-अरुण माहेश्वरी
भारत के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ ऋगवेद के काल से ही यहां के धार्मिक कर्मकांडों में गोवंश के पशुओं के वध और भारत के लोगों की खान-पान की आदतों में उनके मांस के शामिल होने सारे प्रमाण है। परवर्ती काल में पशुपालक समाज से खेतिहर समाज में उत्तरण के साथ-साथ गोवंश के पशु जीवन की एक जरूरत से श्रद्धा और धर्म के विषय भी बनते चले गये। बौद्ध और जैन धर्मों के अहिंसा के सिद्धांतों ने बड़े पैमाने पर वैदिक कर्मकांडों में होने वाले गोवध के प्रति विरोध का भाव पैदा किया। मुगल बादशाह बाबर से लेकर औरंगजेब तक ने जैनों और ब्राह्मणों की भावनाओं का सम्मान करने के लिये गोकुशी पर रोक लगाने के कानून बनाए। और, भारत की आजादी के बाद भारत के संविधान के निदेशक सिद्धांतों में भी गोवध पर रोक के लिये कदम उठाने की बात कही गई है। इन सबके बावजूद कब और कैसे गोवध और गोरक्षा का मसला एक सांप्रदायिक हिंसा का मसला बनता चला गया, यह एक खोज और विचार का विषय है।
यहीं पर फिर एक बार अंग्रेज शासकों की भूमिका संदेह के घेरे में आ जाती है। सन् 1857 के बाद अंग्रेज शासकों ने ‘फूट डालो और राज करो’ की एक सुचिंतित नीति के तहत भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच फूट डालने के विषयों के संभावित विषयों को खोजना और उन्हें हवा देना शुरू किया। उसके बाद से ही गोरक्षा के नाम पर भारत में हिंदू-मुस्लिम दंगों की एक श्रृंखला शुरू हो जाती है। भारत में सबसे पहले पंजाब में नामधारी सिख कुका पंथ ने 1870 में हिंदू गोरक्षा आंदोलन का प्रारंभ किया था। सन् 1882 में उसी पंजाब में दयानंद सरस्वती ने पहली गोरक्षिणी सभा का गठन किया और नामधारी पंथ वालों के साथ मिल कर गाय को हिंदू अस्मिता का प्रतीक बना दिया गया और मुसलमानों द्वारा गोकुशी का सक्रिय विरोध करने का एक सिलसिला शुरू हुआ। सन् 1880 से 1890 के दशक के बीच भारत में अनेक हिंदू-मुस्लिम दंगें हुए। कहा जा सकता है, भारत में हिंदू-मुस्लिम दंगों की परंपरा की नींव तभी रखी गई थी।
भारत की आजादी के बाद, फिर यह सिलसिला तब शुरू हुआ जब आरएसएस ने जन संघ का गठन किया, और 1964 में खुद गोलवलकर के नेतृत्व में विश्व हिंदू परिषद का गठन किया गया। उसके बाद ही फिर एक बार गोरक्षा आंदोलन तेजी से शुरू हुआ, जो 1966 में अपने चरम पर पहुंच गया। गोरक्षकों ने संसद के सामने हिंसक प्रदर्शन किया, जिसमें आठ लोग मारे गये थे। इसके बाद फिर 1979 में, जनता पार्टी की मोरारजी देसाई की सरकार के वक्त आचार्य विनोबा भावे ने गोवध पर रोक के लिये अनशन किया था, लेकिन वह बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाई।
1979 के बाद काफी अर्से तक शांति रही। लेकिन गोरक्षकों का वास्तविक दौरात्म्य तब फिर शुरू होने लगा जब 1995 में गुजरात में भाजपा के केशुभाई पटेल की सरकार बनी। और तभी से संघ परिवार की बढ़ती हुई ताकत के साथ गोरक्षा का मुद्दा हिंदुओं की आस्था और अस्मिता का मुद्दा बनता चला गया। इसे मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के एक बड़े मुद्दे का रूप दे दिया गया। आज के हालात हम सबके सामने हैं।
आज गोरक्षा का विषय आरएसएस और भाजपा के सबसे हिंसक तूफानी दस्तों को संगठित करने के विषय बन गया है। यह उग्र राष्ट्रवाद के नाम पर पूरे भारतीय समाज को एक भयंकर हिंसक समाज में बदलने का आज एक प्रमुख मुद्दा है। इस पूरे विषय पर गहराई से गौर करे तो गोरक्षा के विषय का प्रयोग प्रकारांतर से पूरे हिंदू धर्म पर आरएसएस के वर्चस्व को कायम करने के लिये किया जा रहा है। यह अन्य सभी दलों और संगठनों के आस्थावना हिंदुओं पर भी आरएसएस के प्रभुत्व को लाद देने की एक सुनियोजित कोशिश है।
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