सोमवार, 17 अप्रैल 2017

पर्रीकर साहब को घबड़ाहट क्यों होती है !


-अरुण माहेश्वरी


सचमुच यह देख कर भारी हैरानी होती है कि कितनी आसानी से पूर्व प्रतिरक्षा मंत्री, अभी गोवा के मुख्यमंत्री, मनोहर पार्रीकर ने कह दिया कि वे प्रतिरक्षा मंत्रालय इसलिये छोड़ कर आ गयें क्योंकि कश्मीर की स्थिति बेकाबू हो गई थी !

दिमाग पर अगर हम थोड़ा सा जोर डालें, तो देख सकते हैं, कश्मीर के बारे में आरएसएस की नीतियों का अब तक का क्या इतिहास रहा है ! पर्रीकर ने प्रतिरक्षा मंत्री रहते, और उनके संकेतों पर भारतीय सेना ने बिल्कुल उन्हीं नीतियों पर अमल शुरू किया था जिनकी आरएसएस आज तक पैरवी करता रहा है। कश्मीर निवासियों की अस्मिता की सारी मांगों को, कश्मीर की सरकार की स्वायत्तता को फौजी बूटों के तले दबा कर रखो, उन्हें सर न उठाने दो, बल्कि कुचल डालो। अब तक की सभी सरकारों के द्वारा वस्तुतः मजाक बना दी गई धारा 370 को भी कश्मीरियों को अपमानित करने के एक मुद्दे की तरह जीवित रखने के लिये उसे खत्म करने की बात को दोहराते रहोे ; किसी भी प्रकार से कश्मीर घाटी की आबादी की संरचना को बदलो, इसके लिये बहाना कुछ भी क्यों न हो - पंडितों के पुनर्वासन के नाम पर हो या सैनिक आवासन के नाम पर ! सर्वोपरि, मुसलमानों को देश का दुश्मन मानो !

संघ के प्रचारक मोदी-पर्रीकर मंडली के दबावों में सेना ने पैलेट गनों का धड़ल्ले से प्रयोग शुरू करना शुरू कर दिया, सेनाध्यक्ष ईट का जवाब पत्थर से देने की भाषा में बात कर रहे हैं। प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से ऐसी आवासन नीतियों की चर्चा की जाने लगी, जिनसे किसी को भी आबादी की संरचना में बदलाव की दुरभिसंधि की गंध मिल सकती है।

दूसरी ओर, वहां पहले से मौजूद मुट्ठी भर पाकिस्तान-परस्तों का दल तो ऐसे हर मौके की ताक में लगा ही हुआ है। भारत सरकार के संदेहास्पद व्यवहारों से इन उग्रवादियों को आजादी-पसंद कश्मीरियों की पाँत में प्रवेश करने का और मौका मिला। और, आज पूरा कश्मीर उस स्थिति में पहुंच गया है कि खुद मनोहर पर्रीकर को अपने इस कर्तृत्व को देख कर घबड़ाहट होने लगी है!

मनमोहन सिंह के जमाने में अति धीरज के साथ इस समस्या में निहित सभी मुद्दों पर इससे जुड़े तमाम पक्षों से बातचीत का एक सिलसिला शुरू हुआ था। यहां तक कि सशस्त्र बलों के विशेषाधिकार से जुड़े, सबसे अधिक दुरुपयोग किये गये, अफस्पा जैसे कानून को भी विचार और सुधार का विषय बनाया जाना संभव हुआ था। आज वह सब बुरी तरह से पटरी से उतर चुका है। मुट्ठी भर कुछ सौ आतंकवादियों की संख्या में क्रमशः इजाफे के समाचार आने लगे हैं। हमारे सशस्त्र बलों के लिये कश्मीर क्रमशः किसी शत्रु क्षेत्र की तरह की जगह बनती दिखाई दे रही है।

और तभी, मनोहर पर्रीकर आश्चर्यजनक बेशर्मी के साथ पीठ दिखा कर भागने की बात कह रहे हैं !

इस सरकार की चरम विफलता की कीर्ति का दूसरा सबसे बड़ा उदाहरण है नोटबंदी। इसके पीछे की विवेकहीनता पर अब तो संसद की स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट भी आ गई है। इसके सारे आर्थिक दुष्परिणाम क्रमशः सामने आने लगे हैं। लेखकों-बुद्धिजीवियों की हत्या से लेकर उन्हें धमकाने, बीफ के नाम पर मुसलमानों को हमले का निशाना बनाने से शुरू हुई इस सरकार की यात्रा में गोगुंडों के तांडव और कश्मीर में अपने देश के ही एक राज्य की जनता के साथ शत्रुओं की तरह का व्यवहार करते हुए इस सरकार के लगभग अढ़ाई साल बीत गये। इस दौरान अर्थनीति के क्षेत्र में योजना आयोग को भंग करके नीति आयोग बनाया गया लेकिन करने के लिये उसके पास कोई काम नहीं रहा। सड़कों के नामों की तरह ही कुछ पुरानी जन-कल्याण योजनाओं के नाम बदल दिये। और, सबसे बड़ा ढकोसला साबित हुआ स्वच्छ भारत अभियान। प्रधानमंत्री सहित ढेर सारे नामी-गिरामी लोगों की हाथ में झाड़ू लिये तस्वीरें प्रसारित करके इसे जनता की नैतिकता के मत्थे मढ़ दिया गया। इसके अलावा जिस चीज ने लोगों का ध्यान खींचा, वह थी शैलानियों की तरह प्रधानमंत्री की निरुद्देश्य विदेश यात्राएं । इन्हीं सबको लेकर टीवी के चैनलों पर शोर-शराबे में समय इतनी तेजी से बीता कि पता ही नहीं चला कि सरकार अपने उत्तरार्द्ध में प्रवेश कर चुकी है।



यही वह बिंदु था जहां से इस सरकार पर ‘कुछ तो करो’ का भूत चढ़ना शुरू हो गया। और उसी कुछ ‘कर गुजरने’ के उन्माद में मोदी जी ने 8 नवंबर को , जैसे किसी लंबी तंद्रा से हड़बड़ी में उठ कर, यकबयक 500 और 1000 रुपये के नोटों के चलन को रोक देने, अर्थात एक बार के लिये लगभग 87 प्रतिशत करेंसी को अचल कर देने की घोषणा कर दीं। खुद टेलिविजन पर आकर तमाम प्रकार की अशालीन मुद्राओं के साथ ऐलान किया कि अब आप सबकी जेब में ये जो बड़े नोट हैं, वे सब रद्दी के टुकड़े हो गये हैं। बाद में तो यहां तक कहा कि बड़े नोटों को बंद करके उन्होंने छोटे नोटों की, अर्थात बड़े लोगों की जगह छोटे लोगों की इज्जत बढ़ा दी है।

लेकिन असली त्राहि-त्राहि मची अति साधारण और गरीब लोगों के घर में। देश भर के सारे काम काज ठप हो गये और लगभग दो महीनों तक लगने लगा जैसे देश के लोगों के पास एक ही काम रह गया है - पुराने नोटों को नये नोटों में बदलने के लिये बैंकों के सामने धक्के खाने का काम। सवा सौ लोग तो नोट बदलने की लाइन में ही मर गये। और कितने लोग इससे पैदा होने वाले जीवन के दूसरे दुख कष्टों में मरे होंगे, इसका कोई हिसाब किताब नहीं हो सकता है। किसानों, मजदूरों, छोटे-छोटे फेरीवालों, खोमचा वालों और दुकानदारों के तो पैरों के नीचे जो थोड़ी सी ही जमीन थी, वह भी एक बार निकल गई।

इस भारी कसरत का कुल जमा परिणाम क्या निकला ? अर्थनीति के जानकार शुरू से ऐसे बेहूदा कदम के घातक परिणामों के बारे में जो कह रहे थे, आज वही शत-प्रतिशत सही साबित हो रहा है। न काला धन में कोई कमी आई, न उस पर किसी प्रकार की रोक लग पाई। न जाली नोटों का बाजार में आने का सिलसिला एक दिन के लिये भी रुका। हजारों मजदूरों के रोजगार चले गये, किसानों को उनकी फसलों के दाम नहीं मिले। घर-घर में स्यापा छाया रहा। यहां तक कि बाद के दिनों में कैशलेस और सफेद डिजिटल मनी का जो शोर मचाया गया, उसका भी गुब्बारा फूट गया है।

आज तक बाजार में नगदी की कमी बनी हुई है। बैंकों से नगदी उठाये जाने पर नाना प्रकार की सीमाओं और जुर्मानों की घोषणाएं की जा चुकी है। अर्थशास्त्री सही कह रहे हैं कि साधारण लोगों का पूरी बैंकिंग प्रणाली पर से जो विश्वास उठा है, उसके चलते अब लोग पहले से भी ज्यादा नगदी अपने घर में रखने पर यकीन करने लगेंगे। अर्थात, 8 नवंबर 2016 के पहले तक जितने रुपये के करेंसी नोट बाजार में थे, अब बाजार में उतने से भी काम नहीं चलेगा। बाजार में नगदी का संकट कायम रहेगा।

ऊपर से बैंकों में जमा हुई इतनी भारी मात्रा में राशि के बाद स्थिति यह है कि बैंकों से दिये जाने वाले कर्ज की मात्रा में वृद्धि के बजाय तेजी से गिरावट आ रही है। अक्तूबर 2016 से दिसंबर 2016 के बीच बैंकों के ऋण में 2.3 प्रतिशत की कमी आई है, जब कि पिछले साल के इसी काल में उसमें 2.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। 2015 के पूरे साल में बैंकों से कर्ज में 10.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, उसकी जगह 2016 के पूरे साल में यह वृद्धि सिर्फ 5.1 प्रतिशत रही, जिसका सबसे प्रमुख कारण तथाकथित नोटबंदी है। आज बैंकों के लिये एक बड़ी समस्या उसके पास जमा नगदी को सम्हालने की हो गई है। बैंकों में जमा राशि में 11.8 प्रतिशत की, कुल 108 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई है।




कुल मिला कर, मोदी जी ने जो कहा था कि लबालब भरा हुआ बैंकों का खजाना अर्थ-व्यवस्था में वृद्धि में सहयोगी बनेगा, उसके बिल्कुल विपरीत यह बैंकों के ही गले की फांस बन गया है। जो प्रधानमंत्री जीडीपी के विकृत आंकड़ों का हवाला देकर हार्वर्ड वनाम हार्डवर्क की शेखी बघार रहे थे, उनके पास इस सवाल की कोई व्याख्या नहीं है कि क्यों औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि के नहीं, शुद्ध गिरावट के आंकड़े अब आने लगे हैं ? अकेले इस फरवरी महीने में इसमें 1.2 प्रतिशत की गिरावट हुई है। बाजार से खरीदार गायब है। अर्थ-व्यवस्था पर मंदी छा रही है। विदेशी मुद्रा भंडार में भी तेजी से गिरावट आ रही है, लेकिन रिजर्व बैंक चुप है ।  इसमें हस्तक्षेप से करेंसी के पहले से बिगड़े हुए माहौल पर क्या असर पड़ेगा, इसका वह सही अनुमान नहीं लगा पा रहा है।

इस पूरी चर्चा का तात्पर्य सिर्फ यही है कि अपने कर्मों के चलते यदि आप किसी आर्थिक अघटन को आमंत्रित करते हैं, और फिर अचानक उससे पल्लू झाड़ कर रिजर्व बैंक या ऐसी ही किसी और संस्था को स्थिति को संभालने के लिये सौंप कर उस ओर ताकते तक नहीं हैं - यह शासन का कौन सा नजरिया है ? मनोहर पर्रीकर के साफ कथन से ही नहीं, आज अर्थ-व्यवस्था को लेकर मोदी जी के साफ तौर पर उदासीन आचरण से भी यही सवाल उठता है। अपनी करनी की चरम विफलता के समय बिल्कुल मासूमियत की नकाब को ओढ़ कर यह बताना कि आप नहीं जानते, ऐसा क्यों हुआ, या किसी अदृश्य दुश्मन के मत्थे सारे अघटन को मढ़ना, क्या अर्थ है ऐसी आरोपित मासूमियत का ?

दरअसल, मोदी जी और उनकी मंडली की समस्या उनकी राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा और उनके परिवेश की समस्या है, जिसके चलते उनके पास चयन के लिये कोई श्रेष्ठ रास्ता बचा नहीं रहता है। जाॅन मेनार्ड केन्स ने एक बार शेयर बाजार के आर्थिक सोच के बारे में टिप्पणी करते हुए उसकी तुलना उस घटिया प्रतिद्वंद्विता से की थी जिसमें आपको सुंदर स्त्रियों की ढेर सारी तस्वीरों में से सबसे संुदर स्त्री की तस्वीर चुनने के लिये नहीं, बल्कि ऐसी स्त्री की तस्वीर चुनने के लिये कहा जाएं जो औसत सुंदर स्त्री के सबसे करीब हो। अर्थात आपको औसत स्तर के मत को भी नहीं, बल्कि औसत मत भी किसे औसत मानता है, उसे चुनने की मजबूरी हो !

जाहिर है कि ऐसे में आदमी के चयन के लिये कुल मिला कर वहीं रह जाता है जो कुछ खास लोगों की पसंद का होता है। इसे ही कहते है अपनी खुद की बनाई परिस्थिति से बंधा हुआ स्वतंत्र आदमी ! मोदी जी और उनकी मंडली के लिये चयन का मार्ग उनके शाखाओं की बौद्धिकी के ज्ञान ने पहले ही बहुत सीमित और अवरुद्ध कर रखा है। जिन झूठों और बेतुकी बातों को वे प्रचारक के रूप में रटते रहे हैं, वे अब तो उनके परम ज्ञान और विश्वास का रूप ले चुके हैं, क्योंकि उनका मानना है कि उसी के बल पर तो उन्हें सत्ता हासिल हुई है। अपने झूठे विश्वासों की अकाट्यता का इससे बड़ा दूसरा और क्या प्रमाण होगा !

जाहिर है, इसी अज्ञान के भयावह परिणामों को आज पूरी अर्थ-व्यवस्था और राष्ट्र भुगतने के लिये मजबूर है। नोटबंदी को अमीरों पर चोट कहा गया, और कम्युनिस्टों से इसके समर्थन की उम्मीदें भी की गई। ऐसा भान किया गया जैसे संविधान के निदेशक सिद्धांतों में जिस समाजवाद का उल्लेख हैं, पहली बार उसकी मूल भावना पर अमल किया गया है। इसके अलावा, नोट बंदी को काला धन के शोधन की, अर्थात काला धन की अर्थ-व्यवस्था की जगह सफेद धन की अर्थ-व्यवस्था तैयार करने की मशीन बता कर विकसित पूंजीवादी देशों में प्लास्टिक मनि के प्रचलन वाला सपना भी खूब प्रचारित किया गया।

लेकिन वास्तविकता में देखा गया, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, इसका सबसे बुरा असर पड़ा गरीब किसानों पर। आज देश का पूरा ग्रामीण क्षेत्र एक साथ जैसे किसानों के क्रंदन के शोर से भर गया है। किसानों के इस सामूहिक रूदन की ध्वनियां सबसे तेज स्वरों में सुनाई दी थी उत्तर प्रदेश, पंजाब के पिछले विधान सभा चुनावों के वक्त। इसका परिणाम हुआ कि देखते ही देखते किसानों की कर्ज माफी का मुद्दा इन चुनावों का एक प्रमुख मुद्दा बन गया। नोटबंदी के पचास दिनों की मियाद के खत्म होने के ठीक बाद, संसद के सत्र के अंत में जब राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री से मिल कर किसानों की कर्ज-माफी की मांग की थी, प्रधानमंत्री चुप्पी साधे हुए थे। तब तक इस प्रकार की कर्ज माफी के कदम को अर्थनीति के लिहाज से एक अतार्किक कदम माना जा रहा था। लेकिन लगा चुनाव की झुलनी का धक्का, और बलम (प्रधानमंत्री) उसी अतार्किकता की गोद में चले गये। उत्तर प्रदेश के चुनाव में जिस बात को अपने घोषणा पत्र में नहीं कहा, उसे प्रधानमंत्री ने अपनी एक सभा में कह दिया कि अगर राज्य में भाजपा की सरकार बनती है तो कैबिनेट की पहली बैठक में ही किसानों का पूरा कर्ज माफ कर दिया जायेगा।

उधर पंजाब में भी सभी दलों ने इसी वादे को दोहराया। कांग्रेस ने कहा कि छः महीनों के अंदर वह किसानों का सारा कर्ज माफ कर देगी। आज तो यह मांग देश के सभी राज्यों में चुनावों का प्रमुख मुद्दा होगी।

इस प्रकार, अब अर्थनीति के सारे उसूलों को ताक पर रख कर सभी राज्यों के दिवालियापन के भारी जोखिम के रास्ते पर पूरे राष्ट्र को उतर जाना पड़ा हैं। स्टेट बैंक आफ इंडिया की अध्यक्षा अरुंधती भट्टाचार्य कहती रह गई कि इससे बैंकों के कर्ज को चुकाने की नैतिकता के अंत का जोखिम है। लेकिन इन्होंने क्रमशः पूरे समाज को एक ऐसे भंवर में डाल दिया है जब उसके सामने जोखिमों के चयन के अलावा कुछ शेष नहीं रह गया है। मजे की बात यह है कि चयन राजनीतिज्ञ करते हैं, बेहद संकीर्ण, तात्कलिक राजनीतिक स्वार्थों के लिये, लेकिन उसके जोखिम का बोझ बैंकों को, या दूसरे लोगों को उठाना पड़ रहा है।


यह जो कर्ता एक और भरता कोई दूसरा वाली स्थिति है, इसमें किसी से भी किसी चीज की जवाबदेही की कोई मजबूरी नहीं रह जाती है। केंद्र में बैठे नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का बोझ देश के सभी राज्यों की आर्थिक अवस्था पर डाल कर संघीय व्यवस्था में एक और तनाव और असंतुलन का बीजारोपण कर दिया गया है। यह एक ऐसी जोखिम भरी स्थिति है जिसमें फंस कर सिर्फ आपस में राजनीतिक ब्लैक मेलिंग की राजनीति की संभावनाएं बची रह जाती है। सकारात्मक कामों के लिये परस्पर सहयोग और सामंजस्य अथवा तर्क अर्थहीन हो जाता है।

जब देश की समस्याओं का पूरा आख्यान मुसलमान-विरोध और गोरक्षा पर टिका होगा, तो इसके समाधान के रास्ते वैसे ही कुत्सित और अतार्किक होंगे, जैसे यहूदी-विरोध और आर्य श्रेष्ठता पर टिके हिटलरी शासन के रास्ते थे। आज हम उसी के साक्षी है। जब जीवन की सामान्य गति में दुखदायी हस्तक्षेप किये जायेंगे तब आलम सभी प्रकार की विनाशकारी विचारधारात्मक प्रतिद्वंद्विता के लिये खुला खेल फर्रुखवादी वाला ही होगा। यह संकीर्णताओं और सामाजिक वैषम्य के लिये और उर्वर जमीन तैयार करने का खेल है। इससे कभी किसी सकारात्मक परिणाम को प्राप्त करने का सोच अदूरदर्शिता के अलावा और कुछ नहीं कहलायेगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें