- अरुण माहेश्वरी
‘क्रांति एक जटिल सत्य है’
इस प्रकार 18वीं सदी के मध्यकाल में पूरे यूरोप में छितरे हुए बुद्धिदीप्त सम्राटों की तुलना में फ्रांसीसी क्रांति का रास्ता मूलभूत अर्थों में बिल्कुल भिन्न था। अल्बर्त सौबुल के शब्दों में ‘‘ फ्रांसीसी क्रांति का अर्थ था कि पूंजीपति वर्ग (बुर्जुआ) अंततः सामाजिक मंच के केंद्र में आ गया है जिसे बुद्धिदीप्त सम्राट अपनी प्रकृति में निहित अन्तर्विरोधों के कारण ही स्वीकार नहीं सकता था। इसके प्रतिरोध के लिये अन्य सभी सार्वभौमिकताओं और उनके माननीय लोगों का गठजोड़ कायम हुआ, जिनकी प्रतिक्रांति निरंकुश सत्ता से भी ज्यादा क्रूर थी। बुद्धिदीप्त सम्राट ने तो शुरू में ही अपने को सचेत रूप में क्रांति के बिल्कुल विरोध में खड़ा कर लिया था।’’
इस प्रकार क्रांति के शुरू में जो लगा था कि संविधान समिति के प्रस्ताव के अनुसार असेंबली सम्राट को ऐतिहासिक रूप से स्वीकार कर लेगी, उसकी संभावना खत्म होते ज्यादा समय नहीं लगा।
संविधान समिति के अध्यक्ष ज्यो जोसेफ म्यूनियिर ने राष्ट्रीय सार्वभौमिकता और एकीकृत असेंबली पर आधारित जो नया संविधान प्रस्तावित किया था, वह ज्यो जैक हूसो (रूसो) के विचारों से मेल खाता हुआ था। इंगलैंड की पार्लियामेंट की प्रणाली पर टिप्पणी करते हुए रूसो ने कहा था कि ‘‘अंग्रेज लोग यदि यह सोचते हैं कि वे आजाद है तो वे खुद को धोखा दे रहे हैं। वे सिर्फ उसी समय आजाद रहते है जब पार्लियामेंट के सदस्यों का चुनाव करते हैं ; एक बार चुन लेने के बाद वे गुलाम हो जाते हैं ; उनका कोई मूल्य नहीं रहता।’’
इसीलिये जो अब भी सम्राट को कार्यपालिका के अधीन रख कर क्रांति करने की बात सोचते थे उनके मूल में कहीं न कहीं यह पुराना विश्वास काम कर रहा था कि एक क्रांतिकारी राजा के नेतृत्व में ही कोई क्रांतिकारी काम पूरा हो सकता है। असेंबली के बहुत से सदस्यों को भ्रम था कि जो भी किया जा रहा है, वह महज कुछ सुधार हैं, किसी बिल्कुल नयी व्यवस्था की स्थापना नहीं। इन तमाम लोगों को आम जनता की आकांक्षाओं की अनुलंघनीय सार्वभौमिकता की बातों से ही एक प्रकार का डर लगता था। वे इसमें राष्ट्र की पूरी वित्तीय व्यवस्था के बिखर जाने का खतरा देखते थे। उन्हीं दिनों दी साइस बोर्दियो के बिशप ने कहा था कि ‘‘ हमें पालने में पल रहे लोगों के लिये प्राकृतिक अधिकारों की नहीं, नागरिकों के अधिकारों की, बड़े लोगों के विधेयात्मक कानूनों की बात करनी चाहिए, जिसने पिछली 15 सदियों से हमें एकजुट रखा है।’’
अर्थात, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, आम जनता में सार्वभौमिकता की बात बहुत से लोगों को राष्ट्र के अंत की बात की तरह से सुनाई दे रही थी। लेकिन जैसे-जैसे क्रांति आगे बढ़ती गई, जनता के सार्विक अधिकारों की बात तेज होती गई। इसने राष्ट्रीय एकता की पवित्रता की एक पूरी नई अवधारणा को पेश किया। पुराने अटल और ब्रह्मांडीय मान लिये गये सभी ढांचों को ढहा देना होगा, यही था - 1794 का रोबेसपियर का ‘श्रेष्ठ प्राणी का पंथ (Cult of supreme being) । रोबेसपियर ने ऐलान किया कि बाहर के प्रतापी लोगों से लड़ने के पहले अंदर के इन कुलीनों का सफाया जरूरी है। तब तक यह साफ हो चुका था कि ‘‘सार्वभौमिकता सिर्फ और सिर्फ आम जनता में वास करती है। इस अकेले सिद्धांत के आधार पर ही आगे के सारे राजनीतिक व्यवहारों को नये रूप में ढालना होगा। जनता की यह सार्वभौमिकता अहस्तांरणीय (imprescriptible), अविच्छेद्य (inalienable), और अनियोज्य (indelegable) है।’’
इसी के आधार पर निर्वाचित प्रतिनिधियों की भर्त्सना करने, उन पर नियंत्रण रखने और उन्हें वापस बुला लेने के अधिकारों को भी फ्रांस के संविधान में मूलभूत अधिकार के तौर पर शामिल किया गया। 17 जुलाई 1793 की रात, एक दृप्त घोषणा के जरिये, बिना किसी प्रकार के मुआवजे के फ्रांस से सामंतशाही का खात्मा कर दिया गया। किसान और उनकी जमीन सामंतों के शिकंजे से हमेशा के लिये मुक्त हो गई। इसीलिये मैथी की तरह के कुछ इतिहासकार फ्रांसीसी क्रांति को एक नहीं, बल्कि चार सालों में चार क्रांतियों के समुच्चय के रूप में देखते हैं।
बहरहाल, फ्रांसीसी क्रांति का यह समूचा घटना-क्रम जिस प्रकार विकसित हुआ, और जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, उससे जाहिर है कि इतिहास की हमेशा एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया होती है। इसे कभी भी यांत्रिक ढंग से नहीं समझा जा सकता है। क्रांति स्वयं में एक जटिल सत्य है। इसका निरूपण कभी भी किसी सरल रेखा में पूर्व-नियोजित ढंग से नहीं किया जा सकता है। आज भी जब कोई ऐतिहासिक भौतिकवाद का झंडा उठा कर मनुष्यों और उनके समूहों के छोटे से छोटे सामाजिक-राजनीतिक व्यवहारों को तथाकथित वर्गीय मानदंडों पर आंकने की कसरत करते हुए दिखाई देता है तब उसके अहमकपन पर सिवाय हंसी के और कुछ नहीं आ सकती।
(देखियें Timothy Tackett की किताब - ‘Becoming a revolutionary : The deputies of the French National Assembly and the emergence of a revolutionary culture (1789-1790, Princeton, Princeton University Press, 1996 और Albert Soboul, Understanding the French Revolution, People’s Publishing House, Indian Edition, 1989)
क्रमशः
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