रविवार, 14 मई 2017

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण वनाम वैश्विक सहकार एवं सहयोग: प्रसंग ओबोर

-अरुण माहेश्वरी



चीन के वन बेल्ट वन रोड (ओबोर) प्रकल्प को एशिया, अफ्रीका और यूरोप के सौ से ज्यादा देशों का जो समर्थन मिल रहा है, वह सचमुच चैंकाने वाला है। इसने दुनिया के सामने दो अलग-अलग रास्तों पर बढ़ने की एक साफ रूपरेखा रखी है - एक है ट्रंप के अमेरिका का रास्ता और दूसरा है शी जिन पिंग का चीन का रास्ता।

ट्रंप के आज के साम्राज्यवादी पूंजीतंत्र में विस्तार के बजाय संकुचन की शक्तियों का वर्चस्व है - राष्ट्रवाद, संरक्षणवाद, और सैन्यवाद का वर्चस्व है। इसकी तुलना में चीन के ओबोर प्रकल्प से राष्ट्रों के बीच परस्पर विश्वास पर आधारित आपसी सहकार और सहयोग की पंचशील की लय को सुना जा सकता है।

हम सब जानते हैं, विस्तार इस ब्रह्मांड का एक अकाट्य सच है। इसी में मार्क्स ने पूंजी के आत्म-विस्तार की, पूंजीतंत्र की कथा सुनाई थी। प्रथम विश्वयुद्ध ने साम्राज्यवाद में इसकी अनिवार्य परिणति के लक्षणों को दिखाया और लेनिन ने इसी में इसके आत्म-विस्तार के अंत के बीजों को देख लिया था। पूंजी के आत्म-विस्तार में उसकी स्वाभाविक क्रिया, अतिरिक्त मूल्य के निरंतर उत्पादन, के साथ सामरिक शक्ति के प्रयोग की बाहरी क्रिया के योग का परिणाम ही है कि दुनिया को इसने अब तक न जाने कितने भयानक युद्धों की सौगातें दी है !
इसके विपरीत, सबसे पहले सोवियत संघ के नेतृत्व में समाजवाद ने राष्ट्रों के वैश्विक विस्तार के एक नये, परस्पर सहयोग और सहकार के रास्तेे का संधान दिया था। लेकिन शीत युद्ध के दबावों से पैदा हुई विकृतियों के चलते वह खुद ही बिखर गया।

एक ध्रुवीय दुनिया में अपनी सामरिक शक्ति के बल पर विश्व पूंजीतंत्र ने बेइंतहा तेज गति पकड़ी और देखते ही देखते, अभी चैथाई सदी भी नहीं बीती है, उसकी सांसे उखड़ने लगी है। सच यह है कि साम्राज्यवादी वैश्वीकरण राष्ट्रों के आत्म-विस्तार की स्वाभाविक वैश्वीकरण की सचाई हो ही नहीं सकता था।

साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की तुलना में चीन का ओबोर प्रकल्प जाहिरा तौर पर वैश्विकता की पंचशील की एक नई प्रस्तावना के रूप में सामने आया है। तंत्र दर्शन के भारतीय सिद्धांतकारों ने स्वातंत्र्य की मूल और प्रधान शक्ति के आधार पर समस्त के विस्तार को अपरिहार्य मानते हुए इसे संपन्न करने में चित्, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया की जिन पांच शक्तियों की भूमिका का निरूपण किया था, पंचशील में उसी तर्ज पर विश्व बंधुत्व के पांच आधारभूत सिद्धांत बताये गये थे - (1) सभी देशों द्वारा अन्य देशों की क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना, (2) दूसरे देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना, (3) दूसरे देश पर आक्रमण न करना, (4) परस्पर सहयोग एवं लाभ को बढ़ावा देना, और (5) शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति का पालन करना।

चीन के ओबोर प्रकल्प में हमें तो स्वातंत्र्य-आधारित वैश्वीकरण के पंचशील की इन्हीं शक्तियों का प्रवाह दिखाई देता है।

भारत सरकार ने अपने कुछ खास कारणों से खुद को इस प्रकल्प से अलग रखा है। इसमें चीन के साथ भारत के कुछ ऐसे द्विपक्षीय कारण भी है, जिनका कोई तात्कालिक समाधान नहीं है। उनका दीर्घ कूटनीतिक संवादों के आधार पर ही कोई अंतिम समाधान पाया जा सकता है। उनकी वजह से भारत-चीन के बीच संपर्क के किसी भी दूसरे विषय को स्थगित नहीं रखा गया है।

इसके बावजूद जब मोदी सरकार ने ओबोर प्रकल्प के विरोध का रास्ता चुना है, तो सवाल इस सरकार के समग्र विश्व दृष्टिकोण पर खड़ा हो जाता है। यह सरकार अभी भी अमेरिका की मुखापेक्षी बनी हुई है। इसमें शामिल ताकतों का आदर्श इसराइल है। इसीलिये ट्रंप के उग्र राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद से भी शायद इसे उतना परहेज नहीं है। इस अर्थ में इसे ट्रंप-छाप वैश्वीकरण का अनुयायी कहना गलत नहीं होगा।

मोदी सरकार ने आज सभी पड़ौसी देशों के साथ संबंधों को जिस स्तर तक बिगाड़ के रखा है, उसके पीछे भी एक क्षेत्रीय प्रभुत्वशाली शक्ति बनने की इसकी वासना मुख्य रूप से काम कर रही है जो पंचशील के सिद्धांतों के विपरीत ट्रंपवाद से ज्यादा मेल खाती है। यदि इसके पास चीन के समान शक्ति होती तो वह सहयोग और सहकार के रास्ते पर बढ़ने के बजाय इसराइल की तरह आक्रमण और प्रभुत्व के रास्ते का चयन करती !

आज ओबोर प्रकल्प के साथ पश्चिमी दुनिया के भी जर्मनी और फ्रांस की तरह के बड़े देशों का जुड़ना जिस वैकल्पिक विश्व की संभावनाओं का संकेत दे रहा है, उससे भारत का इस प्रकार अलग रहना किसी भी मायने में उचित नहीं जान पड़ता। भारत सरकार की अपनी इस अन्तरबाधा से मुक्ति तभी संभव है जब वह पंचशील के अपने मूल भाव को जागृत करेगी। हम उससे इसी की कामना करते हैं।  

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