- अरुण माहेश्वरी
अल्लामा इकबाल की एक प्रसिद्ध शायरी है - ‘इबलीस की मजलिस-ए-शुरा’ ( शैतान के परामर्श-मंडल की बैठक)। इसमें शैतान को उसका एक सलाहकार (तीसरा मुशीर) प्रसंगवश कहता है -
‘‘रूह-ए-सुल्तानी राहे बाकी तो फिर क्या इज्राब
है मगर क्या उस यहूदी की शरारत का जवाब ?’’
(साम्राज्य का गौरव यदि बाकी रहा तो फिर डर किस बात का, लेकिन उस यहूदी की शरारत का क्या जवाब है?)
उस यहूदी का आगे और हुलिया बताता है कि -
‘‘वो कलीम बे-तजल्ली, वो मसीह बे-सलीब
नीस्त पैगंबर व लेकिन दर बगल दारद किताब’’
(वह प्रकाशहीन आप्त कथन, वह बिना सलीब का मसीहा, नहीं है पैगंबर वह पर उसकी बगल में उसकी किताब है)
इकबाल की शैतानों की मजलिस में जिस खुदा के बिना नूर के ही कलमा कहने वाले, बिना सलीब के मसीहा और पैगंबर न होने पर भी काख में एक किताब दबाए जिस यहूदी पर यहां चिंता जाहिर की जा रही थी, वह कोई और नहीं कार्ल मार्क्स था। वही मार्क्स, जिसकी प्रेरणा से कभी इकबाल ने ही लिखा था -
‘‘जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर नहीं रोजी
उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो’’
(जिस खेत से किसान को रोजी न मिलें, उस खेत के अनाज के हर दाने को जला दो।)
बहरहाल, आज तक सारी दुनिया के तमाम शैतानों की मजलिसों में इतनी ही गहरी चिंता और नफरत का विषय लेकिन अरबों मेहनतकशों के हृदय सम्राट कार्ल मार्क्स का जन्म पश्चिम जर्मनी के राइनलैंड में मुजेल नदी के मुहाने पर बसे त्रायर शहर में 5 मई 1818 के दिन हुआ था।
मार्क्स के जन्म के ठीक तीन साल पहले 5 मई 1815 के दिन वाटरलू की लड़ाई में फ्रांस के सम्राट उस नेपोलियन बोनापार्ट की पराजय हुई थी जिसने ईसा पूर्व की आठवीं सदी से चले आ रहे पवित्र रोमन साम्राज्य का सन् 1806 में अंत कर दिया था। कार्ल मार्क्स के दादा मायर हलेवी मार्क्स एक यहूदी धर्मगुरू थे। लेकिन मार्क्स के पिता हेनरिख मार्क्स ने धर्मगुरू का पेशा नहीं अपनाया और वे एक वकील बन गये। हेनरिख का वकील बनना तभी संभव हुआ था क्योंकि नेपोलियन के शासन के तहत जर्मनी की संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था में जो बड़ा परिवर्तन आया था। इसीलिये कहा जा सकता है कि मार्क्स के परिवार का फ्रांस में नेपोलियन के उद्भव के साथ एक सीधा संपर्क था।
वैसे तो त्रायर शहर 16 वीं सदी में ही बस गया था और जब वह रोमन प्रदेश गालिया बेलगिका की राजधानी था, तब इसकी आबादी 80 हजार तक पहुंच गई थी। लेकिन बाद के दिनों में घटते-घटते कार्ल मार्क्स के जन्म के वक्त इस प्राचीन शहर की आबादी बमुश्किल दस हजार रह गई थी।
मार्क्स की मां होलैंड के एक यहूदी मुद्रा कारोबारी की बेटी थी। 1814 में ही हेनरिख मार्क्स से उनकी शादी हुई थी। हेनरिख ने संभवतः कार्ल मार्क्स के जन्म के पहले ही यहूदी धर्म को त्याग कर ईसाई धर्म को अपना लिया था। हेनरिख की संततियां भी ईसाई ही बनी रही। लेकिन फिर भी, आज तक बहुत से लोग मार्क्स की धार्मिक पहचान को यहूदी धर्म से जोड़ते हैं, जैसा कि ऊपर अल्लामा इकबाल की शायरी में भी आया है। लेेकिन कार्ल मार्क्स को यहूदी बताने में कोई सचाई नहीं है।
इन सबके बावजूद, कोई यदि मार्क्स के जीवन को उनके जन्म के पहले की पृष्ठभूमि से जोड़ कर देखेगा तो उसमें तीन चीजों को बेझिझक शामिल किया जा सकता है - (1) फ्रांसीसी क्रांति, (2) रोमन साम्राज्य और (3) राइनलैंड के यहूदी।
क्रमशः
(1)
अल्लामा इकबाल की एक प्रसिद्ध शायरी है - ‘इबलीस की मजलिस-ए-शुरा’ ( शैतान के परामर्श-मंडल की बैठक)। इसमें शैतान को उसका एक सलाहकार (तीसरा मुशीर) प्रसंगवश कहता है -
‘‘रूह-ए-सुल्तानी राहे बाकी तो फिर क्या इज्राब
है मगर क्या उस यहूदी की शरारत का जवाब ?’’
(साम्राज्य का गौरव यदि बाकी रहा तो फिर डर किस बात का, लेकिन उस यहूदी की शरारत का क्या जवाब है?)
उस यहूदी का आगे और हुलिया बताता है कि -
‘‘वो कलीम बे-तजल्ली, वो मसीह बे-सलीब
नीस्त पैगंबर व लेकिन दर बगल दारद किताब’’
(वह प्रकाशहीन आप्त कथन, वह बिना सलीब का मसीहा, नहीं है पैगंबर वह पर उसकी बगल में उसकी किताब है)
इकबाल की शैतानों की मजलिस में जिस खुदा के बिना नूर के ही कलमा कहने वाले, बिना सलीब के मसीहा और पैगंबर न होने पर भी काख में एक किताब दबाए जिस यहूदी पर यहां चिंता जाहिर की जा रही थी, वह कोई और नहीं कार्ल मार्क्स था। वही मार्क्स, जिसकी प्रेरणा से कभी इकबाल ने ही लिखा था -
‘‘जिस खेत से दहकाँ को मयस्सर नहीं रोजी
उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो’’
(जिस खेत से किसान को रोजी न मिलें, उस खेत के अनाज के हर दाने को जला दो।)
बहरहाल, आज तक सारी दुनिया के तमाम शैतानों की मजलिसों में इतनी ही गहरी चिंता और नफरत का विषय लेकिन अरबों मेहनतकशों के हृदय सम्राट कार्ल मार्क्स का जन्म पश्चिम जर्मनी के राइनलैंड में मुजेल नदी के मुहाने पर बसे त्रायर शहर में 5 मई 1818 के दिन हुआ था।
मार्क्स के जन्म के ठीक तीन साल पहले 5 मई 1815 के दिन वाटरलू की लड़ाई में फ्रांस के सम्राट उस नेपोलियन बोनापार्ट की पराजय हुई थी जिसने ईसा पूर्व की आठवीं सदी से चले आ रहे पवित्र रोमन साम्राज्य का सन् 1806 में अंत कर दिया था। कार्ल मार्क्स के दादा मायर हलेवी मार्क्स एक यहूदी धर्मगुरू थे। लेकिन मार्क्स के पिता हेनरिख मार्क्स ने धर्मगुरू का पेशा नहीं अपनाया और वे एक वकील बन गये। हेनरिख का वकील बनना तभी संभव हुआ था क्योंकि नेपोलियन के शासन के तहत जर्मनी की संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था में जो बड़ा परिवर्तन आया था। इसीलिये कहा जा सकता है कि मार्क्स के परिवार का फ्रांस में नेपोलियन के उद्भव के साथ एक सीधा संपर्क था।
वैसे तो त्रायर शहर 16 वीं सदी में ही बस गया था और जब वह रोमन प्रदेश गालिया बेलगिका की राजधानी था, तब इसकी आबादी 80 हजार तक पहुंच गई थी। लेकिन बाद के दिनों में घटते-घटते कार्ल मार्क्स के जन्म के वक्त इस प्राचीन शहर की आबादी बमुश्किल दस हजार रह गई थी।
मार्क्स की मां होलैंड के एक यहूदी मुद्रा कारोबारी की बेटी थी। 1814 में ही हेनरिख मार्क्स से उनकी शादी हुई थी। हेनरिख ने संभवतः कार्ल मार्क्स के जन्म के पहले ही यहूदी धर्म को त्याग कर ईसाई धर्म को अपना लिया था। हेनरिख की संततियां भी ईसाई ही बनी रही। लेकिन फिर भी, आज तक बहुत से लोग मार्क्स की धार्मिक पहचान को यहूदी धर्म से जोड़ते हैं, जैसा कि ऊपर अल्लामा इकबाल की शायरी में भी आया है। लेेकिन कार्ल मार्क्स को यहूदी बताने में कोई सचाई नहीं है।
इन सबके बावजूद, कोई यदि मार्क्स के जीवन को उनके जन्म के पहले की पृष्ठभूमि से जोड़ कर देखेगा तो उसमें तीन चीजों को बेझिझक शामिल किया जा सकता है - (1) फ्रांसीसी क्रांति, (2) रोमन साम्राज्य और (3) राइनलैंड के यहूदी।
क्रमशः
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