रविवार, 30 अप्रैल 2017

हे मार्केट के शहीदों का खून बेकार नहीं जायेगा


(नवंबर क्रांति के बाद के सौ सालों के अनुभव की रोशनी में)
-अरुण माहेश्वरी


यह वर्ष रूस की नवंबर क्रांति का शताब्दी वर्ष है। फैज अहमद फैज की एक गजल की पंक्तियां है -

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे
इक खेत नहीं इक देश नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे

मई दिवस मजदूर वर्ग के संघर्षों के जिस इतिहास का पहला सुनहरा पृष्ठ था, रूस की समाजवादी क्रांति को उस इतिहास का अब तक का एक सबसे स्वर्णिम अध्याय कहा जा सकता है। आज जब हम मई दिवस के इतिहास की यादों को ताजा करेंगे, तभी जरूरत है इस पूरा साल दुनिया को हिला देने वाली इस दूरगामी प्रभाव की क्रांति पर गंभीरता से चर्चा करने की भी। हम नहीं मानते कि रूस में महान लेनिन के नेतृत्व में मार्क्सवाद के प्रयोग से जिस सामाजिक क्रांति का निरूपण हुआ उसके अब और नये-नये रूपों और अर्थों के विस्तार की संभावनाएं शेष हो गई है। अर्थात, नवंबर क्रांति के अब कोई अवशेष नहीं बचे हैं ; रात गई, बात गई ; दुनिया बदल गई है ; वह समय नहीं रहा और इसीलिये नवंबर क्रांति भी नहीं रही।

दुनिया के इतिहास में यह अपने प्रकार का मार्क्सवाद का प्रथम प्रयोग था। पेरिस कम्यून तो सिर्फ ऐसी किसी संभावना की एक झलक भर थी। आगे ऐसे न जाने कितने और प्रयोग, कितने स्तरों पर कितने रूपों में जारी रहेंगे, इसकी कोई पूरी कल्पना नहीं कर सकता है। लेकिन यह सच है कि इस क्रांति के परिणाम आज की पीढ़ी के जीवंत अनुभवों के अंग हैं। इन अनुभवों की महत्ता और इनकी भूमिका से भी कोई इंकार नहीं कर सकता है।

हम जानते हैं, और मार्क्स ने खुद लिखा था कि ‘‘समाज - उसका रूप चाहे जो हो - क्या है ? वह मानवों की अन्योन्यक्रिया का फल है। क्या मनुष्य को समाज का जो भी रूप चाहे चुन लेने की स्वतंत्रता प्राप्त है ? कदापि नहीं।...उत्पादन, वाणिज्य और उपभोग के विकास की कोई खास अवस्था ले लीजिए, तो आपको उसके अनुरूप ही सामाजिक गठन का रूप, परिवार का, सामाजिक श्रेणियों या वर्गों का संगठन भी, या एक शब्द में कहें तो नागरिक समाज भी मिलेगा। किसी खास नागरिक समाज को ले लीजिए तो आपको खास राजनीतिक व्यवस्था भी मिलेगी, जो नागरिक समाज की आधिकारिक अभिव्यक्ति मात्र है।’’

मार्क्स इसके साथ ही यह भी कहते हैं कि ‘‘ मानव अपनी उत्पादन शक्तियों का - जो उसके पूरे इतिहास का आधार है - स्वाधीन विधाता नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक उत्पादक शक्ति अर्जित शक्ति होती है, भूतपूर्व कार्यकलाप की उपज होती है।’’



इसीलिये, जो लोग नवंबर क्रांति को किसी उल्कापात की तरह स्वर्ग से अवतरित और फिर एक चमक दिखा कर अंतरीक्ष में ही गुम हो जाने के रूपक की तरह देखते हैं, वे ही उसे मनुष्य के सामाजिक विकास के इतिहास से पृथक मान कर उसके पूर्ण विलोप की तरह का विचार व्यक्त कर सकते हैं।

कार्ल मार्क्स् और फ्रेडरिख एंगेल्स ने ‘कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा–पत्र’ का प्रारंभ इन पंक्तियों से किया था – समूचे यूरोप को एक भूत सता रहा है – कम्युनिज्म का भूत। 1848 में लिखे गये इन शब्दों के बाद आज 167 वर्ष बीत गये हैं और सचाई यह है कि आज भी दुनिया के हर कोने में शोषक वर्ग की रातों की नींद को यदि किसी चीज ने हराम कर रखा है तो वह है मजदूर वर्ग के सचेत संगठनों के क्रांतिकारी शक्ति में बदल जाने की आशंका ने, आम लोगों में अपनी आर्थि‍क बदहाली के बारे में बढती हुई चेतना ने।

सोवियत संघ में जब सबसे पहले राजसत्ता पर मजदूर वर्ग का अधिकार हुआ उसके पहले तक सारी दुनिया में पूंजीपतियों के भोंपू कम्युनिज्म को यूटोपिया (काल्पनिक खयाल) कह कर उसका मजाक उड़ाया करते थे या उसे आतंकवाद बता कर उसके प्रति खौफ पैदा किया करते थे। 1917 की रूस की समाजवादी क्रांति के बाद पूंजीवादी शासन के तमाम पैरोकार सोवियत व्यवस्था की नुक्ताचीनी करते हुए उसके छोटे से छोटे दोष को बढ़ा–चढ़ा कर पेश करने लगे और यह घोषणा करने लगे कि यह व्यवस्था चल नहीं सकती है। अब सोवियत संघ के पतने के बाद वे फिर उसी पुरानी रट पर लौट आये हैं कि कम्युनिज्म एक बेकार के यूटोपिया के अलावा और कुछ नहीं है।


कम्युनिज्म की सचाई को नकारने की ये तमाम कोशिशें मजदूर वर्ग के प्रति उनके गहरे डर और आशंका की उपज भर है। रूस, चीन, कोरिया, वियतनाम, क्यूबा और दुनिया के अनेक स्थानों पर होने वाली क्रांतियां इस बात का सबूत हैं कि पूंजीवादी शासन सदा–सदा के लिये सुरक्षित नहीं है। सभी जगह मजदूर वर्ग विजयी हो सकता है। यही सच शोषक वर्गों और उनके तमाम भोंपुओं को हमेशा आतंकित किये रहता है। और, मई दिवस के दिन दुनिया के कोने–कोने में मजदूरों के, पूंजीवाद की कब्र खोदने के लिये तैयार हो रही शक्ति के, विशाल प्रदर्शनों और हड़तालों से हर वर्ष इसी सच की पुरजोर घोषणा की जाती है कि ‘पूंजीवाद चल नहीं सकता’। इस दिन शासक वर्गों को उनके शासन के अवश्यंभावी अंत की याद दिलाई जाती है, उन्हें बता दिया जाता है कि उनके लिये अब बहुत अधिक दिन नहीं बचे हैं।

कैसे मई दिवस सारी दुनिया में मजदूर वर्ग के एक सबसे बड़े उत्सव के रूप में स्वीकृत हुआ? क्योंि इसे हर देश का मजदूर वर्ग अपना उत्सव मानता है और सारी दुनिया के मजदूर इस दिन अपनी एकजुटता का परिचय देते हैं? क्यों आज भी वित्त और उद्योग के नेतृत्वकारी लोग मई दिवस के पालन से आतंकित रहते हैं? इन सारे सवालों का जवाब और कही नहीं, मई दिवस के इतिहास की पर्तों के अंदर छिपा हुआ है।



मई दिवस का संक्षिप्त इतिहास

मई दिवस का जन्म आठ घंटों के दिन की लड़ाई के अंदर से हुआ था। यही लड़ाई क्रमश: सारी दुनिया के मजदूर वर्ग के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गयी।

इस धरती पर कृषि के जन्म के साथ ही पिछले दस हजार वर्षों से मेहनतकशों का अस्तित्व रहा है। गुलाम, रैयत, कारीगर आदि नाना रूपों में ऐसी मेहनतकश जमात रही है जो अपनी मेहनत की कमाई को शोषक वर्गों के हाथ में सौंपती रही है। लेकिन आज का आधुनिक मजदूर वर्ग, जिसका शोषण वेतन की प्रणाली की ओट में छिपा रहता है, इसका उदय कुछ सौ वर्ष पहले ही हुआ था। इस मजदूर के शोषण पर एक चादर होने के बावजूद यह शोषण किसी से भी कम बर्बर नहीं रहा है। किसी तरह मात्र जिंदा रहने के लिये पुरुषों, औरतों, और बच्चों तक को निहायत बुरी परिस्थितियों में दिन के सोलह–सोलह, अठारह–अठारह घंटे काम करना पड़ता था। इन परिस्थितियों के अंदर से काम के दिन की सीमा तय करने की मांग का जन्म हुआ। सन् 1867 में माक्र्स ने इस बात को नोट किया कि सामान्य (निश्चित) काम के दिन का जन्म पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग के बीच लगभग बिखरे हुए लंबे गृह युद्ध का परिणाम है।



काल्पनिक समाजवादी रौबर्ट ओवेन ने 1810 में ही इंगलैंड में 10 घंटे के काम के दिन की मांग उठायी थी और इसे अपने समाजवादी फर्म ‘न्यू लानार्क’ में लागू भी किया था। इंगलैंड के बाकी मजदूरों को यह अधिकार काफी बाद में मिला। 1847 में वहां महिलाओं और बच्चों के लिये 10 घंटे के काम के दिन को माना गया। फ्रांसीसी मजदूरों को 1848 की फरवरी क्रांति के बाद ही 12 घंटे का काम का दिन हासिल हो पाया।

जिस संयुक्त राज्य अमरीका में मई दिवस का जन्म हुआ वहां 1791 में ही फिलाडेलफिया के बढ़इयों 10 घंटे के दिन की मांग पर काम रोक दिया था। 1830 के बाद तो यह एक आम मांग बन गयी। 1835 में फिलाडेलफिया के मजदूरों ने कोयला खदानों के मजदूरों के नेतृत्व में इसी मांग पर आम हड़ताल की जिसके बैनर पर लिख हुआ था – 6 से 6 दस घंटे काम और दो घंटे भोजन के लिये।

इस 10 घंटे के आंदोलन ने मजदूरों की जिंदगी पर वास्तविक प्रभाव डाला। सन् 1830 से 1860 के बीच औसत काम के दिन 12 घंटे से कम होकर 11 घंटे हो गये।
इसी काल में 8 घंटे की मांग भी उठ गयी थी। 1836 में फिलाडेलफिया में 10 घंटे की जीत हासिल करने के बाद ‘नेशनल लेबरर’ ने यह ऐलान किया कि  दस घंटे के दिन को जारी रखने की हमारी कोई इच्छा नहीं है, क्योंकि हम यह मानते हैं कि किसी भी आदमी के लिये दिन में आठ घंटे काम करना काफी होता है। मशीन निर्माताओं और लोहारों की यूनियन के 1863 के कन्वेंशन में 8 घंटे के दिन की मांग को सबसे पहली मांग के रूप में रखा गया।

जिस समय अमरीका में यह आंदोलन चल रहा था, उसी समय वहां दास प्रथा के खिलाफ गृह युद्ध भी चल रहा था। इस गृह युद्ध में दास प्रथा का अंत हुआ और स्वतंत्र श्रम पर टिके पूंजीवाद का सूत्रपात हुआ। गृह युद्ध के बाद के काल में हजारों पूर्व दासों की आकांक्षाओं को बढ़ा दिया। इसके साथ आठ घंटे का आंदोलन भी जुड़ गया। मार्क्स  ने लिखा:  दास प्रथा की मौत के अंदर से तत्काल एक नयी जिंदगी पैदा हुई। गृह युद्ध का पहला वास्तविक फल आठ घंटे के आंदोलन के रूप में मिला। यह आंदोलन वामन के डगों की गति से अटलांटिक से लेकर पेसिफिक तक, नये इंगलैंड से लेकर कैलिफोर्निया तक फैल गया।




प्रमाण के तौर पर मार्क्सक  ने 1866 में बाल्टीमोर में हुई जैनरल कांग्रेस आफ लेबर की घोषणा से यह उद्धरण भी दिया था कि  इस देश को पूंजीवादी गुलामी से मुक्त करने के लिये आज की पहली और सबसे बड़ी जरूरत ऐसा कानून पारित करवाने की है जिससे अमरीकी संघ के सभी राज्यों में सामान्य कार्य दिवस आठ घंटों का हो जाये।
इसके छ: वर्षों बाद, 1872 में न्यूयार्क शहर में एक लाख मजदूरों ने हड़ताल की और निर्माण मजदूरों के लिये आठ घंटे के दिन की मांग को मनवा लिया। आठ घंटे के दिन को लेकर इसी प्रकार के जोरदार आंदोलन के गर्भ से मई दिवस का जन्म हुआ था। आठ घंटे के लिये संघर्ष को 1 मई के साथ 1884 में अमरीका और कनाडा के फेडरेशन आफ आरगेनाइज्ड ट्रेड्स एंड लेबर यूनियन (एफओटीएलयू) के एक कंवेशन में जोड़ा गया था। इसमें एक प्रस्ताव पारित किया गया था कि  यह संकल्प लिया जाता है कि 1 मई 1886 के बाद कानूनन श्रम का एक दिन आठ घंटों का होगा और इस जिले के सभी श्रम संगठनों से यह सिफारिश की जाती है कि वे इस उल्लेखित समय तक इस प्रस्ताव के अनुसार अपने कानून बनवा लें।

एफओटीएलयू के इस आह्वान के बावजूद सचाई यह थी कि यह यूनियन अपने आप में इतनी बड़ी नहीं थी कि उसकी पुकार पर कोई राष्ट्र–व्यापी आंदोलन शुरू हो सके। इस काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया स्थानीय स्तर की कमेटियों ने। तय हुआ कि देश भर में 1 मई को दिन व्यापक प्रदर्शन और हड़तालें की जायेगी। शासक वर्गों में इससे भारी आतंक फैल गया। अखबारों के जरिये यह व्यापक प्रचार किया गया कि इस आंदोलन में कम्युनिस्ट घुसपैठियें आ गये हैं। लेकिन कई मालिकों ने पहले से ही इस मांग को मानना शुरू कर दिया और अप्रैल 1886 तक लगभग 30 हजार मजदूरों को 8 घंटे काम का अधिकार मिल चुका था।

मालिकों की ओर से 1 मई के प्रदर्शनों में भारी हिंसा का आतंक पैदा किये जाने के बावजूद दुनिया के पहले मई दिवस पर जबर्दस्त प्रदर्शन हुए। सबसे बड़ा प्रदर्शन अमरीका के शिकागो शहर में हुआ जिसमें 90,000 लोगों ने हिस्सा लिया। इनमें से 40,000 ऐसे थे, जिन्होंने इस दिन हड़ताल का पालन किया था। न्यूयार्क में 10,000, डेट्रोयट में 11000 मजदूरों ने हिस्सा लिया। लुईसविले, बाल्टीमोर आदि अन्य स्थानों पर भी जोरदार प्रदर्शन हुए। लेकिन इतिहास में मई दिवस के स्थान को सुनिश्चित करने वाला प्रदर्शन शिकागो का ही था।



शिकागो में 8 घंटे की मांग पर पहले से ही एक शक्तिशाली आंदोलन के अस्तित्व के अलावा आईडब्लूपीए नामक संस्था की मजबूत उपस्थिति थी जो यह मानती थी कि यूनियनें किसी भी वर्ग–विहीन समाज के भ्रूण के समान होती हैं। इसके नेता अल्बर्त पार्सन्स और अगस्त स्पाइस की तरह के प्रभावशाल व्यक्तित्व थे। यह संस्था तीन भाषाओं में पांच अखबार निकालती थी और इसके सदस्यों की संख्या हजारों में थी। यहां 1 मई के प्रदर्शन के बाद भी हड़तालों का सिलसिला जारी रहा और 3 मई तक हड़ताली मजदूरों की संख्या 65,000 तक पंहुच गयी। इससे खौफ खाये उद्योग के प्रतिनिधियों ने मजदूरों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करने का फैसला किया। 3 मई की दोपहर से ही जंग शुरू हो गयी। स्पाईस आरा मिल के मजदूरों को संबोधित कर रहे थे और मालिकों के साथ आठ घंटे के लिये समझौते की तैयारियां करने में लगे हुए थे। उसी समय कुछ सौ मजदूर लगभग चौथाई मील दूर स्थित मैक्कौर्मिक हार्वेस्टर वर्क्सी की ओर चल दिये जहां इस आरा मिल से निकाले गये मजदूर मौजूद थे। मिल कुछ गद्दार मजदूरों के जरिये चलायी जा रही थी।

पंद्रह मिनट के अंदर ही वहां पुलिस के सैकड़ों सिपाही पंहुच गये। गोलियों की आवाज सुन कर इधर सभा में उपस्थित स्पाईस और बाकी आरा मजदूर मैक्कौर्मिक की ओर बढ़े। पुलिस ने उन पर भी गोलियां चलायी और घटना–स्थल पर ही चार मजदूरों की मौत हो गयी।

इसके ठीक बाद ही स्पाईस ने अंग्रेजी और जर्मन भाषा में दो पर्चे जारी किये। एक का शीर्षक था प्रतिशोध! मजदूरो, हथियार उठाओ। इस पर्चे में पुलिस के हमलों के लिये सीधे मालिकों को जिम्मेदार ठहराया गया था। दूसरे पर्चे में पुलिस के हमले के प्रतिवाद में हे मार्केट स्क्वायर पर एक जन–सभा का आह्वान किया गया था।

चार मई को सभा के दिन पुलिस ने मजदूरों का दमन शुरू कर दिया, इसके बावजूद शाम की सभा के समय हे मार्केट स्क्वायर पर 3000 लोग इके हुए। शहर के मेयर भी आये थे, यह सुनिश्चित करने के लिये कि सभा शांतिपूर्ण रहे। सभा को सबसे पहले स्पाईस ने संबोधित किया। उन्होंने 3 मई के हमले की भत्र्सना की। इसके बाद पार्सन्स बोले और आठ घंटे की लड़ाई के महत्व पर प्रकाश डाला। जब ये दोनों नेता बोल कर चले गये तब बचे हुए लोगों को सैमुएल फील्डेन ने संबोधित करना शुरू किया। फील्डेन के शुरू करने के कुछ मिनट बाद ही मेयर भी चले गये।

मेयर के जाते ही लगभग 180 पुलिस वालों ने वक्ताओं को घेर लिया और सभा को भंग करने की मांग करने लगे। फील्डेन ने कहा कि यह सभा पूरी तरह से शांतिपूर्ण है, इसे क्यों भंग किया जाये। इसी समय भीड़ में से पुलिस वालों पर एक बम गिरा। इससे 66 पुलिसकर्मी घायल होगये जिनमें से सात बाद में मारे गये। इसके साथ ही पुलिस ने भीड़ पर अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कर दी, जिसमे कई लोग मारे गये और 200 से ज्यादा जख्मी हुए।

इसके साथ ही अखबारों और मालिकों ने मजदूरों के खिलाफ जहर उगलना शुरू कर दिया, व्यापक धर–पकड़ शुरू हो गयी। मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया । स्पाईस, फील्डेन, माइकल स्वाब, अडोल्फ फिशर, जार्ज एंजेल, लुईस लिंग, और आस्कर नीबे पकड़ लिये गये। पार्सन्स को पुलिस गिरफ्तार नहीं कर पायी, वे खुद ही मुकदमे के दिन अदालत में हाजिर हो गये।

इन सब के खिलाफ अदालत में जिस प्रकार मुकदमा चलाया गया वह एक कोरे प्रहसन के अलावा और कुछ नहीं था। अभियुक्तों के खिलाफ किसी प्रकार के प्रमाण पेश नहीं किये गये। सरकार की ओर से सिफर्क यही कहा गया कि  आज कानून दाव पर है। अराजकता पर राय सुनानी है। न्यायमूर्तियों ने इन लोगों को चुना है और इन्हें अभियुक्त बनाया गया है क्योंकि ये नेता हैं। ये अपने हजारों समर्थकों से कहीं ज्यादा दोषी हैं। ... इन लोगों को दंडित करके एक उदाहरण पेश किया जाए, हमारी संस्थाओं, हमारे समाज को बचाने के लिये इन्हें फांसी दी जायें।





नीबे को छोड़ कर सबको फांसी की सजा सुनायी गयी। फील्डेन और स्वाब ने माफीनामा दिया तो उनकी सजा कम करके उन्हें उम्र कैद दी गयी। 21 वर्षीय लिंग फांसी देने वाले के मूंह में डाइनामाइट का विस्फोट करके उसे चकमा देकर भाग गया। बाकी को 11 नवंबर 1887 के दिन फांसी दे दी गयी।

मजे की बात यह है कि इसके छ: साल बाद इलिनोइस के गवर्नर जान ऐटजेल्ड ने नीबे,फील्डेन और स्वाब को दोषमुक्त कर दिया तथा जिन पांच लोगों को फांसी दी गयी थी, उन्हें मृत्युपरांत माफ कर दिया गया, क्योंकि मामले की जांच करने पर पाया गया कि उनके खिलाफ सबूतों में कोई दम नहीं था और वह मुकदमा एक दिखावा भर था।
गौर करने लायक बात यह भी है कि हे मार्केट की उस घटना के ठीक बाद सारी दुनिया में मजदूरों के खिलाफ व्यापक दमन का दौर शुरू हो गया था। जिन मजदूरों ने अमरीका में आठ घंटे काम का अधिकार हासिल कर लिया था, उनसे भी यह अधिकार छीन लिया गया। इंगलैंड, हालैंड, रूस, इटली, फ्रांस, स्पेन सब जगह मजदूरों की सभाओं पर पाबंदियां लगा दी गयी। लेकिन हे मार्केट की इस घटना ने अमरीका में चल रही आठ घंटे की लड़ाई को सारी दुनिया के मजदूर आंदोलन के केंद्र में स्थापित कर दिया। इसीलिये 1888 में जब अमेरिकन फेडरेशन आफ लेबर(एएफएल) ने यह ऐलान किया कि 1 मई 1990 का दिन आठ घंटे काम की मांग पर हड़तालों और प्रदर्शनों के जरिये मनाया जायेगा तो इस आान की तरफ सारी दुनिया का ध्यान गया था।

1889 में पैरिस में फ्रांसीसी क्रांति की शताब्दी पर मार्क्सि ‍स्टह  इंटरनेशनल सोशलिस्ट कांग्रेस की सभा में जिसमें 400 प्रतिनिधि उपस्थित थे, वहां एएफएल की ओर से एक प्रतिनिधि एक मई के आंदोलन के कार्यक्रम का आहवान करने पंहुचा था। कांग्रेस में सारी दुनिया में इस दिन विशाल प्रदर्शन करने का प्रस्ताव पारित किया गया। दुनिया के कोने–कोने में 1 मई 1990 के दिन मजदूरों के शानदार प्रदर्शन हुए और यहीं से आठ घंटे की लड़ाई ने एक अन्तरराष्ट्रीय संघर्ष का रूप ले लिया।

फ्रेडरिख ऐंगेल्स इस दिन लंदन के हाईड पार्क में मजदूरों की 5 लाख की सभा में शामिल हुए थे। इसके बारे में 3 मई को उन्होंने लिखा: जब मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूं, यूरोप और अमरीका के मजदूर अपनी ताकत का जायजा ले रहे हैं; वे पहली बार एक फौज की तरह, एक झंडे के तले, एक फौरी लक्ष्य के लिये लड़ाई के खातिर, आठ घंटों के काम के दिन के लिये इके हुए हैं।

इसके बाद धीरे–धीरे हर साल मई दिवस के आयोजन में दुनिया के एक–एक देश के मजदूर शामिल होने लगे। 1891 में रूस, ब्राजील, और आयरलैंड के मजदूरों ने भी मई दिवस मनाया। 1920 में पहली बार रूस की समाजवादी क्रांति के बाद चीन के मजदूरों ने मई दिवस मनाया। भारत में 1927 में कलकत्ता, मद्रास और बंबई में व्यापक प्रदर्शनों के जरिये पहली बार मई दिवस का पालन किया गया। और, इस प्रकार मई दिवस सच्चे अर्थों में मजदूरों का एक अन्तररलष्ट्रीय दिवस बन गया।

हे मार्केट के शहीदों के स्मारक पर अगस्त स्पाईस के ये शब्द खुदे हुए हैं कि  वह दिन आयेगा जब हमारी खामोशी आज हमारी दबा दी गयी आवाज से कहीं ज्यादा शक्तिशाली होगी।

वर्तमान समय

मानव समाज आज कृत्रिम बुद्धि द्वारा उत्पादन के एक नए दौर में प्रवेश कर रहा है। सन् ‘91 के बाद एकध्रुवीय विश्व के पहले चरण में ही रोजगार-विहीन (job-less) विकास के सारे लक्षणों की पहचान कर ली गई थी। इसके राजनीतिक और सामाजिक प्रतिफल के रूप में एक श्रीहीन (growth-less), वाणी-हीन, (voice-less) और निर्दयी (ruthless) परिस्थितियों की बातें भी स्पष्ट थीं। लेकिन अभी रोजगार-विहीनता का नहीं, बल्कि रोजगार-संकुचन का समय आ रहा है। बिल्कुल सही अनुमान किया जा रहा है कि आगामी एक दशक से भी कम समय में भारत में 69 प्रतिशत रोजगार कम हो जायेंगे। कमोबेस कुछ ऐसा ही हाल बाकी दुनिया का भी होगा।

इस सचाई को भांप कर ही विकसित देशों में आने वाले मानवीय अस्तित्व के संकट की परिस्थितियों से बचने के लिये राज्य की ओर से सभी नागरिकों के लिये एक न्यूनतम आमदनी को हर हाल में सुनिश्चित करने के नाना रूपों पर विचार शुरू हो गया है। हाल में स्विट्जरलैंड में ‘यूनिवर्सल बेसिक इन्कम’ (UBI) की ऐसी स्कीम पर एक जनमतसंग्रह हो चुका है और फिनलैंड ने ऐसी एक योजना पर अमल की घोषणा भी कर दी है। इसके समानांतर ही, विचारों के स्तर पर, इस पूर्ण आटोमेशन के काल में पूर्ण आटोमेटेड आनंदमय कम्युनिस्ट समाज (Fully automated luxury communism) की कुछ हवाई किस्म की बातें भी की जा रही है।

मूल बात यह है कि हवाई हो या ठोस, मनुष्यों द्वारा अर्जित नई उत्पादन शक्तियों के अनुरूप मानव समाज के नये स्वरूपों के निरूपण को कोई रोक नहीं सकता है। इसका प्रभाव मनुष्यों के सामाजिक जीवन पर जितना पड़ेगा, उससे कम चिंतन के स्तर पर तत्व मीमांसा और ज्ञान मीमांसा के स्तर तक नहीं पड़ेगा । एंगेल्स ने बहुत साफ शब्दों में लिखा थाः “प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रत्येक युगांतकारी खोज के साथ ( मानव समाज का इतिहास तो छोड़ दीजिए ) भौतिकवाद तक को अपने रूप में परिवर्तन करना पड़ेगा।”

आदिम काल में मनुष्य जब सिर्फ अपनी जरूरत भर का उत्पादन करता था, उसमें भौतिकवाद अपने शुद्ध रूप में उस काल की कोई व्याख्या कर सकता था। लेकिन जैसे-जैसे अतिरिक्त उत्पादन के साथ ही समाज के संचालन का पूरा तंत्र विकसित होने लगा और सामाजिक विकास में मनुष्यों की सचेत भूमिका की जमीन तैयार हुई । इतिहास का परवर्ती क्रम सिर्फ द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के जरिेये विश्लेषित किया जा सकता था। आज फिर कृत्रिम बुद्धि के विकास के इस काल में सामाजिक जीवन में मशीनों की बढ़ती हुई भूमिका एक नये भौतिकवाद के उद्भव की जमीन तैयार करता जान पड़ता है। लेकिन यदि इतिहास की गति मनुष्यों की स्वतंत्रता की दिशा में है । तो इसे मूर्त करने के प्रत्येक संघर्ष और क्रांति की अहमियत से कोई इंकार नहीं कर सकता है। इसी अर्थ में मई दिवस का संघर्ष और नवंबर क्रांति मनुष्यों के लिये हमेशा एक प्रकाश स्तंभ का काम करेंगेए इसमें कोई शक नहीं है।


शोषण की ताकतें इस नई परिस्थिति का इस्तेमाल राज्य को अधिक से अधिक दमन-मूलक बनाने के लिये करेगी। हमारे जैसे देश में बेरोजगारों की बढ़ती हुई फौज को गुंडों-बदमाशों (गोगुंडों) की फौज में बदलने की कोशिश आज भी जारी है और आगे भी जारी रहेगी। इससे दंगाइयों की, अन्ध-राष्ट्रवाद के नशे में चूर आत्म-घाती युद्धबाजों की फौज बनाई जायेगी। लेकिन उतना ही बड़ा सच यह भी है कि यह हिटलर का, औद्योगिक पूंजीवाद के प्रथम चरण का जमाना नहीं है। यह मनुष्यों के आत्म-विखंडन से लेकर समान स्तर पर विखंडित, अकेले मनुष्यों की नई सामाजिकता का जमाना भी है। मार्क्स ने आन्नेनकोव के नाम अपने उसी पत्र में, जिससे हमने उपरोक्त उद्धरण लिया है, यह भी लिखा था कि ‘‘मानव का सामाजिक इतिहास उसके व्यक्तिगत विकास के इतिहास के अलावा और कुछ भी नहीं है - भले ही उसको इसकी चेतना हो या न हो।’’

और, ‘‘ मनुष्य जो उपार्जित करता है उसे फिर कभी छोड़ता नहीं। पर इसका अर्थ यह नहीं कि वह उस सामाजिक रूप का भी परित्याग नहीं करता जिसमें उसने किन्हीं उत्पादक शक्तियों को प्राप्त किया है। इसके विपरीत, प्राप्त परिणाम से वंचित न होने, और सभ्यता के फलों को न गंवाने के लिए, मनुष्य उस क्षण से ही अपने सारे परंपरागत सामाजिक रूपों को बदलने को बाध्य होता है जब से उसके वाणिज्य के रूप का अर्जित उत्पादक शक्तियों के साथ सामंजस्य नहीं रह जाता।’’

कहना न होगा, नवंबर क्रांति की विद्रोही विरासत तबाह की जा रही उच्छिष्ट मानव-शक्ति को सामाजिक रूपांतरण की एक नई संगठित, सृजनात्मक शक्ति में बदलने का संदेश देती है। जीवन के सभी स्तरों पर मार्क्सवाद के प्रयोग की स्थितियों को समझते हुए उन्हें मूर्त करने में ही यह क्रांतिकारी विज्ञान चरितार्थ होता है। हर समाज में बनने वाले द्वंद्वात्मक संयोगों को मानव-मुक्तिकारी समाज व्यवस्थाओं में उतारना ही क्रांतिकारियों का काम है।

हमारे देश में हमें अपने धर्म-निरपेक्ष और कल्याणकारी राज्य के संविधान की रक्षा की लड़ाई के जरिये पूरे समाज के हितार्थ मनुष्यों की इन अर्जित शक्तियों के प्रयोग को सुनिश्चित करना है। नवंबर क्रांति हमें अपने संविधान के सार-तत्व को पूरे ओज और विस्तार के साथ प्रकाशित करने वाली शक्तियों के निर्माण की प्रेरणा देती है। सांप्रदायिक फासीवादी ताकतें इसे समाज की आत्म-विनाशकारी शक्ति में बदलना चाहती है। नवंबर क्रांति का संदेश विनाश के खिलाफ सृजन और न्याय के लिये दृढ़ प्रतिज्ञ संघर्ष का संदेश है।
सारी दुनिया में आज जिस पैमाने पर मई दिवस का पालन होता है और इस अवसर पर लाल झंडा उठाये मजदूर दुनिया की परिस्थितियों का ठोस जायजा लेते हुए जिस प्रकार अपने आगे के आंदोलन की रूप–रेखा तैयार करते हैं, इससे स्पाईस के शब्द आज बिल्कुल सच में बदलते हुए जान पड़ते हैं। आज भी यह सच है कि साम्राज्यवादियों और पूंजीपतियों की रूह मई दिवस के नाम से कांपती है। मई दिवस आज भी मजदूर वर्ग को उसकी निश्चित विजय की प्रेरणा देता है और शासक वर्गों की निश्चित हार का ऐलान करता है।



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