शनिवार, 15 अप्रैल 2017

तालिबानी राजनीति के प्रतिरोध की समस्याएं


-अरुण माहेश्वरी


“नाजीवाद एक ऐसी परिघटना है जिसकी कोई तार्किक व्याख्या मुमकिन नहीं है। ...आश्विच के सामने इतिहासकार की व्याख्या की ताकत बौनी नजर आती है।“ ( इयान करशॉ - द नाजी डिक्टेटरशिप : पर्सपेक्टिव आफ इंटरप्रिटेशन ; तीसरा संस्करण ; लंदन 1993)

नोटबंदी अर्थ-व्यवस्था पर क्या असर डालेगी, आर्थिक विषयों का जानकार हर व्यक्ति इसे जानता था। फिर भी, जहर को चख कर जब आपको उसका स्वाद जानने का भूत सवार हो, तो आपको मरने से कौन बचा सकता है। इसके अलावा कभी-कभी आदमी किसी के झांसे में आकर भी मरण-छलांग लगा लेता है। मसलन, ऐसे तथ्य भी सामने आए हैं कि मोदी जी ने नोटबंदी की तरह का कदम कुछ अमेरिकी सलाहकारों के कहने पर उठाया था। वे देखना चाहते थे कि किसी भी देश में इस प्रकार के एक उथल-पुथल मचाने वाले, सैद्धांतिक तौर पर आत्मघाती समझे जाने वाले कदम के वास्तविक सामाजिक परिणाम क्या हो सकते हैं। उन्हें मोदी जी की तरह का आर्थिक नीतियों के मामले में एक अबोध नेता मिल गया, जो भला-बुरा कुछ भी उटपटांग करके अपनी छाती पर बहादुरी का तमगा लगाने के लिये आतुर था। भारत को बली का बकरा बना दिया गया।

अब नोटबंदी के सारे परिणाम सामने आ रहे हैं। कुछ परिणाम तो उसी समय आगये थे जब बिना पूरी तैयारी के यह कदम उठाया गया था। बाजार में सिर्फ नगदी की कमी होने के कारण एक झटके में लाखों लोगों के रोजगार चले गये। मजदूर सिर्फ जिंदा रहने के लिये शहरों को छोड़ कर गांव चले गये थे। हजारों की संख्या में लघु और मंझोले उद्योग बंद हो गये। किसानों की साग-सब्जी जैसी फसल का कोई खरीदार न होने से उन्हें उनका कोई दाम ही नहीं मिल पाया। बुवाई के काम को भारी नुकसान हुआ। लोगों की शादियों तक में अकल्पनीय परेशानी हुई। लगभग पचास दिनों तक पूरी अर्थ-व्यवस्था ठप रही। आशंका के मुताबिक ही सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में गिरावट आई। यूपी चुनाव को देखते हुए केंद्र सरकार ने आंकड़ों को कूतने की पद्धति बदल कर दिखाने की कोशिश की थी कि जीडीपी में बहुत ज्यादा गिरावट नहीं आई है। लेकिन, जब निवेश के सभी आंकड़ों में गिरावट है, बैंकों से ऋण की मात्र घट रही है, विदेशी निवेश भी कम हो रहा है और आंखों के सामने बंद हो चुके कारखाने खुलने का नाम नहीं ले रहे हैं, तब किसी एक आंकड़े की हेरा-फेरी करके सामाजिक यथार्थ को झुठलाया नहीं जा सकता है।


हाल के रिजर्व बैंक के आंकड़ों से पता चलता है कि मोदी सरकार पहली ऐसी सरकार है जिसके तीन साल के शासन काल में भारत के निर्यात में 4.7 प्रतिशत की गिरावट आई है। इसके पहले मनमोहन सिंह के नेतृत्व के दो काल 2004-2008 और 2009-2014 में क्रमशः 24.4 और 19.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल (1998-2004) में भी 14.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी।

यूपी चुनाव के बाद, वहां अवैध बूचड़खानों पर पाबंदी के नाम पर मांस के कारोबार को जिस प्रकार प्रभावित किया गया है, उसका न सिर्फ घरेलू बाजार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, बल्कि बीफ के निर्यात के हजारों करोड़ का कारोबार मुसीबत में पड़ता दिखाई दे रहा है। अभी भाजपा सरकारों के बीच यह साबित करने की होड़ लगी हुई है कि कौन कितना बड़ा गो भक्त है। यूपी का मुख्यमंत्री मनुष्यों से ज्यादा गायों की सेवा के लिये अपनी आतुरता दिखा रहा है, तो गुजरात सरकार ने गोहत्या को मनुष्य की हत्या के समान अपराध घोषित कर दिया है। यह सब पशुपालन से जुड़ी कृषि अर्थ-व्यवस्था के हितों की पूरी तरह से अनदेखी करते हुए सिर्फ धार्मिक विश्वासों और उन्माद को हवा देने के लिये किया जा रहा है। पूरे देश में गोगुंडों की एक फौज तैयार हो गई है, जो किसी भी व्यक्ति को (खास तौर पर मुसलमान और दलितों को) गाय संबंधी किसी भी अपराध में शामिल बता कर उसे सता सकते हैं। यूपी में मांस के कारोबार से जुड़े लाखों लोगों के रोजगार पर खतरा पैदा हो गया है। मध्यप्रदेश और झारखंड के भी क्रमशः उसी दिशा में बढने के समाचार आ़ रहे हैं।

इसके साथ ही, भारत में हमेशा से एक अलग प्रकार का नैतिकतावादी राजनीतिक अभियान चलता रहा है शराबबंदी का। नशे का अपना एक समाजशास्त्र और मनोविज्ञान है। लंबे कालक्रम में खास तौर पर शराब का तो एक स्वतंत्र अर्थशास्त्र भी विकसित हो गया है। इसीलिये इसके बारे में एकतरफा निर्णय करना मुश्किल होता है। कह सकते हैं, राजनीतिक अर्थशास्त्र का यह एक गैर-अर्थशास्त्रीय विषय है। भारत में यह समाज सुधार आंदोलनों का भी हिस्सा बन गया है। अनुभव बताता है कि इस पर रोक की अब तक की हर कार्रवाई उतने ही बड़े पैमाने पर इसके गैर-कानूनी उत्पादन और कारोबार का कारण बन जाती है। गुजरात में, जहां काफी पहले से शराबबंदी है, रिपोर्टें बताती है कि वहां शराब की खपत में कोई कमी नहीं आई है। इधर बिहार में शराबबंदी और यूपी में मांसबंदी के बाद एक चुटकुला चल पड़ा है - बिहार में कबाब खाओ और यूपी में शराब पीओ। सुप्रीम कोर्ट ने भी सभी प्रकार के हाईवे के पांच सौ मीटर के दायरे में शराब की बिक्री पर पाबंदी लगा कर देश भर में इसके लाखों करोड़ों रुपये के कारोबार को अस्त-व्यस्त कर दिया है। शराब की दुकानों के अलावा लाखों की संख्या में हाईवे पर होटलों और रेस्टोरेंट बंद हो रहे हैं। इनमें सैकड़ों फाइव-स्टार होटल भी हैं। इन सबमें काम करने वाले लाखों लोगों के रोजगार का क्या होगा, कहना मुश्किल है !



ऊपर से, मोदी जी ने बड़े पूंजीपतियों को सस्ता कर्ज देने से बैंकों को होने वाले घाटों से बचाने के लिये आम लोगों की जमा राशि पर ब्याज की दरों को गिराना शुरू कर दिया है। सरकार की अपनी सभी लघु बचत योजनाओं, मसलन, ईपीएफ, पीपीएफ, किसान विकास पत्र आदि पर ब्याज की दर को गिराते हुए वहां तक पहुंचा दिया है, जहां वे पहले कभी नहीं थी। इससे आम लोगों में अपनी बचत से होने वाली कमाई पर भरोसा कम हो रहा है। कुल मिला कर अर्थनीति की कुत्ता खाए अंधा पीसे वाली दशा है।

इन सबका कुल जमा परिणाम यह है कि आमदनी में सुरक्षा के बारे में निश्चिंत न होने से आम आदमी अपनी नितांत जरूरी चीजों के अलावा एक भी पैसा खर्च करने से हिचकने लगा है। बाजार आज भी खाली दिखाई देते हैं। हर बीतते दिन के साथ अर्थ-व्यवस्था में मंदी ज्यादा से ज्यादा गहरी होती जा रही है।

बाजार में खरीदार नहीं होगा तो उद्योगपति भी किनके लिये मालों का उत्पादन करेंगे ? अर्थात आर्थिक विकास की संभावनाएं भी दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। बेरोजगारों को रोजगार अब मोदी का चुनावी जुमला भी नहीं रह गया है। इसके विपरीत नौजवानों को एंटी रोमिओ स्क्वैड, गोरक्षक और हिंदू सेना, हिंदू जागरण की तरह के मंचों पर अधिक से अधिक उतारा जा रहा है। आक्रामक हिंदू चेतना के उन्माद के नशे से एक बार के लिये जीवन की दूसरी समस्याओं की ओर से उन्हें उदासीन रखा जा रहा है। आज देश के हर छोटे-बड़े शहर में हिंदू जागरण के बड़े-बड़े आयोजन किये जा रहे हैं। तलवारे लहराते हुए नौजवान बड़े-बड़े प्रदर्शनों में भाग ले रहे हैं। जहां भी चुनाव होने वाले होते हैं, संगठित तरीके से वहां पहले से सांप्रदायिक दंगे कराये जाते हैं ताकि चुनाव उस सांप्रदायिक उन्माद की भेंट चढ़ जाए। यूपी में पिछली सरकार के कार्यकाल में लगभग 700 सांप्रदायिक दंगे कराये गये। इसी साल गुजरात में चुनाव होने जा रहे हैं। वहां भी दंगों का सिलसिला शुरू हो गया है।

इसी 28 मार्च को अहमदाबाद से सिर्फ 120 किलोमीटर दूर उत्तरी गुजरात के मुस्लिम-बहुल वादावली गांव पर बगल के गांव से आए 5000 सशस्त्र लोगों ने हमला करके वहां के मुखिया इब्राहिम बेलिम की हत्या कर दी। दर्जनों घरों में आग लगा दी, बहुत से लोगों को जख्मी कर दिया। आशंका की जाती है कि आगामी दिसंबर महीने के पहले, जब गुजरात में विधान सभा के चुनाव होंगे, पूरे राज्य में इस प्रकार के कई दंगे कराये जायेंगे।
2018 के प्रारंभ में त्रिपुरा, नागालैंड, मेघालय, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश की विधान सभाओं के भी चुनाव होंगे। यूपी को गर्म रख के बाकी सभी राज्यों में खास प्रकार का सांप्रदायिक संदेश पहुंचाया जाएगा।

एक ओर आर्थिक क्षेत्र में चरम विफलता, उपलब्धि के नाम पर शून्य, बल्कि चौतरफा पतन और दूसरी ओर इस प्रकार का सांप्रदायिक हिंसा का माहौल। यह सब एक भारी दुष्चक्र का रूप लेता जा रहा है, जिसे यदि एक शब्द में व्याख्यायित किया जाए तो कह सकते हैं कि भारत में तालिबानी अर्थनीति के दिनों की शुरूआत हो गई है। वे दिन दूर नहीं जब एक दूसरे के खून के प्यासे एके-47 चमकाते लोगों के हुजूम एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ते-भागते दिखाई देंगे और पृष्ठभूमि में सिर्फ और सिर्फ भग्नावशेष होंगे। स्वच्छ भारत के शोर के पीछे सबसे सड़े हुए शहरों का देश, मेक इन इंडिया के नारों के पीछे बंद कल-कारखानों का देश, सबका साथ सबका विकास की बातों के पीछे सांप्रदायिक भेद-भाव, घृणा और नफरत का नंगा खेल !

अर्थ-व्यवस्था को जड़ बना देने का अर्थ है, उसे मृत घोषित कर देना और उसमें गिरावट का मतलब है इस लाश में सड़ांध का पैदा होना। सब चीजों का सड़ना, घर-घर में संकट, हवा में बारूद की गंध, गुंडों-माफिया गिरोहों के हाथ में देश के हर कोने का शासन, रंगदारी, दंगे और हर आदमी का सिर्फ और सिर्फ खून का प्यासा दिखाई देना - यही तो है तालिबानी राजनीति और अर्थनीति का सच। थोड़ा सा भी ध्यान से देखे तो पायेंगे कि इस सच के सारे लक्षण अब दिखाई देने लगे हैं। आज का सबसे डरावना सच यह है कि क्रमशः संवेदनशील आदमी प्रधानमंत्री मोदी और योगी की तरह के नेताओं में हरकत मात्र से डरने लगा है। आदमी में लाश के प्रति हमेशा एक प्रकार का डर का भाव होता है, लेकिन वह उससे भी ज्यादा तब आतंकित हो जाता है, जब वह लाश में अचानक कोई हरकत देखता है। लाश के क्रिया-कर्म के लिये तैयार हो चुके आदमी के लिये यह हरकत एक भारी खौफ की तरह की होती है और वह भूत-भूत कह कर भागने लगता है। अब क्रमशः हम उसी स्थिति की ओर जा रहे हैं। लोग मनाने लगे हैं कि ये मोदी-योगी कंपनी निश्चेष्ट लाश की भांति पड़ी रहे, तभी तक गनीमत है। इनमें हरकत के संकेत तो इनके लाश रूप से ज्यादा डरावने होंगे। नोटबंदी, मांसबंदी, गोगुंडों की बेहूदगी - इनके पास ऐसी भयावह चीजों के अलावा देने के लिये शायद कुछ नहीं है। वे ऐसी ही और कोई विपदा लाए, इससे अच्छा है, किसी आलसी अजगर की तरह जंगल के किसी खोह में चुपचाप बैठे रहे।


उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव परिणामों के बाद, अब जरूरी है कि फिर एक बार हम पूरे राष्ट्र की राजनीति की इस परिस्थिति के बारे में नये सिरे से विचार करें। हम देखें कि क्या अर्थ है इस बात का कि मोदी सरकार की तमाम विफलताओं और नोटबंदी की तरह के पूरी तरह से विवेकहीन कदम के बावजूद, जिसमें देश के तमाम गरीब किसानों और शहरों के अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों और मध्यमवर्गीय परिवारों को अकल्पनीय मुसीबतों का सामना करना पड़ा है, भारत में दक्षिणपंथ के प्रति जन-समर्थन में अब तक किसी खास गिरावट का संकेत नहीं मिल रहा है। यह सच है कि पंजाब में कांग्रेस के हाथों अकाली-भाजपा गठबंधन को भारी हार का मुंह देखना पड़ा। गोवा में भी शासक दल होने के बावजूद भाजपा हारी। मणिपुर में लंबे अर्से से कांग्रेस का शासन होने पर भी कांग्रेस ही सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई।

लेकिन देश के हिंदी हृदय-केंद्र उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बिना किसी लहर के भाजपा की जो भारी जीत हुई है, वह किसी भी राजनीतिक पर्यवेक्षक के सामने कई नये सवाल खड़ा करती है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के अलावा गोवा और मणिपुर में जिसप्रकार की नग्न बेशर्मी के साथ, पराजय के बावजूद, भाजपा के नेतृत्व की सरकारें बनाई गईं, उनसे भाजपा की राजनीति की दिशा का पूरा अनुमान किया जा सकता है। ऊपर से ईवीएम मशीनों की विश्वसनियता के बारे में, कि इनसे कभी भी छेड़-छाड़ की जा सकती है, जितने गंभीर सवाल उठे हैं, वे इस पूरे प्रसंग को और भी जटिल बना दे रहे हैं। जहां तक पंजाब का सवाल है, वहां कांग्रेस के बाद दूसरे स्थान पर जिस प्रकार आम आदमी पार्टी का उदय हुआ है, उसी से साफ है कि वहां जनता इतनी बड़ी संख्या में अकाली-भाजपा गठबंधन के विरुद्ध उतर पड़ी थी कि भाजपा के लिये कांग्रेस को सरकार बनाने से रोकना लगभग असंभव हो गया था।

कुल मिला कर, यह भारतीय राजनीति की कोई सामान्य स्थिति नहीं है। अगर हम दुनिया के इतिहास के तथ्यों की रोशनी में इस समूचे घटनाक्रम की थोड़ी सी भी गहराई में जाएं तो इस सचाई को देखने से चूक नहीं सकते हैं कि आज का भारत वास्तव में 1933-1945 (हिटलर के उत्थान और पतन के काल) के यूरोप की तरह के एक भयंकर राजनीतिक गृह युद्ध के दौर में प्रवेश कर चुका है। इसे किसी भी मायने में सामान्य राजनीतिक घटनाचक्र के उन मानदंडों से नहीं समझा जा सकता है जिनमें जनतांत्रिक मर्यादाओं के नाम पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच आपस में कुछ ताल-मेल बैठा कर जनतांत्रिक राजनीतिक ताने-बाने को कायम रखा जा सकता है।

इसमें स्पष्ट तौर पर भारतीय राजनीति की दो परस्पर विरोधी धाराओं के बीच एक प्रकार के सीधे युद्ध के लक्षणों को देखा जा सकता है। 1933 के बाद के यूरोप में जैसे एक ओर 18वीं सदी के ज्ञान-प्रसार और रूस की समाजवादी क्रांति की ताकतें थी तो दूसरी ओर पश्चिमी सभ्यता के सारे मान-मूल्यों को पूरी बर्बरता से कुचल डालने के लिये तत्पर हिटलर, मुसोलिनी और जापान में तोजो की सरकारों सहित यूरोप के सभी देशों में दक्षिणपंथ का एक सामान्य उभार था। बिल्कुल उसी तर्ज पर हमारे यहां एक ओर आजादी की लड़ाई और उससे जुड़े जनतांत्रिक, धर्म-निरपेक्षता और सामाजिक न्याय के मूल्यों की ताकतें खड़ी है, जो यह मानती है कि इन मूल्यों के बिना देश की एकता और अखंडता तथा स्थिर विकास को जारी रखना संभव नहीं होगा। वहीं दूसरी ओर भाजपा के नेतृत्व में दक्षिणपंथी सांप्रदायिक ताकतें हैं जो अपने जन्म काल से आज तक आजादी की लड़ाई और उसके जनतांत्रिक, सामंतवाद-विरोधी मूल्यों के खिलाफ रही है और जो यह मानती है कि आक्रामक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर टिके उग्र राष्ट्रवाद और हिटलरी एकनायकत्व के केन्द्रीकृत शासन से ही भारत महान बन सकता है। आजादी को तो वे हिंदओं की पराजय मानते रहे हैं । एक ओर कांग्रेस, वामपंथी ताकतें और सामाजिक न्याय की ताकतें हैं, वहीं दूसरी ओर भाजपा, शिवसेना और दूसरी क्षेत्रीय संकीर्णतावाद पर टिकी ताकतें हैं। चुनाव आदि के मौकों पर उनके साथ सभी दलों के अवसरवादी भ्रष्ट तत्व भी जमा हो जाते हैं।
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के चुनावों के वक्त खुद मोदी जी ने बैठ कर देश के तमाम कोनों से अपने दक्ष राजनीतिक कार्यकर्ताओं की फौज को चुनाव को जीतने के काम में जिस प्रकार उतारा था, वह यह बताने के लिये काफी है कि सभी स्तरों पर एक प्रकार की सामरिक तैयारियों के साथ पूरे भारत में जनतंत्र को रौंद डालने और मोदी के नेतृत्व में एक दल का एकछत्र राज कायम करने का अभियान छेड़ दिया गया है। इसके अलावा, मोदी जी संसद का, खास तौर पर राज्य सभा का अपमान करने में जिस प्रकार की निष्ठुरता का परिचय दे रहे हैं, वह संसदीय जनतंत्र के प्रति उनके अंदर गहराई तक बैठे हुए तिरस्कार के भाव का प्रमाण है।




यूरोप में फासीवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चा और पॉपुलर फ्रंट का इतिहास हमें बताता है कि इस प्रकार के एक प्रकृत अर्थों में प्रभावशाली मोर्चे का रूप लेने में वहां 1931 से 1940 तक के लगभग दस साल लग गये थे। पूरे यूरोप में संसदीय जनतंत्र में दक्षिणपंथ के सामान्य उभार के साथ इटली में मुसोलिनी के फासीवादी और जर्मनी में हिटलर के नाजीवादी शासन के अनेक दर्दनाक अनुभवों, हिटलर के नेतृत्व में युद्ध के मैदान में हिटलर-मुसोलिनी-तोजो की धुरी के निर्माण और इस धुरी के द्वारा एक के बाद एक देश को रौंदते जाने के भयानक अनुभवों के बाद ही मित्र शक्तियों की सरकारों और जर्मनी सहित यूरोप के सभी देशों के प्रतिरोध आंदोलनों (Resistance Movements) का संयुक्त मोर्चा बन पाया था जिससे (1) इस धुरी की अग्रगति को रोकने के लिये दुनिया की सारी ताकतें युद्ध के मैदान में उतर पाई थी, (2) यूरोप के प्रत्येक देश में प्रतिरोध के संघर्ष की एक यथार्थवादी नीति तैयार हो पाई थी और (3) इस धुरी के खिलाफ लड़ाई में उतरी हुई सरकारें उस प्रतिरोध की नीति पर अमल के लिये जरूरी सभी प्रकार की सहायता मुहैय्या कराने के लिये तैयार हो पाई थी। जब दुनिया के लोगों को संयुक्त प्रतिरोध का यह त्रिमुखी हथियार, अर्थात त्रिशूल हासिल हुआ, तभी द्वितीय विश्वयुद्ध में फासीवाद-नाजीवाद की पराजय मुमकिन हुई थी।

यूरोप के फासीवाद-विरोधी इतिहास से यह भी पता चलता है कि बिहार के महागठबंधन की तरह यूरोप में जब सभी देशों में फासीवाद-विरोधी ताकतों के पॉपुलर फ्रंट के निर्माण की रणनीति अपनाई गई तब 1936 के फरवरी महीने में स्पेन में और इसी वर्ष के मई महीने में फ्रांस में पॉपुलर फ्रंट की नाटकीय जीते हुई थी। फिर भी, यह तथ्य है कि पॉपुलर फ्रंट बनने मात्र से इसमें शामिल रेडिकलों, कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों के जन-समर्थन में कोई बहुत बड़ी वृद्धि नहीं हुई थी और दक्षिणपंथियों का जन-समर्थन बहुत ज्यादा घटा नहीं था। यह तब था जब नाजीवाद और फासीवाद विरोधी ताकतों में आपस में जो विरोध थे, वे भी हिटलर के सत्ता में आने के बाद ज्यादा दिनों तक नहीं बचे थे। जो कम्युनिस्ट पार्टी जर्मनी में सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी की प्रबल विरोधी थी, उसने हिटलर के शासन के अठारह महीनों के अंदर ही आपसी मतभेदों को भुला कर विपक्ष की सभी ताकतों के व्यापकतम संयुक्त मोर्चे की रणनीति को अपना लिया था। उन्हीं दिनों दक्षिणपंथियों के उभार के खिलाफ फ्रांस के कम्युनिस्टों ने कैथोलिक चर्च से हाथ मिलाया था, तो ब्रिटेन के कम्युनिस्टों ने कट्टर वाम-विरोधी चर्चिल से मित्रता कर ली थी।

अर्थात सिर्फ पॉपुलर फ्रंट का बनना और विपक्ष के दलों की एकता मात्र ही इस लड़ाई में हिटलर के नेतृत्व की धुरी को, खास तौर पर दक्षिणपंथ के उभार को परास्त करने के लिये काफी नहीं था। इसीलिये 1939 में जर्मनी में हिटलर के युद्ध के अभियान को रोका नहीं जा सका था। यहां तक कि हिटलर के पोलैंड कूच के पहले तक ब्रिटेन और रूस, दोनों में ही कुछ भ्रम था कि शायद कूटनीतिक पहलकदमियों से किसी प्रकार से हिटलर को काबू में किया जा सकेगा। उन्होंने जर्मनी से ऐसी कुछ संधियां भी की थी । लेकिन बाद के घटनाक्रम से साफ होगया कि वह मुमकिन नहीं था।



जैसे हिटलर के नाजीवाद के साथ किसी का भी निबाह करना असंभव था, क्योंकि वह पूरी तरह से अविवेकपूर्ण और सीमाहीन सत्ता की लिप्सा पर टिका हुआ था, कमोबेस, उसी प्रकार, नाजीवाद के उन सारे लक्षणों को मोदी और आरएसएस के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में भी देखा जा सकता है। इसीलिये यदि हिटलर-मुसोलिनी का मुकाबला चालू ढर्रे की राजनीति के बल पर करना नामुमकिन था, तो पूरे दावे के साथ कहा जा सकता है कि मोदी और आरएसएस का मुकाबला भी चालू प्रकार की राजनीति से नहीं हो सकता है। अर्थात, इस प्रवृत्ति का मुकाबला सामान्य प्रकार की संसदीय राजनीतिक गतिविधियों से नहीं किया जा सकेगा। यह सच जितनी जल्दी सभी जनतांत्रिक राजनीतिक दलों की चिंता के केंद्र में आयेगा, उतना ही इस देश के लिये भला होगा। जैसे हिटलर मान-मनौवल की चीज नहीं था, आरएसएस और मोदी के साथ भी कुछ ऐसा ही मान कर चलना होगा। फासीवाद का मतलब ही था युद्ध। उसका मुकाबला सिर्फ कूटनीति से मुमकिन नहीं था। हिटलर ने यूरोप की उन सभी सरकारों के पैर के नीचे से जमीन निकाल ली थी, जो उसके खिलाफ युद्ध में नहीं जाने का भ्रम पाले हुए थे। चर्चिल फासिस्ट इटली के पक्ष में था, लेकिन मसला इटली का नहीं, हिटलर का था !

इस पूरे विषय में स्पेन के गृहयुद्ध (1936-39) के अनुभवों से भी कुछ सीखा जा सकता है। यूरोप के भूगोल में स्पेन फ्रांस की सीमा से लगा हुआ उसके दक्षिण-पश्चिम में पिरेनीस पर्वत श्रंखला की लंबी दीवार की वजह से एक प्रकार का कटा हुआ हिस्सा रहा है। जिस वजह से नेपोलियन की सेना स्पेन की ओर नहीं गई थी, उसी वजह से द्वितीय विश्वयुद्ध भी स्पेन की ओर नहीं बढ़ पाया था। लेकिन मजे की बात यह है कि राजनीति की हवा इस कटे हुए हिस्से में भी, ऊंची पर्वत-श्रंखलाओं को लांघ कर उसी प्रकार बह रही थी, जैसी रूस को छोड़ कर यूरोप के दूसरे हिस्सों में बह रही थी। दक्षिणपंथ का प्रसार यूरोप के अन्य देशों की तरह ही स्पेन में हुआ था और उसके खिलाफ संयुक्त प्रतिरोध की राजनीति भी वहां फ्रांस की तरह ही पहुंची थी। जनरल फ्रांसिस फ्रैंको दक्षिणपंथ का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। 1936 में स्पेन में पॉपुलर फ्रंट की सरकार की जीत के बाद, दक्षिणपंथी उसे स्वीकारने के लिये तैयार नहीं थे और फ्रैंको के नेतृत्व में मैड्रिड पर सैनिक हमला कर दिया गया। स्पेन में इस दक्षिणपंथी विद्रोह का पूरे यूरोप से आए प्रगतिशील कलाकारों, बुद्धिजीवियों और जनतांत्रिक विचारों के लोगों ने मिल कर जम कर तीन साल तक सशस्त्र मुकाबला किया। इसी काल को स्पेन का गृहयुद्ध का काल कहा जाता है। हिटलर और मुसोलिनी की फौजों की विश्वयुद्ध में जीतों ने स्पेन के दक्षिणपंथियों में अतिरिक्त उत्साह पैदा किया और वे जनरल फ्रैंको के नेतृत्व में वहां के शासन को अपने हाथ में लेने में सफल हुए। लेकिन यह भी कहा जाता है कि 1939 में यदि विश्वयुद्ध की शुरूआत नहीं हुई होती और सामान्य ढंग से ही 1940 में स्पेन में चुनाव हुए होते तो कोई आश्चर्य नहीं है कि उस चुनाव में दक्षिणपंथी वहां विजयी हो गये होते ! स्पेन विश्वयुद्ध में शामिल नहीं हुआ लेकिन फासीवाद के साथ उसकी बराबर सहानुभूति बनी रही। विश्वयुद्ध के खत्म होने के बाद भी फ्रैंको 1975 तक स्पेन का शासक बना रहा।



यूरोप के दूसरे हिस्सों में युद्ध और स्पेन में गृहयुद्ध का यह खास घटनाक्रम फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के सभी आयामों के प्रति एक समग्र दृष्टि प्रदान कर सकता है। आज की दुनिया और भारत के अपने राजनीतिक इतिहास में भले यह मुमकिन न लगे कि हिटलर की तरह मोदी की कोई सेना भारत के सभी राज्यों को सेना का प्रयोग करके कुचल डाले। सेना का बहुजातीय चरित्र भी ऐसा कभी नहीं होने दे सकता है। लेकिन बनारस में गुजरात के लोगों की एक पूरी प्रशिक्षित लोगों की फौज को उतार कर मोदी-शाह जिस प्रकार का खेल खेल रहे थे, उसमें ताकत के बल पर राज्यों को अपने अधीन लाने वाला एक तत्व निश्चित तौर पर शामिल है। और इसीलिये, राजनीति की लड़ाई में भारत की नाना राष्ट्रीय अस्मिताओं के प्रयोग की भी एक नई संभावना तैयार होती है।

कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि मोदी-शाह-आरएसएस की तुरत-फुरत पूरे देश को अपने अधीन लाने की हमलावर योजनाओं को गंभीरता से देखना होगा और इसके प्रतिरोध के लिये उतनी ही साफ समझ से राजनीतिक और सांगठनिक तैयारियां करनी होगी। आने वाले प्रत्येक चुनावी संघर्ष को इसी व्यापक राजनीतिक, विचारधारात्मक और सांगठनिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। हर जगह, हर चुनाव में सभी मोदी-विरोधी ताकतों को अपनी पूरी शक्ति झोंक कर उन्हें मात देनी चाहिए। चुनावों में पराजित होने के बाद भी किसी भी प्रकार से अपनी सरकार कायम करने की उनकी साजिशों को विफल किया जाना चाहिए।
खास तौर पर, गुजरात के आगामी चुनाव में मोदी के खिलाफ कांग्रेस के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी, बसपा और अन्य सभी दलों के साथ ही वामपंथी दलों का एक व्यापकतम संयुक्त महागठबंधन कायम हो। जो भूल यूपी में हुई, और जो भूल अभी दिल्ली में भी दोहराई जा रही है, उसे गुजरात में दोहराना भारत में जनतंत्र मात्र के लिये बहुत महंगा साबित होगा।

मोदी सरकार की चरम विफलताओं से वह राजनीतिक जमीन तैयार हो रही है, जिसपर उसकी पराजय को सुनिश्चित किया जा सकता है। यूरोप में फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के तमाम अनुभवों से सबक लेते हुए अभी से उस दिशा में सभी मोदी-विरोधी ताकतों को संयुक्त लड़ाई का एक नक्शा तैयार करने की जरूरत है।

अंत में मजाज का एक शेर कहना चाहूंगा –
 बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना
तेरी ज़ुल्फ़ों का पच-ओ-ख़म नहीं है ।



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