मंगलवार, 16 मई 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (13)

-अरुण माहेश्वरी


कवि मार्क्स
(क्षमा करो हमें सुक्तिवादियों)

मार्क्स अपनी कविता ‘जीवन लक्ष्य’ में वे लिखते हैं:

’’कठिनाइयों से रीता जीवन / मेरे लिए नहीं / नहीं, मेरे तूफानी मन को यह नहीं स्वीकार / मुझे तो चाहिए एक महान ऊंचा लक्ष्य / और उसके लिए / उम्र भर संघर्षों का अटूट क्रम / ओ कला! तू खोल / मानवता की धरोहरए अपने अमूल्य कोशों के द्वार / मेरे लिए खोल / अपने प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में / अखिल विश्व को बांध लूँगा मैं / आओ / हम बीहड़ और सुदूर यात्रा पर चलें / आओ, क्योंकि हमें स्वीकार नहीं / छिछला निरुद्देश्य और लक्ष्यहीन जीवन / हम ऊंघते, कलम घिसते / उत्पीडन और लाचारी में नहीं जियेंगे / हम आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और / अभिमान से जियेंगे। / असली इन्सान की तरह जियेंगे ।” (1837)

मार्क्स की इन कविताओं का समकालीन राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन से कोई सीधा संपर्क नहीं था, लेकिन इनसे अनोखे ढंग से अतीत का एक अवभास होता है। एक नायकत्व, प्रचंड आवेग और साथ ही ज्ञान की दिशा में एक साहसिक अभियान के जिस महाभाव को इनमें स्थायी तौर पर पाया जा सकता है, वह उनके पूरे व्यक्तित्व के मूल तत्वों को प्रकाशित करता है।



आइये, हेगेल के बारे में हम इसमें चार छोटी-छोटी चौपाई नुमा कविताएं देखते हैं -

 ‘‘चूंकि मैंने पा लिया है चीजों के शीर्ष और उनकी गहराइयों को भी
मैं ईश्वर की तरह निष्ठुर, ईश्वर की तरह अंधेरे से आच्छादित
दीर्घ काल से ढूंढ रहा, उत्ताल समंदर की गहराइयों के विचार में गोते लगाता रहा
वहां मैंने पाया शब्द: अब मैंने उसे जोर से जकड़ लिया है। ”

(Since I have found the highest of things and the depths of them also
Rude am I as a god, cloaked by the dark like a God
Long have I searched and sailed on Thoughts deep billowing ocean
There I found me the word : now I hold on to it fast)

‘‘कांट और फिख्ते स्वर्ग की नीलाई तक चढ़ गये हैं
किसी सुदूर जमीन की तलाश में
मैं चाहता हूं पाना उस गूढ़ और सत्य को
वह जो - मिला मुझे सड़कों पर।’’

(Kant and Fichte soar to heaven’s blue
seeking for some distant land
I but seek to grasp profound and true
That which – in the street I find)

‘‘क्षमा करो हमें सुक्तिवादियों
इसलिये कि गाते हम अश्लील गीत हैं
पूरा डूब चुके हम हेगेल में
फिर भी अभी बाकी है हमारा सौन्दर्यशास्त्र से -परिशोधन। ’’

(Forgive us epigrammatists
For singing songs with nasty twists
In Hegel we’re all so completely submerged
But with the aesthetics we’ve yet to be – purged.)

हेगेल के बारे में अष्टपदी की शुरू की दो पंक्तियां है -
‘‘मेरे पढ़ाये शब्द भयानक उलझन में खो गये हैं
इसीलिये हर कोई अपनी मन-मर्जी से सोच सकता है।

(Words I teach all mixed up in a devilish muddle,
Thus, anyone may think just what he chooses to think)
 (ns[ksa] MECW, vol.1, page – 766-577)


मार्क्स की ऐसी ही चुटीली कविताओं के और कुछ उदाहरण दिये जा सकते हैं। मसलन् – ‘चिकित्सा-शास्त्र के विद्यार्थी की तत्त्व-मीमांसा’।

“आत्मा-वात्मा थी ही नहीं कभी
सांड रहे हर-हमेश अनुभव किए बिना, कभी भी, कभी उसकी
निकम्मी फंतासी है आत्मा
पेट में तो खोजी ही नहीं जा सकती वह,
और गर कोई उसको सत्य सिद्ध भी कर दे
अण्ड-बण्ड गोली भी छूमन्तर कर देगी उसे,
फिर नज़र आएंगी आत्माएँ
उभरती अन्तहीन प्रवाह में”
(1837)

चिकित्सा-शास्त्र के विद्यार्थी का मनोविज्ञान
करेगा बियारी जो मालपुओं और गुलगुलों की
भोगेगा बीमारी दुःस्वप्नों, हुलहुलों, पुलपुलों की
(1837)

आचार-संहिता चिकित्सा-शास्त्र के विद्यार्थियों की
पसीना नुकसान करे बेहतर है इससे तो
पहनना एक से ज़्यादा बंडियाँ यात्राओं में
सावधान रहो उन तमाम लालचों से जो
पैदा करें गड़बड़ियाँ तुम्हारे जठर-रस के लिए
ऐसी जगहों पर फटकने मत दो अपनी नज़रें
शोले उठा सकती हों जो तुम्हारी आँखों में
पानी मिलाओ शराब में
कॉफ़ी में हर बार लो दूध
और भूलना मत हमें याद करना भाई साब
करने लगो कूच जब दूसरे जहान को

गणितीय चतुराई
घटा लिया है हमने
हर चीज़ को चिन्हों में
और तर्क करते यों पेश
जैसे सूत्र गणित के भिन्नों में

ईश्वर अगर बिन्दु है
तो लम्ब के समान गुज़र नहीं सकता वह
जैसे आप खड़े नहीं हो सकते सिर के बल
बैठे चूतड़ों पर।
(देखें - MECW , vol.1, page – 545-547)
(अनुवाद: सोम दत्त)

क्रमश ;



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