शुक्रवार, 5 मई 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (2)




. अरुण माहेश्वरी

फ्रांसीसी क्रांति (1789-1791) यूरोप के राजनीतिक इतिहास की जमीन पर उठा शायद अब तक का सबसे बड़ा बवंडर। इसके पहले वहां जो चलता रहा वह मानो सहस्त्र सालों से किसी ब्रह्मांडीय अकाट्य नियम की तरह सामाजिक संरचना के एक परम सत्य की तरह था। बड़े से बड़े ज्ञानदीप्त और उदार सम्राटों के लिये भी अमीर-उमरावों के विशेषाधिकारों को चुनौती देना राष्ट्र की सार्वभौमिकता को चुनौती देने से कम नहीं था। पूरे यूरोप में ज्ञानदीप्त और आततायी राजाओं की अनेकों प्रजातियां रहीं, लेकिन किसी ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि वे अपने अधिकारों और सामंती ढांचे की बुनियाद के साथ कभी कोई छेड़-छाड़ कर सकते थे।


फ्रांसीसी क्रांति ने पहली बार राष्ट्र की सार्वभौमिकता को सिर्फ नागरिक की सार्वभौमिकता में व्यस्त किया । ‘सबार उपरे मानुष, मानुषेर उपरे किछु नाय’ की तरह के आदर्श विचार को जमीन पर उतार दिया। जिस समय बाकी यूरोप नाना प्रजाति की राजशाहियों के अधीन था, फ्रांसीसी क्रांति ने मनुष्य के मूलभूत अधिकार के रूप में ‘प्रतिनिधिमूलक सरकार’, ‘धर्म की आजादी’, ‘बोलने की आजादी‘ और ‘कानून के सामने हर किसी की समानता’ के आदर्शों को मनुष्य के सबसे पवित्र और अनुलंघनीय अधिकार के रूप में स्थापित किया।

जाहिर है, हजारों सालों से चली आ रही शासन प्रणाली को दी गई इस अकल्पनीय चुनौती में एक ओर जहां व्यापक जनता के बीच आशा और उत्साह का तूफान दिखाई दे रहा था, वहीं हर कथित विवेकवान में चिंता और अराजकता की आशंकाएं भी गहरा रही थी। खतरा था कि पूरी समाज-व्यवस्था इस कदर चरमरा कर बिखर न जाए कि राज्य पूरी तरह से दिवालिया हो जाए। नागरिकों के जान-माल की सुरक्षा का कोई प्रबंध ही बचा न रह सके।

कुल मिला कर पश्चिम की दुनिया के लिये यह हर प्रकार से अनोखा और विरल अनुभव था। इस क्रांति ने जैसे एक झटके में कुलीनों, पुरोहितों, सेना, सामंतों और मजदूरों, दासों की भी जन्मना अधिकारों की पूरी प्रणाली को ध्वस्त कर दिया। ईश्वर के रूप में राजा की सार्वभौमिकता की जगह जनता की सार्वभौमिकता को ही सर्वौपरि और परम मान कर धर्म-निरपेक्षता के आधार पर पूरी राष्ट्रीय प्रणाली के पुनर्विन्यास का काम शुरू किया गया।

फ्रांसीसी क्रांति के प्रारंभ के इस पूरे घटना-क्रम को करीब से देखने पर सबसे दिलचस्प बात यह सामने आती है कि उसमें कुछ भी पूर्व-निर्धारित ढंग से नहीं हुआ था। इसके नेतृत्वकारी लोगों के सामने जैसे-जैसे एक-एक विषय आते गये, इस क्रांति का रूप भी उसी क्रम में अपना आकार लेता चला गया। (देखें कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित पुस्तक ^Fixing the French constitution, in inventing the French revolution’ Essaya on French political culture in the eighteenth century’, Keith Michael Baker)



क्रांति के शुरू में बहुतेरे जन-प्रतिनिधियों (Deputies) को यही लग रहा था कि अंततः जो भी सुधार होंगे, सम्राट के तत्वावधान में ही किये जायेंगे। एक प्रकार की कानून आधारित राजशाही की अवधारणा के प्रति उनकी निष्ठा बनी हुई थी। लेकिन 1789 की गर्मियों में छः हफ्तों तक उनकी जो सघन और गरमा-गरम लगातार बैठकें हुई, उनके बीच से ही नागरिक की सार्वभौमिकता की बुनियादी निष्ठा के आधार पर उन सब की एक क्रांतिकारी समझ विकसित होने लगी। इस गहन मंथन के बीच से जो निकल कर आया वह समाज के नव-निर्माण की एक बिल्कुल क्रांतिकारी जनतांत्रिक अवधारणा थी।

क्रमश: 

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