मंगलवार, 25 मार्च 2014

हिटलर और यहूदी : आरएसएस और मुसलमान

अरुण माहेश्वरी


आर एस एस की गीता समझी जानेवाली गोलवलकर की पुस्तक ’’वी आर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड’’ जब पहली बार 1939 में प्रकाशित हुई तो उसकी भूमिका तत्कालीन ए आई सी सी के सदस्य और जाने-माने नेता लोकनायक एम.एस. अणे ने लिखी थी। गोलवलकर ने अपने प्राक्कथन में अणे साहब के प्रति काफी आभार प्रकट किया था और लिखा था कि ’’यह मेरे लिए व्यक्तिगत तौर पर प्रसन्नता की बात है कि लेखन के क्षेत्र में अब तक अनजान मेरे जैसे व्यक्ति के इस प्रथम प्रयास की भूमिका लोकनायक एम.एस. अणे ने लिखी। एक महान तथा नि:स्वार्थ देशभक्त, अद्यीत विद्वान तथा गहन चिन्तक होने के नाते, जैसा मैंने सोचा था, उनकी भूमिका ने ठोस रूप में पुस्तक के मूल्य को बढ़ाया है।’’ (गोलवलकर, ’’वी’ पृ. 3)

लेकिन, उल्लेखनीय है कि पहले संस्करण के बाद ही आर एस एस वालों ने इस पुस्तक से अणे साहब की इस ’’मूल्यवान’’ भूमिका को हटा दिया। हमारे सामने 1947 में प्रकाशित इस पुस्तक का चौथा संस्करण है। बाद में शायद 1951 के वक्त तक यह पुस्तक छपती रही है, अन्यथा 1951 में आरएसएस पर अमरीकी गवेषक जे.ए. कुर्रान ने इसे आर एस एस की ’’बाइबिल’’ न कहा होता।

प्रश्न यह है कि एम एस अणे की जिस भूमिका को खुद गोलवलकर ने किताब का मूल्य बढ़ानेवाली भूमिका कहा, उसे ही पुस्तक के बाद के संस्करणों से हटा क्यों दिया गया?  ऐसा इस भूमिका में क्या था जो सरसंघचालक बन जाने के बाद ’’एकचालकानुवर्तित्व’’ के सांगठनिक सिद्धान्त पर सबसे अधिक बल देनेवाले गोलवलकर को अपनी पुस्तक के साथ ’’महान नि:स्वार्थ, देशभक्त और अद्यीत विद्वान’’ की इस भूमिका का प्रकाशन गँवारा नहीं हुआ?

अणे साहब की भूमिका को अच्छी तरह पढ़ने से ही हिटलर प्रेमी गोलवलकर के भय के कारण साफतौर पर समझ में आ जाते हैं। अणे साहब ने अपनी भूमिका में इस पुस्तिका को इस महत्त्वपूर्ण विषय पर चल रही बहस में एक दिलचस्प योगदान बताते हुए यहाँ तक स्वीकार लिया था कि चूँकि भारत की आबादी का विशाल बहुमत हिन्दू है इसलिए ’’भारत मुख्यत: एक हिन्दू राष्ट्र, हिन्दुस्तान है।’’ लेकिन इसके बाद ही अणे ने गोलवलकर के दृष्टिकोण पर कुछ बुनियादी प्रश्न खड़े किए थे। उन्होंने लिखा कि ’’इन निष्कर्षों से राजनीतिज्ञों के सामने जो व्यवहारिक समस्याएँ खड़ी होती हैं, वह अत्यन्त गहरी है तथा उन पर सावधानी और धीरज के साथ विचार किया जाना चाहिए। मुझे लगता है कि मुसलमानों के स्थान की समस्याओं के बारे में विचार करते वक्त लेखक (गोलवलकर) ने हिन्दू राष्ट्रीयता तथा हिन्दू राष्ट्र के सार्वभौम राज्य के बीच के फर्क को हमेशा ध्यान में नहीं रखा है। एक सार्वभौम राज्य के रूप में हिन्दू राष्ट्र एक सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के रूप में हिन्दू राष्ट्र से पूरी तरह भिन्न चीज है। किसी भी आधुनिक राष्ट्र ने विभिन्न राष्ट्रीयताओं के अपने अधिवासी अल्पसंख्यकों को नागरिकता के अधिकार से वंचित नहीं किया है यदि वे स्वत: स्फूर्त ढंग से या कानून के द्वारा राष्ट्र के स्वाभाविक अंग बन गए हों। ...अल्पसंख्यक के रूप में नागरिकता के सभी अधिकारों के साथ ही अपनी संस्कृति, भाषा और धर्म को सुरक्षित रखने की विशेष व्यवस्थाएँ कुल मिलाकर किसी भी राज्य के सार्वभौमिकता के अधिकारों के प्रयोग के साथ बेमेल नहीं मानी गई हैं।...कोई भी आधुनिक न्यायशास्त्री या राजनीतिक दर्शनशास्त्री या संवैाधानिक कानून का विद्यार्थी पुस्तक के पाँचवे अध्याय में कही गई लेखक की इस बात को स्वीकार नहीं कर सकता।’’

इसके बाद ही अणे ने गोलवलकर के उस कथन को उद्धृत किया है जिसमें उन्होंने कहा था कि राष्ट्र के बारे में उनके बताए हुए पाँच संघटक तत्त्वों से बाहर पड़नेवाले व्यक्ति का उस वक्त तक राष्ट्रीय जीवन में कोई स्थान नहीं हो सकता, जब तक वह राष्ट्र के धर्म, संस्कृति और भाषा को अपनाकर पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में स्वयं को मिला नहीं लेता। ’’जब तक वे अपने नस्लजात, धार्मिक और सांस्कृतिक विभेदों को बनाए रखते हैं तब तक वे सिर्फ विदेशी कहला सकते हैं, जो राष्ट्र के प्रति मित्रतापूर्ण भी हो सकते हैं और शत्रुतापूर्ण भी।’’

इस उद्धरण के बाद ही लोकनायक अणे ने लिखा कि : ’’मेरे मन में इस बारे में कोई सन्देह नहीं है कि लीग ऑफ नेशन्स की अल्पसंख्यक सम्बन्धी सन्धि का धीरज से अध्ययन करने पर लेखक ने इतनी घृष्टता के साथ जो बात कही है, उसका कोई स्थान रह जाता। सांस्कृतिक तौर पर भिन्न अल्पसंख्यकों को अपने धार्मिक आचार को बनाए रखने तथा उसका पालन करने की अनुमति देने और उनकी संस्कृति की रक्षा के अनुकूल स्थितियाँ बनाने से किसी भी राज्य की सार्वभौमिकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, बशर्ते वे सार्वजनिक नैतिकता और नीति का उल्लंघन न करे। किसी भी देश में पैदा हुआ कोई भी व्यक्ति, जिसके पुरखों को सदियों से नागरिकता के अधिकार प्राप्त रहे हैं, किसी भी आधुनिक राज्य में सिर्फ इसलिए विदेशी नहीं माना जा सकता है कि वह उस देश की बहुसंख्यक आबादी, जो स्वाभाविक तौर पर उस राज्य पर नियन्त्रण रखती है, से भिन्न धर्म को अपनाए हुए है। इस बीसवीं सदी में किसी भी बाहरी व्यक्ति के प्रकृतिकरण की शर्त धर्म परिवर्तन नहीं हो सकता।’’

इसी भूमिका में अणे ने राष्ट्रीयता के मामले में धर्म की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए हैं और एक स्थान पर यहाँ तक कह दिया है कि ’’मैं यह भी जोड़ना चाहता हूँ कि लेखक ने उन लोगों के प्रति, जो राष्ट्रवाद के उनके सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करते, जिस कठोर और उत्तेजक भाषा का प्रयोग किया है, वह राष्ट्रवाद की तरह की एक जटिल समस्या के लिए आवश्यक वैज्ञानिक अध्ययन की मर्यादा के अनुकूल नहीं है। इस भूमिका में इन बातों का उल्लेख करना मुझे कष्टदायी प्रतीत होता है। लेकिन मैं समझता हूँ कि इन उपरोक्त विषयों पर अपनी राय को बिल्कुल साफ और स्पष्ट शब्दों में न रखकर मैं अपने प्रति ही गैर-ईमानदार और अन्यायपूर्ण होता।’’ (गोलवलकर, वही, पृ. 14 से 18)

इस प्रसंग को यहाँ उठाने से हमारा तात्पर्य यह है कि अणे ने अपनी भूमिका में गोलवलकर की पुस्तक में अल्पसंख्यकों के अधिकार के बारे में उनकी सिर्फ एक गलत अवाधारणा की ओर सिर्फ इशारा भर नहीं किया था, उन्होंने अनायास ही आर एस एस के सबसे मूलभूत विचारों पर प्रहार कर दिया था। मुसलमानों के विरुद्ध सख्त नफरत और घृणा ही तो वह आधार है जिस पर आर एस एस और उसके संघ परिवार के झूठ की पूरी इमारत टिकी हुई है। किसी भी वजह से यदि वह नींव ही कमजोर हो जाए तो फिर साम्प्रदायिक घृणा के आधार पर पूरे देश पर अपनी फासिस्ट तानाशाही लादने के संघियों के सपनों का महल चूरचूर नहीं हो जाएगा!

जे.ए. कुर्रान ने अपने शोध में एक नहीं, अनेक स्थानों पर इस बात को दोहराया है कि भारत में आर एस एस का भविष्य बहुत हद तक भारत-पाकिस्तान संबंधों पर निर्भर करता है। कुर्रान ने यह भी नोट किया था कि आर एस एस के प्रचार का सबसे बड़ा मुद्दा मुसलमान-विरोध है। जीवन के अनुभवों से भी हर कोई इस बात को समझ सकता है कि संघियों का सबसे बड़ा धर्म मुसलमानों के खिलाफ गन्दी-से-गन्दी बातों के प्रचार के अलावा और कुछ नहीं रहा है। इस मामले में हेडगेवार, गोलवलकर से लेकर इनके तमाम चेले तक एक दूसरे से लोहा लेते हैं।

गौर करने लायक बात यह है कि अन्य अनेक बातों की तरह ही मुसलमानों के खिलाफ अत्यन्त सुनियोजित ढंग से घृणा के प्रचार का काम भी आर एस एस में गोलवलकर ने ही शुरू किया था, और इस मामले में भी गोलवलकर ने किसी और को नहीं, हिटलर को ही अपना गुरू बनाया था। जिस प्रकार हिटलर ने जर्मन राष्ट्र के दुश्मन के रूप में यहूदियों को चिन्हित करके उन्हें सांस्कृतिक, नैतिक और आर्थिक, हर दृष्टि से पतित बताते हुए जर्मनी की हर कमजोरी के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराने की शैली अपनाई थी, गोलवलकर और आर एस एस ने भारत में हूबहू उसी शैली पर मुसलमानों के खिलाफ प्रचार के कार्य को अपनाया। गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ’’वी’’ में इस बारे में साफ लिखा था कि जर्मनी में हिटलर ने यहूदियों के साथ जो सलूक किया वह हमारे लिए भी एक अच्छा सबक है। हमें इससे लाभ उठाना चाहिए। गोलवलकर की पुस्तक का यह उद्धरण बहुत प्रसिद्ध हैं।

‘‘ अपनी जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए जर्मनी ने देश से सामी जातियों - यहूदियों का सफाया करके विश्व को चौंका दिया है। जाति पर गर्वबोध यहाँ अपने सर्वोच्च रूप में व्यक्त हुआ है। जर्मनी ने यह भी बता दिया है कि सारी सदिच्छाओं के बावजूद जिन जातियों और संस्कृतियों के बीच मूलगामी फर्क हों, उन्हें एक रूप में कभी नहीं मिलाया जा सकता। हिन्दुस्तान में हम लोगों के लाभ के लिए यह एक अच्छा सबक है।’’(गोलवलकर, पूर्वोक्त, पृ. 35)



इस बात को और भी अच्छी तरह से जानने के लिए हम यहूदियों के बारे में हिटलर के प्रचार और मुसलमानों के विषय में आर एस एस तथा उसके गुरू जी के प्रचार का तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैं। इसी से साफ पता चल पाएगा कि किस प्रकार आर एस एस हिटलर के नक्शे-कदम पर चलता रहा है।

यहूदियों के खिलाफ ’’आर्य श्रेष्ठता’’ की हिटलर की सारी दलीलों का मौटे तौर पर खाका इस प्रकार रहा है :  इस पृथ्वी रूपी ग्रह पर आर्यों के साथ ही अनिवार्य रूप से मानव सभ्यता और संस्कृति जुड़ी हुई है। इसीलिए आर्यों पर किसी भी प्रकार के हमले का अर्थ है मानव सभ्यता और संस्कृति पर हमला। जर्मन जाति आर्य जाति है। दुनिया की श्रेष्ठ जाति होने के नाते इसे सारी दुनिया पर अपना प्रभुत्व कायम करने का ईश्वर प्रदत्त अधिकार प्राप्त है। यह अधिकार सिर्फ श्रेष्ठता के बखान से नहीं, शारीरिक बल और पराक्रम के द्वारा अन्य क्षुद्र जातियों के दमन और सफाए के जरिए ही हासिल किया जा सकता है। यह कार्य दुनिया में सभ्यता और संस्कृति को बनाए रखने के लिए जरूरी है। जर्मनों में यह पराक्रम जागृत करना होगा। यहूदी लोग आर्यों के रास्ते की सबसे बड़ी बाधाधा है। ये जर्मन जाति के आन्तरिक शत्रु हैं। ये वे लोग हैं जो अपने मेजबानों के साथ भाषा आदि के मामले में मिलजुल गए हैं लेकिन मन से हमेशा यहूदी रहते हैं, कभी भी मेजबान राज्य के सच्चे नागरिक नहीं होते। वे बहुत ही लालची और कृपण होते हैं। उनकी अपनी कोई सभ्यता नहीं है। वे मूलत: गन्दे, ईर्ष्यालु और आत्म-त्याग से रहित लोग हैं। जर्मनी में वे एक ऐसी आबादी है जिसका अपना कोई देश नहीं है। वे जर्मनी की तमाम कमजोरियों के मूल में है। और तो और, वे जर्मन लड़कियों को फँसा कर आर्यों की नस्ल को गन्दा करते हैं। उनके खिलाफ की जानेवाली कार्रवाई ईश्वर का आदेश है। उनका सफाया करके ही श्रेष्ठ जर्मन जाति विश्व पर आर्यों के आधिपत्य के ईश्वरीय न्याय पर अमल कर सकती है।

यहूदियों के खिलाफ मनमाने ढंग से हिटलर लगातार इस प्रकार का गन्दा और पूरी तरह झूठा प्रचार किया करता था। हिटलर के उदय के पहले जर्मनी के इतिहास और संस्कृति में यहूदियों का जो अवदान रहा, इसे सारी दुनिया जानती है। साहित्य और संस्कृति, चिकित्साशास्त्र, रसायनशास्त्र, भौतिकी, विश्वशान्ति आदि तमाम विषयों में जर्मनी के यहूदी निवासियों को नोबेल पुरस्कार मिल चुके थे। अकेले 1905 से 1926 के काल में, जब हिटलर की किताब ’’मीन कैम्फ’’ का दूसरा खण्ड प्रकाशित हुआ था, जर्मनी के जिन यहूदी नागरिकों को नोबेल पुरस्कार मिले, वे थे : एडोल्फ वान बेयर (1905, रसायनशास्त्र), पाल एहर्लिक (1908, चिकित्साशास्त्र), पाल हेस (1910, साहित्य), ओटो वालस (1910, रसायनशास्त्र), आल्फ्रेड फ्राइड (1911, शान्ति), राबर्ट बरानी (1914, चिकित्साशास्त्र), फ्रिज हैबर (1918, रसायनशास्त्र), अलबर्ट आईन्स्टीन (1921, भौतिक विज्ञान), ओटो मेयेरोफ (1922, चिकित्साशास्त्र), गुस्ताव हर्ट्ज (1926, भौतिकविज्ञान)।

इसी प्रकार कवियों, लेखकों, चित्रकारों, संगीतकारों, अभिनेताओं में भी जर्मनवासी यहूदी किसी से कम नहीं, बल्कि आगे ही थे।

हिटलर कभी भी यहूदियों को सिर्फ एक धार्मिक समुदाय नहीं मानता था। हिटलर के शब्दों में ’’खुद को धार्मिक समुदाय कहना उनकी चालबाजी है, ताकि वे विश्व प्रभुत्व की अपनी योजनाओं पर पर्दा डाल सके।’’ कोई भी यहूदी भाषा का प्रयोग अपने वास्तविक विचारों की अभिव्यक्ति के लिए नहीं, उन्हें छिपाने के लिए करता है। जब एक यहूदी अपने ’’मेजबान लोगों’ की भाषा में बोलता है, यहाँ तक कि जब उस भाषा में वह कविता भी लिखता है तब भी वह सिर्फ एक यहूदी के रूप में सोचा करता है और ’’अपनी नस्ल के चरित्र की ही अभिव्यक्ति करता है।’’ (वर्नर मेसर, हिटलर्स मीन कैम्फ : एन एनालिसिस, पृ. 152-168 से)।

अब यदि हम हिटलर के इस अनर्गल प्रचार के सामने मुसलमानों के खिलाफ गोलवलकर के प्रचार को रखें तो दोनों के बीच एक अनोखा साम्य दिखाई देगा।

गोलवलकर की शब्दावली में : “हिन्दू अर्थात् आर्य जाति अनगिनत वर्षों से इस धरती की ही उपज है और इस देश के स्वाभाविक मालिक है। यहीं हमने अनादि, अपौरुषेय वेदों की रचना की, ब्रह्म का अपना दर्शन तैयार किया जो इस विषय पर अन्तिम सत्य है, अपने विज्ञान और कला का निर्माण किया। हिन्दू एक महान राष्ट्र, एक महान जाति है। यह जाति चेतना कभी मर नहीं सकती। किसी भी हमलावर में इस जाति पर आधिपत्य की शक्ति नहीं रही। आठ सौ वर्षों के लगातार युद्धों के बीच यह जाति विजयी रही है। हिन्दू जाति अजेय है। जबसे पहली बार मुसलमानों ने इस धरती पर कदम रखा, तबसे लेकर इस घड़ी तक हिन्दू राष्ट्र आतताइयों से मुक्ति के लिए बहादुरी के साथ लड़ रहा है। जाति भावना जाग रही है। वे दिन दूर नहीं जब दुनिया इसे देखकर या तो आतंक से काँपेगी या खुशी से झूम उठेगी।“ (गोलवलकर, ’’वी’, पृ. 8-12)

आवश्यकता हिन्दुओं के पराक्रम को जागृत करने की है। मुसलमान हमारे राष्ट्र के आन्तरिक दुश्मन हैं। वे हिन्दू राष्ट्र के आन्तरिक संकट हैं। उनकी आक्रामक नीति सदैव दोहरी रही है। इस राष्ट्र के खिलाफ उनका सतत रूप से आक्रमण जारी रहा है। बारह सौ वर्ष पूर्व जब मुसलमान ने यहाँ पैर रखा, उसकी यही आकांक्षा रही कि इस सम्पूर्ण देश का धार्मान्तरण करके गुलाम बनाया जाएँ। गुण्डागिरी उनका स्वभाव है। सम्पूर्ण देश में जहाँ भी एक मस्जिद या मुसलमानी मुहल्ला है, मुसलमान समझते हैं कि वह उनका अपना स्वतंत्र प्रदेश है। देश के अन्दर जितनी मुस्लिम बस्तियाँ हैं वे एक-एक लघु पाकिस्तान हैं जहाँ देश का कानून नहीं चलता, दुष्टों के मन की लहर ही अन्तिम नियम है। प्राय: हर स्थान पर ऐसे मुसलमान हैं जो ट्रान्समीटर के द्वारा पाकिस्तान से सतत सम्पर्क स्थापित किए हैं और अल्पसंख्यक होने के नाते सामान्य नागरिक के नहीं अपितु कुछ विशेषाधिकारों का भी उपयोग करते हैं। तथाकथित ’’राष्ट्रीय मुसलमान’’ भी इसी श्रेणी के हैं। महानतम ’’राष्ट्रीय मुसलमान’’ मौलाना आजाद ने भी अपनी पुस्तक मंम अपने ऐसे मस्तिष्क को खुले रूप से व्यक्त किया है। मुसलमान चाहे सरकारी उच्च पदों पर हों या उसके बाहर, घोर अराष्ट्रीय सम्मेलनों में शामिल होते हैं। (गोलवलकर, बंच ऑफ थाट्स, 1980, पृ. 233-247)

गोलवलकर कहते हैं : ’’इतने पर भी हमें यह विश्वास करने के लिए कहा जाता है कि ऐसे तत्व इस भूमि के पुत्र हैं। ...अधिक विलम्ब होने के पूर्व ही ईप्सित धाधारणा के लम्बे और आत्मघाती सम्मोहन को हम तुरन्त रोक दें और राष्ट्र की सुरक्षा एवं समग्रता के हितों को सर्वोच्च स्थान देते हुए स्थिति की कठोर वास्तविकता को दृढ़तापूर्वक ग्रहण करें।’’ (गोलवलकर, विचार नवनीत, पृ. 175)

हेडगेवार, गोलवलकर द्वारा शुरू किया गया मुसलमानों के खिलाफ यह घिनौना दुष्प्रचार और भी गन्दे और जघन्य रूप में संघ परिवार के बाकी नेताओं के द्वारा जारी है। मुसलमानों को वे अनेक प्रकार की गन्दी गालियों से सम्बोधित करते हैं। बिना किसी आधार के चिल्लाते रहते हैं कि वे परिवार नियोजन को नहीं मानते, चार-चार शादियाँ करते हैं और हमेशा इस देश के खिलाफ षड़यन्त्र में लगे रहते हैं। भारतीय जीवन और संस्कृति में इस्लाम के अमूल्य योगदान का जो लम्बा इतिहास है, जिस पर असंख्य बड़े-बड़े ग्रन्थ उपलब है, उन सबको वे झुठलाते और अस्वीकारते रहते हैं। संत साहित्य से लेकर आधुनिक साहित्य तक में, विज्ञान और प्रगति के तमाम क्षेत्रों में भारत के मुसलमानों का क्या अवदान है, इसे यहां अलग से बताने की जरूरत नहीं है।

अमेरिकी गवेषक जे.ए. कुर्रान ने अपने शोध में आर एस एस के घृणित मुस्लिमविरोध के तथ्य को विशेष तौर पर नोट करते हुए लिखा था कि संघी सभी मुसलमानों को देश का परम शत्रु समझते हैं।

’’मुसलमानों के प्रश्न पर बिल्कुल साफ और नग्न रूप में आर एस एस के पास अन्तहीन गालियाँ हैं। पूरे मुस्लिम सम्प्रदाय पर संघपरिवार के सदस्य जितनी तोहमतें लगाते हैं, वे सीमाहीन हैं। आर एस एस ’’भारत’ के प्रत्येक मुसलमान को पाकिस्तान का वास्तविक या सम्भावित जासूस मानता है। संघ के कार्यकर्ता प्रत्येक ’’वफादार नागरिक’ का यह कर्तव्य मानते हैं कि सभी भारतीय मुसलमानों की रोजमरे की गतिविधियों पर लगातार नजर रखे, भले ही देखने पर वह कितना ही मासूम क्यों न प्रतीत हो। सन् 1950 के वसन्त के महीने में ’’आर्गनाइजर’ के एक सम्पादकीय में सरकार से माँग की गई कि...’’हमारी नागरिक सेवाओं का राष्ट्रीयकरण किया जाएँ। हमारा नागरिक और पुलिस प्रशासन उस वक्त तक सुरक्षित नहीं रह सकता, जब तक सरकार में शामिल हर मुसलमान को पाकिस्तान नहीं भेज दिया जाता।’’ (जे.ए. कुर्रान, पूर्वोक्त, पृ. 39)

गोलवलकर हमेशा कहा करते थे कि पाकिस्तान कोई तयशुदा मसला नहीं है, हम उसे उजाड़ेंगे।

इसी प्रकार की तमाम बातों पर चलते हुए आर एस एस का एकसूत्री कार्यक्रम मुसलमानों पर हमलों की योजनाएँ बनाना होता है। चूँकि वे हर बस्ती को एक लघु पाकिस्तान मानते हैं, तथा पाकिस्तान को उजाड़ना अपना कर्तव्य, इसीलिए वे सुनियोजित ढंग से दंगे करा कर मुस्लिम आबादियों को उजाड़ने का राष्ट्रद्रोही-मानवद्रोही काम पूरी ध्रष्टता के साथ करते हैं और ऐसे हर दंगे को अपनी जीत और ’’हिन्दुत्व की श्रेष्ठता’ का प्रमाण मानते हैं।

गोलवलकर की तरह ही जनसंघ के सिद्धांतकार और ’’एकात्म मानववाद’ के प्रवक्ता दीनदयाल उपाध्याय रहे हैं। आरएसएसए के एक प्रकाशन ने उनके विचारों के विविध पक्षों पर सात खंडों की एक पुस्तक-माला प्रकाशित की है। इस पुस्तक-माला में उनके तमाम विचारों के एक केंद्रीय सूत्र के रूप में मुसलमानों को राजनीतिक तौर पर पराजित करने का प्रमुख लक्ष्य छाया हुआ है। वे यह मानते हैं कि जब तक मुसलमानों की राजनीतिक हैसियत को पूरी तरह से रौंद नहीं दिया जाता है, तब तक उनके ’’हिंदुत्व’ पर आधारित राष्ट्र की स्थापना नहीं हो सकती है। गोलवलकर की तरह ही वे भी मुसलमानों को हिंदू राष्ट्र का ’’आंतरिक संकट’ मानते थे।

’’मुस्लिम तुष्टीकरण’’, मुसलमानों की आबादी, उनमें बहुविवाह की प्रथा आदि के बारे में आर एस एस के प्रचार को बिल्कुल झूठा साबित करनेवाले इस बीच अनेक अध्ययन सामने आ चुके हैं। उन सबको यहाँ दोहराना जरूरी नहीं है।

हिटलर के चरण-चिन्हों पर तैयार किया गया मुस्लिम-विद्वेष का यह संघी रास्ता हमारे राष्ट्र के लिए कितना घातक और तबाही मचानेवाला हो सकता है, इसे और किसी से नहीं, हिटलर के हश्र और उसकी वजह से जर्मनी द्वारा चुकाई गई कीमत से ही जाना जा सकता है। इस सन्दर्भ में जर्मनी के एक पत्रकार सेबातिस्तयन हाफनर की पुस्तक ’’द मीनिंग ऑफ हिटलर’’ के अन्तिम अयाय ’’विश्वासघात’’ से एक उद्धरण देना, मुझे लगता है, अत्यन्त उपयोगी और शिक्षाप्रद हो सकता है।

इसमें हाफनर कहते हैं : ’’यह सचमुच एक काफी आश्चर्यजनक लेकिन बहुत कम समझा गया दिलचस्प तथ्य है कि हिटलर ने जिन राष्ट्रों के खिलाफ सबसे बड़े अपराधा किए उन्हें किसी भी रूप में सबसे ज्यादा नुकसान नहीं पहुँचाया।...हिटलर की वजह से सोवियत संघ ने कम-से-कम 1 करोड़ 20 लाख, उसके खुद के दावे के अनुसार 2 करोड़ लोगों की जानें गँवाई, लेकिन हिटलर ने उसे जिस जबर्दस्त कर्मोद्दम के लिए बाय किया उसने सोवियत संघ को महाशक्ति के स्तर पर उठा दिया, जहाँ वह पहले नहीं था। पोलैण्ड में हिटलर ने 60 लाख लोगों को मार डाला, यदि इनमें पोलैण्ड के यहूदियों को न गिना जाए तो 30 लाख लोगों को मार डाला, लेकिन हिटलर के युद्ध का परिणाम यह हुआ कि पोलैण्ड युद्ध के बाद युद्ध के पहले के दिनों से ज्यादा मजबूत हो गया। हिटलर यहूदियों का समूल नाश करना चाहता था, अपनी शक्ति भर उसने किया भी, लेकिन उसके इस काम ने, जिसने उनके 40 से 60 लाख लोगों को मार डाला, बाकी बचे हुए लोगों में ऐसी दुस्साहसिकता की शक्ति पैदा कर दी जो यहूदी राज्य के निर्माण के लिए जरूरी थी। लगभग 2,000 वर्षो में पहली बार, हिटलर की वजह से ही यहूदियों को फिर अपना एक राज्य मिला। बिना हिटलर के इसराइल न बना होता।’’’’हिटलर ने ब्रिटेन का कहीं ज्यादा वास्तविक नुकसान पहुँचाया, जिसके विरुद्ध वह युद्ध छेड़ना ही नहीं चाहता था तथा जिसके खिलाफ उसने हमेशा आधे मन से, अपनी आधी शक्ति के साथ युद्ध चलाया। हिटलर के युद्ध के परिणामस्वरूप ब्रिटेन ने अपना साम्राज्य गँवा दिया और अब वह वैसी विश्वशक्ति नहीं रह गया, जैसा कभी हुआ करता था; हिटलर के कारण इसी प्रकार फ्रांस तथा पश्चिमी यूरोप के अधिकांश अन्य देशों तथा राष्ट्रों की स्थिति में गिरावट आई। लेकिन हर दृष्टि से हिटलर ने सबसे अधिक जिसको नुकसान पहुँचाया वह है, जर्मनी। हिटलर के लिए जर्मनों ने भी भीषण बलिदान किए, 70 लाख से ज्यादा प्राण गए। यहूदियों और पौलैण्डवासियों से कहीं ज्यादा संख्या में वे मारे गए; सिर्फ रूसियों को उनसे ज्यादा खून देना पड़ा था। युद्ध में भागीदार अन्य देशों के मृत लोगों की सूची की इन चारों से कोई तुलना नहीं हो सकती। लेकिन इतने भीषण खून-खराबे के बाद सोवियत संघ और पौलेण्ड आज जहाँ पहले से ज्यादा मजबूत है तथा इसराइल का अस्तित्व ही जहाँ यहूदी खून के बलिदान से हुआ है, वहाँ जर्मन राइख नक्शे से गायब हो चुका है।’’’’हिटलर के कारण जर्मनी का न सिर्फ पश्चिमी यूरोप की अन्य पूर्व शक्तियों की तरह ही, विश्व में स्थान गिर गया, बल्कि उसने अपनी राष्ट्रीय सीमाओं (आवास क्षेत्र) के एक चौथाई अंश को गँवा दिया, जो बचा वह भी विभाजित हो गया।...सन् 1945 में हिटलर जर्मनी को एक मरुभूमि, एक वास्तविक मरुभूमि बनाकर छोड़ गया था। उसने अपने पीछे न सिर्फ लाशों, मलवों और खण्डहरों को तथा भूख से मर रहे तथा घिसट रहे लाखों लोगों को ही छोड़ा था, पूरी तरह से खत्म हो चुके प्रशासन और क्षत-विक्षत राज्य को भी छोड़ा था। युद्ध के अन्तिम महीनों में उसने खुद जान-बूझकर जनता की हालत बुरी तरह से खराब कर दी और राज्य को वस्त कर दिया। उसकी इच्छा तो और भी बुरा करके जाने की थी; जर्मनी के लिए उसका अन्तिम निर्देश राष्ट्रीय मृत्यु का कार्यक्रम था। अगर पहले नहीं तो अपने अन्तिम चरण में हिटलर जान-बूझकर जर्मनी का सबसे बड़ा विश्वासघातक हो गया था।’’ (पृ. 149-150)

हाफनर के इतने लम्बे उद्धरण से हमारा तात्पर्य यही है कि मानवता के खिलाफ अपराध करनेवालों के प्रति इतिहास का न्याय ऐसा ही होता है। जिस हिटलर ने दुनिया की अन्य जातियों को नष्ट करके जर्मन जाति की श्रेष्ठता की स्थापना का बीड़ा उठाया था, उसने अन्त में अपनी आत्महत्या के पहले यह कहकर पूरी जर्मन जाति को ही नष्ट कर देने का निर्देश दिया था कि चूँकि यह जाति विश्व विजय में विफल रही, इसलिए इसके अस्तित्व के बने रहने का कोई औचित्य नहीं है। जो आर एस एस शक्तिशाली हिन्दू राष्ट्र के लिए हिन्दुत्व को जागृत करने के नाम पर घृणित मुस्लिम विद्वेष का प्रचार करता है, वह भारत को किसी भी अर्थ में मजबूत नहीं, बल्कि इसकी एकता को खोखला करने का विश्वासघाती काम ही कर रहा है। हिटलर के समूचे इतिहास से मिल रहे साफ सबक के बावजूद आर एस एस और उसका संघ परिवार हिटलर के रास्ते पर चलकर सच कहा जाए तो सोचे-समझे ढंग से राष्ट्र की हत्या का षड़यन्त्र रच रहा है। इनकी कारगुजारियों से राष्ट्र सिर्फ टुकड़ों-टुकड़ों में बँट सकता है, उसका भला कुछ भी नहीं हो सकता।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें