मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

6 दिसम्बर की विश्वासघात की परंपरा

-अरुण माहेश्वरी


आज 6 दिसम्बर। यह दिन हर बार उस ‘90 के दशक के शुरूआती सालों की यादों को ताजा कर देता है, जब ‘जय श्री राम’ के नारो से ‘हेल हिटलर’ (Heil Hitler) की अनुगूंज सुनाई देती थी। विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) की धर्म-संसद भारत के संविधान को रद्दी की टोकरी में डाल कर धर्म-आधारित राज्य का एक नया संविधान तैयार करने के प्रस्ताव पारित कर रही थी। 24  साल पहले इसी दिन संघ परिवार की छल-कपट की राजनीति का एक चरम रूप सामने आया था और निकम्मी केंद्रीय कांग्रेस सरकार को धत्ता बताते हुए कार सेवक नामधारी भीड़ से बाबरी मस्जिद को उसी प्रकार गिरवा दिया गया, जिस प्रकार कभी जहरीले सांप्रदायिक प्रचार से उन्मादित नाथूराम गोडसे के जरिये महात्मा गांधी की हत्या करायी गयी थी।

6 दिसंबर 1992 की इस घटना के बाद ही आरएसएस के रहस्य को खोलने के उद्देश्य से हमने उसपर काम शुरू किया जो अंत में एक पुस्तक ‘आर एस एस और उसकी विचारधारा’ के रूप में सामने आया। आज उसी पुस्तक के पहले अध्याय के शुरूआती दो पृष्ठों को अपने मित्रों के साथ साझा कर रहा हूं :

छल-कपट की लम्बी परम्परा

छह दिसम्बर 1992 की घटना से सारा देश सन्न रह गया था। अनेक पढ़े-लिखे, सोचने-समझनेवाले लोग भी जैसे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे। आधुनिक भारत में एक संगठित भीड़ की बर्बरता का ऐसा डरावना अनुभव इसके पहले कभी नहीं हुआ था। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद का यह मुद्दा वैसे तो लम्बे अर्से से बना हुआ है। पिछले चार वर्षो से इस पर खासी उत्तेजना रही है। खासतौर पर विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल नामक संगठन इस पर लगातार अभियान चलाते रहे हैं। दूसरी ओर से बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी भी किसी-न-किसी रूप में लगी हुई थी। सर्वोपरि, भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपना सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बना रखा था तथा उसके सर्वोच्च नेता इन अभियानों में अपनी पूरी शक्ति के साथ उतरे हुए थे। उनके इन अभियानों से फैली उत्तेजना से देश भर में भयानक साम्प्रदायिक दंगे भी हुए जिनमें अब तक हजारों लोगों की जानें जा चुकी हैं। इसके पहले 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा सरकार के शासनकाल में भी कार सेवकों ने इस विवादित ढाँचे पर धावा बोला था। उस समय भी भारी उत्तेजना पैदा हुई थी जिसमें पुलिस को ढाँचे की रक्षाके लिए गोली चलानी पड़ी थी। ऐसे तमाम हिंसक अभियानों के बाद भी चूँकि वहाँ बाबरी मस्जिद सुरक्षित रही, इसीलिए भारत की जनता का बड़ा हिस्सा काफी कुछ आश्वस्त सा हो गया था। हर थोड़े समय के अन्तराल पर भाजपा के नए-नए अभियानों - कभी शिलापूजन, तो कभी पादुका पूजन आदि - से लोगों के चेहरों पर शिकन तो आती थी, लेकिन भारत में अवसरवादी राजनीति के अनेक भद्दे खेलों को देखने का अभ्यस्त हो चुके भारतीय जनमानस ने साम्प्रदायिक उत्तेजना के इन उभारों को भी वोट की छुद्र राजनीति का एक अभिन्न अंग समझकर इन्हें एक हद तक जैसे पचा लिया था। सपने में भी उसे यह यकीन नहीं हो रहा था कि यह प्रक्रिया पूरे भारतीय समाज के ऐसे चरम बर्बरीकरण का रूप ले लेगी। यही वजह रही कि छह दिसम्बर की घटनाओं से उसे भारी धक्का लगा। साम्प्रदायिक घृणा के प्रचार के लम्बे-लम्बे अभियानों का साक्षी होने के बावजूद एक बार के लिए पूरा राष्ट्र सकते में आ गया।

संत्रस्त राष्ट्र

सिर्फ केन्द्रीय सरकार ने ही बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने की उस घटना को चरम विश्वासघात नहीं कहा, देश के तमाम अखबारों, बुद्धिजीवियों, सभी गैर-भाजपा राजनीतिक पार्टियों और आम-फहम लोगों तक ने इसे देश के साथ किया गया एक अकल्पनीय धोखा बताया। अयोध्या में कार सेवक नामाधरी भीड़ ने एक विवादित ढाँचे को नहीं गिराया था, पूरे राष्ट्र को एक अन्तहीन गृहयुद्ध में धकेल देने का बिगुल बजाया था। राष्ट्र इस कल्पना से सिहर उठा था कि अब तो सार्वजनिक जीवन से हर प्रकार की मर्यादाओं के अन्त की घड़ी आ गई है। सिर्फ राजनीतिक, संवैाधनिक और धार्मिक ही नहीं, सभ्यता और संस्कृति की मर्यादाएँ भी रहेंगी या नहीं, पूरा समाज इस आशंका से संत्रस्त हो गया था। लोगों की नजरों के सामने प्राचीनतम सभ्यता वाले वैविध्यमय महानता के भारत का भावी चित्र एक-दूसरे के खून के प्यासे, बिखरे हुए अनगिनत बर्बर कबीलोंवाले भूखंड के रूप में कौंध गया था। यही वजह थी कि छह दिसम्बर के तत्काल बाद भारत के किसी अखबार ने साम्प्रदायिक उत्तेजना और बर्बरता को बढ़ावा देनेवाली वैसी भूमिका अदा नहीं की जैसी कि दैनिक अखबारों के एक हिस्से ने 30 अक्टूबर, 1990 की घटनाओं के वक्त अदा की थी जब बाबरी मस्जिद पर पहला हमला किया गया था।

आडवाणी का कपट

इसी क्रम में कई अखबारों ने अकेले अयोध्या प्रकरण के सन्दर्भ में भारतीय जनता पार्टी के अनगिनत परस्पर विरोधी बयानों की फेहरिस्त भी छापी। अंग्रेजी दैनिक ’’स्टेट्समैन’’ ने 11 दिसम्बर, 92 के अपने अंक में 1 दिसम्बर से 8 दिसम्बर 92 के बीच लाल कृष्ण आडवाणी के ऐसे परस्पर-विरोधी वक्तव्यों के उद्धरण प्रकाशित किए जो उन्होंने वाराणसी से मथुरा तक की अपनी यात्रा के दौरान और फिर मस्जिद को ढहा दिए जाने के उपरान्त दिए थे। आडवाणी की तरह के नेता हर नए दिन अपनी बातों को बदलकर एक प्रकार का दिग्भ्रम पैदा करने में कितने माहिर हैं, इसे ’’स्टेट्समैन’’ की इन उद्धृतियों से जाना जा सकता है :

’’वाराणसी, 1 दिसम्बर : ’’हम किसी मस्जिद को गिराकर मन्दिर बनाना नहीं चाहते। जन्मभूमि स्थल पर कोई मस्जिद थी ही नहीं। वहाँ राम की मूर्तियाँ है और हम वहाँ सिर्फ मन्दिर बनाना चाहते हैं...गलत आचरणों और नियम के खिलाफ जनतान्त्रिक प्रतिवाद हमारे देश की एक प्राचीन परम्परा है...कार सेवा का अर्थ भजन और कीर्तन नहीं होता। हम उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा अधिगृहीत 2.77 एकड़ भूमि पर बेलचों और इटों से कार सेवा करेंगे।’

आजमगढ़, 1 दिसम्बर : ’’हम शान्तिपूर्ण कार सेवा चाहते हैं लेकिन केन्द्र तनाव पैदा कर रहा है।’

मऊ, 2 दिसम्बर, : ’’छह दिसम्बर से कार सेवा शुरू होगी। सभी कार सेवक अयोध्या में 2.77 एकड़ पर कायिक श्रम करेंगे, सिर्फ भजन नहीं गाएँगे।’

गोरखपुर, 3 दिसम्बर, जहाँ उन्होंने इस खबर को गलत बताया जिसमें उनकी इस बात का उल्लेख किया गया था कि कारसेवा में बेलचों और इटों का इस्तेमाल किया जाएगा : ’’कार सेवक पूरी तरह से नियन्त्रण में रहेंगे। कारसेवा प्रतीकात्मक होगी। मैंने ऐसी (बेलचों और इटों के इस्तेमाल की तरह की) बात कभी नहीं कही। फिर भी गलत खबर के कारण सदन में हंगामा होने से लोक सभा का ओ दिन का कामकाज खराब हो गया।’

2 दिसम्बर को उत्तर प्रदेश में एक आम सभा में लोगों को कारसेवा के लिए अयोध्या पहुँचने का आान करते हुए वे कहते हैं : ’’कमर कसकर उतर पड़ो। इस बात की परवाह न करो कि कल्याण सिंह सरकार बनी रहती है या गिरा दी जाती है।’
नई दिल्ली, 7 दिसम्बर : ’’यह (मस्जिद को गिराना) दुर्भाग्यजनक था। मैंने और उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री ने इसे रोकने का भरसक प्रयत्न किया, लेकिन हुआ ऐसा कि हम अयोध्या पर जन भावनाओं की तीव्रता का अनुमान नहीं लगा पाए। हम चाहते थे कि मन्दिर वैाधानिक और कानूनी तरीकों से निर्मित हो।’

नई दिल्ली, 8 दिसम्बर : ’’आज जब एक पुराने ढाँचे को जो 50 वर्ष से ज्यादा काल से मस्जिद नहीं रह गया है, न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति तथा कार्यपालिका की मन्दबुद्धि और अदूरदर्शिता से क्रुद्ध लोगों ने गिरा दिया है तो उन्हें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति तथा राजनीतिक पार्टियाँ राष्ट्र के प्रति विश्वासघात, संविाधन का विध्वंस आदि क्या नहीं कह कर कोस रहे हैं। अयोध्या आन्दोलन के दौरान जाहिर हुए इस नग्न दोहरे मापदण्ड के चलते ही हिन्दुओं में क्रोध और अपमान की भावनाएँ आ रही हैं।’

आडवाणी के उपरोक्त सारे बयान कितने परस्पर विरोधी और कपटपूर्ण थे इसे कोई भी आसानी से देख सकता है। पिछले चार-पाँच वर्षों के दौरान अगर किसी ने भी आडवाणी की बातों पर ध्यान दिया होगा तो वह तत्काल इस निष्कर्ष तक पहुँच सकता है कि हवा के हर रुख के साथ गिरगिट की तरह फौरन रंग बदलने की कलाबाजी में आडवाणी सचमुच बेमिसाल हैं। इसके साथ ही यह भी सच है कि आडवाणी के इस गुण ने ही पिछले कुछ वर्षों में उन्हें संघी राजनीति के शीर्षतम स्थान पर पहुँचा दिया था।

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