सारे विश्व के संपर्क में रहते हैं। लेकिन अधिकांशत:  हमारा मानस आधुनिक वैश्विक मनुष्य के मान-मूल्यों को अपनाने में असमर्थ होता है। उसके अपने अंतर की अनेक बाधाएं होती है, जिनका अतिक्रमण करना उसके लिये एक बेहद कष्ट-साध्य काम होता है।

“ऐसे में रवीन्द्रनाथ अकेले हैं जिनके साहित्य, और जीवन में भी प्राचीन औपनिषदिक चिंतन की सूक्ष्मतम और गहनतम जड़ों के साथ ही अधुनातन विश्व मानव की धड़कनों को सुना जा सकता है। इनके द्वंद्वों और उन द्वंद्वों के समाधानों को भी उनके साहित्य की व्याख्याओं में देखा जा सकता है।“

इसी सिलसिले में हमने पश्चिम बंगाल की राजनीति का भी एक छोटा सा उदाहरण दिया था कि कैसे ’’जब बंगाल में सन् ‘67 में पहली संयुक्त मोर्चा सरकार बनी और इसके साथ ही भूमि आंदोलन अपने चरम पर पहुंच गया था, किसान सभा के नेतृत्व में जमींदारों की हदबंदी से अधिक जमीन पर कब्जा किया जाने लगा। लेकिन बाद के अनुभवों ने यह बताया कि नाना कारणों से ऐसी कब्जा की गई जमीन पर किसान अपने अधिकार को कायम नहीं रख सके। यहां तक कि किसान सभा और पार्टी के दस्तावेजों में भी इस बात को नोट किया गया कि कब्जा करके ली गई जमीन के प्रति खुद भूमिहीन किसान भी असहज था। इसीलिये 1977 में जब वाममोर्चा सरकार का गठन हुआ, यह निर्णय लिया गया कि किसान जमीन पर खुद कब्जा नहीं करेगा, किसान सभा की मदद से सरकार अतिरिक्त जमीन की सिनाख्त करके उसका अधिग्रहण करेगी और उस सरकारी जमीन को भूमिहीनों के बीच बाकायदा आवंटित किया जायेगा। दूसरे की जमीन पर कब्जा करने को किसानों का संस्कार सहजता से स्वीकार नहीं पा रहा था।

“कहने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि हमारे संस्कारों का हमारे जीवन के सभी निर्णयों पर गहरा असर रहता है। अगर इस बात को नहीं समझेंगे तो प्रेमचंद के होरी के गोदान के आग्रह को समझना भी असंभव होगा। और भारतीय मनुष्य के इस सच की गहनतम गहराइयों का सबसे बड़ा चितेरा और व्याख्याता अगर कोई है तो उसमें हम रवीन्द्रनाथ के साहित्य और चिंतन को हम पहले स्थान पर पाते हैं।“

इसी में हमने ‘घोरे बाहिरे’ के प्रसंग को अलग से उठाते हुए लिखा था कि  “लुकाच की वह समीक्षा ( Tagore’s Gandhi NovelReview of Rabindranath Tagore: The Home and the World) उनके जिस उपन्यास ‘घोरे बाहिरे’ पर केंद्रित है वह तीन चरित्रों, विमला, उसके पति निखिलेश्वर और आतंकवादी क्रांतिकारी संदीप के आत्मकथनों से निर्मित एक ऐसा उपन्यास है, जिसमें इन तीनों चरित्रों को तीनों के आत्मकथन के जरिये अपने-अपने नजरिये से परस्पर को खोल कर देखने की एक अनोखी तकनीक का प्रयोग किया गया है। और उस उपक्रम में यह सच है कि क्रांतिकारी संदीप का चरित्र ही, अपने उग्र सांप्रदायिक विचारों और वासनाओं के कारण  सबसे अधिक कमजोर चरित्र के रूप में उभर कर सामने आता है। लुकाच की प्रविृत्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाले टाइप चरित्रों के मानदंड में क्रांतिकारी को सर्वगुण संपन्न होना चाहिए था, क्योंकि वह अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र लड़ाई में उतरा हुआ था। लेकिन लुकाच को उसके भारतीय संदर्भ का, उसके अंदर गहरे तक बैठी धार्मिक संकीर्णताओं का और उसकी नारियों के प्रति कुंठाओं का कोई अनुमान नहीं था। रवीन्द्रनाथ ने उस उपन्यास में इस क्रांतिकारी की तमाम कमजोरियों को दिखाने के साथ ही निखिलेश्वर की तरह के एक गृहस्थ की उदारता और उदात्तता को] और विमला के नारी चरित्र की सचाई को जिस प्रकार उभारा है, वह साधारण नहीं है। एक क्रांतिकारी को इसप्रकार से पेश करने के लिये किसी समय वामपंथियों ने भी रवीन्द्रनाथ के इस उपन्यास की काफी आलोचना की थी। लेकिन कालक्रम में इस विषय में भी वामपंथी साहित्य चिंतकों ने रवीन्द्रनाथ के उस उपन्यास के कथ्य और पूरे ढांचे को अपनी स्वीकृति दी। सत्यजीत राय ने तो इस उपन्यास पर अनोखी फिल्म बनाई।“

1905 के बंगभंग आंदोलन की पृष्ठभूमि में लिखे गये इस उपन्यास में एक प्रवंचक और वासनाग्रस्त चरित्र संदीप के चरित्रांकन पर लुकाच उछल पड़ते हैं, लेकिन उस बंगभंग आंदोलन के वक्त के रवीन्द्रनाथ के बारे में लुकाच को यदि रत्ती भर भी ज्ञान होता तो वे शायद इस प्रकार की बातों को कहने की कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे !

लुकाच रवीन्द्रनाथ की औपनिषदिक पृष्ठभूमि का मजाक उड़ाते हैं। लेकिन यदि किसी को रवीन्द्रनाथ के जीवन में इस दृष्टि की भूमिका को समझना है तो उसे उनके जीवन के इतिहास को जानना होगा। रवीन्द्रनाथ की औपनिषदिक शिक्षा ने उन्हें कभी भी पुनरुत्थानवाद की ओर नहीं ढकेला। ये सब ऐतिहासिक तथ्य है कि काफी दबाव के बावजूद वे तिलक के गणपति उत्सव और वीर शिवाजी के मिथक की तर्ज पर किसी देवी-देवता की वंदना के सार्वजनिक उत्सव या बंगाली राजा की वीरगाथा का आख्यान खड़ा नहीं करते, बल्कि इस प्रकार की कोशिशों का मुखर विरोध करते हैं। न , ‘गोरक्षणी सभा’ के गोरक्षा की तरह के आंदोलनों के प्रति उनकी कोई सहानुभूति थी। इसके विपरीत रवीन्द्रनाथ की सहानुभूति संथाल विद्रोह और सिपाही विद्रोह के प्रति थी। अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को वे काफी पहले से ही समझने लगे थे। और यही वजह है कि वे हमेशा कविता के कल्पनालोक से निकल कर लड़ाई के मैदान में उतर पड़ने के लिये आकुल रहा करते थे। उनकी अमर कविता ‘एबार फेराओ मोरे’ के ये शब्द: “एबार फेराओ मोरे, लोये जाओ संसारेर तीरे/हे कल्पने रंगमयी। दोलाओ ना समीरे समीरे/तरंगे तरंगे आर, भुलाओ ना मोहिनी मायाय। /विजन विषादघन अन्तरेर निकुंज छायाय/रेखो ना बोसाये आर। ...”
(अब मुझे लौटा कर संसार के तट पर ले आओ/ हे कल्पना की रंगमयी / मत झुलाओ हवा हवा में/लहर लहर में, न मोहित करो मोहिनी मायासे। /निर्जन, घने विषाद भरे अंतर की लताओं की छाया में/ मत रखो और बैठा कर। ...”)

इसीप्रकार उनका असाधारण ‘आहृान गीत’: “चलो दिवालोक, चलो लोकालये, /चलो जन कोलाहले - /मिसाबो हृदय मानवहृदये/असीम आकाश तले।” (चलो दिवालोक में, लोकालय में/चलो जनकोलाहल में -/मिलाऊंगा हृदय मानव हृदय से/असीम आकाश के तले।) इसके सबसे बड़े प्रमाण है।

लुकाच ‘घरे बाहिरे’ के आधार पर जिस काल के रवीन्द्रनाथ को अंग्रेजों का ‘बौद्धिक दलाल’ बता रहे थे, वह रवीन्द्रनाथ की लेखनी का ‘साधना युग’ कहलाता है और  इसलिये काफी उल्लेखनीय माना जाता  है कि उस दौरान अपने लेखों के जरिये उन्होंने अपनी खुद की राजनीति की एक साफ रूपरेखा रखी थी। कांग्रेस के साथ उनका मतभेद मुख्यतः इस बात पर था कि उन्हें राजनीतिक विचारधारा के मामले में इंगलैंड और उसकी सौ नियमों से बंधी पार्लियामेंट्री राजनीति स्वीकार्य नहीं थी। योरप के बाहर, भारत सहित हर जगह उन्होंने अंग्रेजों को एक घृणित शोषक और उत्पीड़क के रूप में देखा था। कांग्रेस के लोगों की अंग्रेज भक्ति उन्हें सहन नहीं थी।

फिर भी, सच यही है कि रवीन्द्रनाथ को कांग्रेस-विरोधी कहना उचित नहीं होगा। इसीप्रकार, ब्रिटिश साम्राज्य के जघन्य रूप के प्रति गहरी नफरत के बावजूद, इंगलैंड के भी मुट्ठीभर विवेकवान लोगों के प्रति अपनी आंतरिक श्रद्धा व्यक्त करने में भी उन्होंने कभी किसी प्रकार की कृपणता का परिचय नहीं दिया था। सिडिशन एक्ट और 1897 में रानाडे हत्या मामले में तिलक की गिरफ्तारी, लार्ड कर्जन का यूनिवर्सिटी बिल (1902), बंगभंग का प्रस्ताव (1905), स्वदेशी आंदोलन, साम्राज्यवादियों का पहला विश्वयुद्ध - इन तमाम मामलों में रवीन्द्रनाथ जनता के जनतांत्रिक अधिकारों के एक प्रबल पक्षधर और भारत की राष्ट्रीय एकता के एक जागरूक प्रहरी के रूप में उभर कर सामने आये थे।

यही वह काल था जब 1901 के अंतिम दिनों में रवीन्द्रनाथ ने शांतिनिकेतन में ब्रह्मचर्य आश्रम की स्थापना की। यह रवीन्द्रनाथ के व्यक्तित्च का एक महत्वपूर्ण रचनात्मक पहलू था जिसके केंद्र में भी उनके आध्यात्मिक संस्कारों की बड़ी भूमिका थी। शान्तिनिकेतन के पीछे प्राचीन भारत के तपोवन की पूरी अवधारणा काम कर रही थी। बाद के दिनों में शिक्षा संबंधी उनके विचारों में काफी परिवर्तन हुए। फिर भी अपने इस तपोवन से उनका क्या तात्पर्य था, इसे 1909 में ‘तपोवन’ शीर्षक लेख में वे बताते हैं :
“भारतवर्ष ने जिस सत्य को अपने निश्चित भाव से उपलब्ध किया है वह सत्य क्या है? वह सत्य प्रधानतः वणिक-वृत्ति नहीं है, स्वादेशिकता नहीं है, स्वराज्य नहीं है - वह है विश्व-बोध। इस सत्य की भारत के तपोवन में साधना हुई है। इसका उपनिषद् में उच्चारण हुआ है...भारत ने प्रबलता को नहीं, परिपूर्णता को चाहा था। इस परिपूर्णता का अर्थ है निखिल के साथ योग, और योग विनम्र होकर, अहंकार को दूर करके ही स्थापित हो सकता है।”

स्वदेशी आंदोलन का जो दबाव कवि को जनकोलाहल के बीच चले आने के लिये प्रेरित कर रहा था, राजनीतिक उथल-पुथल के इसी दौर में गिरडीह में बैठ कर रवीन्द्रनाथ ने देशभक्ति के जो चंद अमर गीत लिखे, उन्होंने बांग्ला जातीय चेतना के निर्माण में अकल्पनीय भूमिका अदा की थी। 1.जदि तोर डाक सुने केउ ना आसे तबे ऐकला चलो रे 2. बांग्लार माटी, बांग्लार जल, बांग्लार वायु, बांग्लार फल-/पूण्य होक, पूण्य होक, पूण्य होक हे भगवान 3. ओ आमार देशेर माटी, तोमार ’परे ठेकाई माथा 4.आमार सोनार बांग्ला, आमि तोमाय भालोबासि 5.सार्थक जनम आमार जन्मेछी ए देशे 6.एबार तोर मरा गंगे बान एसेछे, ‘जय मा’ बोले भासा तरि  - रवीन्द्रनाथ के ये सारे गीत भी इसी काल की देन थे।

और लुकाच इसी काल के संदर्भ में लिखे गये उनके उपन्यास के आधार पर उन्हें ‘भारत की सनातन गुलामी की विचारधारा का प्रवर्त्तक’ बता रहे थे !

इसीकाल में राष्ट्रीय शिक्षा और ग्राम्य समाज के संगठन के बारे में रवीन्द्रनाथ ने कई लेख लिखे। बंगभंग-विरोधी आंदोलन के साथ ही हिंदू-मुस्लिम समस्या ने भी एक विकट रूप लेना शुरू कर दिया था। रवीन्द्रनाथ इस समस्या से काफी विचलित थे। उन्होंने यह साफ देखा था कि अंग्रेज यदि हिंदू और मुसलमानों के बीच विद्वेष पैदा करने में सफल होरहे हैं तो इसका संबंध हमारे समाज की सचाई से है जिसे रवीन्द्रनाथ हमारा ‘पाप’ कहते हैं। “हम सैकड़ों वर्षों से साथ-साथ रहते है, एक खेत की उपज, एक नदी के जल, एक सूरज के प्रकाश का भोग करते आरहे हैं, हम एक भाषा में बात करते हैं, हम एक ही सुख-दुख के लोग है - फिर भी पड़ौसी के साथ पड़ौसी का जो मानवोचित संबंध है, जो धर्म से अलग है, वह हमारे बीच नहीं है।

“हम जानते हैं बांग्लादेश में बहुत सी जगहों में हिंदू-मुसलमान एक चटाई पर साथ-साथ नहीं बैठते हैं - घर में मुसलमान के आने पर जाजम का एक हिस्सा लपेट दिया जाता है, हुक्के के पानी को फेंक दिया जाता है।
‘... यदि शास्त्रों में ऐसा विधान है तो ऐसे शास्त्र को लेकर स्वदेश-स्वजाति-स्वराज की स्थापना कभी भी नहीं की जा सकती है।”

‘घरे बाहिरे’ उपन्यास की पृष्ठभूमि में बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ जुड़े हुए हिंदू सांप्रदायिक दृष्टिकोण का यह पहलू रवीन्द्रनाथ की रचनाशीलता में निश्चित रूप से बड़े रूप में काम कर रहा था । लुकाच यदि तत्कालीन भारतीय समाज की इस ऐतिहासिक सचाई से जरा भी परिचित होते तो रवीन्द्रनाथ के उपन्यास में उसे पाकर खुश होते और उसकी निंदा करने की जगह यह कहते कि उपन्यास किस प्रकार अपने समय का सबसे प्रामाणिक इतिहास हुआ करता है, इसका एक बड़ा उदाहरण है - ‘घोरे बाहिरे’।

इस उपन्यास से मैं बहुत सारे उद्धरण देकर इस समीक्षा को और बोझिल नहीं करना चाहता। लेकिन जिस क्रांतिकारी चरित्र संदीप की चारित्रिक कमजोरी का पर्दाफाश किये जाने पर लुकाच इस तरह से तब बेजा खफा होगये थे, उसकी बातों की एकाध बानगी देखियें -

“संदीप निखिलेश्वर को समझाता है - ‘‘देखों निखिल, मनुष्यों का इतिहास दुनिया के सभी देशों और जातियों को लेकर तैयार हुआ है। इसीलिये धर्म को बेच कर की जाने वाली पोलिटिक्स से देश का निर्माण नहीं चल सकता है। मैं जानता हूं कि यूरोप इस बात को मन से नहीं मानता, लेकिन इसीलिये यूरोप हमारा गुरू हो जायेगा, यह मैं नहीं मानता।’’
इसके बाद ही संदीप का दूसरा वाक्य है - ‘‘सत्य के लिये आदमी मर कर अमर होता है, अगर कोई राष्ट्र भी मर जाए तो वह राष्ट्र अमर हो जायेगा। उस सत्य की भावना इस दुनिया में शैतान के गगनभेदी अट्टाहास के बीच सच साबित हो। लेकिन विदेश से आकर यह कौन सी पाप की महामारी हमारे देश में घुस आई है !’’(रवीन्द्र रचनावली, खंड - आठ, पश्चिमबंग सरकार, पृष्ठ -105-106)

(दैखो निखिल, मानुषेर इतिहास पृथ्वीर समस्त देश के समस्त जात के निये तैरी होये उठेछे, एई जन्ये पोलिटिक्सेउ धर्म के बिकिये देश के बाडि़ये तोला चोलबे ना। आमी जानि यूरोप एक कोथा मनेर संगे माने ना, किन्तु ताई बोलेई जे यूरोपई आमादेर गुरू ए आमी मानबो ना। सत्येर जन्ये मानुष मोरे अमर होय, कोनो जातिउ जदि मोरे ता होले मानुषेर इतिहासे सेउ अमर होबे। सेई सत्येर अनुभूति जगतेर मध्ये एई भारतवर्षेई खांटी होए उठूक शोयतानेर अभ्रभेदी अट्टहासीर माझखाने। किन्तु विदेश थेके ए की पापेर महामारी ऐसे आमादेर देशे प्रवेश करले !)

गौर करने की बात है कि संदीप ने अपनी मुस्लिम-विरोधी मानसिकता के अनुसार ही निखिलेश्वर को जो बात देश की लड़ाई के साथ ही धर्म की लड़ाई पर अटल रहने की सलाह देते हुए कही थी, लुकाच ने उसी बात को अपनी समीक्षा में  विकृत करके रवीन्द्रनाथ की बात के रूप में उद्धृत कर दिया था। उनके शब्दों में ‘‘He writes: “Men who die for the truth are immortal ; and if a whole people dies for the truth it will achieve immortality in the history of mankind” और इसके बाद ही लुकाच साहब रवीन्द्रनाथ के विचारों के बारे में अपना अंतिम सुना देते हैं  - ‘‘This stance represents nothing less than the ideology of the eternal subjection of India”।

’’यह मत भारत की सनातन गुलामी की विचारधारा से जरा भी कम नहीं है।’’

इसे लुकाच की बौद्धिक गैर-ईमानदारी नहीं तो और क्या कहा जा सकता है ?

गौर करने लायक और भी मजे की बात है कि  लुकाच ने जिस संदीप के पक्ष में अपनी समीक्षा में ब्रीफ उठाई है, उसका क्या चरित्र था, जो निखिलेश्वर की पत्नी, और इस उपन्यास की प्रमुख चरित्र  विमला के सामने किसी भी सधे हुए झांसेबाज आशिक की तरह कहता है - ‘‘ ओ छोटीरानी, मेरी बात को यहां कोई नहीं समझ सकता है, संभव है तुम भी न समझो। मैं तुम्हारी पूजा करता हूं। मैं तुम्हारी ही पूजा करने जा रहा हूं। तुमको देखने के बाद मेरा मंत्र बदल गया है। बंदे मातरंग नहीं : बंदे प्रियांग, बंदे मोहिनिंग। मां हमारी रक्षा करती है, प्रिया हमारा विनाश करती है, बहुत सुंदर विनाश।... अब माता के दिन नहीं है। प्रिया, प्रिया, प्रिया ! देवता स्वर्ग धर्म सबको तुमने तुच्छ कर दिया है, धरती के बाकी सारे संबंध आज छाया है। नियम-संयम के सारे बंधन टूट चुके हैं। प्रिया, प्रिया, प्रिया। ’’

और संदीप के इस आचरण पर विमला सोचती है - ‘‘आज आधा घंटा पहले मैं मन ही मन सोच रही थी और लगा कि यह आदमी राजा है, लेकिन यह तो यात्रा दल (नाटक मंडली) का राजा है। नहीं, नहीं, यात्रा दल की पोशाक में भी कभी-कभी राजा छिपा होता है। इसके अंदर तो भारी लोभ है, यह बहुत स्थूल है, इसमें बहुत दरारें हैं; जो इसकी मज्जा के एक-एक स्तर में छिपी हुई है।’’

यह है घरों में घुस कर स्त्रियों पर डोरे डालने वाले ‘क्रांतिकारी’ का असली रूप ! स्त्री को फांसने के लिये वह बंदे मातरंग को बंदे प्रियांग, बंदे मोहिनिंग, बना देता है, प्रिया, प्रिया, प्रिया करने लगता है !

हिंदी में अज्ञेय, यशपाल और जैनेन्द्र के ऐसे क्रांतिकारी चरित्रों की इन्हीं हरकतों के संदर्भ में रामविलास जी ने एक समय इन लेखकों के ‘साड़ी-झंफरवाद’ की काफी खबर ली थी। लेकिन रामविलास जी ने अपनी खास आलोचकीय दृष्टि, पात्रों को हमेशा लेखक के हाथ की कठपुतली समझने वाली दृष्टि के नाते ही  इस विषय को लेखकीय विचलन का मामला बना दिया। यह एक प्रकार से उन पर लुकाच की प्रतिनिधि चरित्रों वाली पद्धति की ही छाया थी।  लेकिन रवीन्द्रनाथ ने अपने उपन्यास के ढांचे में ही संदीप के चरित्र के पूरे छद्म को खोला था। वह लेखक की विचलन नहीं, चरित्र का यथार्थ था।  इसीलिये उनके लेखन के आधार पर किसी ने भी उनके  लेखन में अलग से ‘साड़ी-झंपरवाद’ की तरह की प्रवृत्ति को खोज कर उन्हें कभी हमले का निशाना नहीं बनाया। अन्यथा एक जगह तो संदीप विमला को झांसा देने में सफल हुआ ही था !


और तो और, लुकाच अपनी समीक्षा में जिसे इस क्रांतिकारी द्वारा छेड़ा गया ‘युद्ध’ (battle that was sparked off by the... ‘patriots’ ) कहते हैं, वह तो असल में कुछ मुल्ला-मौलवियों और इन क्रांतिकारियों का भड़काया हुआ सांप्रदायिक दंगा था, जिसमें कुछ मासूम मारे जाते हैं । दंगा भड़कने के पहले संदीप तो सबको चकमा देकर भाग जाता है लेकिन  विमला का पति निखिलेश्वर उससे निपटने के लिये निहत्था ही उतर जाता है और उपन्यास के अंत में उसे बुरी तरह से जख्मी बताया जाता है।

‘‘डाक्टर ने कहा, कुछ कहा नहीं जा सकता। सिर पर भारी चोट लगी है।’’

इतनी तमाम बातों के बाद भी क्या, रवीन्द्रनाथ के ‘घोरे बाहिरे’ उपन्यास की जार्ज लुकाच की समीक्षा में एक वाक्य भी ऐसा पाया जा सकता है, जिसे गंभीरता से विचार के योग्य माना जाए ! वे खुद उपन्यास को देखने की अपनी उस मूल दृष्टि को अपने ही लेखन में पूरी तरह से दुत्कार चुके थे। और तथ्यों से पता चलता है कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और रवीन्द्रनाथ तथा खास तौर पर इस उपन्यास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में उनका रत्ती भर भी ज्ञान नहीं था। और सबसे खराब, जिसे हम उनकी बौद्धिक गैर-ईमानदारी के उदाहरण के तौर पर रख रहे हैं, वह यह बात है कि उनके पास उपन्यास को पढ़ने का धीरज नहीं था और उसके उद्धरणों का अनैतिक ढंग से प्रयोग करने से परहेज भी नहीं था।

कहना न होगा, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान रवीन्द्रनाथ और महात्मा गांधी के बीच जिस प्रकार का विमर्श चला, लुकाच की ऐसी दृष्टि के लिये तो उसके रंच मात्र को भी समझना असंभव होता !

भारत में आगे के इतिहास ने भी लुकाच की इस समझ को पूरी तरह से गलत साबित किया कि सत्य और अहिंसा का रास्ता भारत की गुलामी का रास्ता था। द्वितीय विश्वयुद्ध की अकल्पनीय हिंसा और उसके बाद के तमाम अनुभवों ने उन्हें इन विषयों पर जरूर बहुत कुछ सिखाया होगा। और इसीलिये 1962 तक आते-आते उन्होंने नि:संकोच सन् ‘20-‘30 के वक्त की उपन्यासों के बारे में अपनी समझ से घोषित तौर पर पिंड छुड़ाने का निर्णय लिया था।

उम्मीद है, हमारे यहां भी जो लोग लुकाच की उस सड़ी हुई समीक्षा में कोई सुगंध ढूंढ रहे हैं, वे भी इन तमाम सचाइयों को जान लेने के बाद इस कीचड़ में अब और अपनी नाक नहीं घुसेड़ेंगे।


1. कल्बे कबीर
September 12 at 8:37pm • 

कोई बंगाली या मारवाड़ी-बंगाली तभी तक मार्क्सवादी है जब तक रवीन्द्रनाथ का नाम न आये
रवीन्द्रनाथ ठाकुर पर वे सैंकड़ों कार्ल मार्क्स और हज़ारों जॉर्ज लूकाच क़ुर्बान कर सकते हैं !
#आलोचना_की_राख_33.

2. यहां हम 1962 के लुकाच ‘The Theory of  the Novel’ के एक नये संस्करण के प्राक्कथन के उस लिंक को दे रहे हैं जिसमें उन्होंने इस पुस्तक की समझ से वस्तुत: अपने को अलग कर लिया था।
            https://www.marxists.org/archive/lukacs/works/theory-novel/preface.htm













कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें