मंगलवार, 20 सितंबर 2016

‘सूत्रारूढ़’ सोच की हास्यास्पदता

- अरुण माहेश्वरी

आज प्रकाश करात के 6 सितंबर 2016 के इंडियन एक्सप्रेस वाले लेख Know your Enemy के बारे में सोच कर अचानक ही हंसते-हंसते पेट फटने लगा था। उन्होंने इसमें लिखा था - ‘‘The classic definition of fascism leaves no room for ambiguity: Fascism in power is “the open terrorist dictatorship of the most reactionary, most chauvinistic and most imperialist elements of finance capital.”

अर्थात ‘‘फासीवाद की शास्त्रीय परिभाषा में किसी प्रकार की अस्पष्टता की गुंजाइश नहीं है : सत्तासीन फासीवाद ‘‘ वित्तीय पूंजी की सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी, सबसे अधिक अंधराष्ट्रवादी और सबसे अधिक साम्राज्यवादी खुली आतंकवादी तानाशाही है।’’

हम फासीवाद संबंधी इस पूरे विमर्श से परिचित है, इसलिये इसे पढ़ पा रहे हैं। लेकिन हम सोच रहे थे कि जो तमाम लोग (कह सकते हैं भारत के 99.99 प्रतिशत लोग) इन विषयों पर पुरानी मार्क्सवादी बहसों से परिचित नहीं है, उनको प्रकाश करात द्वारा उद्धृत यह ‘शास्त्रीय परिभाषा’ कैसी लगती होगी ?

पूरे देश में सांप्रदायिक अन्धराष्ट्रवादी उन्माद फैल रहा है, जो नाना रूपों में दिखाई देने लगा है। यह स्थिति अपने आप में कितनी भी कठिन क्यों न हो, इसपर विचार की शुरूआत किसी अंतिम सत्य के ज्ञान में सिर गाड़े शुतुरमुर्गी मुद्रा से नहीं हो सकती है। ऐसी परिघटनाओं के बारे में कोई भी पूर्व-ज्ञान स्थिति की गहराई में पैठने में हमें निदेशित नहीं कर सकता। अगर सच को जानना है तो बिल्कुल शून्य की स्थिति से आपको शुरू करना होगा। भारत में इस सांप्रदायिक फासीवादी ताकत के जन्म और उदय के पूरे इतिहास को समझना होगा।

इन परिस्थितियों में कोरी सैद्धांतिक समझ किसी कनस्तर की तरह की होती है। वह भले जोर से बजता दिखाई दे, लेकिन वह खोखला होता है जो कोई दिशा-निदेश नहीं कर सकता। सत्य के बारे में बिल्कुल सही कहा गया है कि उसकी प्रकृति ही हमेशा ज्ञान में एक छेद करने की होती है। अर्थात जब सत्य और ज्ञान की जुगलबंदी होती है तो कोई भी चीज निश्चित नहीं रह जाती है, क्योंकि किसी भी सच का कोई अंत नहीं होता है। हर विषय की अपनी कुछ जन्मजात नैसर्गिकता होती है, जैसे आरएसएस की भी है। वह खास स्थानीयता के साथ अपने को विभिन्न रूपों में प्रकट करती है। इसीसे उसके अन्तर्निहित सत्य और अभी की वास्तविकता के बीच का फर्क जाहिर होता है। उसकी वर्तमान वास्तविकता को कभी भी उसके अंतिम सत्य संबंधी समझ की तेज रोशनी में डाल कर धुंधला करके सिवाय भ्रमों के और कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है।

प्रकाश करात की इस प्रकार की बीजेपी के बारे में सूत्रारूढ़ समझ को देख कर हमें करपात्री जी महराज के खंडन-मंडन की याद आ जाती है। उनका दो खंडों में लगभग 2300 पृष्ठों का एक विशाल ग्रंथ है - ‘वेदार्थपारिजात:’। खंडन-मंडन की शास्त्रीय परंपरा का ग्रंथ। इसमें एक बहुत बड़ा हिस्सा है - ‘दयानंदमतखंडनम्’। अर्थात दयानंद सरस्वती के मत का खंडन। इसका मैं एक छोटा सा उदाहरण देता हूं (वैसे इस ग्रंथ में ऐसे हजारों उदाहरण भरे हुए हैं )। इसमें करपात्री जी ‘यागो में प्रकृति-विकृतिविचार’ के अन्तर्गत सांख्यमत के एक अनुयायी लेखक से विवाद करते हुए सख्ती के साथ कहा कि मीमांसकों ने कहीं भी प्रकृति के बारे में यह नहीं कहा है कि ‘‘यत्र कृत्त्सनं क्रियाकलापमुच्यते सा प्रकृति’’ बल्कि ‘‘मीमांसकों ने ‘यत्र समाग्राङगोपदेश: सा प्रकृति:’ यह प्रकृति का लक्षण किया है। इसी लक्षण का  परिष्कृतरूप यह होगा - जो पदार्थ, जिस प्रकार के उपकार के द्वारा जिसका अंग हुआ है, उसके सम्बन्धि के रूप में उसी प्रकार के उपकार के द्वारा उस पदार्थ में अन्यांगत्व बोधकप्रमाण को अतिदेश कहा गया है। तथाहि - जैसे प्रयाज-अनुयाजादि पर अदृष्ट उपकार और दृष्टार्थों पर दुष्ट उपकार के पदार्थ, अदृष्टार्थों द्वारा आग्नेयादि के अंग रूप में अवधारित हुआ है, अत: उस...’’(पृष्ठ - 2095)

‘प्रकृति के लक्षणों की करपात्री जी महाराज की इस ‘सूत्रारूढ़’ व्याख्या को पढ़ कर आपको कैसा लगा ?

बस प्रकाश की ‘‘ वित्तीय पूंजी की सबसे अधिक प्रतिक्रियावादी, सबसे अधिक अंधराष्ट्रवादी और सबसे अधिक साम्राज्यवादी खुली आतंकवादी तानाशाही” की बात को भी इस मौके पर सुन कर हमें कुछ वैसा ही लगा था, और हमारी हंसी फूट पड़ी !

जड़सूत्रवाद, वह वेदांतियों का हो या मार्क्सवादियों का, हमेशा सचमुच इतना ही हास्यास्पद होता है !





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें