मंगलवार, 9 मई 2017

कार्ल मार्क्स : जिसके पास अपनी एक किताब है (7)


-अरुण माहेश्वरी

हेनरिट्टा प्रेसबर्ग

कार्ल मार्क्स के जीवन की चर्चा में अक्सर उनके पिता के साथ संबंधों की तो काफी चर्चा होती है। जैसा कि हमने पहले ही बताया भी है कि मार्क्स के मन-मस्तिष्क में पिता की एक बहुत सम्मानजनक स्थिति थी। मार्क्स-एंगेल्स की समग्र रचनाओं के संकलन के पहले खंड के परिशिष्ट में लगभग पचास पन्नों में कार्ल के नाम पिता के पत्र शामिल किये गये हैं। लेकिन मां हेनरिट्टा प्रेसबर्ग का जिक्र बहुत ही कम आता है।



मार्क्स की अब तक की कई जीवनियों में सबसे शानदार जीवनी मानी जाती है फ्रैंज मेहरिंग की Karl Marx : The Story of his life । 1918 में प्रकाशित लगभग पौने छः सौ पेज की इस जीवनी में हेनरिट्टा के बारे में दस लाइने भी नहीं है। सिर्फ यह कहा गया है कि हेनरिख मार्क्स ने हेनरिट्टा प्रेसबर्ग नामकी डच यहूदी स्त्री से शादी की जो सौ साल से चली आ रही यहूदी धर्मगुरुओं की वंश परंपरा की थी। ...मार्क्स की मां अपने पति और बच्चों का बहुत ही जतन से ध्यान रखते हुए पूरी तरह से गृहस्थी के कामों में लगी रहती थी। सारी जिंदगी वे टूटी-फूटी जर्मन बोलती रही और अपने बेटे के बौद्धिक संघर्ष में उसने कोई हिस्सा नहीं लिया सिवाय मां की पीड़ा को व्यक्त करने के कि उसने अगर सही रास्ता लिया होता तो वह क्या बन सकता था। (All her life she spoke broken German and took no part in the intellectual struggles of her son, beyond perhaps wondering with a mother’s regret what might have become of him had he taken the right path.)



इसी प्रकार, सोवियत संघ से प्रकाशित जीवनी में भी जिसका हिंदी अनुवाद ‘कार्ल मार्क्स: एक जीवनी’ लखनऊ के लोक साहित्य प्रकाशन ने छापा था, उनके बारे में सिर्फ इतना सा लिखा हुआ है कि ‘‘कार्ल की मां, हेनरिट्टा प्रेसबर्ग हालैण्ड में पैदा हुई थी। 9 बच्चों की मां के रूप में वह अपने को गृहस्थी के कामों तक सीमित रखती थीं। उनका आध्यात्मिकता का दायरा अति-संकुचित था और वह हेनरिक की तरह अपने पुत्र की वास्तविक मित्र कभी नहीं रही।’’ (पृष्ठ - 27)

लेकिन इस विषय की थोड़ी सी गहराई में ही जाने से यह साफ दिखाई देता है कि उपरोक्त दोनों उद्धरणों में ही हेनरिट्टा की जो तस्वीर पेश की गई है,  वह सचाई से दूर है। गैरेथ स्टेडमैन जोन्स ने मार्क्स के बारे में जर्मन सूत्रों के हवाले से उनकी बड़ी बहन सोफी का एक कथन दिया है जिसमें वे अपनी मां के बारे में कहती है कि वे ‘नाटी, नाजुक और बेहद कुशाग्र’ महिला थी। इस बात के यथेष्ट प्रमाण मिलते हैं कि हर चीज के बारे में अपनी अलग आलोचनात्मक राय रखने और चुटकिया लेने की उनकी क्षमता थी। जब उनकी ईसाई धर्म में दीक्षा (बैप्टिज्म) हुई तब नये धर्म को लेकर किसी के छेड़ने पर उनका तपाक से जवाब था - ‘‘मैं ईश्वर में आस्था रखती हूँ  ईश्वर की खातिर नहीं, अपने खातिर। ”

मार्क्स को लिखे पिता के कई पत्रों के अंत में पुछल्ले के तौर पर हम मार्क्स के नाम हेनरिट्टा की लिखी बातों को भी पाते हैं। इन पत्रों के अंशों को ध्यान से देखने पर ही जहां एक ओर मेहरिंग की उनकी टूटी-फूटी भाषा वाली टिप्पणी निराधार साबित होती है, वहीं जो यह लिखते हैं कि उनका आत्मिक दायरा ‘अति संकुचित’ था, वह भी अनुचित जान पड़ता है।



सन् 1936 में, मार्क्स जब बाॅन में थे, तब हेनरिख के पत्र के अंत में हेनरिट्टा ने बीस से अधिक पंक्तियों में मार्क्स को जो लिखा, वह गौर करने लायक है। वे लिखती है -
‘‘प्रिय प्यारे कार्ल,
तुम्हारी बीमारी से हम बहुत अधिक चिंतित है, लेकिन उम्मीद और कामना है कि तुम ठीक हो गये हो, और यद्यपि मैं अपने अपने प्यारे बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर काफी उद्विग्न रहती हूं, लेकिन मेरा पक्का विश्वास है प्यारे कार्ल कि तुम यदि ढंग से चलो तो तुम लंबी उम्र ले सकते हो। लेकिन इसके लिये तुम्हे नुकसान पहुंचाने वाली हर चीजों से परहेज करना होगा, तुम को कभी भी ज्यादा उत्तेजित नहीं होना होगा, शराब और काॅफी ज्यादा नहीं पीनी होगी, और तीखी चीज, ज्यादा मिर्च या मसालों से बचना होगा। तंबाकू छोड़ देना होगा, रात को देर तक नहीं जागना और सुबह जल्दी उठना होगा।...तुम्हे मेरा देश कैसा लगा - वह सचमुच एक सुंदर जगह है और मुझे उम्मीद है कि वहां तुम्हें अपनी कविताओं की प्रेरणा के लिये काफी सामग्री मिली होगी। ...’’ (जोर हमारा) ¼Karl Marx Frederick Engels, Collected Works,(MECW) Vol. 1, page – 651-652)
मार्क्स चंद दिनों पहले ही हालैंड की यात्रा पर गये थे, जो हेनरिट्टा का मायका था। वे यहां उसी का जिक्र कर रही थी।


क्रमश:


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