-अरुण माहेश्वरी
‘नोटबंदी’ ने जनजीवन में एक अजीब से मुर्दानगी पैदा कर दी है। बैंकों के सामने कतारों में सौ से ज्यादा लोग मरे हैं, लेकिन पूरा देश जिस कातरता के साथ सारे माजरे को देख रहा है, लगता है सबके घरों में गमी आ गई है। कल-कारखाने बंद से हो रहे हैं, हाट-बाजार में हाहाकार है और खेतों में किसान पसीना बहा रहा है, लेकिन बिना किसी उम्मीद के। फसलों का दाम क्या मिलेगा, उसे पता नहीं।
विपक्ष संसद के दोनों सदनों में देश की इस दशा पर चीख रहा है। और, मोदी मुस्कुराते हुए कह रहे है - आओ बहस करो। जेटली गुर्राते हुए बहस की चुनौती दे रहे हैं। वे बहस से लोगों के दुखों का वारा-न्यारा करना चाहते हैं।
विपक्ष कहता है, बहस करेंगे, लेकिन कोरी बहस के लिये नहीं। जिस एक फैसले ने आम लोगों को भिखारी बना कर बैंकों के सामने कतार में मरने के लिये छोड़ रखा है, उस पर दोनों सदनों में मतदान भी होना चाहिए। लोग देखें कि उनकी इस महा-विपत्ति के समय कौन कहां खड़ा है। नीतीश कुमार और नवीन पटनायक की तरह के ‘नैतिकतावादियों’ की सचाई को भी जाने। एनडीए का सच भी सबके सामने आए। और, सारे भाजपाई एक साथ यह ऐलान करें कि इस मनुष्य-मारण यज्ञ के होताओं में वे सब शामिल हैं।
सब जानते हैं, मोदी भक्तों के पास कोई तर्क नहीं होता। इसीलिये उनसे बहस करने में कोई बहादुरी नहीं है। बहस के उनके इस पागलपन पर शेक्सपियर की बहुत प्रसिद्ध पंक्तियां है -
O madness of discourse,
That cause sets up with and against itself !
Bi-fold authority ! where reason can revolt
Without perdition, and loss assume all reason
Without revolt
(ओ विमर्श का पागलपन/ जो अपने पक्ष और विपक्ष दोनों से मेल कर लेता है!/दुधारी तलवार ! जहां तर्क विद्रोह कर सकता है/बिना किसी तबाही के, और बर्बादी पूरी तरह तार्किक हो सकती है/ बिना विद्रोह के। )
जरूरत है इनको होश में लाने की। लोगों की विपत्ति पर हंस रहे प्रधानमंत्री को सच का आईना दिखाने की। बहस को किसी अंजाम तक पहुंचाने की। नोटबंदी के पक्षधरों को शर्मसार करने की। संसद के बाहर ही आज इस विषय में जो विमर्श चल रहा है, वह यह बताने के लिये काफी है कि इस एक कदम ने भारत की अर्थ-व्यवस्था को पटरी से उतार देने वाले अन्तर्घात का काम किया है। आगे इसके राजनीतिक परिणाम देखे जायेंगे। संसद में चल रहा गतिरोध उसी का संकेत है। यह समय तेज-तर्रार भाषणों से कहीं ज्यादा तेज और एकजुट कार्रवाइयों का है। मोदी जी रोज जन-सभाओं में एकतरफा भाषणों से अपने प्रकार का बहस-बहस वाला खेल खेल ही रहे हैं।
‘नोटबंदी’ ने जनजीवन में एक अजीब से मुर्दानगी पैदा कर दी है। बैंकों के सामने कतारों में सौ से ज्यादा लोग मरे हैं, लेकिन पूरा देश जिस कातरता के साथ सारे माजरे को देख रहा है, लगता है सबके घरों में गमी आ गई है। कल-कारखाने बंद से हो रहे हैं, हाट-बाजार में हाहाकार है और खेतों में किसान पसीना बहा रहा है, लेकिन बिना किसी उम्मीद के। फसलों का दाम क्या मिलेगा, उसे पता नहीं।
विपक्ष संसद के दोनों सदनों में देश की इस दशा पर चीख रहा है। और, मोदी मुस्कुराते हुए कह रहे है - आओ बहस करो। जेटली गुर्राते हुए बहस की चुनौती दे रहे हैं। वे बहस से लोगों के दुखों का वारा-न्यारा करना चाहते हैं।
विपक्ष कहता है, बहस करेंगे, लेकिन कोरी बहस के लिये नहीं। जिस एक फैसले ने आम लोगों को भिखारी बना कर बैंकों के सामने कतार में मरने के लिये छोड़ रखा है, उस पर दोनों सदनों में मतदान भी होना चाहिए। लोग देखें कि उनकी इस महा-विपत्ति के समय कौन कहां खड़ा है। नीतीश कुमार और नवीन पटनायक की तरह के ‘नैतिकतावादियों’ की सचाई को भी जाने। एनडीए का सच भी सबके सामने आए। और, सारे भाजपाई एक साथ यह ऐलान करें कि इस मनुष्य-मारण यज्ञ के होताओं में वे सब शामिल हैं।
सब जानते हैं, मोदी भक्तों के पास कोई तर्क नहीं होता। इसीलिये उनसे बहस करने में कोई बहादुरी नहीं है। बहस के उनके इस पागलपन पर शेक्सपियर की बहुत प्रसिद्ध पंक्तियां है -
O madness of discourse,
That cause sets up with and against itself !
Bi-fold authority ! where reason can revolt
Without perdition, and loss assume all reason
Without revolt
(ओ विमर्श का पागलपन/ जो अपने पक्ष और विपक्ष दोनों से मेल कर लेता है!/दुधारी तलवार ! जहां तर्क विद्रोह कर सकता है/बिना किसी तबाही के, और बर्बादी पूरी तरह तार्किक हो सकती है/ बिना विद्रोह के। )
जरूरत है इनको होश में लाने की। लोगों की विपत्ति पर हंस रहे प्रधानमंत्री को सच का आईना दिखाने की। बहस को किसी अंजाम तक पहुंचाने की। नोटबंदी के पक्षधरों को शर्मसार करने की। संसद के बाहर ही आज इस विषय में जो विमर्श चल रहा है, वह यह बताने के लिये काफी है कि इस एक कदम ने भारत की अर्थ-व्यवस्था को पटरी से उतार देने वाले अन्तर्घात का काम किया है। आगे इसके राजनीतिक परिणाम देखे जायेंगे। संसद में चल रहा गतिरोध उसी का संकेत है। यह समय तेज-तर्रार भाषणों से कहीं ज्यादा तेज और एकजुट कार्रवाइयों का है। मोदी जी रोज जन-सभाओं में एकतरफा भाषणों से अपने प्रकार का बहस-बहस वाला खेल खेल ही रहे हैं।
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