मंगलवार, 16 मई 2017

ओबोर से दूर रहने का कोई तर्क नहीं है

-अरुण माहेश्वरी



चीन के ओबोर संबंधी शिखर सम्मेलन में उसके प्रमुख प्रतिद्वंद्वी अमेरिका और जापान के भी उच्च-स्तरीय प्रतिनिधि-मंडल शामिल हुए । सिर्फ पड़ौसी भारत नहीं पहुँचा ।

कल रवीश कुमार के प्राइम टाइम पर मोहन गुरुस्वामी भारत के फैसले की तारीफ़ करते हुए इस पूरे प्रकल्प को चीन का एक गोरख-धंधा बता रहे थे । अपने पास जमा बेहिसाब धन को बाँट कर वह अन्य देशों को क़र्ज़ के बोझ से लाद देना चाहता है ।

हम नहीं जानते कि दुनिया में क्या कुछ भी अकारण ही होता है ; क्या द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रेटनवुड संस्थाओं का उदय, मार्शल प्लान से लेकर गैट और डब्लू टी ओ तक में अमेरिका की नेतृत्वकारी भूमिका अकारण थी ? फिर भी दुनिया के राष्ट्रों ने उन्हें अपनाया । कभी भी वहिष्कार इनका सही प्रत्युत्तर नहीं हो सकता था ।

इसके विपरीत भारत, युगोस्लाविया,चीन, मिस्र, इंडोनेशिया और घाना आदि के नेतृत्व में शुरू हुए पंचशील के सिद्धांत और  गुट-निरपेक्ष आंदोलन ने भी वैश्विक सहकार का एक विकल्प पेश किया था जिसे तत्कालीन सोवियत संघ का समर्थन मिला हुआ था । इसके अलावा समाजवादी शिविर और उसका विकास का ग़ैर-पूँजीवादी रास्ते का भी एक वैश्विक विकल्प था ।

कहने का तात्पर्य यह है कि वैश्विकता मात्र से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है । अब प्रश्न यही रह जाता है कि  एक नई वैकल्पिक विश्व-व्यवस्था को प्रस्तावित कौन करे ?

भारत सहित एशिया, यूरोप, अफ़्रीका का कोई भी देश अभी ऐसी स्थिति में है कि वह ऐसी किसी नई पहलकदमी को नेतृत्व दे सके ? किन्हीं कारणों से भी क्यों न हो, मोहन गुरुस्वामी भी चीन के पास जमा भारी धन को इसका बड़ा कारण बता रहे थे, चीन आज सहकार की एक नयी विश्व-व्यवस्था को प्रस्तावित कर पा रहा है ।

दुनिया के बड़े से बड़े, अमेरिका, रूस, जर्मनी, फ्रांस और जापान जैसे देश भी इस नई प्रस्तावना को गंभीरता से ले रहे हैं । लेकिन भारत का पूरा आचरण डॉन क्विगजोटिक दिखाई देता है । मोहन गुरुस्वामी बिना माँगे ही पाकिस्तान को सलाह दे रहे है कि बच्चू ! तुम चीन के जाल में फँस कर उसका उपनिवेश बन कर रह जाओंगे !

लगता है, इन वाक् वीरों को अमेरिकी नव-उपनिवेशवादी व्यवस्था में अपनी अवस्था से कोई परहेज़ नहीं है ! वे इसमें रहने के इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि इससे मुक्ति की कल्पना ही नहीं कर पा रहे हैं ।

चीन की इस नई पहलकदमी से भारत को दूर रखने के तर्कों में हमें ज़रा सा भी दम नहीं दिखाई देता है ।

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