मंगलवार, 6 सितंबर 2016

समीक्षा में उपदेश और फतवेबाजी


-अरुण माहेश्वरी

मेरी किताब ‘आलोचना के कब्रिस्तान से’ पर जगदीश्वर चतुर्वेदी की समीक्षा पढ़ी। उनकी समीक्षा की पहली ही पंक्ति है - ‘‘हिंदी आलोचना संकट में है, इसमें दो राय नहीं है।’’ इसके बाद ही वे लिखते हैं -‘‘इस किताब में सात लेख हैं। ये सातों लेख मूल्यवान हैं। लेकिन समस्या यह है कि क्या ‘खीझ’, या ‘गुस्सा’ या ‘धिक्कार’ से आलोचना का विकास संभव है।’’

उन्होंने इस खीझ, गुस्सा और धिक्कार को इन्वर्टेड कोमा में दिया है,  इसके बावजूद यह समझने में कोई भूल नहीं होती है कि इन ‘महत्वपूर्ण’ बताये गये लेखों के बारे में उनका कहना है कि इनमें कोरी खीझ, गुस्सा या धिक्कार है !

इसी क्रम में वे बताते हैं कि आलोचना ‘दुर्वासा की भाषा’ नहीं, ‘वकील का तर्कशास्त्र’ नहीं...आदि और फिर एक उपदेश देते हैं -’’ आलोचना के लिए पद्धति और परिप्रेक्ष्य का होना बेहद जरूरी है। निष्कर्ष निकालने,जजमेंट देने,मूल्य-निर्णय आदि से आलोचना में बचना चाहिए.आलोचना निष्कर्ष नहीं है।आलोचना तो नई समस्या का आरंभ है।आलोचना को ´गुस्सा´,´क्षोभ´,धिक्कार´ ,´तिरस्कार´ की भाषा से बचना चाहिए।’’

इसप्रकार के तीन सामान्य प्रकार के उपदेशमूलक और निर्णयमूलक पैराग्राफ लिखने के बाद वे एक ठोस मुद्दे पर आते हैं - ‘पंचतंत्र’ की कथाओं के मुद्दे पर। मेरे लेख ‘रवीन्द्रनाथ, छायावाद और हिंदी आलोचना’ में एक जगह रामविलास शर्मा के लेखन की शैली के संदर्भ में विस्तार के साथ पंचतंत्र की शैली का जिक्र आया है। मैं यहां पाठकों की सुविधा के लिये उस पूरे अंश को दे दे रहा हूं, जिसमें हमने लिखा हैं -

‘‘ और जहां तक डा. शर्मा के इतिहास लेखन का प्रश्न है, आज के काल में इतिहास लेखन जिसप्रकार इतिवृत्तात्मकता, पुरातत्व, भाषाशास्त्र और समाजशास्त्र, नृतत्वशास्त्र आदि का एक साझा उपक्रम है, डा. शर्मा उसे भी अपने ग्रंथों की प्रयोगशाला से उसी प्रकार गढ़ देना चाहते थे, जैसे वे हिन्दी नवजागरण को पैदा करना चाहते थे। इसमें महत्व किसी शोध की प्रामाणिकता का नहीं, अपने पूर्वाग्रह को प्रमाणित करने का होता है।

“याद आती है पंचतंत्र की कहानियों का मूल संस्कृत से अनुवाद करने वाले कृष्णदत्त शर्मा की लंबी भूमिका की जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘पंचतंत्र : मानव जीवन का ज्ञानकोष’ के प्रारंभ में दिया है। इस भूमिका में वे इन कहानियों के पीछे के प्रयोजन की एक कहानी सुनाते हैं। लिखते हैं -

‘‘दक्षिण देश में महिलारोप्य नामक एक नगर था। यहां अमर सिंह नामका एक राजा राज्य करता था। उसका यश दूर-दूर तक फैला हुआ था। वह स्वयं विभिन्न कलाओं में निपुण था और विद्वानों का आदर करता था। उसके तीन पुत्र थे - बहु शक्ति, उग्र शक्ति और अनंत शक्ति। ये तीनों के तीनों अत्यंत उद्दंड और विद्या-विमुख थे। अधिक संपत्ति से संतान बिगड़ जाती है। ...राजकार्य में व्यस्त रहने के कारण राजा पहले तो राजपुत्रों पर विशेष ध्यान नहीं दे पाया। फिर जब उसका ध्यान गया और उसे समस्या की गंभीरता का अहसास हुआ तब तक बहुत देरी हो चुकी थी। ...ऐसे पुत्रों को गद्दी का वारिस नहीं बनाया जा सकता था। ...तब एक दिन उसने अपने मंत्रियों और राज्याश्रित विद्वानों की एक सभा बुलाई और उनके सामने अपनी समस्या रखी। ...ऐसे पुत्र से क्या लाभ...अपने पुत्रों के बारे में यह टिप्पणी करने के बाद राजा ने आगे कहा, ‘‘जैसे भी इन राजकुमारों की बुद्धि का विकास हो वैसा उपाय आप लोग करें।’’

‘‘...राजा के इन शब्दों को सुन कर सभा में निस्तब्धता छा गई। अधिकांश मंत्री और विद्वान राजपुत्रों की उद्दण्डता और विद्या-विमुखता से परिचित थे। तब एक पंडित ने मौन तोड़ते हुए कहा, ‘‘राजन बारह वर्ष तो व्याकरणशास्त्र के अध्ययन में लगते हैं, चाणक्य आदि के अर्थशास्त्र और वात्स्यायन आदि के कामशास्त्र का अध्ययन करना होगा। इसप्रकार धर्म, अर्थ और कामशास्त्र के ज्ञान के बाद कहीं जाकर बुद्धि जागती है। ’’

‘‘उस सभा में सुमति नामका एक मंत्री बैठा था। उसने कहा, ‘‘मनुष्य का जीवन अनित्य है। इन राजकुमारों के लिए तो किसी संक्षिप्त शास्त्र पर विचार कीजिए। कहा भी गया है, व्याकरणशास्त्र का कोई वार-पार नहीं। अवस्था थोड़ी और विघ्न बहुत है। इसलिए हंस के नीर-क्षीर विवेक की तरह हमें असार को त्याग कर सार को ग्रहण करना चाहिए।’’

‘‘अपना सुझाव देते हुए सुमति ने आगे कहा : ‘‘इस सभा में समस्त शास्त्रों में निष्णात छात्रों के बीच यशस्वी विष्णु शर्मा नामक विद्वान है। आप इन पुत्रों को उन्हें सौंप दीजिए। वे उन्हें जल्द ही प्रबुद्ध बना देंगे।

‘‘यह सुन कर राजा ने विष्णु शर्मा को बुला कर कहा : भगवन ! कृपा करके मेरे इन पुत्रों को जैसे भी संभव हो वैसे अनुपम विद्वान बना दीजिए। इसके बदले में आपको सौ ग्रामों का मालिक बना दूंगा।

‘‘यह सुन कर विष्णु शर्मा ने राजा से कहा : ‘देव ! आप तथ्य की बात सुने। सौ गांव लेकर भी मैं विद्या को बेचूंगा नहीं। फिर भी यदि मैंने आपके पुत्रों को छ: महीने के अन्दर-अन्दर नीति शास्त्र में पारंगत नहीं बना दिया तो मैं अपना नाम बदल दूंगा। ...यदि मैं छ: महीने के अंदर आपके पुत्रों को नीति शास्त्र का अप्रतिम ज्ञाता न बना दूं तो ईश्वर मुझे स्वर्ग की गति न दे।’’

“इसी उपक्रम में विष्णु शर्मा ने नीति शास्त्र के पूरे विषय को पांच भागों में विभाजित किया और विषय के अनुरूप पांच केंद्रीय कहानियों की सृष्टि कर डाली। हर कहानी एक कहानी न होकर अनेक कहानियों का तंत्र है। तंत्र का अर्थ है एक प्रकार की संरचनात्मक व्यवस्था, जिसमें हर कहानी अलग-अलग भी हो और केंद्रीय कहानी का अंग भी। इसप्रकार कुल पांच कहानी-तंत्र हुए। इसीलिये पुस्तक को नाम दिया पंचतंत्र। ’’
इन सब कहानियों के पात्र तो पशु-पक्षी है, लेकिन उनके मारफत जिस नीति शास्त्र का बखान किया गया है वह मनुष्यों के लिये है। विष्णु शर्मा एक खास, सीमित प्रयोजन से राजा के बिगड़ैल बेटों को तुरत-फुरत शिक्षित करने के लिए अपने जाने शास्त्रों का निचोड़ पेश कर रहे थे। उनके लिये महत्व इन निचोड़ों का था, किन पात्रों से उन्हें पेश किया जा रहा है, वह महत्वहीन था। दरबार के दूसरे पंडित चिंतित थे कि इतने कम समय में कैसे किसी को सारे शास्त्रों का विद्वान बनाया जा सकता है, लेकिन विष्णु शर्मा बिल्कुल निश्चिंत थे। उन्हें तो कुछ रोचक कथाओं से नीति कथनों को राजकुमारों को रटाना था। उन्होंने पशु-पक्षियों के कथोपकथन से सारे शास्त्रों के ऐसे गुटके तैयार किये कि आज भी वे ज्ञान के शार्टकट की तलाश में लगे लोगों को अपनी ओर खींचते हैं। कान में मंत्र फूंकने वाला ऐसा साहित्य आज भी हर रोज रचा जाता है।

“लेकिन गौर करने की बात यह है कि पंचतंत्र की ये कहानियां जो खास प्रयोजन के लिये रची गई, कभी भी पाणिनी के व्याकरण, चाणक्य के अर्थशास्त्र और वात्स्यायन के काम शास्त्र का स्थान नहीं ले पाई। “

इसी प्रसंग में जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपने लेख में हमें ऐतिहासिकता का उपदेश देते  हुए हमारे यहां पशुकथाओं के इतिहास से हमें यह समझाने की कोशिश की है कि ‘‘ ये महज उपदेशात्मक कथाएं नहीं हैं।बल्कि इनमें जानवरों के कर्म को मनुष्यों को उपदेश देने के साधन के रूप में इस्तेमाल किया गया है।उपदेश की पद्धति महज सरलता से ग्रहण कर लेने के लिहाज से इस्तेमाल की गयी है।“

‘महज उपदेशात्मक कथाएं नहीं हैं, बल्कि जानवरों के कर्म को मनुष्यों को उपदेश देने के साधन के रूप में इस्तेमाल किया गया है’’ ! मेरे लिये यह एक अबूझ पहेली है। बहरहाल,  मेरा सवाल है कि ‘पशुकथाओं’ से उनका क्या तात्पर्य है ? क्या ये कहानियाँ पशु-पक्षियों के व्यवहार-विज्ञान (Behavioral science) से जुड़ी कहानियाँ है, जो आज की दुनिया में प्रभूत मात्रा में उपलब्ध है और चींटी से लेकर हाथी तक की गतिविधियों के गहरे अवलोकन के आधार पर लिखी गई इन किताबों को बहुत ही अधिक चाव के साथ पढ़ा जाता हैं । मनुष्य भी इसी जीव जगत का एक प्राणी होने के नाते उसके बहुत से व्यवहारों में अन्य जीवों की तरह की प्रवृत्तियाँ दिखाई देती है । गैब्रियल गार्सिया मार्केस ने अपने प्रसिद्ध साक्षात्कार, Writer's Kitchen(लेखक की रसोई) में बताया है कि कैसे वे अपने एक चरित्र के बारे में आगे लिख नहीं पा रहे थे और काफी दिनों तक उनका उपन्यास अटक कर रह गया था, तब हाथियों के व्यवहार के बारे में एच जी वेल्स की एक किताब को पढ़ते हुए उन्हें अपने मानव चरित्र के व्यवहार की गुत्थी को सुलझाने में मदद मिली थी । प्रश्न है कि क्या पंचतंत्र की कथित पशुकथाओं का ऐसा कोई उपयोग संभव है । उनमें पशु निमित्त है, कुछ ख़ास उपदेशमूलक बातों को कहने भर के लिये । ऊपर मैंने अपने लेख में पंचतत्र के विषय में की गई टिप्पणी को पूरा उद्धृत किया है। उससे कम से कम इतना तो जाहिर हो ही जाता है कि पशुकथाओं की भारतीय परंपरा के बारे में जगदीश्वर जी की सूचनाओं का मेरे लेख के संदर्भ में कोई मायने नहीं है ।

उनकी समीक्षा में दूसरा ठोस प्रसंग है रवीन्द्रनाथ और हिंदी आलोचना पर। इसपर भी अपनी स्वभावसिद्ध भंगिमा में शुरू में ही उनका फतवा है कि ‘‘ अरूण माहेश्वरी ने ´संतुलन´ से काम नहीं लिया है।“
इसमें उनका कथन मूलत: हजारी प्रसाद द्विवेदी को लेकर हमारी टिप्पणी पर हैं। द्विवेदी जी  पर पहले भी मैंने कई बार टिप्पणियाँ की है । वे एक साहित्य चिंतक ही नहीं, एक रचनाकार, उपन्यासकार भी है । आलोचना साहित्य तो छोडि़यें, उनके उपन्यासों को भी मैंने बहुत चाव से पढ़ा है । उनके बारे में ‘सिरहाने ग्राम्शी’ में मेरी यह टिप्पणी द्रष्टव्य है :

‘‘शांतिनिकेतन उनके मन-प्राण में बस गया था। तपोवन के ढांचे में आधुनिक शिक्षा। रवीन्द्रनाथ का यह सोच उनके संपूर्ण कृतित्व का आधार था। वे प्राचीन पुराणों-उपनिषदों के ज्ञान से रत्ती भर भी दूर नहीं रहना चाहते थे, लेकिन आधुनिक मूल्यों को, जनतंत्र के मूल्यों को भी अपनाना चाहते थे। यही भारतीय राष्ट्रवाद था। इसमें भक्ति थी, पूजा-अर्चना थी, यज्ञ-याग और दूसरे कर्मकांड भी थे और साथ ही आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की चर्चा भी। द्विवेदी जी के साहित्य के पूरे ढांचे में शांतिनिकेतन के इस स्वरूप को साफ देखा जा सकता है। ‘विधाता की कृपा’ सारे जीवन का एक मूल सूत्र था। यही गरीबों के, एक गुलाम देश के उत्पीडि़त जनों का भी प्रमुख जीवन मंत्र हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। दुख, गरीबी और भयानक उत्पीड़न किसी भी असहाय को भाग्य के आसरे छोड़ देते हैं। यहां दैवी कृपा उसकी शक्ति और सहारा बनती है। अलौकिक का सम्बल उसे आशा देता है। द्विवेदी जी अपने पूरे लेखन में एक परम आस्थावादी, भगवान के भक्त, निष्ठावान पुजारी, कर्मकांडों पर विश्वासी और ईश्वर कृपा के अभिलाषी रूप को जरा भी नहीं तजते। ...मैं ये सारी बातें ‘चारु चन्द्रलेख’, ‘वाणभट्ट की आत्मकथा’ और ‘पुनर्नवा’ पढ़ कर लिख रहा हूं।

‘‘...स्तुति की जो भाषा द्विवेदी जी के पास है, अन्यत्र विरल है। यह पहुंचे हुए पुजारी की भाषा है। इसीलिए चरित्रों के गुणगान में यह अपनी पराकाष्ठा पर होती है। एक के बाद एक उपमाओं की लड़ी तैयार हो जाती है। और उपमाएं भी ऐसी-वैसी नहीं, निखिल विश्व, ब्रह्मांड और महाकाश के विराटत्व से उत्पन्न। गणिका मंजुला की प्रशंसा करते है तो उसे ‘नगर की शोभा, अनुराग की दीपशिखा, कला की प्रतिमा, छन्दों की रानी, तालों की नर्म संगिनी, श्रृंगार की रंगस्थली, सम्मोहन की सूत्रधारिणी बताते हैं।...दरअसल संस्कृत साहित्य, सिद्धो-नाथों का साहित्य, तांत्रिकों के चमत्कार और बौद्ध धर्म की विभिन्न धाराओं के बीच शास्त्रार्थ के अलावा उपनिषदों की तत्व चिन्ता के भरपूर खजाने को उलीच कर ही द्विवेदी जी ने अपना रचना संसार तैयार किया है। ...सिद्ध योगियों और तंत्र-मंत्र की अनोखी दुनिया में शरीर की संरचना संबंधी एक पूर्ण यौगिक ज्ञान उपलब्ध होने पर भी इसे साध कर निश्चित परिणामों को हासिल करने की कभी कोई वैज्ञानिक पद्धति विकसित नहीं होने पाई। यहीं वजह है कि बाबाओं, ओझाओं और आध्यात्मिक गुरुओं की दुनिया आज भी काफी बनी हुई है। द्विवेदी जी इस पूरे तंत्र के रहस्य का खूब आनंद लेते हैं। ...बांग्ला भाष की शक्ति में संस्कृत के superlatives की बड़ी भूमिका है। भक्ति का आवेग, मां देवी के प्रति व्याकुलता और ध्यान की आत्मलीनता बंगाली आस्थावादी समाज की संस्कृति है। द्विवेदी जी अपने उपन्यासों में इसी सांस्कृतिक पटल पर खड़े हैं। इसीलिए यह हिन्दी के छायावादी रचनाकारों की भाव-प्रवणता और विह्वलता से बिल्कुल अलग है। हिन्दी में द्विवेदी जी को इस भावभूमि का प्रवत्र्तक कहा जा सकता है।’’

अब हम आते हैं जगदीश्वर चतुर्वेदी द्वारा उल्लेखित अपने लेख में रवीन्द्रनाथ के बारे में की गई टिप्पणी पर। उस अंश को भी हम यहां हूबहू उद्धृत कर देना ही उचित समझते हैं जिसमें हमने हिंदी में आलोचना की ‘दूसरी परंपरा’ के अग्रदूत कहे गये द्विवेदी जी के बारे में कहा है -

‘‘ हिंदी में कथित रूप से आलोचना की एक ‘दूसरी परंपरा’ की धारा लाने वाले हजारीप्रसाद द्विवेदी शांतिनिकेतन में लगभग बीस साल तक रहे। खुद रवीन्द्रनाथ के साथ उन्होंने ग्यारह साल बिताये। उन्हें बहुत ही करीब से देखा। लेकिन ‘मृत्युंजय रवीन्द्रनाथ’ में उनके बारे में जो और जब भी लिखा, उस प्रगट ‘विराट’ की सिर्फ आरती ही उतारते रह गये। न उन्होंने बांग्ला नवजागरण को छुआ, न रवीन्द्रनाथ के परिवार को और न ही उनके कर्ममय विशाल जीवन को। कवि की बौद्धिक आकृति को जानने की कोई जरूरत ही नहीं महसूस की। गुरुदेव के न रहने पर उन्होंने क्या गंवाया उसका यह चित्र देखिये :

‘‘गुरुदेव उत्सव स्थल पर पधारते थे। शंखध्वनि से वायुमंडल मुखरित हो उठता था। मैं वेद मंत्रों से गुरुदेव का स्वागत करता था। आचार्य नन्दलाल बोस और उनके शिष्यों द्वारा रचित मनोहर आलम्पिन से सजा हुआ सभा स्थल मांगल्यगान से गूंज उठता था और गुरुदेव स्मित हास्य के साथ आसन ग्रहण करते। उनकी उपस्थिति में अपूर्व परिपूर्णता थी। जहां वे उपस्थित होते वहां सब कुछ भरा-भरा लगता। जब ‘‘शतकाण्डो दुश्चयवनो’’ मंत्र के पाठ के बाद उनके दूर्वादल बांधता तो वे बड़े स्नेह से हाथ बढ़ा देते - मेरा यह परम सौभाग्य आज विलुप्त होगया है।’’

रवीन्द्रनाथ पर उनके विश्लेषणात्मक नजरिये की हद यही थी - ‘‘रवीन्द्रनाथ महामानव थे। दीर्घकालीन तपस्या के बाद मनुष्य ने जिन महनीय गुणों को पाया है, उनमें एकत्र सुलभ थे। उनका हृदय प्रेम से परिपूर्ण था। वे युग गुरू थे।’’

यह उदाहरण यही बताता है कि रवीन्द्रनाथ की तरह के व्यक्तित्व से द्विवेदी जी ने अपनी मूल भक्त प्रकृति के अनुरूप, जिसका मैंने उनके उपन्यासों के संदर्भ में भी किंचित जिक्र किया है, जो ग्रहण करना था, वही ग्रहण किया। इसका निश्चित तौर पर उनके आलोचना साहित्य पर भी असर पड़ा है। इसके अलावा एक अध्यापक के नाते साहित्य के विद्वान की भूमिका में उन्होंने जो भी सार-संग्रहवादी प्रकार के काम किये है, वे बिल्कुल अलग है, जिनका वास्तव में उनके सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण से विशेष संबंध नहीं है ।

ऐसे अकादमिक लेखन की प्रकृति साहित्य की प्रकृति से काफी जुदा होती है, जिसे हेगेल ने भी अपने सौन्दर्यशास्त्र, Introductory lectures on Aesthetics में ‘कला की विद्वता’, (Art Scholarship ) की एक अलग श्रेणी बता कर अलग से विवेचित किया है।

दरअसल, जगदीश्वर चतुर्वेदी  को यही कहूँगा कि साहित्य समीक्षा कभी भी उपदेशमूलक नहीं हो सकती हे।  यह एक प्रकार का सह-सृजन भी होता है । जब भी किसी लेखन के बारे में बिना उद्धरणों के फ़तवे दिये जाते हैं, वह विश्लेषण नहीं कहलाता। इसीलिये मजबूरन मुझे पंचतंत्र और रवींद्रनाथ तथा हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के जिन दो ठोस प्रसंगों को उन्होंने उठाया है, उनके बारे अपने लिखे के लंबे उद्धरण देने पड़े हैं । बाकी ‘ग़ुस्सा, खीज या धिक्कार’ का जहाँ तक प्रश्न है, उनका कोई जवाब देना मुमकिन नहीं है । अक्सर देखा जाता है कि इतर कारणों से ही किसी भी पाठ पर नाराज होकर लेखक को तमाम प्रकार के लांक्षणों से लाद दिया जाता है। तब वह लेखक का नहीं, पाठक या समीक्षक का गुस्सा होता है। हम तो यह रोज देख रहे हैं कि इतिहास की तमाम विवेकसंगत व्याख्याओं से बहुत से लोग लाल-पीले होकर इतिहासकार को ईशनिंदा का दोषी बताने लगते हैं । जरूरत ‘दुर्वासाओं’ से ज्यादा तर्कशील होने की होती है। कोरे दुर्वचन तो दुर्वासा का जवाब नहीं, उनके सच्चे अनुयायी होने का प्रमाण है !

इन बातों का एक ही जवाब हो सकता है, उपदेश या फ़तवों से नहीं, वाद-विवाद-संवाद चलता है ठोस पाठ के आधार पर शुद्ध तर्कों से ।

अंत में मैं जगदीश्वर जी के लिये उन्हीं के गुरुदेव नामवर सिंह जी की ‘इतिहास और आलोचना’ पुस्तक के अंतिम, इसी शीर्षक के लेख से कुछ बातें उद्धृत करना चाहूंगा। नामवर जी के इस लेख का पहला वाक्य ही है - ‘‘ आम शिकायत है कि आलोचना के क्षेत्र में बेहद अराजकता है। रचनाकार अलग असंतुष्ट है तो पाठक अलग।’’

इसी में वे आगे लिखते हैं - ‘‘ऐसे वातावरण में साहित्यिक मूल्यों को लेकर मतभेद होना स्वाभाविक है। लेकिन केवल ‘मतभेद’ अराजकता नहीं है।
‘‘हिन्दी आलोचना की अराजकता यही है कि उसने इस जीवन्त समसामयिक बोध को परिभाषित और संगठित करने का प्रयत्न नहीं किया।’’

आगे वे साहित्य के इतिहास संबंधी पक्ष पर भी, जिस पर जगदीश्वर बहुत बल देने की बात कहते दिखते हैं,  बहुत मार्के की बात कही है। नामवर जी लिखते हैं -

‘‘यदि इतिहास किसी साहित्य का कुछ भी पता देते हैं तो हिंन्दी के ये इतिहास हिन्दी आलोचना की अराजकता के दर्पण है। बल्कि कहा जा सकता है कि हिन्दी आलोचना को अराजकता की स्थिति तक ले जाने में इन इतिहासों का भी बड़ा हाथ है। ...हर साहित्यिक और हर कृति को जिस प्रकार समान भाव से श्रेष्ठ बतलाया है, उससे अराजकता उत्पन्न न होगी तो क्या होगा ?’’

दरअसल साहित्य और कला का इतिहास साहित्य और कला की अपनी शर्तों के जरिये निर्मित होता है। साहित्य विज्ञान की अवधारणाओं की तरह विकसित नहीं होता है। सौन्दर्यशास्त्र और सत्य का संबंध जीवन के यथार्थ और समाज-विज्ञान के बीच के संबंध की तरह नहीं होता है। यह महज विश्व-दृष्टि का मामला भी नहीं है। कोई मार्क्सवाद की तरह की एक विकसित विश्वदृष्टि रखने वाला होने के नाते ही बड़ा साहित्यकार नहीं बन सकता है। सौन्दर्यशास्त्र एक अलग क्षेत्र है  जिसकी दर्शनशास्त्र, इतिहास, मनोविज्ञान, कुछ-कुछ अर्थशास्त्र भी, आदि की तरह के मनुष्यों के मानसिक जगत से जुड़े विषयों के साथ एक सामान्य अन्तरक्रिया देखी जा सकती है। लेकिन इन सबकी अपनी अलग-अलग पहचान से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है।

सौन्दर्यशास्त्र में भी एक ओर जहाँ रचनाशीलता के जगत के अपने तर्क होते है, वहीं  साहित्य और कला के क्षेत्र के बारे में विद्वता का क्षेत्र अलग है जिसे art scholarship कहा जाता है । कई लोग आलोचना को ऐसी कथित विद्वता का क्षेत्र मानते हैं, जबकि सौन्दर्यशास्त्रीय साहित्य चिंतन से वास्तव में इस विद्वता का कोई खास संपर्क नहीं होता ।

दरअसल, हमने यह ग़ौर किया है कि जगदीश्वर जी के ढेर सारे प्रयोजनमूलक लेखन में समीक्षा एक ऐसी विधा है, जिसके लिये शायद कोई विशेष स्थान नहीं है । समीक्षा से हमारा तात्पर्य अखबारी स्तंभों के लिये आम तौर किताब के ब्लर्ब की सामग्री से निकाल कर की जाने वाली सूचनात्मक टिप्पणियों से नहीं है । वास्तव में समीक्षा एक प्रकार से रचनाकार या विचारक  के साथ लेखक की सहयात्रा होती है , जिसमें रचना अथवा विचारों की संरचना में प्रवेश करके समीक्षक उनकी सीमाओं और संभावनाओं को खोलने की कोशिश करता है । साहित्य कोई प्रयोजनमूलक लेखन नहीं होता है । इसके बारे में इको ने बिल्कुल सही कहा है कि व्यक्ति अपने किसी स्वार्थ की सिद्धि या किसी निर्देश का पालन करते हुए साहित्य नहीं पढ़ता है। वह सिर्फ अपनी खुशी के लिये, अपनी मर्जी से इसे पढ़ता है। और इसीलिये सच्ची साहित्य समीक्षा के कर्म में उपदेशों या फ़तवों के लिये कोई जगह नहीं होती है । समीक्षक को लेखन की पंक्तियों के बीच सायास या अनायास  छोड़ दिये मौन को सुनना पड़ता है और खाइयों को पाटना पड़ता है । इसमें उसकी अपनी तैयारियों और मानसिकता की भी बड़ी भूमिका होती है ।

नामवर जी ने अपने लेख में साहित्य के इतिहास के बारे में कई सकारात्मक बातें भी कही है। इस विषय में मैं अंत में ‘कला विद्वता’ पर हेगल ने जो कहा, उसे बहुत ही प्रासंगिक समझते हुए उसके उद्धरण से अपनी बात खत्म करूंगा और उम्मीद करूंगा कि आज की हिंदी आलोचना के बारे में हमारे कथित गुस्से, खीझ या दुर्वासाई नजरिये के फतवों की सचाई को बताने के लिये इतना ही काफी होगा।

‘‘And thus, we should expect’ men have abandoned the tendency to consider works of art solely with an eye to the education of taste, and with the purpose merely displaying taste. The connoisseur, or scholar of art, has replaced the art judge, or man of taste...Yet though such scholarship is entitled to rank as something essential, still it not to be taken for the sole or supreme element in the relation which the mind adopts towards a work of art, and towards art in general. For art scholarship(and this is a defective side) is capable of resting in an acquaintance with purely external aspects, such as technical or historical details etc., and of guessing but little, or even knowing absolutely nothing, of the true and real nature of a work of art.”

(और इसप्रकार, हमें मानना होगा कि लोगों ने कला को पूरी तरह से सुरुचि संपन्न होने और सुरुचि का प्रदर्शन करने की दृष्टि से देखना छोड़ दिया है। कला के विचारक या सुरुचिसंपन्न लोगों का स्थान कला के अधिकारी या विद्वानों ने ले लिया है। ...यह विद्वता एक जरूरी स्थान की अधिकारी होने पर भी खास कला कृति को और सामान्य तौर पर कला मात्र को मस्तिष्क कैसे ग्रहण करता है, उसके बारे में वही सबकुछ या सर्वोच्च चीज नहीं है। कला विद्वता के लिये (जो उसका दुर्गुण है) संभव है कि वह शुद्ध रूप से बाहरी पक्षों, मसलन तकनीकी या ऐतिहासिक ब्यौरों आदि की अपनी जानकारी के अनुसार कृति को देखने लगे, और कला कृति की सच्ची और वास्तविक प्रकृति के बारे में कुछ भी न जाने।)

अंत में मैं ‘इतिहास और आलोचना’ लेख में नामवर जी की ही अंतिम बात से इस लेख का अंत करूंगा कि ‘‘यदि आप हिन्दी आलोचना की अराजकता को दूर करना चाहते हैं तो हमें इतिहास और आलोचना - दोनों दिशाओं से एक साथ परस्पर संबद्ध चिंतन पद्धति द्वारा लक्ष्यैकोन्मुख भाव से कार्य करना होगा। ...व्यापक सामाजिक आवश्यकता के परिवेश में ही इस पर विचार करना सार्थक हो सकता है। और इतना महत्वपूर्ण कार्य व्यापक रूप से सामूहिक तथा सहयोगी चिन्तन की अपेक्षा रखता है।’’

यहां मैं जगदीश्वर के लेख का लिंक दे रहा हूं –

http://jagadishwarchaturvedi.blogspot.in/2016/09/blog-post_86.html






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