सोमवार, 10 मार्च 2014

दिल ही तो है ... संदर्भ उदयप्रकाश

अरुण माहेश्वरी


सचमुच उदयप्रकाश दिन प्रति दिन बहुतेरे विवेकवानों के लिये अबूझ सी पहेली बनते जा रहे हैं। 

‘जिससे पुरस्कृत होते हैं, उसीसे दंडित होने की काल्पनिक संकल्पना’ में डूब जाते हैं ! ‘जिसे दलालों, समझौता-परस्तों और अवसरवादियों का अड्डा' कहते हैं, उस साहित्य अकादमी से ही पुरस्कृत हो ‘राज्य के नागरिक के रूप में अपेक्षाकृत सुरक्षित महसूस’ करते हैं ! छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार से पुरस्कार लेकर ‘दूसरी तरफ यह आशंका भी व्यक्त करते हैं कि कहीं उन्हें ‘नक्सल’ करार कर गिरफ्तार न कर लिया जाए ! (सारे उद्धरण विरेन्द्र यादव की टिप्पणी ‘तो उदयप्रकाश हिंदी के लेखक नहीं हैं!’ से)

पिछले दिनों कोलकाता से प्रकाशित अंग्रेजी मासिक ‘किंडल’ के एक अंक का विषय था - काफ्काऐस्क। हिन्दी में इसे हम काफ्कानुभूति कह सकते हैं। कैसे जीवन के सभी क्षेत्रों को जकड़ कर बैठी नौकरशाही किसी दु:स्वप्न की तरह आदमी को भयावह निरर्थकता, दिशाहीनता और असहायता के गहरे बोध से त्रस्त कर देती है, उस अंक में रोजमर्रा के जीवन के ऐसे असंख्य अनुभवों का जिक्र है।

आपकी प्रसिद्धी या आपको मिलने वाली स्वीकृति इस काफ्कानुभूति से रक्षा का कवच नहीं होता। उल्टे प्रसिद्धी का अर्थ ही है समान अनुपात में आपकी निजता, अर्थात आपके उस क्षेत्र का संकुचन जिसमें आप अपने को सबसे अधिक सहज और सुरक्षित पाते हैं।

रवीन्द्रनाथ की ‘गीतांजलि’ की पंक्तियां है : नामटा जे दिन घुचाबे नाथ, /बाचबो से दिन मुक्त होये - /...आमार ए नाम जाक ना चुके/तोमारि नाम नेबो मुखे/सबार संगे मिलबो से दिन/बिना नामेर परिचये (नाथ जब खत्म होगा मेरा नाम, /उसी दिन मुक्त होकर जीऊंगा - /...मेरा नाम मिट जाए/ मुंह से सिर्फ तुम्हारा नाम लूंगा/ मिलूंगा तब सबसे/ बिना नाम के परिचय के साथ)

पाब्लो नेरूदा के निर्वासनों की त्रासदियों को कौन नहीं जानता। उनपर लिखी अपनी किताब का शीर्षक : ‘पाब्लो नेरूदा : एक कैदी की खुली दुनिया’ ऐसे ही नहीं था !

फैज के भव्य जीवन को कैदखानों की तारीकियों से भला कोई अलग कर सकता है!

सिर्फ अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण नाजिम हिकमत की गिरफ्तारियां, यहां तक कि अपनी टर्की नागरिकता को गंवा देना और टर्की की कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर ही उनकी दुरावस्था की त्रासदी भी जगजाहिर है।

निराला की अनुभूति देखिये : विश्व सीमाहीन/ बांधती जाती मुझे कर-कर /व्यथा से दीन ... मुक्ति हूं मैं, मृत्यु में /आई हुई, न डरो’।

ऐसे असंख्य उदाहरण है - दुनिया के लगभग हर देश में। क्रांतिकारी हो या सेलिब्रिटी, जो जितनी रोशनी में, उतना ही खतरे के कगार पर भी।

इसीलिये क्रमश: ख्याति और प्रतिष्ठा के नये-नये सोपानों पर चढ़ते हमारे किसी प्रिय लेखक को उसी के अनुपात में अलग प्रकार का एक डर भी सताता है तो इसमें अस्वाभाविक क्या है? क्या हमारा समाज, साहित्य, संस्कृति और राजनीति का क्षेत्र ईर्ष्या, व्देष, अंधी नौकरशाही की जकड़बंदी और तमाम षड़यंत्रों से मुक्त है कि अब अमरीका तक में स्वीकृति पा रहे उदयप्रकाश को किसी भी ज्ञात-अज्ञात हलके से कोई और खतरनाक हमले का डर नहीं सता सकता ?

इसके अलावा अकादमिक प्रभुओं की निष्ठुरता किससे छिपी है? कब किसे ‘सांस्कृतिक महामारी के चूहे’ घोषित करके लाठियों से पीटा जाने लगे, कहना मुश्किल है। हमारी राय में दृष्टि इतनी भी साफ नहीं होनी चाहिए कि ग्रहण लगे सूरज को देखने पर अंधे होजाने का खतरा पैदा हो जाए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें