अरुण माहेश्वरी
आज प्रेमचंद की 133वीं सालगिरह। 1880 में जन्म ; 20वीं सदी के प्रारंभ के साथ लेखन का प्रारंभ ; और 1936 में मृत्यु की लगभग आखिरी घड़ी तक लेखन का एक अविराम सिलसिला। हिंदी के उपन्यास सम्राट।
उपन्यास - अनुभव और यथार्थ का एक दीर्घ और रोचक आख्यान।
प्रेमचंद लिखते हैं : “उपन्यास लेखक को यथासाध्य नये-नये दृश्यों को देखने और नये-नये अनुभवों को प्राप्त करने का कोई भी अवसर हाथ से न जाने देना चाहिए।“ और साथ ही यह भी कि “ जब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिये की जाती है, तो वह ऊंचे पद से गिर जाती है, इसमें संदेह नहीं।“
अर्थात उपन्यास के लिये जो जरूरी है - वह है दृश्य, चित्र। ‘जीवन जैसा है’ के नाना रूपों और मानव चरित्रों के चित्र।
फिर भी, प्रेमचंद आदर्शवाद की बात भी करते हैं। उन्हें लगता है कि चूंकि संसार में बुराई का ही आधिक्य है, इसलिये कोरा यथार्थ-चित्रण आदमी को कमजोर बनायेगा, उसे निराशा से भरेगा। आदमी को कमजोर करना उनका अभीष्ट नहीं हो सकता, इसीलिये वे यथार्थवाद के साथ ही आदर्शवाद को भी जरूरी मानते हैं।
मत का प्रचार न हो, फिर भी आदर्श जरूर हो !
प्रेमचंद की शब्दावली में, यथार्थवाद अंधेरी कोठरी है और अंधेरी कोठरी में काम करते-करते थक चुके आदमी को आदर्शवाद ही स्वच्छ वायु का आनंद देता है। जबकि मतवाद - सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत का प्रचार - साहित्य के दर्जे को गिरा देता है।
यह उस समय की बात है जब आदर्शवाद और मतवाद में ज्यादा भेद नहीं किया जाता था। स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता, समाजवाद और क्रांति, धर्म-निरपेक्षता और भाईचारा - इनमें कौन आदर्शवाद है और कौन कोरा मतवाद - कहना मुश्किल था। फिर भी प्रेमचंद में कोई दुविधा तो थी ही, जिसके चलते उन्होंने आदर्श को जरूरी माना, लेकिन मत के प्रचार को नहीं।
प्रेमचंद के लिखे पाठ को तो कोई बदल नहीं सकता। लेकिन समय बदल जाता है तो पाठक बदल जाता है। बीत रहा हर पल इतिहास में तब्दील होकर नये इतिहास-बोध, पाठ के नये अर्थ को तैयार करता है।
‘मत’ और ‘आदर्श’ को लेकर प्रेमचंद में दुविधा थी, लेकिन आज के पाठक के मन में शायद वैसी दुविधा नहीं है। मतवाद और आदर्शवाद पर्याय दिखाई देते हैं। आदर्शवाद की ओट में चला आरहा मतवादी दुराग्रह अब और भी साफ है।
ऐसे में, पुन: उपन्यास के मूल धर्म - ‘समाज जैसा है’ - उसे बिना किसी मुलम्मे के चित्रित करने की बात की जानी चाहिए। पूंजीवादी आदर्श और ‘पूंजीवाद जैसा है’, समाजवादी आदर्श और ‘समाजवादी समाज जैसा रहा है’, क्रांतिकारी आदर्श और ‘क्रांतिकारी पार्टियां जैसी है’, जनतंत्र और ‘जनतांत्रिक व्यवस्था जैसी है’ - इनके बीच चयन में ‘जैसा है’ को चुनने में अब किसी दुविधा का स्थान नहीं हो सकता। इस ‘जैसा है’ के चित्रण के कारण ही तो सारी दुनिया में हर प्रकार की तानाशाही, आततायी सरकारें लेखकों-कलाकारों को जुल्मों का शिकार बनाती है। यही सच इस बात का भी प्रमाण है कि लेखक का इससे बड़ा शायद दूसरा कोई आदर्श नहीं हो सकता।
यह समय ‘मत’ और ‘आदर्श’ के बारे में प्रेमचंद की दुविधा से मुक्ति का समय है।
इन्हीं चंद शब्दों के साथ प्रेमचंद के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि।
आज प्रेमचंद की 133वीं सालगिरह। 1880 में जन्म ; 20वीं सदी के प्रारंभ के साथ लेखन का प्रारंभ ; और 1936 में मृत्यु की लगभग आखिरी घड़ी तक लेखन का एक अविराम सिलसिला। हिंदी के उपन्यास सम्राट।
उपन्यास - अनुभव और यथार्थ का एक दीर्घ और रोचक आख्यान।
प्रेमचंद लिखते हैं : “उपन्यास लेखक को यथासाध्य नये-नये दृश्यों को देखने और नये-नये अनुभवों को प्राप्त करने का कोई भी अवसर हाथ से न जाने देना चाहिए।“ और साथ ही यह भी कि “ जब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिये की जाती है, तो वह ऊंचे पद से गिर जाती है, इसमें संदेह नहीं।“
अर्थात उपन्यास के लिये जो जरूरी है - वह है दृश्य, चित्र। ‘जीवन जैसा है’ के नाना रूपों और मानव चरित्रों के चित्र।
फिर भी, प्रेमचंद आदर्शवाद की बात भी करते हैं। उन्हें लगता है कि चूंकि संसार में बुराई का ही आधिक्य है, इसलिये कोरा यथार्थ-चित्रण आदमी को कमजोर बनायेगा, उसे निराशा से भरेगा। आदमी को कमजोर करना उनका अभीष्ट नहीं हो सकता, इसीलिये वे यथार्थवाद के साथ ही आदर्शवाद को भी जरूरी मानते हैं।
मत का प्रचार न हो, फिर भी आदर्श जरूर हो !
प्रेमचंद की शब्दावली में, यथार्थवाद अंधेरी कोठरी है और अंधेरी कोठरी में काम करते-करते थक चुके आदमी को आदर्शवाद ही स्वच्छ वायु का आनंद देता है। जबकि मतवाद - सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत का प्रचार - साहित्य के दर्जे को गिरा देता है।
यह उस समय की बात है जब आदर्शवाद और मतवाद में ज्यादा भेद नहीं किया जाता था। स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता, समाजवाद और क्रांति, धर्म-निरपेक्षता और भाईचारा - इनमें कौन आदर्शवाद है और कौन कोरा मतवाद - कहना मुश्किल था। फिर भी प्रेमचंद में कोई दुविधा तो थी ही, जिसके चलते उन्होंने आदर्श को जरूरी माना, लेकिन मत के प्रचार को नहीं।
प्रेमचंद के लिखे पाठ को तो कोई बदल नहीं सकता। लेकिन समय बदल जाता है तो पाठक बदल जाता है। बीत रहा हर पल इतिहास में तब्दील होकर नये इतिहास-बोध, पाठ के नये अर्थ को तैयार करता है।
‘मत’ और ‘आदर्श’ को लेकर प्रेमचंद में दुविधा थी, लेकिन आज के पाठक के मन में शायद वैसी दुविधा नहीं है। मतवाद और आदर्शवाद पर्याय दिखाई देते हैं। आदर्शवाद की ओट में चला आरहा मतवादी दुराग्रह अब और भी साफ है।
ऐसे में, पुन: उपन्यास के मूल धर्म - ‘समाज जैसा है’ - उसे बिना किसी मुलम्मे के चित्रित करने की बात की जानी चाहिए। पूंजीवादी आदर्श और ‘पूंजीवाद जैसा है’, समाजवादी आदर्श और ‘समाजवादी समाज जैसा रहा है’, क्रांतिकारी आदर्श और ‘क्रांतिकारी पार्टियां जैसी है’, जनतंत्र और ‘जनतांत्रिक व्यवस्था जैसी है’ - इनके बीच चयन में ‘जैसा है’ को चुनने में अब किसी दुविधा का स्थान नहीं हो सकता। इस ‘जैसा है’ के चित्रण के कारण ही तो सारी दुनिया में हर प्रकार की तानाशाही, आततायी सरकारें लेखकों-कलाकारों को जुल्मों का शिकार बनाती है। यही सच इस बात का भी प्रमाण है कि लेखक का इससे बड़ा शायद दूसरा कोई आदर्श नहीं हो सकता।
यह समय ‘मत’ और ‘आदर्श’ के बारे में प्रेमचंद की दुविधा से मुक्ति का समय है।
इन्हीं चंद शब्दों के साथ प्रेमचंद के प्रति विनम्र श्रद्धांजलि।
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