सोमवार, 10 मार्च 2014

पांच राज्यों के चुनाव : एक भिन्न पर्यवेक्षण


(10 दिसंबर 2013 की पोस्ट)

चलिये, राजनीति की बिसात के एक और रोमांचक खेल का अंत हुआ। कहते है यह सेमी-फाइनल था। ऐसा सेमी-फाइनल जिसमें पिछली चौथाई सदी से जो दल 45 से 50 प्रतिशत मतदाताओं पर अधिकार बनाये हुए हैं, उन्होंने हिस्सा ही नहीं लिया था, जबकि सेमि-फाइनल, फाइनल का खेल खेलने वाले कांग्रेस-भाजपा जैसे दलों की सरकारें इन बाकी दलों की बैसाखियों पर ही टिकी रही थी।

भारत में वोट को ‘जनतंत्र का उत्सव’ कहते हैं। ‘उत्सव’ - दुख-दर्दों को भूलने का समय, सार्वजनिक मस्ती का समय। अपने ‘वोट की ताकत’ के नशे में नाचने-गाने का समय।

सामान्य समय में आप लोगों से बात करेंगे तो पायेंगे कि उनकी नजर में राजनीतिज्ञ कुछ आवारा किस्म के लोगों की ऐसी उद्यमी, पतित और लुटेरू जमात है जो मौका आने पर संजीदगी का स्वांग भरते हुए सरकारी पदों का बाना पहन लेते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस मामले में लोग दक्षिण या वाम, किसी में कोई भेद नहीं करते। लेकिन वोट के पर्व में ऐसी जमातों की अदला-बदली करके ही लोग खुशी में पागल हुए जाते हैं। कुल मिला कर, चुनाव के नाम पर अपनी गमगीन जिंदगी के चंद दिन ढोल-धमाकों के साथ मौज से बिताते हैं।

दरअसल, यह जनतंत्र का एक अद्भुत खेल है। इसकी चौहद्दी तक सीमित दल जहां यह जानते हैं कि उनकी राजनीतिक शक्ति आम लोगों में निहित है, इसके साथ ही वे पूंजीवादी व्यवस्था की रक्षा को भी अपना दैवी कर्त्तव्य माने हुए हैं। आम लोगों के प्रतिनिधि के नाते नीतियां बनाते हैं, लेकिन हर रोज उसी आम आदमी की स्वतंत्र राजनीतिक हैसियत को तोड़ने का उपक्रम भी करते रहते हैं; सत्ता आम आदमी की राजनीतिक शक्ति के दुश्मन बनी रहती है। पुन:, वही दल और सत्ता नाना प्रकार के भौतिक संरक्षणों से आम जन में नये सिरे से राजनीतिक शक्ति भी पैदा करते हैं।

यह ऐसा खेल है कि कारण की रक्षा करो, परंतु कार्य को, जहां भी वो प्रगट हो, नष्ट कर दो। लेकिन, कार्य-कारण संबंध गैर-द्वंद्वात्मक नहीं होते। ये हमेशा परस्पर को प्रभावित करते हैं, और मजे की बात है कि इसी अन्योन्यक्रिया में अक्सर अपनी-अपनी विशिष्टता भी खो देते हैं। कार्य-कारण की सीमारेखा धुंधली होने लगती है। फलत:, इसी व्यवस्था में ऐसी-ऐसी नीतियां सामने आती है कि ‘सच्चे समाजवादी’ भी मात खा जाए! शासक दल अपने को आमलोगों के ऐसे प्रतिनिधि के रूप में देखता है, जो पूंजीवादी समाज के चौखटे में जनता के निम्नतर वर्गों को सुखी बनाना चाहता है। राजस्थान में लोगों को दवाएं मुफ्त देने, छत्तीसगढ़ में दो रुपया किलो अनाज, तो केंद्र की नरेगा, खाद्य सुरक्षा योजनाएं, और ऐसी ही कई दूसरी योजनाएं है, जिनकी जनता को राहत देने मात्र के घोषित उद्देश्यों से बनायी गयी पश्चिम बंगाल, केरल की वामपंथी सरकारें कल्पना भी नहीं कर पायी थी।

तथापि, सभी दलों की उलझन यह है कि वह आम लोगों का ही नहीं, अपने साथ जुड़े उन तमाम लंपटों का भी प्रतिनिधि होता हैं, जिनका एकमात्र उद्देश्य अपने को लाभान्वित करना होता है। ये लोग राजकोष को अपनी सिक्किम की लॉटरी के ईनाम के अलावा कुछ नहीं समझते। राजनीतिक भ्रष्टाचार कैंसर की तरह पूरे शरीर में फैल जाने वाला लाईलाज मर्ज बन जाता है।

इसप्रकार, परस्पर-विरोधी कार्यभारों में उलझे हमारे राजनीतिक दल अंधेरे में किसी उद्भ्रांत की तरह टटोलते हुए कभी इसका दामन थामते हैं तो कभी उसका अपमान करते है, कभी इसे खरीदते हैं तो कभी उसे धमकाते है - और इसप्रकार राजनीति को मूलत: सबको वैरी बनाये रखने के शैतानी काम का पर्याय बना डालते हैं। शासन की सारी दृढ़ घोषणाएं और उसकी निश्चयात्मक शैली के मुकाबले व्यवहार में उसका ढुलमुलपन हास्यास्पद सूरत पेश करता है। नग्न तानाशाह का रास्ता साफ होता है।

भारत के राजनीतिक परिदृश्य में क्या यह पर्यवेक्षण आपको सही नहीं लगता? चुनावों में सत्ता के पक्ष में क्यों वोट दिया जाए अथवा सत्ता के विरोध में क्यों वोट दिया जाए की तरह के प्रश्न कुछ निरर्थक अटकलबाजियों की तरह के प्रश्न प्रतीत होने लगे हैं। इनके उत्तरों से शायद ही किसी खास नतीजे पर पंहुचा जा सकता है। उसीप्रकार, जैसे चुनावों के संदर्भ में अर्थनीति को लेकर ‘सेन-भगवती बहस’ के विषय को उठाना निरर्थक है।

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