बुधवार, 7 दिसंबर 2016

‘नोटबंदी’ के बाद शायद अब कोई काला धन के खिलाफ लड़ाई का नाम नहीं लेगा !


-अरुण माहेश्वरी

काला धन एक अर्से से भारत की राजनीति का एक सबसे ज्वलंत मुद्दा रहा है। अन्ना का आंदोलन, आप का उदय और तमाम राज्यों में लोकायुक्तों के गठन से लेकर केंद्र में भी लोकपाल के गठन पर चली लंबी चर्चा और स्विस बैंक में भारतीयों के खातों से जुड़ा विवाद - ये सब इसी की देन हैं। पिछले चुनाव के वक्त मोदी ने स्विस बैंक वाले मुद्दे को जोर-शोर से उठाया और यहां तक कह दिया था कि वहां से पाई-पाई लाकर हर गरीब के खाते में पंद्रह लाख रुपये जमा करायेंगे।

बहरहाल, वह बात तो अब जुमला हो गई है। सत्ता मिली और सारे संघी ललित मोदी और माल्या से लेकर व्यापमं की तरह के खेलों में रम गये। लेकिन लोगों के मन में काला धन का मुद्दा बना रहा। कपड़े बदलने और विदेशों में घूमने में ही मोदी के ढाई साल बीत गये। बुद्धिजीवियों और मुसलमानों को डराने-धमकाने की भी सीमा थी। निराश लोगों में बेचैनी बढ़ने लगी।

ऐन इसी समय, मोदी जी शेक्सपियर के हैमलेट की तरह एक नये अवतार में आए, यह कहते हुए कि
“The time is out of joint. O cursèd spite,/That ever I was born to set it right!”
(समय बिगड़ चुका है। ओ शापित ईर्ष्या,/मैं पैदा ही हुआ हूं इसे ठीक करने !)

बिगड़े समय को ठीक करने, आदमी की सबसे अधम वृत्ति, ईर्ष्या को जगाते हुए। ईर्ष्या और द्वेष का वह खेल जिसका प्रयोग हमेशा बुराई को स्थायी तौर पर बनाये रखने के लिये किया जाता है। यहां, पीछे के दरवाजे से काला धन की सेवा का खेल । लोगों को जीवन की आपाधापी में ऐसा लगा दो कि वे आपसी डाह में मूल विषय को ही भूल जाए। भारी आडंबर, जो काला धन वालों से सबसे घृणित गुपचुप समझौतों की आड़ बने । एक प्रकार से, यह काला धन के नाम पर जनता के जीवन में तबाही मचाने वाला एक ऐसा खेल है कि आगे से इस लड़ाई का नाम लेने पर भी लोगों की रूह कांपने लगेगी ।


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